2025-07-05 16:15:18
आस्था का अर्थ है- ‘बिना किसी आधार, साक्ष्य और ज्ञान के किसी भी परिघटना को मन से सत्य मानकर अपनी आतंरिक संरचना में उसे समाहित करना और उसका अनुसार आचरण करना।’ बहुजन समाज में ‘आस्था’ नाम की बीमारी अधिकता में मौजूद है। आस्था की बीमारी बहुजन समाज में अधिक क्यों? इसको समझने के लिए इतिहास को समझना होगा। भारतीय समाज चार वर्णो-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ये चारों वर्ण 6743 जातियों में विभाजित है, बहुजन वर्ग की सभी जातियां शूद्र है। जिसमें दो उपवर्ग हैं-अछूत और सछूत। अछूत उपवर्ग में सभी अछूत जातियां है और सछूत उपवर्ग में सभी अति पिछड़ी जातियां जैसे-नाई, बढ़ई, कुम्हार, लौहार, गडरिये, माली, तेली तथा इनके समकक्ष अन्य सभी जातियां है। इस उपवर्ग में कुछेक दबंग जातियां जैसे-जाट, गुर्जर, कुर्मी, पटेल, मराठा व अन्य समकक्ष जातियां भी है। जिनका आचरण दबंगाई और सामन्ती है, शायद उनका ऐसा आचरण उनके पास खेती की जमीन के मालिक होने के कारण है। ये सभी अछूत व सछूत जातियां कामगार है जिनके पास किसी न किसी प्रकार का तकनीकी ज्ञान विरासत में मिला है। आज भी है ये जमीन से संबंधित कार्यों के लिए जमीन से जुड़ी दबंग जातियों पर निर्भर है।
देवी-देवताओं व हिंदुत्व के भगवान: काँवड़ यात्रा सावन माह 22 जुलाई 2024 से ही शुरू हो चुकी है। भारत में पाखंडी ब्राह्मणपंथी लोग 33 करोड़ देवी-देवताओं और भगवानों का वास बताते हैं, देवी-देवताओं व तथाकथित भगवानों की इतनी बड़ी संख्या देश में तब से है जब देश की कुल आबादी 33 करोड़ भी नहीं थी। मुगल काल में जब अकबर का शासन था तो देश की कुल आबादी 16 करोड़ थी। यानी देवी-देवताओं की संख्या कुल जनसंख्या से दोगुनी थी; सम्राट अशोक के शासन काल में देश का क्षेत्रफल आज के भारत से तीन गुणा था और जनसंख्या 8 करोड़ थी तब भी ब्राह्मण द्वारा बनाए गए तथाकथित देवी-देवताओं व भगवानों की संख्या 33 करोड़ थी यानि एक व्यक्ति के पीछे चार से अधिक देवी-देवता व भगवान थे। मगर तब भी बहुजन समाज के अधिकतर अंधभक्त, तर्क व बुद्धिहीन लोग गरीब व दरिद्र थे।
अकल का अंधा, पिछड़ा समाज: अति पिछड़े समाज के अकल के अंधों दिमाग की बत्ती जलाओ और सोचो कि ये सभी देवी-देवता, भगवान यहाँ की जनता के लिए आज तक कुछ क्यों नहीं कर पाये? सभी प्रकार की देवियाँ, और भगवानों का वास यहाँ है, जैसे सरस्वती, लक्ष्मी तब भी सबसे ज्यादा अशिक्षित और गरीब (निर्धन) भारत में ही हैं। सोचों इनमें अधिकतर संख्या बहुजन समाज की ही क्यों है। बहुजन समाज को कभी यह क्यों नहीं लगा कि यह कोई सुनियोजित साजिश है क्या? सबसे पहले इस साजिश को महात्मा ज्योतिबा फुले जो माली समाज से थे। फुले ने इस काम का बीड़ा उठाने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी माता सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया, और शूद्र वर्ग के लिए स्कूलों की स्थापना की। ब्राह्मणी मानसिकता की बिडम्बना देखिए कि जब माता सावित्रीबाई फुले जी स्कूल के लिए जाती थी तो रास्ते में हिंदुत्व के गुलाम उन पर गोबर, कीचड़ व कंकर-पत्थर फेंकते थे, उनके कपड़े खराब हो जाते थे। इस अभद्र व्यवहार से उन्होंने ब्राह्मणी संस्कृति के सामने हार नहीं मानी और वे एक थैले में दूसरी साड़ी रखकर ले जाती थी ताकि रास्ते में गंदी हो जाने के बाद उसे स्कूल में जाकर बदला जा सके।
