2024-09-14 10:27:57
प्रकाश चंद
नई दिल्ली। प्रधानमंत्री का सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड के घर जाकर गणपति पूजा और आरती में शामिल होना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरे का संकेत है। यह घटना न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर बड़े सवाल खड़े करती है। क्या ये वही भारत है, जहाँ संविधान की नींव धर्मनिरपेक्षता और न्याय की स्वतंत्रता पर टिकी है, या फिर हम धीरे-धीरे एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ न्यायपालिका और कार्यपालिका का घालमेल हो रहा है? वहीं इससे पहले 1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 6-1 से फैसला देकर बताया था है कि राज्यों को आरक्षण के लिए कोटे के भीतर कोटा बनाने का अधिकार है। राज्य सरकारें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए सबकैटेगरी बना सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसले को पलट दिया है जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकारें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति में सब कैटेगरी नहीं बना सकती। इस वर्तमान संविधान पीठ में मुख्य न्यायधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस बी.आर. गवई, जस्टिस विक्रमनाथ, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीशचंद शर्मा थे।
आरक्षण की व्यवस्था? संविधान में अनुसचित जाति के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण है; अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण है। अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। अन्य पिछड़ा वर्ग में क्रीमीलेयर और नॉन क्रीमीलेयर का प्रावधान है। आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण है जो अन्य सभी आरक्षण के अतिरिक्त है। ईडब्ल्यूएस का आरक्षण आर्थिक आधार पर है। ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आरक्षण सामान्य वर्ग के उन लोगों को मिलता है जिनकी सालाना आय 8 लाख रुपये से कम है।
संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को विशेष दर्जा देते समय उनकी जाति का वर्णन नहीं है। कौनसी जातियाँ किस श्रेणी में आएंगी यह अधिकार सिर्फ केंद्र के पास है। अनुच्छेद 341 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित जातियों को एससी/एसटी कहा जाता है। एक राज्य की अधिसूचित जाति दूसरे राज्य में एससी/एसटी नहीं भी हो सकती है।
संवैधानिक पीठ में अपना असहमति वाला फैसला देते हुए जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने अनुसूचित जाति में उपवर्गीकरण को संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध बताया। जस्टिस त्रिवेदी के अनुसार संविधान के अनुच्छेद-341, जिसमें अनुसूचित जातियों का विवरण है, वह राज्यों को हस्तक्षेप की इजाजत नहीं देता।
जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने 84 पन्नों में दिये अपने फैसले में संविधान सभा में हुई बहस और हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अनुसूचित जाति की अलग सूची तैयार करने का मूल आधार हिन्दू समाज में व्याप्त छुआछूत है और इसे सामाजिक शैक्षिक व आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों (ओबीसी) से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। जस्टिस त्रिवेदी के अनुसार, अनुसूचित जाति में क्रीमीलेयर द्वारा अलग वर्गीकरण की इजाजत भी अनुच्छेद-341 नहीं देता, जिसमें पूरी जाति अनुसूचित जाति के रूप में दर्ज है। उनके अनुसार अनुसूचित जाति एक समान समूह को प्रतिबिंबित करता है, उसमें विभाजन नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार, समाज में समानता लाने के लिए सकारात्मक उपाय किए जा सकते हैं, लेकिन ये कानूनी व संवैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध नहीं होने चाहिए।
