2025-10-18 16:58:10
संवाददाता
नई दिल्ली। बिहार विधान सभा चुनाव-2025 ‘इंडिया गठबंधन’ और ‘एनडीए गठबंधन’ के लिए अति महत्वपूर्ण है। इन चुनावी नतीजों से देश की राजनीति और भाजपा का भविष्य तय होगा। देश के प्रमुख दोनों धड़े एनडीए और इंडिया गठबंधन में टिकट वितरण को लेकर नाराजगी दिखी है। अब बिहार में 20 साल पहले वाली जनता नहीं है, बीस साल के दौरान जिन बच्चों ने जन्म लिया होगा वे भी अब वोटर बन चुके हैं। पिछले 20 वर्षों से बिहार में नीतीश कुमार की सरकार है। सभी मतदाताओं को सोचना होगा कि नीतीश कुमार ने भाजपा-संघियों की गुलामी करके प्रदेश की जनता को कितना लाभ पहुंचाया है? क्या नीतीश के शासन में बिहार की जनता को सामाजिक न्याय मिला है, बेरोजगारी घटी है, शिक्षा के संसाधनों में बढ़ोत्तरी हुई है, आम जनता के लिए सड़के, यातायात और अन्य सुविधाएं बढ़ी है, क्या बिहार की जनता का पलायन घटा है? क्या बिहार की अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अल्पसंख्यकों के ऊपर अत्याचार कम हुए हैं? इन सभी मुद्दों को ध्यान में रखकर जनता को वोट देना चाहिए। 20 वर्षों का लंबा शासनकाल किसी भी शासनकर्ता के लिए कम नहीं होता, अगर नीतीश कुमार और उसके संघी साथी मोदी-शाह बिहार की जनता को समृद्ध बनाने के लिए वहाँ पर रोजगार और शिक्षा के केंद्र मजबूत करते, राज्य के सभी शिक्षण संस्थाओं और संपदा में न्यायपरक सभी को भागीदारी देते और उसे समृद्ध बनाने के लिए योजनाओं का निर्माण करते तो बिहार की जनता को आज सड़क पर उतरने की जरूरत नहीं होती। बिहार में खनिज संपदा अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक है। उसी के लिए मोदी नीतीश कुमार का नाम लेकर बिहार में संघी मानसिकता के लोगों को घुसना चाहते हैं ताकि वे बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की खनिज पदार्थों से सम्पन्न भूमि पर कब्जा कर सकें।
भाजपा का जातीय गणित
28 ओबीसी, 21 राजपूत, 16 भूमिहार , 13 वैश्य , 12 दलित , 12 अति पिछड़ा , 11 ब्राह्मण , 7 कुशवाहा , 6 यादव , 2 कुर्मी , 1 कायस्थ, 0 मुस्लिम।
बिहार कब्जाने की संघी-भाजपाईयों की रणनीति: बिहार का यह पहला चुनाव होगा, जब लगातार बीस वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद भी बीजेपी और जेडीयू दोनों ही अब तक की सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। जेडीयू ने 2005 में 138 सीटों पर, 2010 में 141 सीटों पर, 2015 में 101 सीटों पर (राजद के साथ गठबंधन में) और 2020 में 115 सीटों पर बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा था, लेकिन 2025 में यह संख्या घटकर करीब 101 सीटों तक सीमित रह गई है। 20 वर्षों के शासन के बाद भी नीतीश कुमार की जेडीयू का सीट शेयरिंग अनुपात घटा है। बिहार की राजनीति का यह दिलचस्प पहलू है कि यहाँ राष्ट्रीय पार्टियाँ जातीय समीकरणों के आगे झुकती रही हैं। बीजेपी और जेडीयू को इस बार भी (चिराग पासवान) लोक जनशक्ति पार्टी, रामविलास), जीतन राम मांझी ‘हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा’ उपेंद्र कुशवाहा ‘राष्ट्रीय लोक समता पार्टी’ और मुकेश सहनी ‘विकासशील इंसान पार्टी’ जैसे छोटे लेकिन जाति-आधारित दलों से समझौता करना पड़ा है। इन सभी दलों ने अपनी-अपनी जातियों को राजनीतिक रूप से संगठित कर, एक ऐसा वोट बैंक बना लिया है जिसमें राष्ट्रीय पार्टियाँ सेंध नहीं लगा पायी। यही कारण है कि बीजेपी और जेडीयू जैसी पार्टियाँ इन्हें साथ रखे बिना सत्ता की कल्पना भी नहीं कर सकती। 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने ‘जाति ही पहचान है’ का जो नारा दिया था, उसने बिहार की राजनीति की दिशा ही बदल दी थी। आज भी बिहार में वही जातीय गणित सत्ता की चाबी तय करता है। 