2025-07-12 15:43:17
कमीने अंबेडकरवादी: कांशीराम ने कुछ अंबेडकरवादियों को ‘कमीने अंबेडकरवादी’ जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया, जिसका उल्लेख उनके भाषणों और लेखों में मिलता है। यह शब्द उन्होंने उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया, जिन्हें वे डॉ. बी.आर. अंबेडकर की विचारधारा का पालन करने का दावा तो करते थे, लेकिन उनके अनुसार, ये लोग उस विचारधारा को पूरी तरह से समझने या उस पर अमल करने में असफल रहे। कांशीराम का मानना था कि कुछ तथाकथित अंबेडकरवादी अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, अवसरवादिता या सत्ता की लालसा के कारण अंबेडकर के सिद्धांतों से समझौता करते थे, जिसे वे ‘कमीनेपन’ के रूप में देखते थे जिसका मतलब था।
वैचारिक विचलन: कांशीराम का मानना था कि कुछ अंबेडकरवादी, जो बाबासाहेब के सामाजिक समानता, आत्मसम्मान और स्वाभिमान के सिद्धांतों का पालन करने का दावा करते थे, वास्तव में उन सिद्धांतों को कमजोर करते थे। वे सत्ता या सामाजिक स्वीकृति के लिए अन्य राजनीतिक दलों, विशेष रूप से कांग्रेस जैसे दलों, के साथ समझौता कर लेते थे। कांशीराम ने अपनी पुस्तक ‘चमचा युग’ (1982) में ऐसे नेताओं को ‘चमचा’ (अवसरवादी) कहा, जो दलित हितों को दरकिनार कर शासक वर्गों के लिए काम करते थे।
आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की कमी: कांशीराम के अनुसार, अंबेडकरवाद का मूल आधार आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता है। वे मानते थे कि कुछ लोग, जो खुद को अंबेडकरवादी कहते थे, इन मूल्यों को छोड़कर दूसरों पर निर्भर हो जाते थे या अपने निजी लाभ के लिए अंबेडकर के नाम का उपयोग करते थे। इसे वे ‘कमीने अंबेडकरवादी’ कहकर आलोचना करते थे।
कांशीराम ने अंबेडकरवादियों को विभिन्न श्रेणियों में बांटा था, जैसे ‘बास्टर्ड अंबेडकरवादी’, ‘हरिजन अंबेडकरवादी’, ‘दो-चित्ते अंबेडकरवादी’, और ‘भोले-भाले अंबेडकरवादी’। ‘कमीने अंबेडकरवादी’ संभवत: उन लोगों को संबोधित करता था, जो उनकी नजर में अवसरवादी और सिद्धांतविहीन थे। राजनीतिक आलोचना: कांशीराम ने 1960 के दशक में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी (फढक) के कुछ नेताओं, जैसे दादासाहेब गायकवाड और रामचंद्र भंडारे, की आलोचना की थी। उनका मानना था कि ये नेता अंबेडकर के समानता के लिए संघर्ष को कमजोर कर रहे थे और सत्ता के लिए समझौता कर रहे थे। यह उनकी ‘कमीने अंबेडकरवादी’ की अवधारणा का हिस्सा था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: कांशीराम ने अंबेडकर के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए बामसेफ (1978), डीएस4 (1981), और बहुजन समाज पार्टी (1984) की स्थापना की। उनका उद्देश्य दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों को संगठित कर सत्ता में लाना था, न कि केवल प्रतीकात्मक सुधारों तक सीमित रहना। वे मानते थे कि कुछ अंबेडकरवादी केवल नाम के लिए अंबेडकर के सिद्धांतों का उपयोग करते थे, लेकिन वास्तव में वे शासक वर्गों के हितों को बढ़ावा देते थे। इसीलिए, उन्होंने ऐसे लोगों को कमीने जैसे कठोर शब्दों से संबोधित किया, ताकि उनके वैचारिक विचलन को उजागर कर सकें। ‘कमीने अंबेडकरवादी’ शब्द कांशीराम की उस निराशा का प्रतीक है, जो उन्होंने उन लोगों के प्रति महसूस की, जो अंबेडकर के नाम का उपयोग तो करते थे, लेकिन उनके सिद्धांतों—विशेष रूप से आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान और सामाजिक समानता—के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता नहीं दिखाते थे। यह शब्द उनकी आलोचनात्मक शैली का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य लोगों को जागरूक करना और अंबेडकरवादी आंदोलन को शुद्ध और प्रभावी बनाए रखना था।
हरिजन अंबेडकरवादी: कांशीराम ने कुछ अंबेडकरवादियों को ‘हरिजन अंबेडकरवादी’ कहकर संबोधित किया, जो एक आलोचनात्मक और व्यंग्यात्मक टिप्पणी थी। इसका मतलब और कारण निम्नलिखित हैं: क्यों कहा ‘हरिजन अंबेडकरवादी’?
