Wednesday, 31st December 2025
Follow us on
Wednesday, 31st December 2025
Follow us on

सरकार और न्यायपालिका में दिख रहा गठबंधन का अबाध्य छिपा खेल

प्रकाश चंद
News

2025-12-30 15:30:39

भारतीय संविधान के मुताबिक सरकार (कार्यपालिका), न्यायपालिका और विधायिका का पूर्ण पृथककरण है, ये तीनों अंग प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सरकार के महत्वपूर्ण अंग हैं और चौथा अवर्णित अंग मीडिया है। इन चारों अंगों को मिलाकर ही स्वतंत्र और मजबूत प्रजातंत्र की स्थापना होती है। भारत में 26 जनवरी 1950 से संविधान सत्ता है, संविधान ही सर्वोपरि है, सरकार के तीनों अंग संविधान की परिधि में रहते हुए ही अपना-अपना कार्य अपने ज्ञान, विवेक और न्याय के अनुसार करते हैं। संविधान निमार्ताओं ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि ये तीनों अंग अन्य किसी के क्षेत्र में दखलअंदाजी न करे। मगर व्यावहारिक रूप में जनता को मोदी सरकार में यह देखने को नहीं मिल रहा है। आज की संघी मानसिकता की सरकारें अपना न दिखने वाला वर्चस्व स्थापित कर रही है। जिसके कारण संविधान की भावना के अनुरूप जनता के कार्य नहीं हो रहे हैं। मनुवादी संघी सरकारों का जोर तर्कहीनता, अवैज्ञानिकता और पाखंडवाद को जनता में स्थापित करने पर अधिक है। देश में वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान सबसे निम्नतम स्तर पर आ चुका है। वैज्ञानिक व तकनीकी शोध संस्थानों में मनुवादी संघी मानसिकता के लोग स्थापित कर दिये गए हैं, जिनकी कार्यप्रणाली देखकर लगता है कि उन्हें देश में पाखंड और अंधविश्वास को बढ़ाने के लिए ही वहाँ पर बैठाया गया है। इसलिए 2014 के बाद से देश के सभी शोध संस्थानों में लगातार वैज्ञानिक और तकनीकी उत्पादकता घट रही है। देश के जागरूक व वैज्ञानिक सोच रखने वाले व्यक्तियों को इसका गंभीर संज्ञान लेना चाहिए और देश की जनता को इस संबंध में जागरूक भी करना चाहिए।

न्यायपालिका के चुभने वाले फैसले: 2014 के बाद से केंद्र और राज्यों की सरकारों में मनुवादी संघियों की मानसिकता का दबदबा है। न्यायपालिका के फैसलों पर टिप्पणी करना हमारा उद्देश्य नहीं है। मगर न्यायपालिका के द्वारा दिये गए कुछेक फैसले जनता को संविधान सम्मत नजर नहीं आ रहे हैं, जनता को जो फैसले संविधान की भावना के विपरीत लग रहे हैं, उनसे देश की जागरूक व बौद्धिक जनता को अवगत कराने का हमारा ध्येय है। जनता ने देखा कि राम-मंदिर और बाबरी मस्जिद का फैसला तथ्यों और तर्कों पर आधारित नहीं था, वह पूरा का पूरा फैसला आस्था पर दिया गया, संविधान के हिसाब से किसी भी समुदाय की आस्था के आधार पर न्यायिक फैसला नहीं दिया जाना चाहिए। आस्था के आधार पर दिये गए फैसले से संविधान आहत हुआ है, देश की बहुसंख्यक जागरूक जनता के गले से यह फैसला नीचे नहीं उतरा है। आजतक यह फैसला जनता में बैचेनी बनाए हुए हैं चूंकि इस फैसले से धर्म निरपेक्षता का मौलिक संवैधानिक सिद्धान्त गहराई तक आहत हुआ है। जनता के विचार से न्यायपालिका को किसी भी धार्मिक आस्था/विचार से प्रभावित होकर फैसले नहीं देने चाहिए। अगर कोई न्यायधीश किसी भी धार्मिक विचार और आस्था से संक्रमित है तो वह न्यायधीश बनने योग्य नहीं समझा जाना चाहिए। मोदी-संघी सरकार में यही घाल-मेल अबाध्य रूप से चल रहा है।

