2025-10-18 15:54:53
भारतीय संविधान के मुताबिक सरकार (कार्यपालिका), न्यायपालिका और विधायिका का पूर्ण पृथककरण है, ये तीनों अंग प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सरकार के महत्वपूर्ण अंग हैं और चौथा अवर्णित अंग मीडिया है। इन चारों अंगों को मिलाकर ही स्वतंत्र और मजबूत प्रजातंत्र की स्थापना होती है। भारत में 26 जनवरी 1950 से संविधान सत्ता है, संविधान ही सर्वोपरि है, सरकार के तीनों अंग संविधान की परिधि में रहते हुए ही अपना-अपना कार्य अपने ज्ञान, विवेक और न्याय के अनुसार करते हैं। संविधान निर्माताओं ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि ये तीनों अंग अन्य किसी के क्षेत्र में दखलअंदाजी न करे। मगर व्यावहारिक रूप में जनता को मोदी सरकार में यह देखने को नहीं मिल रहा है। आज की संघी मानसिकता की सरकारें अपना न दिखने वाला वर्चस्व स्थापित कर रही है। जिसके कारण संविधान की भावना के अनुरूप जनता के कार्य नहीं हो रहे हैं। मनुवादी संघी सरकारों का जोर तर्कहीनता, अवैज्ञानिकता और पाखंडवाद को जनता में स्थापित करने पर अधिक है। देश में वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान सबसे निम्नतम स्तर पर आ चुका है। वैज्ञानिक व तकनीकी शोध संस्थानों में मनुवादी संघी मानसिकता के लोग स्थापित कर दिये गए हैं, जिनकी कार्यप्रणाली देखकर लगता है कि उन्हें देश में पाखंड और अंधविश्वास को बढ़ाने के लिए ही वहाँ पर बैठाया गया है। इसलिए 2014 के बाद से देश के सभी शोध संस्थानों में लगातार वैज्ञानिक और तकनीकी उत्पादकता घट रही है। देश के जागरूक व वैज्ञानिक सोच रखने वाले व्यक्तियों को इसका गंभीर संज्ञान लेना चाहिए और देश की जनता को इस संबंध में जागरूक भी करना चाहिए।
न्यायपालिका के चुभने वाले फैसले: 2014 के बाद से केंद्र और राज्यों की सरकारों में मनुवादी संघियों की मानसिकता का दबदबा है। न्यायपालिका के फैसलों पर टिप्पणी करना हमारा उद्देश्य नहीं है। मगर न्यायपालिका के द्वारा दिये गए कुछेक फैसले जनता को संविधान सम्मत नजर नहीं आ रहे हैं, जनता को जो फैसले संविधान की भावना के विपरीत लग रहे हैं, उनसे देश की जागरूक व बौद्धिक जनता को अवगत कराने का हमारा ध्येय है। जनता ने देखा कि राम-मंदिर और बाबरी मस्जिद का फैसला तथ्यों और तर्कों पर आधारित नहीं था, वह पूरा का पूरा फैसला आस्था पर दिया गया, संविधान के हिसाब से किसी भी समुदाय की आस्था के आधार पर न्यायिक फैसला नहीं दिया जाना चाहिए। आस्था के आधार पर दिये गए फैसले से संविधान आहत हुआ है, देश की बहुसंख्यक जागरूक जनता के गले से यह फैसला नीचे नहीं उतरा है। आजतक यह फैसला जनता में बैचेनी बनाए हुए हैं चूंकि इस फैसले से धर्म निरपेक्षता का संवैधानिक मौलिक सिद्धान्त गहराई तक आहत हुआ है। जनता के विचार से न्यायपालिका को किसी भी धार्मिक आस्था/विचार से प्रभावित होकर फैसले नहीं देने चाहिए। अगर कोई न्यायधीश किसी भी धार्मिक विचार और आस्था से संक्रमित है तो वह न्यायधीश बनने योग्य नहीं समझा जाना चाहिए।