‘हरिजन’ शब्द का विरोध: ‘हरिजन’ शब्द, जिसे महात्मा गांधी ने दलित समुदाय के लिए इस्तेमाल किया था, को डॉ. बी.आर. अंबेडकर और उनके अनुयायियों ने खारिज कर दिया था। अंबेडकर का मानना था कि यह शब्द संरक्षक (पैट्रनाइजिंग) और अपमानजनक है, क्योंकि यह दलितों को हिंदू धर्म के ढांचे में ‘दयनीय’ के रूप में प्रस्तुत करता है, न कि स्वाभिमानी और समान नागरिकों के रूप में। कांशीराम ने इस शब्द को उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया, जो अंबेडकरवादी होने का दावा तो करते थे, लेकिन अंबेडकर के आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के सिद्धांतों को पूरी तरह नहीं अपनाते थे।
वैचारिक समझौतावाद: कांशीराम का मानना था कि कुछ तथाकथित अंबेडकरवादी, जिन्हें वे ‘हरिजन अंबेडकरवादी’ कहते थे, अंबेडकर की विचारधारा को केवल सतही तौर पर अपनाते थे। ये लोग अंबेडकर के सिद्धांतों, जैसे हिंदू सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष और आत्मनिर्भरता, को पूरी तरह लागू करने के बजाय, मुख्यधारा के हिंदूवादी या सवर्ण नेतृत्व (जैसे कांग्रेस) के साथ समझौता कर लेते थे। ‘हरिजन’ शब्द का उपयोग करके कांशीराम इन लोगों की इस प्रवृत्ति पर तंज कस रहे थे कि वे अंबेडकर के कट्टर सिद्धांतों को छोड़कर ‘हरिजन’ जैसे संरक्षक और हिंदू-केंद्रित दृष्टिकोण को स्वीकार कर रहे थे।
सत्ता की चाह: कांशीराम ने देखा कि कुछ अंबेडकरवादी नेता, विशेष रूप से रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया (आरपीआई) के कुछ गुटों के, सत्ता या सामाजिक स्वीकृति के लिए अपनी वैचारिक निष्ठा से समझौता कर रहे थे। वे अंबेडकर के नाम का उपयोग तो करते थे, लेकिन उनके मूल लक्ष्य—जैसे सामाजिक समानता, दलित-बहुजन सशक्तिकरण, और स्वतंत्र राजनीतिक पहचान—को कमजोर कर रहे थे। कांशीराम ने इसे ‘हरिजन अंबेडकरवादी’ कहकर उनकी आलोचना की, क्योंकि वे अंबेडकर की क्रांतिकारी विचारधारा को ‘हरिजन’ जैसे हिंदू ढांचे में समाहित करने की कोशिश कर रहे थे। ‘हरिजन अंबेडकरवादी’ उन लोगों को संबोधित करता था, जो अंबेडकर की विचारधारा का दावा तो करते थे, लेकिन व्यवहार में हिंदू सामाजिक व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश करते थे, जिसे कांशीराम अंबेडकरवाद के खिलाफ मानते थे।
‘हरिजन अंबेडकरवादी’ शब्द कांशीराम की उस आलोचना को दशार्ता है, जो उन लोगों के लिए थी, जो अंबेडकर के नाम का उपयोग तो करते थे, लेकिन उनकी क्रांतिकारी विचारधारा—जो हिंदू सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देती थी और दलित-बहुजन समाज को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने पर जोर देती थी—को कमजोर करते थे। यह शब्द उन लोगों के लिए एक व्यंग्य था, जो अंबेडकर के सिद्धांतों को पूरी तरह अपनाने के बजाय, हिंदू ढांचे में समायोजित होने या सवर्ण नेतृत्व के साथ समझौता करने को तैयार थे। कांशीराम का मानना था कि यह अंबेडकरवाद का एक पतित रूप था, जो ‘हरिजन’ शब्द की तरह ही संरक्षक और आत्मसम्मान के खिलाफ था।
दोहरे दिमाग वाले अंबेडकरवादी:
कांशीराम ने अंबेडकरवादियों को ‘दोहरे दिमाग वाले अंबेडकरवादी’ कहकर उन लोगों की आलोचना की जो डॉ. बी.आर. अंबेडकर के विचारों का पालन करने का दावा तो करते थे, लेकिन उनके व्यवहार और कार्यों में वह प्रतिबद्धता नहीं दिखती थी, जो अंबेडकर के सामाजिक न्याय और दलित उत्थान के सिद्धांतों के लिए आवश्यक है। इसका मतलब है कि ऐसे लोग सैद्धांतिक रूप से अंबेडकरवाद का समर्थन करते हैं, लेकिन वास्तव में उनके कार्य या तो व्यक्तिगत स्वार्थों से प्रेरित होते हैं या वे व्यवस्था के साथ समझौता कर लेते हैं, जिसके खिलाफ अंबेडकर ने संघर्ष किया।
कांशीराम का यह कथन उन अंबेडकरवादियों पर एक तंज था जो केवल नाम के लिए अंबेडकर के विचारों का उपयोग करते थे, लेकिन उनके द्वारा प्रस्तावित क्रांतिकारी बदलावों को लागू करने में गंभीरता नहीं दिखाते थे। वे इसे एक दिखावे के रूप में इस्तेमाल करते थे, बिना सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर वास्तविक संघर्ष के। कांशीराम, जो बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के संस्थापक थे, चाहते थे कि अंबेडकरवाद को सिर्फ बौद्धिक चर्चा तक सीमित न रखा जाए, बल्कि इसे सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण का हथियार बनाया जाए।
इसलिए, ‘दोहरे दिमाग वाले अंबेडकरवादी’ का तात्पर्य उन लोगों से है जो अंबेडकर के नाम का उपयोग तो करते हैं, लेकिन उनके विचारों को पूरी तरह आत्मसात नहीं करते और न ही उनके लक्ष्यों के लिए पूरी निष्ठा से काम करते हैं। यह कथन कांशीराम की उस सोच को दशार्ता है कि सच्चा अंबेडकरवादी वह है जो अंबेडकर के विचारों को जमीन पर उतारे, न कि केवल भाषणों या दिखावे तक सीमित रहे।
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