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संवैधानिक पदों पर बैठाये जा रहे ‘संघी गुलाम’

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2025-10-31 18:36:31

वर्तमान में संघी मानसिकता की सरकार है। संघियों का इतिहास शुरू से ही देश विरोधी कृत्य, समाज में नफरत फैलाने और लोगों को धार्मिक व जातीय आधार पर विभाजित करने का रहा है। संघी मानसिकता के लोगों ने इटली के तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी से प्रेरित होकर संघ की स्थापना की। शुरूआती दौर के सभी संघी मानसिकता के व्यक्ति कांग्रेस को छोड़कर संघ में आए थे। इनकी मानसिकता में धार्मिक और जातीय आधार पर समाज में उथल-पुथल व अशांति बनाए रखना था। संघ की स्थापना से पहले बालकृष्ण मुंजे जो कांग्रेस छोड़कर तानाशाह मुसोलिनी से इटली मिलने गए, इस दौरान उन्होंने मुसोलिनी से लंबी वार्ता की और मुसोलिनी की मानसिकता को पूरी तरह से समझने और उसे अपने मस्तिष्क में उतारने का काम किया। वार्तालाप और विचार-विमर्श के दौरान उनके मस्तिष्क में मुसोलिनी की यह बात घर कर गई कि इटली के लोग आमतौर पर सीधे-सादे है और मिल-जुलकर रहते हैं, मगर उनमें अपने महान रोमन साम्राज्य पर गर्व करने की भावना नहीं है। इसी बात से प्रभावित होकर मुंजे जब भारत लौटे तो उन्होंने मुसोलिनी से हुई वार्तालाप का पूरा वृत्तान बलिराम हेडगेवार को सुनाया। हेडगेवार ने मुंजे की बात सुनकर उसे पूर्ण रूप से अपने मस्तिष्क में उतार लिया और उसी के अनुरूप 27 सितम्बर 1925 को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना की।

आरएसएस की प्रमुख विशेषताएं: आरएसएस अपने आपको राष्ट्रीय स्वयं सेवक कहता है, लेकिन इनके सौ साल का सफर यह बताने के लिए पर्याप्त है कि ये कभी भी राष्ट्र भक्त नहीं थे, बल्कि हमेशा से वे राष्ट्र विरोधी कृत्यों में लिप्त रहे। भारत एक बहुलतावादी देश है जहां पर सभी धर्मों के लोग और 6743 जातियों में बंटे भारतीय निवास करते हैं। आरएसएस के 100 साल के इतिहास में रज्जु भैया (राजपूत) को छोड़कर अन्य जाति का कोई भी व्यक्ति संघ का सरसंघचालक नहीं रहा है। आरएसएस शुरू से ही ब्राह्मणवादी वर्चस्व का संगठन है, इसमें छोटे-बड़े सभी पदाधिकारी चितपावन ब्राह्मण ही बनते आ रहे हैं। शूद्र वर्ण की जातियों के व्यक्तियों को आरएसएस में कोई महत्वपूर्ण दायित्व नहीं दिया जाता है। आरएसएस में जाकर वे वहाँ के स्वयं सेवकों की सिर्फ सेवा करते हैं; उनकी गुलामी करते हैं तथा दुष्कर्म के शिकार होते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने 10-15 साल तक आरएसएस में सेवा करने के बाद बताया कि आरएसएस नाम का संगठन ‘देश विरोधी कार्य करने; जनता को बरगलाने; झूठ बोलने; किसी भी छोटे से छोटे मुद्दे को पकड़कर उससे जनता में नफरत का भाव पैदा करने का है। अंग्रेजी शासन काल में संघ के लोग अंग्रेजों से मांफी मांगकर जेल से छूटे। और आजादी के आंदोलन से जुड़े देशभक्तों की खुफिया जानकारी अंग्रेजों को मुहैया कराकर बदले में उनसे पेंशन पा रहे थे। देश विरोधी गतिविधियों में अंग्रेजों से जुड़कर देश का बटवारा कराने का ‘द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत’ संघियों के सिरमोर ‘विनायक दामोदर सावरकर’ ने ही दिया था। पाकिस्तान की मांग जिन्ना व अन्य मुस्लिम नेताओं की नहीं थी, संघियों के मस्तिष्क में उनकी छिपी एक कल्पना थी कि अगर बंटवारा करके द्वि-राष्ट्र बनाते हैं तो उनमें से एक मुस्लिमों का पाकिस्तान होगा, और दूसरा हिंदुओं का हिस्सा स्वत: ही बन जाएगा। जिसका विरोध बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने किया था कि ‘देश का बंटवारा धार्मिक आधार पर नहीं होना चाहिए।’ बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने देशवासियों को यह भी चेताया था कि ‘किसी भी कीमत पर देश को हिन्दू राष्ट्र नहीं बनने देना है, अगर ऐसा हो भी गया तो फिर यह देश भारत के अल्पसंख्यकों, दलित व पिछड़ी जाति के लिए सुरक्षित नहीं होगा।’