1995 के बाद से बिहार की राजनीति में जो स्थायी पैटर्न उभरकर आया है, यहाँ मुकाबला दो दलों के बीच नहीं बल्कि दो गठबंधनों के बीच होता है। 2020 के विधानसभा चुनाव के नतीजे इसका प्रमाण हैं-राजद को मिले 23.1 प्रतिशत वोट, भाजपा को 19.5 प्रतिशत, जदयू को 15.4 प्रतिशत, कांग्रेस को 9.5 प्रतिशत वोट, जबकि छोटे दलों ने मिलकर 23.9 प्रतिशत वोट बटोरे। यह आँकड़ा बताता है कि छोटे दल भले अकेले सत्ता में न आएँ, लेकिन बड़े दलों का खेल जरूर बिगाड़ देते हैं। वे बिखरे हुए वोटों को जोड़कर किसी गठबंधन को बढ़त दिला सकते हैं। यही वजह है कि बिहार की राजनीति में छोटे क्षेत्रीय दल किंगमेकर बन चुके हैं। छोटे दलों, के गणित से सत्ता की रचना चिराग पासवान की एलजेपी दलितों और विशेषकर पासवान (रामविलास) (हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा) समुदाय की राजनीतिक आवाज है। जीतन राम मांझी की मुसहर और अनुसूचित जातियों के बीच प्रभाव रखती है। उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति मोर्चा कोइरी-कुशवाहा वर्ग की आवाज है, तो मुकेश सहनी की वीआईपी निषाद समाज का प्रतिनिधित्व करती है। इन चारों नेताओं ने अपनी जातियों को राजनीतिक चेतना दी, और यही चेतना अब गठबंधन की अनिवार्यता बन गई है। बीजेपी और जेडीयू के रणनीतिकारों को यह पता है कि बिना इन जातीय दलों के, वोटों का अंकगणित जीत में तब्दील नहीं हो सकता।
बीजेपी ने इस बार बहुत खामोशी और चालाकी से बिहार में अपनी राजनीतिक बिसात बिछाई है। उसने नीतीश कुमार को छह इंच छोटा कर जेडीयू की सीटें घटाई, और अपने सहयोगियों को ऐसी स्थिति में ला दिया कि वे दो-तीन ब्राह्मण से ज्यादा न जीत पाएं, ताकि बाद में उनके साथ समझौता आसान हो। बीजेपी ने संजय झा जैसे ब्राह्मण नेताओं के जरिए जेडीयू में सेंध लगा दी है। अब स्थिति यह है कि उम्मीदवार चयन में भी बीजेपी का अंतिम फैसला होगा। यानी चुनाव के बाद अगर जेडीयू सत्ता में रहती भी है, तो उसका नियंत्रण नीतीश कुमार के नहीं, बल्कि बीजेपी के हाथों में होगा। नीतीश के पास तब दल बदलने की भी हैसियत नहीं बचेगी, क्योंकि उनके अधिकांश सांसद पहले से ही बीजेपी के संपर्क में है। यहाँ तक कि केंद्र सरकार पर भी नीतीश का कोई दबाव नहीं रह जाएगा। इस चुनाव में चिराग पासवान को 29 सीटें दी हैं राजनीतिक सूत्रों के अनुसार इनमें से 8 से 10 उम्मीदवार बीजेपी के अपने होंगे, जो एलजेपी के चुनाव चिन्ह पर लड़ेंगे। यानि चिराग के कंधे पर बैठकर बीजेपी अपनी संघी चाल चल रही है। चुनाव के बाद वहीं एलजेपी के टिकट वाले विधायक बीजेपी के पाले में जा सकते है। जिससे नीतीश कुमार की स्थिति कमजोर और बीजेपी की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी मजबूत हो जाएगी। यह वैसा ही होगा जैसा महाराष्ट्र में शिंदे गुट के उभार के समय हुआ था। वह ‘एलजेपी’ और ‘हम’ जैसी पार्टियों के सहारे सत्ता का चेहरा बदल सकती है, और नीतीश कुमार को शिंदे जैसे हाशिये पर पहुँचा सकती है। लेकिन 2025 का चुनाव नीतीश के करियर का शायद सबसे जोखिम भरा मोड़ है। नीतीश अब उस स्थिति में हैं कि अगर वे असंतुष्ट भी हों, तो सुशासन बाबु के हाथ में कुछ नही लगेगा। वे ना तो गठबंधन तोड़ सकते हैं, ना ही वे अपना दबाव बना सकते हैं। देश की राजनीति अब पूरी तरह मोदी के नाम और चेहरे पर केंद्रित हो चुकी है।
