2024-09-27 14:07:46
6 दिसम्बर 1956 को बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के परिनिर्वाण होने के बाद देश की बहुजन (एससी/एसटी/ओबीसी/अल्पसंख्यक) जनता का सामाजिक और राजनीतिक रूप में मार्गदर्शन करने के लिए कोई कर्मठ और समग्र नेता नहीं था। बाबा साहेब के जाने के बाद करीब 10 वर्षों तक बुद्धप्रिय मौर्य जी ने मोर्चा संभाला और उत्तर भारत के हिस्सों में अम्बेडकरवाद की जमीन को उपजाऊ बनाने में अहम योगदान दिया। समाज में अम्बेडकरवादियों की फसल लहलाती हुई नजर आने लगी थी तभी संघी मनुवादियों के निशाने पर मौर्य जी आ गए थे और उन्होंने अपनी बहुरंगी षड्यंत्रकारी चाल से बुद्धप्रिय मौर्य जी को पथ भ्रष्ट किया और वे अपने अम्बेडकरवादी पथ से विचलित हो गए। बी.पी. मौर्य जी का पथ भ्रष्ट होने के पीछे महाराष्ट्र के तत्कालीन रिपब्लिकन पार्टी के नेता भी शामिल थे, जिनके कारण बहुजन समाज पूरी तरह से नेतृत्वहीन हो गया था। उसी समय मान्यवर साहेब कांशीराम जी जो पुणे की डीआरडीओ की लैब में वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत थे, वहाँ पर 14 अप्रैल की छुट्टी न होने को लेकर कर्मचारियों में रोष था जिसको लेकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी दीनाभाना जी 14 अप्रैल बाबा साहेब जयंती की छुट्टी के लिए आंदोलन कर रहे थे। तभी दीनाभाना जी की मुलाकात मान्यवर साहेब कांशीराम जी हुई और मान्यवर साहेब कांशीराम जी भी इस घटना से आहत थे। जिसके कारण उन्होंने सरकारी नौकरी से अपना त्याग पत्र दे दिया। मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने अपना आंदोलन शुरू करने से पहले महाराष्ट्र के रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं के साथ मिलकर काम करने का मन बनाया था। परंतु उस समय के रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं की मानसिकता स्वार्थी और अहंकारी थी। जिसको भांपकर कांशीराम जी ने उनके साथ काम करने की अपनी योजना को बदल दिया। इसके बाद उन्होंने बामसेफ नामक संगठन की स्थापना अपने सहयोगी रहे डी.के. खापर्डे और मान्यवर दीनाभाना जी के साथ मिलकर 1971 में की। जिसकी औपचारिक घोषणा उन्होंने दिल्ली में 6 दिसम्बर 1978 में की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने देश के दबे-पिछड़े, शोषित अल्पसंख्यक पढ़े-लिखे बहुजन समाज की सभी जातियों के लोगों को इकट्ठा करने का काम किया। इसके उपरांत उन्होंने ‘डीएस4’ नाम की संस्था की स्थापना 6 दिसम्बर 1981 को की। जिसके माध्यम से बहुजन समाज के व्यक्तियों को दिल्ली व देश के अन्य प्रदेशों में चुनाव भी लड़ाया। डीएस4 का प्रमुख नारा था ‘ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर छोड़, बाकी सब है डीएस4’। इसके उपरांत मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की । बहुजन समाज पार्टी के माध्यम से देश की विधान सभा और लोक सभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया। बहुजन समाज के लोगों में नेतागिरि की इच्छा रखने वाले लोगों को चुनाव लड़ाया और उन्हें कैडर कैंपों द्वारा प्रशिक्षित भी किया। मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने देश में पैदल और साइकिल से घूम-घूमकर लोगों को जोड़ा, उन्हे कैडर कैंप देकर प्रशिक्षित किया। इसी माध्यम से मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने अम्बेडकरवाद को भारत की जातिवादी सांप्रदायिक भूमि पर अपनी संघर्षमयी योग्यता से विकसित किया और मजबूत भी किया। मान्यवर साहेब कांशीराम जी के साथ देश के लाखों समर्पित, कर्मठ व शिक्षित कर्मचारी भी उनके आंदोलन से जुड़े और उन्हें आंदोलन के लिए आवश्यक संसाधन भी मुहैया कराये। बहुजन समाज के लाखों कर्मचारी नियमित रूप से अपनी आमदनी का कुछ हिस्सा स्वत: ही चंदे के रूप में उन्हें भेजते थे। जिसके परिणामस्वरूप देश में बहुजन समाज का राजनैतिक मंच ‘बीएसपी’ के नाम से निर्मित होकर मजबूत बना और देश के बुद्धिजीवी बहुजन समाज के लोगों की आस्था भी इसके प्रति बढ़ी।
