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समाज में घटती वैज्ञानिकता, अम्बेडकरवाद के लिए खतरा

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2025-02-28 13:15:07

देश में आज सिर्फ दो ही वाद प्रमुखता के साथ मौजूद है। ‘ब्राह्मणवाद’ और ‘अम्बेडकरवाद’। ब्राह्मणवाद देश में जातिवाद, छुआछूत, ऊँच-नीच और धार्मिकता के आधार पर नफरत फैलाता है। देश के शूद्रों व महिलाओं को मनुस्मृति के आधार पर निम्नतम स्थान देता है। जबकि अम्बेडकरवाद समता, स्वतंत्रता, बधुत्व व भाईचारे की बात करता है। भारतीय संविधान में भी बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने इन सभी मानवीय अधिकारों को सभी के लिए समाहित किया है। देश में रहने वाले सभी व्यक्ति महिला हो या पुरुष सबको समान अधिकार हंै। संविधान के अनुच्छेद-13 में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने तथाकथित हिन्दू धर्म के नाम से चली आ रही प्रथाओं, रीति-रिवाजों व अवैज्ञानिक प्रथाओं को समाप्त कर दिया है। अब देश में संविधान के अनुसार न कोई अमानवीय प्रथा व आस्था अस्तित्व में है और न ही कोई व्यक्ति अमानवीय प्रथाओं को लेकर देश में कोई प्रपंच व नाटक खड़ा कर सकता है। संविधान निर्माताओं की ऐसी ही मानसिकता थी लेकिन आज देश में इसका उल्टा हो रहा है, प्रथाओं, रीति-रिवाजों व आस्थाओं के नाम पर देश की भोली-भाली जनता को ठगा जा रहा है। 26 फरवरी 2025 को महाशिवरात्रि के नाम पर देश की जनता में पूरा पाखंड व प्रपंच सत्ताबल से परोसा गया और कालोनियों की गलियों, पार्कों व मंदिरों में महाशिवरात्रि के नाम पर छोटे-बड़े आयोजन करके भंडारे लगाए गए। इन सभी आयोजनों व भंडारों में अधिक संख्या में उन्हीं जातीय घटकों के लोग थे जिन्हें मनुस्मृति के अनुसार शूद्र वर्ण में माना गया है। उन्हें कोई भी मानवीय अधिकार तक नहीं दिए गए हंै। महाशिवरात्रि के आयोजनों में भाग लेने वाले शूद्रों के जातीय घटकों को अपने बुद्धिबल व तर्क के आधार पर सोचना चाहिए कि कथित महाशिवरात्रि इस देश में आज पहली बार नहीं मनाई जा रही है। यह प्रपंच तो यहाँ पर बिना तार्किक आधार के सदियों से ब्राह्मणी संस्कृति के अस्तित्व में है और इसमें भाग लेने वाले शूद्र वर्ण के ही ज्यादा लोग होते हैं। शूद्रों ने अपने बुद्धिबल से आजतक यह सोचने की कोशिश क्यों नही की कि महाशिवरात्रि में शामिल होने से उन्हें आजतक क्या मिला है? साथ में वे यह भी सोचें कि ऐसे आयोजनों को आयोजित करने में ब्राह्मणों का जो मानसिक इंजन लगा है वहीं इस प्रकार के आयोजनों का संचालक क्यों रहता है? साथ ही उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि ऐसे धार्मिक आयोजनों से जो आर्थिक लाभ होता है वह ब्राह्मणों के हिस्से में ही क्यों जाता है? ये कुछेक ऐसे मौलिक प्रश्न है जिन्हें इस देश के नागरिकों को उठाने चाहिए। आज देश की अधिसंख्यक जनता पढ़-लिखकर भी ऐसे सवालों को जनता में उठा नहीं रही है जिसके कारण देश की जनता पूरी तरह से मानसिक गुलामी की जकड़न में हैं और वह यह समझने की कोशिश भी नहीं कर पा रही है कि ऐसे आयोजनों के पीछे किसका स्वार्थ छिपा है? जो समुदाय बहुसंख्यकों को इस्तेमाल करके धर्म के नाम पर अपना धंधा चला रहे हैं। वे शूद्रों के कथित नासमझ और अतार्किक लोगों को अपने हित के लिए लगातार इस्तेमाल कर रहे हैं। सोचो कि आप कब तक इस मानसिक गुलामी को सहन करते रहोगे?