तथ्यहीन आधारों पर दिये गए फैसले सामाजिक कड़वाहट के कारक: भारत के पूर्व प्रधान न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ के द्वारा दिये गए फैसलों के अनुसार आज देशभर की सभी मस्जिदों में शिवलिंग ढूँढे जा रहे हैं। जिसके कारण जनता का आपसी सौहार्द हर रोज ध्वस्त होता जा रहा है। धार्मिक आस्था के आधार पर आज एक धार्मिक आस्था वाला व्यक्ति दूसरे धार्मिक आस्था के व्यक्ति से दुश्मन की तरह व्यवहार कर रहा है। चंद्रचूड़ जैसी मानसिकता वाले ब्राह्मण न्यायधीशों की भारत के न्यायालयों में नियुक्ति नहीं होनी चाहिए। शायद इसी मानसिकता को देखते हुए अंग्रेजों ने 1919 में कलकत्ता हाईकोर्ट (प्रीवी काउंसिल) में ब्राह्मण न्यायधीशों की नियुक्ति पर प्रतिबंध लगाया था क्योंकि ब्राह्मण का चरित्र न्यायिक नहीं होता। चंद्रचूड़ जैसी मानसिकता वाले ब्राह्मणी संस्कृति के न्यायधीश इसी श्रेणी में आते हैं। ऐसी मानसिकता वाले न्यायधीशों से भारतीय जनता को सावधान रहना चाहिए, ऐसे न्यायधीशों को न्यायपालिका में जगह नहीं देने की जनता द्वारा सिफारिश भी करनी चाहिए।

आरक्षित वर्गों में क्रीमीलेयर का प्रावधान: आज की न्यायपालिका पूरी तरह से संघी मानसिकता से संक्रमित है। जो न्यायधीश आज आरक्षण में क्रीमीलेयर की बात कर रहे हैं वे पहले देश की जनता को यह बताए कि आरक्षण के प्रावधान के अंतर्गत जो आरक्षण मिल रहा है क्या वह पूरी तरह से लागू होकर पूरा हो चुका है? अगर वह पूरा हो चुका है तो फिर क्रीमीलेयर का प्रावधान देशभर में लागू करने से आरक्षित वर्ग को कोई परहेज नहीं होगा। मगर न्यायपालिका में बैठे न्यायधीश तथ्यों को नजरअंदाज करके, सीधा क्रीमीलेयर लागू करने के फैसले को उचित ठहरा रहे हैं। न्यायधीशों की यह मानसिकता देश के आरक्षित वर्गों के संवैधानिक अधिकारों पर कुठाराघात है। शायद मनुवादी संघी मानसिकता के न्यायधीश आरक्षित वर्गों के संवैधानिक अधिकारों को सीमित करना चाह रहे हंै!

सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों पर उठते सवाल: देश के सर्वोच्च न्यायालय पर संविधान की रक्षा का दायित्व है मगर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो फैसले दिये जा रहे हैं उन्हें देखकर अब जनता को लगने लगा कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भी राजनैतिक सत्ता से प्रभावित हो रहे हैं और लोकतंत्र कमजोर। वर्तमान उदाहरण आरक्षण पर क्रीमीलेयर को लेकर मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी से साफ होता है कि कहीं न कहीं न्यायपालिका भी संघी मानसिकता की सरकार के सुर में सुर मिला रही है। क्रीमीलेयर के मुद्दे को लेकर देश की जनता के मन में सवाल इस प्रकार है कि न्यायपालिका पहले आरक्षित समाज को यह बताए कि क्या आरक्षण प्राप्त पदों पर नियुक्तियाँ पूर्ण हो चुकी है? दूसरा सवाल यह है कि जिन व्यक्तियों के माता-पिता आईएस, आईपीएस पदों पर स्थापित हुए हैं क्या उनके बच्चों के प्रति समाज का रवैया जातीय आधारित सामाजिक नफरत से परे हो चुका है? आम समझ के मुताबित इस वर्ग के बच्चों को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए, परंतु उनके प्रति जातीय भेदभाव भी आरक्षण का आधार होता है। आईएस, आईपीएस बनने के बाद उनके परिवार की आर्थिक स्थिति में बदलाव जरूर आया होगा परंतु जातीय आधारित नफरत का भाव आज भी समाज में ज्यों का त्यों बना हुआ है। देश के मुख्य न्यायधीश व अन्य माननीय न्यायधीशों से निवेदन है कि वे इस मुद्दे को गहरी सामाजिक समझ के साथ देंखे और फिर अपनी राय देश के नागरिकों के सामने रखे। बहुजन समाज के नागरिक माननीय मुख्य न्यायधीश गवई जी की विचारधारा से सहमत नहीं है। इसलिए बहुजन समाज का माननीय मुख्य न्यायधीश गवई जी से निवेदन है कि वे आरक्षित वर्गों की जातियों को पहले यह बताए कि कब तक उनकी संख्या के हिसाब से सरकार द्वारा उनका आरक्षण पूरा कर दिया जाएगा, आपके माध्यम से जनता को ठोस जवाब चाहिए, जुमले नहीं।

आस्था के आधार पर फैसले देना असंवैधानिक: न्याय शास्त्र में आस्था का कोई स्थान नहीं है, आम तौर पर आस्था एक व्यक्ति या कुछेक व्यक्तियों की सोच पर आधारित हो सकती है जो नागरिक हितों के विपरीत भी हो सकती है। आस्था पर आधारित न्यायालयों के फैसलों पूर्ण रूप से असंवैधानिक है और उनसे देश में अशांति का खतरा पैदा होता है, आस्था के आधार से देश की एकता और अखंडता छिन्न-भिन्न होती है जिसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण अयोध्या में राम मंदिर का फैसला है जिसे उच्चतम न्यायालय की पीठ ने आस्था के आधार पर दिया बताया। जो देश के आम नागरिकों के गले के नीचे नहीं उतर रहा है, इस राम मंदिर के आस्था आधारित फैसले से देश में सांप्रदायिकता बढ़ी है, पूरे देश में सामाजिक उन्माद और नफरत का भाव पैदा हुआ है। इसलिए न्यायपालिका मुख्य रूप से उच्च व उच्चतम न्यायालय आस्था पर आधारित फैसलों का स्वत: संज्ञान ले और अपने में निहित संवैधानिक शक्ति से आस्था आधारित फैसलों को निरस्त करे, आस्था पर आधारित पूर्व में दिये गए फैसलों का पुर्ननिरक्षण करे और उन्हें संवैधानिक दायरे में लाकर सही फैसले दे। देश के जो न्यायधीश न्यायशास्त्र के सिद्धान्त पर न चलकर आस्था के सिद्धांतों को ज्यादा तवजों दे रहे हैं उन्हें तत्काल प्रभाव से संवैधानिक न्यायालयों से हटाया जाये।