गठबंधन का दांव कितना कारगर? गठबंधन में सबसे बड़ा मुद्दा पासवान को ज्यादा सीटें आवंटित किया जाना प्रतीत होता है, जिससे जदयू के कुछ वर्गों के साथ-साथ गठबंधन में शामिल छोटी पार्टियां भी नाराज हैं। मंगलवार को भागलपुर से जदयू सांसद अजय कुमार मंडल ने नीतीश कुमार को पत्र लिखकर अपने पद से इस्तीफा देने की पेशकश की। इसके अलावा गोपालपुर से जदयू विधायक गोपाल मंडल ने मुख्यमंत्री आवास के बाहर धरना दिया और गोपालपुर सीट से पांचवीं बार चुनाव लड़ने की मांग की, जिसके बाद पुलिस ने उन्हें वहां से हटा दिया। जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद संजय कुमार झा ने गठबंधन में किसी भी तरह की दरार की खबरों को खारिज करते हुए कहा कि कोई असंतोष नहीं है। केंद्रीय मंत्री मांझी ने भी माना कि जदयू ने जिन सीटों पर पहले चुनाव लड़ा था, उनमें से कुछ सीटें लोजपा (आरवी) को दे दी गई हैं। उन्होंने पासवान का नाम लिए बिना कहा कि जदयू में गुस्सा जायज है।
बिहार में ब्राह्मणी संस्कृति का वर्चस्व: बिहार में भोला पासवान और कर्पूरी ठाकुर को छोड़कर सभी ब्राह्मणी संस्कृति के मुख्यमंत्री बनते रहे हैं। उनके शासन काल में दलित व पिछड़ी जातियों को उनके संख्याबल के आधार पर न हिस्सेदारी मिली और न सम्मान। लालू यादव ने 1990 से 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री और 2004 से 2009 तक केंद्रीय रेल मंत्री के रूप में कार्य किया। लालू प्रसाद के कार्यकाल में जमीन पर पहले से स्थापित चल रही ब्राह्मणी संस्कृति के ऊपर कानून सम्मत कार्यवाही हुई और सामाजिक न्याय की मुहिम भी तेज हुई। बिहार के सभी सामाजिक जातीय घटकों को उनकी संख्याबल के आधार पर हिस्सेदारी भी मिलनी शुरू हुई। जो ब्राह्मणी संस्कृति के केंद्र में बैठे मंत्री और प्रधानमंत्री को रास नहीं आयी। मुख्यमंत्री रहते हुए लालू प्रसाद यादव पर घोटाले के जो आरोप लगे उनमें बिहार के जगन्नाथ मिश्रा की भागीदारी भी बराबर थी। लेकिन केंद्र की सत्ता में बैठी मनुवादी संघी सरकारों ने जगन्नाथ मिश्रा को साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर जांच एजेंसियों से साँठ-गांठ करके उन्हें आरोप मुक्त करा दिया और लालू प्रसाद पर जो उसी प्रकार के आरोप थे उन्हें जब भी बिहार में चुनाव आता है तभी एजेंसियों को सक्रिय करके लालू प्रसाद पर मुकदमे चलाने की मुहिम सक्रिय हो जाती है। जनता यह देख रही है कि यह सब मनुवादी संघियों का खेल है वह बिहार की सत्ता में पिछड़े और दलित समुदाय से आने वाले जातीय घटकों को किसी भी कीमत पर सत्ता में नहीं देखना चाहती। इसी रणनीति को सफल बनाने के लिए मनुवादी संघियों ने चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और अब बीएसपी की बहन मायावती जी को भी अपनी इसी रणनीति में शामिल कर लिया है ताकि इन बहुजन नेताओं के जातीय घटकों के वोट या तो मनुवादी संघी बीजेपी को मिल जायें या वे फिर बिखरकर अपने-अपने जातीय घटकों में बंट जाए ताकि बिहार में लालू यादव की आरजेडी को सत्ता से दूर रखा जा सके।
बहुजन स्वाभिमान संघ बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों के मतदाताओं से अपील करता है कि वे किसी भी कीमत पर मनुवादी संघी भाजपा और उनके जुड़वां भाई नीतीश कुमार और अन्य परोक्ष रूप में जो मनुवादी संघियों को मजबूत करने के लिए वोट मांग रहे है उनकों वोट न करें। चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और बसपा की बहन जी तथा ऐसे वोट कटवा राजनैतिक दलों को वोट देकर भाजपा संघियों को मजबूत होने का मौका न दं। बहुजन समाज के सभी जातीय घटक एकजुट होकर एक मत के साथ लालू प्रसाद की आरजेडी को ही वोट दें। और उनसे मांग रखें कि राज्य के सभी संसाधनों में बहुजन समाज की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बहुजन समाज आपको सत्ता में आने का कभी मौका नहीं देगा। बहुजन समाज की एकजुटता चुनाव जीतने के लिए सबसे आवश्यक है अपनी वोट को न बिकने दें, न लूटने दे, और न मुफ्त की रेवड़ियों में बेचने दें।
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