अज्ञानता मूर्खों में आस्था की जननी है: बहुजन वर्ग आर्यों (ब्राह्मण) से पराजित वर्ग है जिसको मुफ्त में सेवा देने के लिए शूद्र यहां पर बनाया गया था। स्थायी रूप से सतत गुलाम रखने के उद्देश्य से संपूर्ण शूद्र वर्ग के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग की महिलाओं को भी शिक्षा से वंचित रखा गया। शूद्र वर्ग की अछूत जातियों व अति पिछड़ी जातियों की शिक्षा पर कड़े प्रतिबंध थे। यहाँ तक कि अगर कोई शूद्र पढ़ने या पढ़ाने का कार्य करे तो उसके लिए मौत की सजा तय थी। इस प्रकार के अमानवीय व्यवहार के चलते कामगार व तकनीकी ज्ञान वाला समाज भयभीत और जड़ता में बदल गया। अपने तकनीकी ज्ञान में अशिक्षा के कारण सुधार व वैश्विक उत्कृष्टता और प्रतिस्पर्धा हासिल नहीं कर पाया। जिसके कारण भारत को तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में अप्रत्याशित नुकसान हुआ है।
शोध व तकनीकी ज्ञान का शत्रु मनुवाद: दुनिया में पुनर्जागरण काल के साथ शोध व तकनीकी ज्ञान में बेतहाशा वृद्धि हुई। यूरोप और अमेरिका आज उसी के आधार पर विश्व पटल पर अग्रणी है और यही ज्ञान उनके आर्थिक हालात को मजबूती दिये हुए है। भारत ने अपने बहुसंख्यक कामगार वर्ग को शूद्र की संज्ञा देकर उसकी उपेक्षा की और उसे समाज की मुख्यधारा से अलग रखा। लिहाजा यहाँ पर शोध आधारित तकनीकी ज्ञान जो यहाँ पहले से ही मौजूद था उसमें कोई उत्कृष्टता नहीं करने दी गयी। परिणामस्वरूप भारत भूमि से नोबल पुरस्कार विजेता जनसांख्यिकी के अनुरूप नहीं हो पाये। इसका मुख्य कारण यहाँ पर ब्राह्मणों द्वारा निर्मित जाति व्यवस्था और ब्राह्मण वर्ग की बनावटी व काल्पनिक सर्वोच्चता है। आज तकनीकी शोध के क्षेत्र में भारत सबसे निचले पायदान पर है जबकि यहाँ पर अपार संभावनाएं है परंतु ब्राह्मणवाद के चलते सब स्वत: ही ध्वस्त है। मनुवाद सभी मानवीय मूल्यों, संविधान व प्रजातंत्र का शत्रु है।
काँवड़वीर पैदा कर रहा बहुजन समाज : काँवड़ यात्रा पर जाना ज्ञान की कमी और मूर्खता का परिचायक है। बहुजन समाज (एससी+एसटी+ओबीसी) के नौजवान लड़के जिनमें अच्छी शिक्षा नहीं है। वे ऐसी ही अंध आस्था के शिकार है, यह आस्था देश के उन हिस्सों में अधिक पायी जाती है जहाँ शिक्षा और तार्किक ज्ञान की कमत्तरता है और देश का वह भू-भाग अपेक्षाकृत अधिक पिछड़ा है। काँवड़ यात्रा का चलन शूद्र वर्ग की अति पिछड़ी जातियों जैसे कुम्हार, गडरिये, लौहार, बढ़ई, नाई, माली, तेली आदि में अपेक्षाकृत अधिक है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने इन सबको संविधान में समान अधिकार देकर आदेशित किया था कि शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो। लेकिन ये उनके बताये मार्ग पर न चलकर मनुवादियों की बात मानकर मनुवादी संस्कृति को फायदा पहुँचाने के लिए काँवड़ के पाखंड में जुट गए हैं।