बहन मायावती का बीएसपी में पदार्पण: बीएसपी के गठन के बाद मान्यवर साहेब कांशीराम जी एक ऐसे समर्पित व्यक्ति की तलाश में थे जो उनके मिशन के रास्ते पर चलकर उसे सअक्षर स्थापित करने में सक्रिय भूमिका निभा सके। बहन मायावती जी में पहले से ही राजनीतिक आकांक्षाए मौजूद थी और वे अक्सर अम्बेडकरवादी सामाजिक परिचचार्ओं में भाग भी लिया करती थीं। कई बार 14 अप्रैल के मौके पर जब माननीय बुद्धप्रिय मौर्य जी बाबा साहेब की जयंती पर अम्बेडकर भवन आते थे तो उस समय पर भी बहन मायवाती जी का भाषण अक्सर होता था। अगर हम ये कहें कि बहन मायावती जी शुरूआती दौर में मान्यवर मौर्य जी से प्रभावित थी तो गलत नहीं होगा। इसके उपरांत जब मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने बहन मायावती जी को सामाजिक परिचचार्ओं में बोलते हुए देखा और सुना तो शायद उन्हें लगा होगा कि उनके मिशन के लिए बहन जी एक उपयुक्त नेता सिद्ध हो सकती हैं। तो वे बहन जी से मिलने के लिए उनके निवास स्थान इन्द्रपुरी की झोपड़-पट्टी में गए और वहाँ पर उनके परिवार और बहन जी से मुलाकात करके बहन जी के पिताजी प्रभु दयाल जी से कहा कि मैं आपकी बेटी को एक दिन इस देश का सर्वमान्य बड़ा नेता बनाकर दिखाऊँगा, इन्हें नौकरी आदि के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। इसी मुलाकात के बाद बहन मायावती जी मान्यवर साहेब कांशीराम जी के साथ काम करने के लिए समर्पित हो गई थी। बहन मायावती जी के परिवार की आर्थिक हालत उस समय कमजोर थी, उनके पिताजी कृषि भवन में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे, परिवार बड़ा था, सबका पालन पोषण करना उनके लिए गंभीर चुनौती थी। मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने हालात को भांपकर बहन मायावती जी को अपने पारिवारिक घर को सुधारने के लिए जनता से मिले चंदे के पैसे में से 70,000 रुपए की धनराशि दे दी थी। जिसके कारण लाखों कर्मचारी जो मान्यवर साहेब कांशीराम जी को नियमित चंदा देते थे और मिशन के लिए अपना बौद्धिक और शारीरिक श्रम भी करते थे उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी थी और उन्होंने अपनी पीढ़ा मान्यवर साहेब कांशीराम जी के समक्ष वैचारिक विमर्श के माध्यम से भी रखी थी। जिसे देखकर मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने अपने साथ लगे सैंकड़ों बुद्धिजीवियों को अपने संगठन से बाहर निकाल दिया था। शायद मान्यवर साहेब कांशीराम जी का यह निर्णय समाजहित में नहीं था। उन्हें यहाँ पर भगवान बुद्ध के द्वारा अपनाए गए मार्ग संघीय प्रणाली को अपनाकर समाज के सभी बौद्धीक लोगों को समाहित करके संघ को ही सर्वोपरि रखना चाहिए था और बहन जी को इस संघीय प्रणाली का सर्वोपरि कार्यकारी बनाना था। समाज और नीति से जुड़े फैसले संघ द्वारा लिए जाने चाहिए थे और बहन जी को उसके अनुसार ही आचरण करना चाहिए था। इससे समाज को फायदा यह होता कि बहन जी की दूरदृष्टि का नेतृत्व काम आता और संघ से जुड़ी बौद्धिक क्षमता का भी समाज को लाभ मिलता। इसके बाद मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने 15 दिसम्बर 2001 को लखनऊ की एक सार्वजनिक रैली में बहन मायावती जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। 18 सितम्बर 2003 को बहन मायावती जी को बहुजन समाज पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की घोषणा भी कर दी थी।