तथ्यहीन आधारों पर दिये गए फैसले सामाजिक कड़वाहट के कारक: भारत के पूर्व प्रधान न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ के द्वारा दिये गए फैसलों के अनुसार आज देशभर की सभी मस्जिदों में शिवलिंग ढूँढे जा रहे हैं। जिसके कारण जनता का आपसी सौहार्द हर रोज ध्वस्त होता जा रहा है। धार्मिक आस्था के आधार पर आज एक धार्मिक आस्था वाला व्यक्ति दूसरे धार्मिक आस्था के व्यक्ति से दुश्मन की तरह व्यवहार कर रहा है। चंद्रचूड़ जैसी मानसिकता वाले ब्राह्मण न्यायधीशों की भारत के न्यायालयों में नियुक्ति नहीं होनी चाहिए। शायद इसी मानसिकता को देखते हुए अंग्रेजों ने 1919 में कलकत्ता हाईकोर्ट (प्रीवी काउंसिल) में ब्राह्मण न्यायधीशों की नियुक्ति पर प्रतिबंध लगाया दिया था क्योंकि ब्राह्मण का चरित्र न्यायिक नहीं होता। चंद्रचूड़ जैसी मानसिकता वाले ब्राह्मणी संस्कृति के न्यायधीश इसी श्रेणी में आते हैं। ऐसी मानसिकता वाले न्यायधीशों से भारतीय जनता को सावधान रहना चाहिए, ऐसे न्यायधीशों को न्यायपालिका में जगह नहीं देने की सिफारिश भी करनी चाहिए।
आरक्षित वर्गों में क्रीमीलेयर का प्रावधान: आज की न्यायपालिका पूरी तरह से संघी मानसिकता से संक्रमित हो चुकी है। जो न्यायधीश आज आरक्षण में क्रीमीलेयर की बात कर रहे हैं वे पहले देश की जनता को बताए कि आरक्षण के प्रावधान के अंतर्गत जो आरक्षण मिल रहा था क्या वह पूरी तरह से लागू होकर पूरा हो चुका है? अगर वह पूरा हो चुका है तो फिर क्रीमीलेयर का प्रावधान देशभर में लागू करने से आरक्षित वर्ग को कोई परहेज नहीं होगा। मगर न्यायपालिका में बैठे न्यायधीश तथ्यों को नजरअंदाज करके, सीधा क्रीमीलेयर लागू करने के फैसले को उचित ठहरा रहे हैं। न्यायधीशों की यह मानसिकता देश के आरक्षित वर्गों के संवैधानिक अधिकारों पर कुठाराघात है। शायद मनुवादी संघी मानसिकता के न्यायधीश आरक्षित वर्गों के संवैधानिक अधिकारों को सीमित करना चाह रहे हंै!
ग्रीन पटाखों को लेकर संघी मानसिकता के न्यायधीशों का खेल: देश में बढ़ते प्रदूषण के स्तर को देखकर उच्चतम न्यायालय ने 2018 में पटाखे चलाने पर प्रतिबंध लगाया था। जान-बूझकर मनुवादी-संघी सरकारों ने इसे व्यवहारिक रूप में जमीन पर लागू नहीं किया, लागू करने का काम कार्यपालिका का था। आज उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश यह कहकर पल्ला झाड़ रहे हैं कि प्रतिबंध लगाने से कोई फर्क नहीं पड़ा। न्यायपालिका से देश की जनता पूछना चाहती है कि जब प्रतिबंध लगाने से कोई फर्क नहीं पड़ा तो न्यायपालिका ने कार्यपालिका के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही क्यों नहीं की? न्यायपालिका को ऐसी स्थिति देखकर मनुवादी संघी सरकारों के खिलाफ सख्त से सख्त अवमाना की कार्यवाही