काँवड़ यात्रा से फायदा किसको? साफतौर पर काँवड़ यात्रा से फायदा वैश्यों और पुजारियों को है। वैश्य वर्ग द्वारा काँवड़ का किट जो 500 से 1000 रुपए में तैयार हो जाता है वह आराम से उसे 2500 से 3000 रुपए में बेचता है। सीधा 2000 रुपए एक किट पर बचत; आंकलन के अनुसार अगर पाँच लाख कांवड़ियाँ यात्रा पर जाये तो 15 दिन में एक अरब का व्यापार। वह इस व्यवसाय को फैलाने और बहुजनों को प्रेरित करने के लिए टी.वी. व अन्य मीडिया आदि पर विज्ञापन महीनों से चलाना शुरू करते है। अरबों की कमाई करके टैंट लगवाकर भीखमंगों, पिछड़ों के लिए लंगर लगाकर पुण्य कमाने का नाटक करते हैं। बहुजन समाज के दिमाग से पैदल लोग महीनों काम छोड़कर पैदल ही काँवड़ लेकर निकल पड़ते है। धन, समय और शरीर का नुकसान करते है। काँवड़ यात्रा के पश्चात 20 से 30 दिनों तक घर पर आराम करके थकान उतारते हैं। सोचों बहुजनों की अज्ञानता के कारण कितना नुकसान है?
काँवड़ यात्रा पर ब्राह्मण, बनिये नहीं जाते? काँवड़ यात्रा पर ब्राह्मण और वैश्य वर्ग कभी नहीं जाता। उन्हें पता है कि इस अन्ध श्रद्धा में फंसाकर उन्हें आर्थिक और शारीरिक नुकसान होगा। वे जानते है कि काँवड़ उठाने से ना तो भगवान मिलेंगे और ना ही कोई पुण्य मिलने वाला है। वे ये भी जानते है कि इस प्रपंच से सिर्फ और सिर्फ बहुजनों को बरगलाकर धन कमाना है तो फिर वे खुद काँवड़ क्यों उठाये। ब्राह्मण व बनियों का लक्ष्य सिर्फ धन कमाना और बहुजन समाज के अकल के अंधों को पाखंड में फँसाना है। वे अपने मिशन में सफल है, और बहुजन समाज पुरी तरह फेल।
संघी नेता काँवड़ जैसे रोग बढ़ा रहे: स्थानीय जनता इसे तथाकथित धार्मिक यात्रा समझ कर हरिद्वार से दिल्ली तक के पूरे 250 किमी. से अधिक के भाग पर टैंट, लंगर, स्वास्थ्य चिकित्सा शिविर आदि लगाकर पुण्य अर्जित करने के भाव से सेवा करते है। यह सुविधा समाज के धार्मिक गुंडों व अपराधियों को साल दर साल इस धार्मिक यात्राओं के लिए प्रेरित करने का माध्यम है। इस प्रकार की तथाकथित धार्मिक यात्राएं भिन्न-भिन्न नामों से पूरे देश के पिछड़े वर्ग की जातियों में है। इन यात्राओं के मूल में पिछड़े वर्ग की जनता में उपयुक्त शिक्षा का न होना है जिसके लिए सरकार और उनका नेतृत्व करने वाले उन्हीं के समाज के नेता मुख्य रूप से जिम्मेदार है। इस पिछड़े समाज को भगवान बुद्ध के संदेश ‘अपना दीपक स्वयं बनो’ को आत्मसात करना चाहिए। इन लोगों को अपनी विकास यात्रा पर खुद ही बढ़ना होगा, काल्पनिक देवी-देवता व भगवानों का समूल त्याग करना चाहिए। काँवड़ यात्रा के द्वारा बहुजन समाज के नौजवान युवकों को नशे में व अवैध धंधों में धकेला जाता है, ताकि वह बर्बाद हो जाये।