मान्यवर साहेब कांशीराम जी का परिनिर्वाण: मान्यवर साहेब कांशीराम जी का परिनिर्वाण 9 अक्तूबर 2006 को दिल्ली में हुआ और अंतिम संस्कार दिल्ली के निगम बोध घाट पर लाखों की भीड़ के साथ सम्पन्न हुआ। इसके बाद बहन मायावती जी बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा सुप्रीमो बन गई। बहन मायवाती जी अपने राजनैतिक जीवन में उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रदेश की चार-चार बार मुख्यमंत्री रहीं। उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में जो कार्य किये वे सभी सम्राट अशोक के बाद देश के इतिहास और धरोहर में मील का पत्थर हैं। उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तर प्रदेश राज्य का सर्वांगीण विकास किया। उनके प्रशासनिक कार्यों की उनके विरोधी भी प्रसंशसा करते हैं। प्रदेश की सभी वर्गों की जनता बहन जी के काल को सबसे उत्तम मानती है और उनकी प्रशासनिक क्षमता का लोहा भी मानती है।
राजनैतिक पैमाने पर बहन जी का घटता कद व जनाधार: बहन जी एक कुशल राजनेता हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश व देश की जनता को कोई शक नहीं है। लेकिन बहन जी 2012 के बाद से देश की सामाजिक नब्ज और अपने समाज की भावना को समझने में कमतर साबित हो रही हैं। जिसका आंकलन गत वर्षों के लोकसभा चुनाव परिणामों को देखकर महसूस किया जा सकता है। 1989 में 245 सीटों पर बसपा चुनाव लड़ी और 4 सीटें जीतीं। इन 4 सीटों में एक पंजाब से थी और 3 यूपी से। 1991 में बसपा 231 सीटों पर चुनाव लड़ी, 3 जीती, 1 मध्य प्रदेश से, 1 पंजाब से, 1 यूपी से। 1996 में 210 सीटों पर बसपा चुनाव लड़ी और 11 सीटें जीती। 2 मध्य प्रदेश से, 3 पंजाब से और 6 यूपी से। मिले मतों का प्रतिशत 4.02 प्रतिशत था। 1998 में बसपा 251 सीटों पर चुनाव लड़ी, 5 सीटें जीती, 1 हरियाणा से, 4 यूपी से। मिला वोट प्रतिशत 4.64 प्रतिशत था। 1999 में बसपा 225 सीटों पर चुनाव लड़ी 14 जीती और वोट प्रतिशत 4.16 प्रतिशत रहा। ये सभी 14 सीटें यूपी से थी। 2004 में बसपा 435 सीटों पर चुनाव लड़ी और उनमें से 19 सीटें जीती। बसपा का मत प्रतिशत 5.33 प्रतिशत रहा। ये सभी 19 लोकसभा सीटें यूपी से जीती गई थी। 2009 में 500 सीटों पर चुनाव लड़ी, 21 सीटें जीती, वोट प्रतिशत 6.17 प्रतिशत रहा। जीती हुई सीटों में 1 मध्य प्रदेश से और 20 यूपी से थीं। 2014 में बसपा 503 सीटों पर चुनाव लड़ी, एक भी सीट नहीं जीती मिले वोटों का प्रतिशत 4.19 रहा। 2019 में 383 सीटों पर चुनाव लड़ी 10 सीटें जीती, मिले वोट प्रतिशत 3.67 रहे। ये सभी 10 सीटें यूपी से थी और इस चुनाव में बसपा और सपा का गठबंधन था। बसपा ने 10 सीटें जीती थी और सपा ने 5 सीटें जीती थी। 2024 में 543 सीटों पर बसपा चुनाव लड़ी, जिसमें उसे सभी सीटों पर हार का मुँह देखना पड़ा और उसका वोट प्रतिशत भी घटकर 2.07 प्रतिशत रह गया।
उपरोक्त आँकड़ों से पता चलता है कि 2007 के बाद से बसपा लगातार विधानसभा चुनावों में भी अपनी मजबूत स्थिति दर्ज नहीं करा पा रही है। हम उत्तर प्रदेश को ही देखे जहाँ बहन जी चार-चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी है और वहाँ पर बहुजन समाज की जनसांख्यिकी का गणित भी चुनाव जिताने योग्य है फिर भी उत्तर प्रदेश के 2022 के विधान चुनाव में 1 ही सीट जीतने में कामयाब रही और वह जीती हुई सीट भी बसपा की वजह से नहीं जीती गई थी वह तो सिर्फ वहाँ से जो उम्मीदवार चुनाव लड़ रहा था उसके द्वारा अतीत में किये गए सकारात्मक कार्यों का ही प्रतिफल था।
बहुजन समाज के लिए संभावित राजनैतिक समाधान: आज बहुजन समाज की राजनीति एक चौहराहे पर है। समाज के सभी साधारण और बौद्धिक वर्ग को यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि समाज की राजनीति में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के मिशन को समाहित करते हुए वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में कैसे सफलता पाई जाये और मनुवाद और ब्राह्मणवाद को इस भारत भूमि पर कैसे परास्त किया जाये। आज पूरा का पूरा बहुजन समाज पुरी तरह से दिग्भ्रमित है कुछेक राजनैतिक अति महत्वाकांक्षा रखने वाले लोग भिन्न-भिन्न राजनैतिक दलों में जाकर समाज को अम्बेडकरवादी पथ से भटकाने का काम कर रहे हैं। वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में बहन जी जो अपने वक्तव्य सोशल मीडिया आदि पर प्रकाशित कर रही है उन्हें देखकर समाज का बौद्धिक वर्ग दिग्भ्रमित हो रहा है, उन्हें अक्सर यह लगता है कि बहन जी अपने छिपे स्वार्थ के कारण मनुवादी-संघियों को फायदा पहुँचा रही हैं। 