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हिंदुत्व की विकृत सोच से देश की शोध संस्कृति हो रही प्रभावित

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2024-09-07 09:32:20

वैश्विक दुनिया में कोई भी देश बिना वैज्ञानिक सोच और निरंतर शोध के प्रतिस्पर्धात्मक तरक्की नहीं कर सकता। हम यहाँ दो प्रकार के ज्ञान को देखकर भारत की अन्य वैश्विक देशों के साथ तुलनात्मक ज्ञान उत्पादकता की बात कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर जो ज्ञान उत्पन्न हो रहा है वह आमतौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है पहला है मौलिक शोध आधारित शोध पत्रों की उत्पादकता और दूसरा है तकनीकी ज्ञान आधारित पैटेंटस उत्पादकता। देश में जब शोध आधारित ज्ञान की उत्पादकता और पैटेंट आधारित तकनीकी ज्ञान की उत्पादकता में स्पर्धात्मक वृद्धि होगी तभी देश अपने विकास के सभी आयामों पर आगे बढ़कर खुशहाल बनेगा। भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ तब देश में केवल 500 कॉलेज और सिर्फ 21 विश्वविद्यालय थे जो 75 वर्षों के सफर के बाद बढ़कर 40 हजार से अधिक कॉलेज और 900 से अधिक विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षण संस्थान बने हैं। इस दौरान देश में साक्षरता दर भी बढ़ी है। आजाद होने के बाद और उससे कुछेक वर्ष पहले देश में वैज्ञानिक संस्थानों व परिषदों की भी नींव रखी गई थी जो अपना कार्य कर रहे हैं। वैज्ञानिक परिषदों ने देश में विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों को स्थापित किया है, जो अपने विषय क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने का कार्य कर रहे हैं। 1995 तक भारत के शोध पत्रों की संख्या विश्व के मुकाबले 3.5 प्रतिशत थी, चीन द्वारा प्रकाशित शोध पत्रों की संख्या भी 3.2 के लगभग थी। अमेरिका के शोध पत्रों की संख्या विश्व के मुकाबले 27-28 प्रतिशत थी, यूरोप से प्रकाशित होने वाले शोध पत्रों की संख्या 20-21 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2022-23 तक आकर निम्न प्रकार से देखी जा सकती है। यूरोप के शोध पत्रों की संख्या तेजी से घटी है जो अब 14-15 प्रतिशत के आसपास पहुँच गई है। चीन के शोध पत्रों की संख्या इस दौरान बढ़ी है जो वर्ष 1995 के मुकाबले 3.2 से बढ़कर करीब 15-16 प्रतिशत हो गई है और भारत उसी स्थान पर है। चीन के शोध पत्रों की उत्पादकता वैश्विक स्तर पर अमेरिका को टक्कर दे रही है जो अमेरिका के लिए एक चुनौती बनी हुई है। यूरोप के शोध पत्रों की संख्या वैश्विक संख्या के मुकाबले घटती दिख रही है उसका अधिकांश भाग चीन खाता दिख रहा है। चीन की शोध उत्पादकता का कुछेक भाग अमेरिका भी खा रहा है। जिसके परिणामस्वरूप चीन आज वैश्विक स्तर पर विश्व का उत्पादक केंद्र बनता दिखाई दे रहा है, इसी बल पर चीन विनिर्माण का वैश्विक नेता बना हुआ है। चीन के समाज का समृद्धि स्तर भी बढ़ रहा है। भारत अगर देश में समृद्धि लाना चाहता है तो उसे भी देश में शोध और तकनीकी ज्ञान को बढ़ावा देने के कार्यक्रम चलाने होंगे। मगर वर्तमान सरकार के द्वारा शोध और तकनीक के क्षेत्रों में कोई काम नहीं किया जा रहा है। वह तो सिर्फ पाखंड-जैसे गौमूत्र पर शोध, गोबर पर शोध, गाय पर शोध व अन्य ऐसे ही पाखड़ आधारित क्रत्रिम विषयों को शोध के नाम पर अपने मित्रों के संस्थानों को धन आबंटित कराया जा रहा है। जो देश की सम्पदा का खुला दूरुप्रयोग है और ऐसे पाखंडी शोध क्षेत्रों से देश का कोई भला नहीं होने वाला है। और न देश की समृद्धि में कोई बढ़ोत्तरी होने वाली है। हिंदुत्ववादी मानसिक सोच के संघी लोग ऐसे ही पाखंड आधारित परियोजनाओं के नाम पर सरकारी शिक्षण संस्थानों से धन आबंटन करा रहे हैं और उसके दुरुप्रयोग के अलावा उसका देश हित में कोई इस्तेमाल नहीं हो रहा है।