न्यायपालिका में संघीयों की घुसपैठ: दो दशकों से देखा जा रहा है कि संघी मनुवादी मानसिकता के लोगों को सत्ताबल के सहारे नामित करके न्यायपालिका में घुसाया जा रहा है। जिसके परिणाम उनके द्वारा दिये गए फैसलों में स्पष्ट दिखते हैं। उदाहरण के तौर राम मंदिर का फैसला, जिसे आस्था के आधार पर मंदिर के पक्ष में सुनाया गया। उच्चतम न्यायालय का यह फैसला पूर्णतया असंवैधानिक था। उस समय की उच्चतम न्यायालय की पीठ में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर थे। जिन्होंने सर्वसम्मति से यह फैसला 9 नवम्बर 2019 को सुनाया। इस तरह के संविधान की भावना के विपरीत दिये गए फैसलों का उच्चतम न्यायालय के सम्पूर्ण न्यायधीशों की पीठ का गठन करके उसको लागू होने से पहले उसका पुर्ननिरक्षण कराना चाहिए था जो मनुवादी संघी मानसिकता के चलते नहीं किया गया। इस असंवैधानिक फैसले का न्याय संगत पुर्ननिरक्षण कराने के लिए एडवोकेट महमूद प्राचा ने उच्चतम न्यायालय में पुर्ननिरक्षण की याचिका दायर की जिसे उच्चतम न्यायालय ने न्याय की दृष्टि से न देखकर दंड देने की दृष्टि से देखा और एडवोकेट महमूद प्राचा पर 6 लाख का जुमार्ना लगाया। जजों की यह संघी मानसिकता संविधान सम्मत न्याय की भावना को कुचलने और जनता को हतोत्साहित करने जैसा है।

धार्मिक आधार पर नफरत के खिलाफ स्वत: संज्ञान ले न्यायपालिका: जबसे देश में मोदी संघी सरकार है तब से संघी मानसिकता के लफरझंडिस जनता के बीच और संसद में खड़े होकर धार्मिक आधार पर ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जिन्हें कोई भी सभ्य और सुसंस्कृत व्यक्ति नहीं कर सकता। बीजेपी सांसद रमेश बिधुडी ने संसद में खड़े होकर ओए भड़वे, ओए आतंकवादी, ओए कटवे जैसे अशोभनीय व असंसदीय शब्दों का बेशर्मी से इस्तेमाल किया था। इसके अलावा भी भाजपा के सांसद अनुराग ठाकुर व भाजपा से जुड़े मंत्री कपिल मिश्रा ने भी नफरत भरे शब्दों का इस्तेमाल बेशर्मी से किया था। जिसपर न न्यायपालिका और संसद में संवैधानिक पदों पर बैठे किसी भी व्यक्ति ने इसका संज्ञान नहीं लिया और न इन धार्मिक नफरती चिंटूओं को कोई सख्त संकेत दिया। यह संवैधानिक पदों पर बैठे पदाधिकारियों की नपुंसकता को दर्शाता है। या फिर न्याय नहीं, सरकार को खुश करने के उद्देश्य से ये सब चलाया जा रहा है।

नफरती चिंटुओं का संभावित उपचार: देश में पिछले करीब एक दशक से धार्मिक सद्भाव में आग लगी हुई है और यह आग किसी और ने नहीं बल्कि मनुवादी संघी मानसिकता के लोगों द्वारा ही सुलगाई गई है। ऐसे हालात को देखते हुए देश में सामाजिक, धार्मिक सौहार्द के उद्देश्य से सुझाव है कि देश में जितने भी नफरत फैलाने वाले लोग है उनको साक्ष्यों के साथ बंदी बनाया जाये और उनपर देश विरोधी काम के लिए संविधान सम्मत सजा भी दी जाये। इस तरह के व्यवहार में कोई भाई-भतीजावाद या पार्टीवाद नहीं होना चाहिए चूंकि जबसे संघी मोदी और संघी अमित शाह देश की सत्ता में बैठे हैं तब से कार्रवाही सिर्फ विरोधियों पर होती है संघी व ब्राह्मणी मानसिकता से जुड़े लोगों पर नहीं। बल्कि उनको संरक्षण देकर उन्हें बचाया जाता है। दूसरे धार्मिक आधार पर नफरत फैलाने वाले व भाषण देने वाले योगी जैसे बुलडोजर नेताओं पर कार्रवाई करके उनको देश में वोट देने के अधिकार से तत्काल प्रभाव से वंचित किया जाये। ऐसा करके ही हम देश के संविधान और लोकतंत्र की रक्षा करने में सक्षम हो सकेंगे।

(लेखक सीएसआईआर से सेवानिवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं)

Post Your Comment here.
Characters allowed :


01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

2024-01-13 16:38:05