2024 के लोकसभा के चुनाव में बहन जी बहुजन समाज की मनोस्थिति को समझने और पढ़ने में पुरी तरह से नाकामयाब रही और चुनाव के दौरान उनके द्वारा लिए गए निर्णयों से समाज को साफतौर पर दिखा की बहन जी अपने निर्णयों से और पहले से ही घोषित उम्मीदवारों को चुनाव के ऐन मौके पर बदलकर सिर्फ संघी-मोदी सरकार को फायदा पहुँचा रही है। बहुजन समाज (एससी/ एसटी/ ओबीसी/ अल्पसंख्यक) के मतदाताओं ने 2024 के चुनाव से पहले ही यह तय कर लिया था कि मोदी-संघी सरकार को हारने के लिए हमें अपना मत देना है। चाहे सामने कोई भी व्यक्ति किसी भी अन्य पार्टी का हो। बहन जी यह सब समाज की नब्ज जानने, पहचान ने में पुरी तरह से विफल रही वे पूरे चुनाव के दौरान ‘ऐकला चलो’ की नीति पर ही अड़ी रहीं और अंत में उनके इस अड़ियल रुख ने मोदी-संघी सरकार को 240 लोकसभा सीटें जीतने में मदद की जिसकी वजह से मोदी ने समर्थन के सहारे देश में फिर से सरकार बनाई। देश का पूरा बहुजन समाज बहन जी से यह अपेक्षा कर रहा था कि वह मोदी-संघी सरकार को हारने के लिए किसी भी गठबंधन में जाएँ और मोदी-संघी सरकार को देश की सत्ता से बाहर करें। लेकिन बहन जी की राजनैतिक चाल समाज के इच्छा के विरुद्ध ही रही। बहन जी यह समझने में नाकामयाब हो रही है कि राजनीति पैत्ररेबाजी का खेल है, राजनीति में कोई भी दल या व्यक्ति ना स्थायी रूप से दोस्त है और न स्थायी रूप से दुश्मन है। अगर हमें अपने समाज के हित में अपने वैचारिक दुश्मनों का भी साथ लेना पड़े तो समाज के हित में उसे लेना अपराध नहीं है। बहन जी 2024 का राजनैतिक मौका चूक गर्इं। उनकी इस विफलता ने बहुजन समाज की राजनीति को आज चौहराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। समाज अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है।
वर्तमान समय में बसपा या बहुजन समाज के अन्य राजनैतिक विकल्प संघीय प्रणाली को आत्मसात करके अपनाएँ और समाज के बौद्धिक वर्ग को बहुजन समाज के राजनैतिक संघ में शामिल करें उनसे विचार-विमर्श करके ही फैसले करें और उनका फैसला ही सर्वमान्य और सर्वोपरि होना चाहिए। अगर उनका फैसला किसी व्यक्ति विशेष को उसके वर्तमान पद से हटाने का हो तो समाज हित में उसको भी मानना चाहिए। हम यहाँ पर भाजपा के संघियों का उदाहरण ले सकते हैं उन्होने 2014 के लोकसभा चुनाव में उतरने के लिए अपने सबसे वरिष्ठ लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया और उन्होंने अपने आंकलन में पाया कि देश में संघी मानसिकता को सअक्षर भारत की जमीन पर उतारने के लिए ‘मोदी ही सबसे उपयुक्त व्यक्ति है’ तो उन्होंने नरेंद्र दामोदर दास मोदी को प्रधानमंत्री पद का दाबेदार मनाया, और उन्होने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी को दरकिनार कर दिया और उन्होंने संघियों के इस फैसले पर चूँ तक नहीं किया। चूंकि उनका यह फैसला उनके मनुवादी मिशन के लिए उत्तम था इसलिए सभी ने समर्पण भाव से इसे अपनाया।
आज बहुजन समाज ऐसे ही समर्पित लोगों को अपना नेता बनाने की अपेक्षा करता है इसलिए अच्छे, शिक्षित, चारित्रिक, अम्बेडकरवादी लोग ही बहुजन समाज की राजनीति में आकर नेतृत्व संभालने का प्रयास करें।
बीएसपी के अंधभक्तों, ये प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज न होना, वास्तविकता के सामाजिक धरातल को समझो और बहुजन समाज की राजनीति को मजबूत करो। व्यक्ति नहीं, संस्था मजबूत और सशक्त होनी चाहिए। यही हम सबका लक्ष्य होना चाहिए।
(लेखक 1978 से कांशीराम जी के साथ मिलकर उनकी साईकिल रैलियों तथा सामाजिक विचार विमर्शों में भाग लेते रहे हैं।)
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