हर मनुष्य की सोच में छिपा है, उसका विकास: दुनिया में कोई भी व्यक्ति अपनी सोच और बुद्धिबल से आगे बढ़ता है, कार्य करता है और उसके द्वारा किये गए कार्यों के बल पर ही वह समाज में अपनी पहचान बना पाता है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का परिनिर्वाण 6 दिसम्बर 1956 को हुआ उन्होंने अपने संघर्ष और बुद्धि बल से देश के शेड्यूल कास्ट, सभी वर्गों की महिलाएँ व अति पिछड़ी जातियों के लिए महत्वपूर्ण संघर्ष किये। उनके शोषण, उत्पीड़न और अधिकारों को तत्कालीन सरकार के सामने रखकर सरकार को चेताया कि आप इन सभी के लिए उचित कानूनी प्रावधान करके उन्हें सबल व ज्ञानवान बनाने का कार्यक्रम चलाएं। आजादी मिलने के बाद संविधान के कई अनुच्छेदों में उन्होंने महिलाओं, दलितों, अति पिछड़े व धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए संविधान में कल्याणकारी प्रावधानों को समाहित किया। लेकिन ब्राह्मणी संघी संस्कृति की सरकारों ने उनपर कोई ध्यान न देकर इन सभी की उपेक्षा की और खासकर अति पिछड़ी जातियों जैसे-नाई, कुम्हार, गडरिये, काछी, मल्लाह, तेली, व इनके समकक्ष अन्य सभी अति पिछड़ी जातियों को धार्मिक अन्धविश्वास में लिप्त किया। साथ ही उनमें क्रमिक ऊँच-नीच व जातिवाद को भी बढ़ाया गया। संघी मानसिकता की षड्यंत्रकारी चाल ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति के तहत पिछड़ी व दलित जातियों को अलग-अलग बताया गया कि आरक्षण का फायदा अमुख जाति के लोग ही अधिक उठाकर आपका हिस्सा खा रहे हैं। इस आधार पर दलितों की कई कमसमझ जातियाँ संघी ब्राह्मणी मानसिकता के झांसे में फंस गई और वे अपने वर्ग के ही एक-दूसरी जाति के साथ उपेक्षित व नफरती भाव रखने लगी। इसी आधार पर दलित समाज आपस में बंट गया और उनकी सामाजिक व राजनैतिक शक्ति भी कमजोर हुई। जिसका फायदा देश की मनुवादी संघी जमात ने मौका पाकर अपने संघी कार्यक्रम दलितों की बस्तियों में अधिक संख्या में चलाए। पाखंडी धार्मिक आयोजनों का संचालन भी दलितों की बस्तियों में ही किया जाने लगा। पाखंडी कथित साधु-संत, कथावाचक, सत्संगकर्ता, भंडारे इत्यादि के आयोजन भी दलितों की बस्तियों में लगाए जाने लगे। ऐसे कथित पाखंडी प्रवृति के धार्मिक कार्यक्रमों की बारम्बारता से दलित समाज में विशेषकर उनकी महिलाओं में पाखंडवाद का गहरा असर हुआ, उनकी सोच और समझ में तर्क वैज्ञानिकता कमजोर पड़ी। सोच और समझ के आधार पर उनमें जो विकसित समाज का उदय होना था वह रुक गया। इसी षड्यंत्रकारी नीति को अपनाकर मनुवादी संघियों ने देश और प्रदेश की राजनीतिक सत्ता में अपना आधिपत्य जमा लिया, जिसके परिणाम आज सबके सामने हैं। दिल्ली के हालिया विधान सभा चुनाव में दलितों, पिछड़ों की राजनैतिक ताकत बेहद कमजोर दिखी है जो दलितों में अम्बेडकरवाद की कमजोर दशा को प्रदर्शित करती है। यहाँ प्रमुख बात यह है कि अम्बेडकरवाद जो आज कमजोर पड़ता नजर आ रहा है उसके पीछे का षड्यंत्रकारी रहस्य यह है कि ब्राह्मणी संघी मानसिकता के षड्यंत्रकारी लोग दलितों को ही अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा पहली बार नहीं है, यह षड्यंत्रकारी खेल दलितों के साथ सदियों से खेला जा रहा है मगर विडंबना यह है कि दलित समाज इस संघी खेल को समझने में हमेशा विफल ही रहा है।

जातीय घटकों में परस्पर श्रेष्ठता का भाव: दलित समाज के जातीय घटकों की मानसिकता में संक्रमित रोग है जिसके आधार पर हरेक दलित जातीय घटक अपने आपको दूसरे जातीय घटक से श्रेष्ठ, ऊँचा या नीचा मानता है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के अथक प्रयासों के बाद भी दलितों के जातीय घटक आपस में समता, समानता, भाईचारे का भाव रखने में असफल है। यही सबसे प्रमुख कारण है जो इन सबको एक साथ न बैठने देता है, न आपस में विचार-विमर्श करने देता है, और न आपस में खान-पीन और विचार-विमर्श को साझा करने देता है। इस प्रकार की भावना के कारण ही दलित समाज के सभी जातीय घटक तार्किक व वैज्ञानिक सोच के नहीं बन पा रहे हैं। मान्यवर साहेब कांशीराम जी कहा करते थे कि ‘हमारे समाज का व्यक्ति हमारे समाज के व्यक्ति के ऊपर ही ज्यादा पहलवानी दिखाता है’ उनका ऐसा सोचना और कहना आज भी प्रासांगिक है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के परिनिर्वाण के बाद पहली और दूसरी पीढ़ी के व्यक्तियों में सामाजिक एकता और संघर्ष के कुछेक अंश मौजूद थे मगर समय अंतराल में ये सब लक्षण धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं। दलित समाज के लोगों में एक और कमजोरी है कि वे अपने समाज के समझदार, प्रबुद्ध व अग्रणीय लोगों की बातें न मानता है और न स्वीकारता है। वह सिर्फ ब्राह्मणी संघी संस्कृति के लोगों की बात मानता है। ऐसा देखकर बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ‘अगर हमारा (एससी) आदमी हमारी बात मान ले तो उससे बढ़कर कोई सुधार हो नहीं सकता, मगर हमारा आदमी (एससी) संघी ब्राह्मणों की बात मानकर उनकी ही बात का अनुसरण करता है।’ इन छोटी-छोटी वजहों के कारण ही दलित समाज आज कमजोर है, एकता विहीन है संघर्ष विहीन है और परिणामस्वरूप सत्ता विहीन भी है।