हिंदुत्ववादी सोच का फोकस कभी भी मनुष्य उपयोगी अनुसंधान पर नहीं रहा है उनकी सोच में पाखंड के अलावा देश की भलाई के लिए कुछ भी नहीं है। उन्होंने देश के शैक्षिक और शोध संस्थानों में पाखंडी सोच के कथित शोध कत्तार्ओं को स्थापित कर दिया है जो सरकार से पाखंडी परियोजनाओं के नाम पर धन आबंटित कराते हैं और फर्जी शोध का प्रचार-प्रसार भी करते हैं। इन कथित संघी शोध कतार्ओं की सोच में मौलिकता और मानवता के लिए कोई जगह नहीं है। इन्होंने नकली शोध परियोजनाओं के सहारे वैज्ञानिक संस्थानों से धन बटोरना है ये अपनी कथित शोध परियोजनाओं का नाम भी अपने चरित्र के मुताबिक शब्दों की बाजीगरी से ही तय करते हैं। जिसका हालिया उदाहरण है विज्ञानधारा को मंजूरी देना इस कथित योजना के तहत सरकार प्रचारित कर रही है कि इससे देश में शोध और विकास पर गहरा असर पड़ेगा। 15वें वित्त आयोग में योजना के लिए 10579.84 करोड़ रुपए का आबंटन रखा गया है। विज्ञानधारा में तीन मुख्य बातों पर ध्यान केंद्रित है-विज्ञान और तकनीक में संस्थान और लोगों की क्षमता को बढ़ाना, शोध और विकास (आरएनडी) और नई तकनीक का विकास और उसे लागू करना है। इस योजना का मकसद देश में विज्ञान, तकनीक और नवाचार के क्षेत्र को मजबूत तथा बेहतर करना है। इसके लिए शैक्षणिक संस्थानों में उन्नत किस्म के प्रयोगशाला बनाने, प्रमुख रिसर्च क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने और फुल टाइम रिसर्च करने वाले लोगों का लक्ष्य बढ़ाना है। संघियों की मानसिकता हमेशा से ऐसी रही है कि जनता के सामने अच्छे शब्द और अच्छी बातें परोसो और काम उसके उलट करो। इसी वजह से आज देश के प्रत्येक शोध व तकनीकी संस्थानों में 70-80 के दशक से लेकर संघियों को जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से घुसाया गया है उसी के कारण देश का शोध और तकनीकी क्षेत्र ध्वस्त हो चुका है। मैरिट के नाम पर देश को धोखा दिया जा रहा है।

शोध और तकनीकी योजनाओं में किसकी भागीदारी? भारत के शोध और तकनीकी क्षेत्र में परम्परागत तौर पर संघी मानसिकता और ब्राह्मणी संस्कृति के लोगों की बहुलता रही है जिसके कारण वैश्विक स्तर पर जनसंख्या के हिसाब से अधिसंख्यक होने के बावजूद भी वैश्विक स्तर के ज्ञान प्रतिस्पर्धा में कहीं भी खड़े होने की हैसियत में नहीं है। भारत के शैक्षणिक व शोध संस्थानों में शिक्षक और शोध छात्रों की संख्या आजादी के बाद से अभी तक पिछड़े, दलित और अति पिछड़ी जातियों के लोगों की संख्या अपेक्षाकृत नगण्य ही है जिसका तात्पर्य है कि पिछड़े समाजों की कम भागीदारी ने देश की शोध क्षमता पर अपना गहरा प्रभाव नहीं डाल सकीं। गहरा प्रभाव वे समुदाय ही डाल सकते हैं जो शैक्षणिक व शोध संस्थानों में अपनी जनसांख्यिकी के आधार पर अधिसंख्यक है और जिन्हें परोक्ष रूप में सरकारी सहयोग भी प्राप्त है। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि देश में शिक्षण व शोध संस्थानों की उत्पादकता पर यहाँ के पिछड़े, दलित, अत्यंत पिछड़ी जातियों का प्रभाव अपेक्षाकृत नगण्य है। देश के शोध व शिक्षण संस्थाओं की बबार्दी के लिए जिम्मेदार लोग संघी व ब्राह्मणी संस्कृति के कथित शोधकर्त्ता ही हैं। समय की जरूरत रही है कि जब देश के शैक्षणिक व शोध संस्थानों में ब्राह्मणी संघी शोधार्थियों का वर्चस्व है तो देश में शोध संस्कृति को बर्बाद करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की बनती है। आज देशवासियों को सरकार से पूछना चाहिए कि इस देश के शोधार्थियों के द्वारा देश और लोगों की सुविधा के लिए कौन से महत्वपूर्ण उत्पाद पैदा किये गए हैं, जो आज देश की जनता के काम आ रहे हैं?