करनी चाहिए थी जो न्यायपालिका ने शायद जान-बूझकर नहीं की। देश की जनता आज कार्यपालिका को दोषी कम और न्यायपालिका को अधिक दोषी मानती है। चूंकि न्यायालय द्वारा दिये गए आदेशों को जमीन पर उतरवाना न्यायपालिका का भी उतना ही कर्तव्य बनता है जितना कार्यपालिका का। न्यायपालिका और कार्यपालिका के ऐसे व्यवहार को देखकर देश की जनता को समझ आ रहा है कि ये दोनों ही लोकतंत्र के स्तम्भ हैं जिनकी ऐसी कार्य विधि से आज देश में कानून का शासन हर रोज ध्वस्त होता दिख रहा है।
पटाखों को छूट देने के संबंध में जो दलीले दी जा रही है वे बहुत ही बचकानी और बेहूदी है। जैसे उच्चतम न्यायालय में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि मेरे अंदर बैठा बच्चा आपके अंदर बैठे बच्चे से अनुरोध कर रहा है कि दीवाली के अवसर पर देश की जनता को ग्रीन पटाखे छोड़ने की अनुमति दी जाये। शायद उसी आधार पर मुख्य न्यायधीश की पीठ ने पटाखे चलाने की सीमित अनुमति प्रदान की है। यहाँ जनता यह जानना चाहती है कि उच्चतम न्यायालय ने ग्रीन पटाखे चलाने की सीमित अनुमति राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) नागपुर के संदर्भ से उचित बताने की कोशिश की, मगर देश की जनता नीरी नागपुर और उच्चतम न्यायालय से यह जानना चाहती है कि ग्रीन पटाखों में जो रसायनिक पदार्थ इस्तेमाल हो रहा है क्या जलाने पर वह वातावरण को प्रदूषित नहीं करता? पटाखों में जो पदार्थ इस्तेमाल होता है उनमें आवश्यक रूप में बारूद और उससे जुड़े अन्य रसायन ही इस्तेमाल किये जाते हैं, जो वातावरण को अधिक प्रदूषित करते हैं। नीरी नागपुर का संदर्भ इंगित करता है कि वर्तमान सरकार में संघी मानसिकता के कर्मचारी और अधिकारियों को पहले से ही वहां पर स्थापित कर दिया गया है और उनका ग्रीन पटाखों का फैसला भी उसी ओर इशारा करता है। देश के सभी वैज्ञानिक संस्थान आज पूरी तरह से मनुवादी संघीयों के कब्जे में हैं इसलिए वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर न चलकर सब अंध आस्था के आधार पर ही चल रहा है। किसी की भी जाति व वर्ण की आस्था का संविधान में कोई स्थान नहीं है इसलिए उच्चतम न्यायालय का फैसला मनुवादी मानसिकता की सरकार को खुश करने वाला लगता है। फैसला आने के तुरंत बाद दिल्ली सरकार में बैठी मनुवादी संघी मानसिकता की मुख्यमंत्री श्रीमती रेखा गुप्ता ने उच्चतम न्यायालय का आभार व्यक्त कियौ। यह सब अपने आप में न्यायिक दृष्टि को अनदेखा करके मनुवादी-संघी मानसिकता के वर्चस्व को दिखाता है।
ग्रीन और रेड पटाखों को लेकर न्यायपालिका और नीरी नागपुर में बैठे वैज्ञानिकों को बताना चाहिए कि ग्रीन और रेड पटाखों का वर्गीकरण किस आधार पर किया गया है। हमारा न्यायपालिका और नीरी नागपुर से अनुरोध है कि वह देश की जनता को स्पष्ट रूप से ग्रीन और रेड पटाखों का वर्गीकरण करके तथ्यों के साथ बताए और देश की जनता को मूर्ख न समझा जाए!