राज्य सरकारें अब क्या कर सकती है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब राज्य सरकारें सब-कैटेगरी बनाकर आरक्षण देने का महत्वपूर्ण कदम उठा सकती है। राज्य सरकारें सामाजिक और आर्थिक आंकड़ें एकत्रित करके विभिन्न सब-कैटेगरी की स्थिति का आंकलन कर सकती है। विभिन्न सब-कैटेगरी में आंकलन करने और आरक्षण की जरूरत को समझने के लिए एक्सपर्ट कमेटियों का गठन भी कर सकती है। राज्य सरकारें सब-कैटेगरी रिजर्वेशन को कानूनी मान्यता देने के लिए विधान मंडल में विधेयक पेश कर सकती है। अगर कोई कानूनी चुनौती आती है तो सरकार इस पर न्यायिक समीक्षा कराकर कोर्ट में अपनी स्थिति स्पष्ट कर सकती है। सरकारें अपने राज्यों में सार्वजनिक परामर्श आयोजित कर सकती है, जिसमें विभिन्न समुदायों के नेताओं, सामाजिक संगठनों और नागरिकों की राय ली जा सकती है।
अनुसूचित जातियों में उप-जातियों की संख्या: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2018-19 के अनुसार देश में 1263 एससी की जातियाँ हैं। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, अंडमान और निकोबार एवं लक्ष्यद्वीप में कोई भी समुदाय अनुसूचित जाति के रूप में चिन्हित नहीं है।
जस्टिस गवई ने अपने फैसले में जो रेल के डिब्बे का उदाहरण दिया है वह तर्कहीन है चूंकि आज जो एससी समुदाय के लिए आरक्षण की 15 प्रतिशत व्यवस्था है, करीब 75 वर्ष के बाद भी आरक्षण 10-12 प्रतिशत तक ही सीमित रहा है। 75 वर्षों के दौरान केंद्र और राज्य सरकारों ने 15 प्रतिशत के आरक्षण की सीमा को आज तक नहीं भरा है जिसके आधार पर जस्टिस गवई को केंद्र और राज्य सरकारों को पहले यह आदेश देना चाहिए था कि आरक्षण की निर्धारित सीमा को पहले पूर्ण किया जाये और फिर किसी अन्य विकल्प पर विचार किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला, सरकार द्वारा लिखवाया गया लग रहा है: देश में संघी भाजपा की सरकार है जो मूल रूप से एससी/एसटी के आरक्षण की विरोधी रही है। 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी-संघी सरकार जोर-जोर से नारा देकर कह रही थी कि ‘अब की बार 400 पार’ संघी-भाजपा का इस नारे का मन्तव्य था कि लोकसभा में हमें 400 सीटें पार कराओ तो बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा निर्मित संविधान को बदल देंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ चूंकि देश की बहुजन जनता ने उनकी मानसिकता को भाँप लिया और अपनी तय भावना के अनुरूप वोट दिया। संघी-भाजपा को लोकसभा में 140 सीटों पर ही सीमित कर दिया। इन 140 लोकसभा सीटों में भी मोदी-संघी सरकार ने बड़े पैमाने पर शासन तंत्र के घालमेल से करीब 80 से 100 सीटों की हेरा-फेरी की। अगर संघी सरकार यह नहीं करती और चुनाव प्रक्रिया को ईमानदारी के साथ पारदर्शी बनाकर रखती तो मोदी-संघी भाजपा को लोकसभा चुनाव में 100 सीटें भी नहीं मिल पाती।
भाजपा संघियों की नजर में आरक्षण: भाजपा संघी मानसिकता के लोग डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित संविधान और आरक्षण के शुरू से ही कठोर विरोधी हैं। भाजपा संघी मानसिकता के नेताओं ने संविधान का विरोध पहले दिन से ही किया, 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद संघी विचारधारा के कर्णधारों ने संविधान का खुलकर विरोध किया और कहा कि इस संविधान में कुछ भी हमारा नहीं है, हमारे देवी-देवताओं, वेदों व अन्य ग्रंथों का इसमें कोई जिक्र नहीं है। हमारी अतीत की वैभवशाली संस्कृति वेदों और पुराणों की इसमें चर्चा नहीं है। ऐसी ही अनेक बातें पाखंडी तथाकथित साधु-संतों के द्वारा की गई। इन पाखंडी संघी भाजपाइयों के मुख्य पाखंडी थे करपात्री महाराज जो देश में घूम-घूमकर संविधान विरोधी प्रचार कर रहे थे। यही पाखंडी देशभर में घूम-घूमकर अज्ञान जनता के द्वारा बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को गाली-गलोच और अपशब्द बुलवा रहे थे। भाजपाई संघियों के उस समय के प्रमुख नेता दीनदयाल उपाध्याय ने संविधान को लेकर टिप्पणी की थी कि इस संविधान में कुछ भी हमारा नहीं है इसलिए हम इसे नहीं मानते। उस समय के सभी संघी मानसिकता के नेता अंग्रेजों से मांफी माँगकर जेल से छूटने वाले नेताओं की मानसिकता इसी जहर से भरी हुई थी। ये सभी संघी मानसिकता के नेता एससी/एसटी के आरक्षण के घोर विरोधी थे और साथ ही ये देश की सभी महिलाओं को वोट का अधिकार देने के विरोधी थे।
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