काँवड़ से आज तक एक चपरासी तक नहीं बना: यह सत्य है कि ऐसी काँवड़ व अन्य तथाकथित धार्मिक यात्राओं से मानव इतिहास में पिछड़े वर्ग की जातियों से आज तक एक चपरासी तक नहीं बन पाया है जबकि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 में पिछड़ों के लिए दिये गए प्रावधान से अनेकों व्यक्ति शिक्षा पाकर उच्च पदों पर सरकार में स्थापित हैं। शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करके देश के उन्नत नागरिक बन पा रहे हैं। मानवीय कासीराम जी ने 1990 के दशक में पिछड़े वर्ग के आरक्षण के लिए देशव्यापी आंदोलन छेड़ा था और नारा दिया था कि ‘मंडल कमीशन लागू करो वरना कुर्सी खाली करो’ आंदोलन के परिणामस्वरूप मंडल कमीशन लागू हुआ और पिछड़े वर्ग की 52 प्रतिशत आबादी के लिए हिंदुत्व के छलावे की मानसिकता के षड्यंत्र के तहत 27 प्रतिशत आरक्षण का मिला। परंतु उनका आरक्षण वास्तविक जमीन पर आज तक 10 प्रतिशत भी पूरा नहीं हो पाया है। पिछड़े वर्ग के युवाओं को अपने संवैधानिक अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए।
धर्मांधता भरी यात्राओं से असुविधा: भारत में धार्मिक यात्राओं को कई वर्षो से भाजपा व मनुवादियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है। जिसके कारण आम जनता को बहुत सारी कठिनाइयाँ पैदा हो रही है। लोगों को अपने गंतव्य स्थानों पर पहुँचना मुश्किल और महंगा हो रहा है। उदाहरण के तौर पर हरिद्वार से लेकर दिल्ली का रास्ता काँवडियों से अवरुद्ध है। इस रास्ते पर आने-जाने वाले सभी मार्ग परिवर्तित कर दिये गए हैं। अमूमन एक घंटे का सफर तीन-चार घंटे में पूरा हो रहा है और किराया भी अधिक खर्च हो रहा है। देखकर ऐसा लगता है कि मनुवादी सरकारें जनता से जुड़ी समस्याओं पर ध्यान न देकर पाखंड को बढ़ावा दे रही है। इसके बहुत सारे उदाहरण भाजपाई सरकारों के है जैसे योगी काँवडियों पर हेलीकॉपटर से फूलों की वर्षा करवा रहे हैं, रास्तों को साफ-सुथरा रखने व सुरक्षा के इंतजामों पर पूरा सरकारी ताम-झाम लगा दिया गया है। सड़क के किनारों पर काँवडियों के ठहरने, स्नान व शौच आदि के लिए भी प्रबंध किया गया है पूरे प्रदेश की शासन व्यवस्था काँवडियों की व्यवस्था में लगा दी गई है। जिस पर हजारों-करोडों से ज्यादा का खर्च आ सकता है और साथ ही यह भाजपाइयों द्वारा संविधान का खुला उल्लंघन है। देश की सक्षम अदालतों को इस तरह के संविधान विरोधी कृत्यों पर स्वत: संज्ञान लेकर इन्हें बंद कराना चाहिए।
वर्तमान की दिल्ली सरकार: वर्तमान समय में दिल्ली में संघी सरकार है। इससे पहले भी दिल्ली में संघी मानसिकता के केजरीवाल की सरकार थी। उसी ने दिल्ली में कांवड यात्रा के माध्यम से भ्रष्टाचार को बढ़ाया। वर्तमान में श्रीमती रेखा गुप्ता जी की संघी सरकार है उसने केजरीवाल से भी आगे निकलकर 1200 यूनिट बिजली फ्री, सफाई, सुरक्षा व खाने-पीने की सभी प्रकार की व्यवस्था सरकारी खर्चे पर कराने का ऐलान किया है। इससे पहले भी जब दिल्ली में संघी सरकार थी उसके मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना थे जिन्होंने इस कांवड़ यात्राओं में कैम्पों की शुरुआत की थी जिसे बाद की सभी सरकारें ढोह रही हैं। इससे ये साफ पता चलता है कि सभी प्रकार के अर्नगल मनुवादी षड्यंत्र सिर्फ और सिर्फ मनुवादी मानसिकता के लोगों द्वारा ही रोपित किये जाते हैं।
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