चुनाव में मनुवादी संघियों का नाटकीय खेल: पिछले करीब दो महीने से बिहार विधान सभा के चुनाव को लेकर मनुवादी संघियों का खेल बिहार के मतदाताओं को लुभाने में लगा हुआ है। नीतीश कुमार की जेडीयू को संघियों का खेल शायद समझ में तो आ रहा है मगर वे अब चारों तरफ से इतने घिर चुके हैं कि अब उनका संघियों के चुनावी चक्रव्यूह से बाहर निकालना असंभव हो गया है। मनुवादी संघी सरकारों का चुनावी इतिहास यह बताने के लिए पर्याप्त है कि किस तरह से महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के साथ मिलकर संघियों ने सरकार बनाई और उद्धव ठाकरे को महाराष्ट्र की राजनीति से पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। दूसरा उदाहरण पंजाब में अकाली दल का है, जिनके साथ मिलकर पंजाब में सरकार बनाई। केंद्र की सरकार में अकालियों का साथ लिया और अंतत: अकाली दल को पंजाब से खत्म कर दिया। यही नहीं, संघी मानसिकता की केंद्र में बैठी सरकार ने पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी घुसपैठ की और वहाँ से क्षेत्रीय दलों को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। बिहार के चुनाव में अब शायद आहुति देने की चिराग पासवान और जीतन राम मांझी की बारी है चूंकि ये दोनों ही हिन्दुत्ववादी ताकतों के प्रबल समर्थक बन रहे हैं। चिराग पासवान अपनी जमीन पर न चलकर ब्राह्मणवादी संघी जमीन पर उड़ान भर रहे हैं। शायद उनकी चाल में यह मिलावट ब्राह्मण वर्ग से आई है जो उनकी माँ के प्रभाव के कारण है। चिराग पासवान अपने माथे पर ब्राह्मणों से भी अधिक बड़ा टीका लगाकर यह प्रदर्शित करने का ढोंग करके दिखा रहे हैं कि मैं किसी भी मनुवादी संघी संस्कृति के सवर्ण समाज के व्यक्तियों से कम नहीं हूँ। मैं अब पूरी तरह से संघी मानसिकता का गुलाम बन चुका हूँ और अब जो भी मनुवादी संघी मानसिकता के पाखंडी लोग मुझे आदेश देंगे मैं पूरी तरह से उसका पालन करूंगा। जीतन राम मांझी भी चिराग पासवान जैसा ही प्रदर्शन कर रहे हैं, दोनों एक-दूसरे को ब्राह्मणी संस्कृति की प्रतिस्पर्धा में मात देने की कोशिश कर रहे हैं। आने वाले बिहार चुनाव से लगता है कि क्षेत्रीय दल जैसे नीतीश की ‘जेडीयू’, चिराग पासवान की ‘लोक जनशक्ति पार्टी’, जीतन राम मांझी की ‘हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा’ तीनों ही पूरी तरह से नहीं तो आंशिक रूप से उन्हें खत्म कर दिया जाएगा। बिहार में प्रशांत किशोर की जन स्वराज पार्टी को बिहार के सीधे-साधे लोगों का वोट काटने के लिए मोदी-भाजपा द्वारा उतारा गया है। जिसका उद्देश्य समाज के भोले-भाले लोगों की वोट काटना और उनकी वोटों में बिखराव करना है, ताकि मोदी-शाह की भाजपा को बिहार के चुनाव में कुछ फायदा मिल सके।
बिहार की जागरूक जनता से अपील है कि वे देश के वर्तमान हालात को समझें, बढ़ती हुई महंगाई, बेरोजगारी और घटती हुई आमदनी का भी संज्ञान लें। किसी भी राजनैतिक पार्टी के अंधभक्त न बनें और न अंधभक्त बनकर उसे अपनी वोट दें, अपने बौद्धिक बल और तार्किक बल के आधार पर चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों का निष्पक्षता, धर्मनिरपेक्षता के आधार पर आंकलन करे और जो प्रत्याशी जनता के दुख-दर्द को समझकर उसका समाधान देने में सक्षम हो उसी को अपना कीमती वोट देकर बिहार में सरकार बनवाएं और किसी भी कीमत पर मनुवादी संघियों की हिन्दुत्ववादी सोच वाली सरकार को न बनने दें। मनुवादी संघियों की रणनीति रही है कि दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों में उन्हीं के लाचली लोगों को घुसाकर, उन्हीं के द्वारा उनके सामाजिक घटकों के नेताओं को ध्वस्त किया जाये। इस तरह की मनुवादी संघी रणनीति से सावधान रहकर बहुजन समाज की जनता देश और बिहार की जनता के हित में अपना वोट करें।
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