शिक्षा और शोध में भारत का निवेश नगण्य क्यों: देश को वैश्विक स्तर की स्पर्धा में खड़े होने के लिए तुलनात्मक निवेश भी आवश्यकता है। जिस पर ब्राह्मणी संस्कृति की संघी सरकार का कोई ध्यान ही नहीं है। आविष्कारों के बूते पर ही देश में खुशहाली और समृद्धि लाई जा सकती है। इसी के बल पर देश में उत्पादकता की स्पर्धा बढ़ सकती है। शोध व तकनीकी विकास पर ध्यान देने वाले देशों की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ी है। भारत पिछले 20 वर्षों से जीडीपी का सिर्फ 0.7 प्रतिशत ही अपने शोध और विकास पर खर्च कर रहा है। दूसरे देश-जैसे इजराइल अपने जीडीपी का 4.93 प्रतिशत, दक्षिण कोरिया 4.64 प्रतिशत, जापान 3.26 प्रतिशत और जर्मनी 3.09 प्रतिशत आरएनडी पर खर्च करते हैं। चीन भी अपनी जीडीपी का 2.41 प्रतिशत आरएनडी पर खर्च करता है और उसकी योजना हर साल इस खर्च को 7 प्रतिशत बढ़ाने की हैं। अमेरिका अपने आरएनडी प्रोग्राम पर 3.47 प्रतिशत खर्च करता है। इन आँकड़ों को देखकर लगता है कि भारत वैश्विक स्तर की शोध व तकनीकी प्रतिस्पर्धा में कहीं भी खड़े होने लायक नहीं है। भारत तो सिर्फ संघी सरकारों के झूठ, प्रपंच और नाटक को ही प्रसारित करने में सर्वोपरि बना हुआ है।

हिंदुत्व की वैचारिकी शोध विरोधी: मनुष्य का स्वरूप जो आज दिख रहा है वह उसके सतत: विकास प्रक्रिया के द्वारा ही संभव हुआ है। विज्ञान यह भी मानता है कि सृष्टि का निर्माण नहीं बल्कि विकास हुआ है और इस सृष्टि पर जो मानव जगत है वह अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को चलाने के लिए जरूरी आवश्यकताओं को सुगम तरीके से प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के साधन व तकनीकों का विकास करता है। इसलिए आम जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’ यह बिल्कुल सही है और मनुष्य अपने जीवन को दिन-प्रतिदिन बेहतर बनाने की चेष्टा में कुछ न कुछ आविष्कारक कार्य करता है। इसलिए आज जो दुनिया में शोध और तकनीकी ज्ञान उपलब्ध है उसका कारण है कि मनुष्य ने समय-समय पर अपनी आवश्यकता के अनुसार चीजों के बनाया है, नई-नई तकनीकों की खोज की हैं। परंतु हिंदुत्व की वैचारिकी इसके उलट है, हिंदुत्ववादी धर्म दर्शन की अवधारणा है कि सृष्टि की भगवान ब्रह्मा ने रचना की है और जो भी कुछ इस सृष्टि पर उपलब्ध है उसका निर्माण भी ब्रह्मा ने ही किया है। हिंदुत्व का यह भी दर्शन है कि मनुष्य जो भी अपना कर्म करके पाता है वह भी भगवान की ही देन है। हिंदुत्व की वैचारिकी का आधार वैज्ञानिक नहीं बल्कि काल्पनिक तथा पाखंड पर आधारित है। हर रोज हिंदुत्व की वैचारिकी के प्रचारक देश की भोली-भाली जनता को अपने प्रपंचों और छलावों में फंसाकर भगवान की शरण में जाने की शिक्षा देते हैं। उनकी आम धारणा है कि पृथ्वी पर भगवान की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता यानि कि पृथ्वी पर जो कुछ भी घटित हो रहा है वह भगवान की मर्जी से ही हो रहा है। यहाँ पर जो भी जघन्य अपराध, कुरीतियाँ हैं वे भी भगवान की मर्जी से ही हैं और चल रही हैं। इसका मतलब यह हुआ कि मनुष्य हर बुरे काम से मुक्त है वह जो भी कर रहा है भगवान की मर्जी से कर रहा है। हिंदुत्व का यह अवैज्ञानिक दर्शन किसी भी तरक्की पसंद समाज के लिए उपयुक्त नहीं है इसलिए तरक्की पसंद और सभ्य समाज को इस तरह की वैचारिकी व अवधारणों से बचना चाहिए चूंकि हिंदुत्व की वैचारिकी और दर्शन आविष्कार विरोधी है। जबकि दुनिया में जो भी समाज सम्पन्न और अग्रणीय है वे सभी अपने वैज्ञानिक और तकनीकी शोध के आधार पर ही बने हैं।