दलित समाज के जातीय घटक दूसरे पर उंगली उठाने से पहले खुद में सुधार करें: आमतौर पर देखा जा रहा है कि दलितों के जातीय घटक एक-दूसरे जातीय घटक को कोसते रहते हैं और उनमें कमिया निकालकर दूसरों को सुनाते रहते हैं। अब दलितों को यह बंद करना होगा, सुधार अपने से शुरू करना होगा, तभी समाज के दूसरे अंग सुधार की तरफ अग्रसर हो सकेंगे? देश को आजाद हुए 75 वर्ष का समय बीत चुका है। पहले के सामाजिक हालातों के सापेक्ष आज 75 सालों के हालातों में काफी अन्तर आ चुका है। पहले आमतौर पर देखा जाता था कि एससी (दलित) समुदाय के लोग आपस में अच्छा मेल-मिलाप रखते थे, आपसी सहभागिता और समभाव भी मौजूद था। लेकिन देश में 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद से दलित समाज के कुछेक लोगों ने बाबा साहेब के मिशन और संघर्ष को समझा और बाबा साहेब के द्वारा बताए रास्ते पर चलने का संकल्प लिया। जो लोग ऐसा करने में कामयाब हुए आज वे ही लोग अपने समाज के दूसरे अंगों के सापेक्ष अधिक जागरूक और सम्पन्न नजर आ रहे हैं। परंतु उनमें गैर जरूरी श्रेष्ठता का भाव भी पैदा हुआ है और वे इसी श्रेष्ठता भाव के कारण अपने समाज के लोगों के साथ मिल-जुलकर नहीं रहे हैं। अपने आपको ऐसे समाज से अलग समाज रहे हैं। संविधान लागू होने के बाद से दलित (एससी) समाज में शिक्षा रोजगार व संपन्नता का कुछ उभार हुआ है जिसके बल पर दलित समाज के लोगों ने अपने अच्छे मकान, दुकान, व्यापार आदि का निर्माण करके अपने आपको सवर्ण समाज के सापेक्ष स्थापित कर लिया है और वे अपने समाज की दुर्दशा के दिनों को भूल चुके हैं जोकि उन्हें नहीं करना चाहिए था, उन्हें याद रखना चाहिए था कि वे भी इसी समाज के अंग है और उनको लगातार जागरूक करते रहना भी उन्हीं का कर्तव्य है।

उपरोक्त विचार-विमर्श को ध्यान में रखते हुए सभी दलित घटकों से आग्रह है कि वे हर हालत में अपने मूल को समझें और समाज को लगातार जागरूक करने का काम करते रहें। समाज के प्रेरक बनें और अम्बेडकरवाद को भारत भूमि पर गहराई तक समाहित करने का काम करें। आज दलित समाज में बिखराव है जिसे देखकर यहाँ की मनुवादी संघी शक्तियाँ सत्ता के सहारे ताकतवर बनती जा रही है। दलित समाज अपने छोटे-छोटे जातीय घटकों में बंटकर समाज की राजनैतिक ताकत को कमजोर कर रहा है। वह अपने वोट की ताकत को नहीं समझ पा रहा है, वह यह भी भूल चूका है कि वोट का अधिकार बाबा साहेब ने कितने संघर्ष के बाद हम सबको दिलाया और समानता के आधार पर हर समाज के व्यक्ति के वोट की कीमत एक ही रखी, किसी के साथ भी कोई भेदभाव नहीं किया। दलित समाज को सोचना चाहिए कि आप इस देश में अधिसंख्यक हैं और आपकी वोट के आधार पर ही देश में सत्ता बनती और बिगड़ती है। आज समाज में आपसी बिखराव को देखकर लगता है कि देश की सत्ता में जो संघी शासन स्थापित हो रहा है उसका निर्माण बहुजन समाज के बिखरे हुए जातीय घटकों के कारण ही हो रहा है। सभी से अनुरोध है कि वे इस बिखराव को रोकें और समाज हित के लिए संघियों को सत्ता में न आने दें।

जय भीम, जय बहुजन समाज

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01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

2024-01-13 11:08:05