निजीकरण पर जोर, शोध व तकनीकी खर्च नगण्य: भारत में आरएनडी पर कुल खर्च का सिर्फ 36.4 प्रतिशत हिस्सा ही निजी क्षेत्र से आता है। जबकि चीन में यह 77 प्रतिशत और अमेरिका में यह 75 प्रतिशत है। नवाचार में निजी निवेश की कमी के कारण आटिफिशियल इंटेलीजेन्स, बायोटेक्नोलॉजी और पर्यावरण विज्ञान जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर स्पर्धा करने की भारत की क्षमता बाधित होकर सीमित हो रही है। जिसपर सरकार के नीति निर्धारक कर्ताओं और संस्थानों में स्थापित किये गए संघी कथित विद्वानों का कोई ध्यान नहीं है।

यूएस का मॉडल: अमेरिका जैसे देशों में ट्रिपिल हैलिक्स मॉडल है जिसका अर्थ है- शिक्षा, उद्योग और सरकार के बीच सहयोग का महत्व है। यह मॉडल अमेरिका में स्टार्टअप्स बनाने और आरएनडी प्रोजेक्ट पर विश्वविद्यालयों को उद्योगों के साथ मिलकर काम करने में मददगार होता है। भारत में यह सब नदारद है, यहाँ की पॉलिसी देश की जरूरत के हिसाब से नहीं बनाई जा रही है।

भारत में तालमेल की कमी: भारत में विश्वविद्यालयों व शोध संस्थान आमतौर पर अलग-अलग होकर काम करते हैं निजी सेक्टर के साथ उनकी साझेदारी नगण्य ही रहती है। भारत के करीब 99 प्रतिशत उच्च शैक्षणिक संस्थान किसी भी तरह की रिसर्च नहीं करते। जबकि विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों का मुख्य लक्ष्य सीखना, सिखाना और शोध करना ही होता है। इस तरह की सोच के पीछे का धरातल हिंदुत्ववादी विकृत सोच ही है। चूंकि हिंदुतवादी सोच के अधिकांश लोगों में अपने शोध के परिणाम को छुपाकर रखने की प्रवृति हैं किसी के साथ भी उसे साझा नहीं करना चाहते। यह उनकी मानसिक विकृति में समाहित है।

भारत की शोध व्यवस्था में गंभीर सुधार की जरूरत: अमेरिका और चीन की तरह सफलता हासिल करने के लिए भारत को कुछ महत्वपूर्ण सुधार करने होंगे। जिनमें प्रमुख है टेक्नोलॉजी ट्रास्फार आॅफिस बनाकर शैक्षणिक संस्थानों को मजबूत करना, बेहतर टैक्स नीतियों के जरिए अप्लाइड शोध को बढ़ावा देना, उद्योग और शैक्षणिक नेटवर्क को बढ़ावा देना, साथ ही भारत को अपने आरएनडी निवेश को अपने जीडीपी कम से कम एक प्रतिशत तक बढ़ाना। ऐसा करने से देश में शोध व नवाचार के लिए माहौल बन सकेगा और देश हिंदुत्ववादी सोच के अंधकार से निकालकर वैश्विक शोध में प्रतिस्पर्धा कर सकेगा।

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01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

2024-01-13 11:08:05