चरित्रहीनता की पराकाष्टा आरएसएस: केरल के आनंदु अजी के साथ आरएसएस की शाखा में सालों हुए यौन अत्याचार की कहानी ने संघ की असलियत देश के सामने रख दी है। कहने के लिए संघ जनता में प्रचार करता है कि हम पूरी उम्र अविवाहित रहकर देश के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम संचालित करते हैं। विवाहित होने से समाज के कार्यों में बाधा आती है। संघ के वरिष्ठ नेताओं के कृत्यों को देखने से उनमें चरित्रहीनता के उदाहरण जनता को साफ दिखाई देते है जिनको देखकर सभी को गंभीर विचार करना चाहिए कि संघ की शाखाओं में जायें या न जायें! देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी जो विश्व के श्रेष्ठतम झूठे व्यक्तियों में से एक हंै, उनके बारे में 2014 तक पूरा देश यही जानता था कि मोदी जी अविवाहित है, लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद देश की जनता को पता चला कि मोदी जी का विवाह गुजरात की ‘जसोदा बेन’ से हुआ था लेकिन वे उन्हें छोड़कर भाग गए और बाहर इधर-उधर मुंह मारते रहे। दूसरा उदाहरण संघ के प्रचारक व भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का है, प्रधानमंत्री बनने तक वे अविवाहित ही थे, उनके पास कोई परिवार नहीं था। प्रधानमंत्री बनने के बाद जनता को पता चला कि उनकी एक बेटी है, उसी लड़की ने मृत्यु के बाद उन्हें मुखाग्नि दी थी। अधिकांश जनता का मत है कि वाजपेयी की कथित लड़की उनके छिपे सम्बन्धों से ही है। इसके अलावा देशभर में संघियों के ऐसे हजारों केस हो सकते हैं जिनमें संघियों की चरित्रहीनता परिलक्षित होती है। ऐसी घटनाओं को देखकर जनता को सावधान हो जाना चाहिए, कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखाओं में न भेजकर उन्हें बर्बाद होने से बचाए। संघी लोग जनता को चरित्र श्रेष्ठता का भाषण देते हैं और उनके प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी उच्च कोटि के पियक्कड़, मांसाहारी और नशेड़ी थे।

मानसिक गुलामों को बैठाया जा रहा संवैधानिक पदों पर: संघ की रणनीति रही है कि छिपकर वार करो; मत किसी को दिखाई दो और मत किसी के हाथ आओ। इसलिए आरएसएस नाम के संगठन का आज तक देश में न कहीं पंजीकरण है, न उसकी आय और व्यय का कोई ब्यौरा है। संघ देश की भोली-भाली जनता में झूठ, पाखंड और छलावों का प्रचार करता है, उसी के आधार पर बहुजन समाज के लालची व स्वार्थी लोगों को लालच देकर फँसाता है और उन्हें संघ के छिपे मकसद के लिए इस्तेमाल करता है। इस्तेमाल किए गए बहुजन समाज के प्रमुख नेताओं के नाम हंै- पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद जी, वर्तमान राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती द्रोपदी मुर्मू जी जिनको मीडिया में दिखाकर यह कोशिश की जा रही है कि हम दलित-पिछड़े समाज से जुड़े लोगों का सम्मान करते हैं और उन्हें भागीदारी भी देते हैं। मगर सच्चाई इसके विपरीत है, पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद को ‘एक देश, एक चुनाव’ की समीक्षा और संभावना पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए कमेटी का अध्यक्ष बनाया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट तैयार करके मोदी-संघियों को सौंप दी है। पूर्व राष्ट्रपति कोंविद जी ने हमेशा संघी गुलाम रहकर ही कार्य किया है, संघ की कृपा से ही वे देश के राष्ट्रपति बने ताकि राष्ट्रपति भवन में संघ की विचारधारा से जुड़ी कोई भी फाइल रुकने न पाये। माननीय कोविंद जी ने भी इसे पूरी सिद्दत के साथ पूरा किया, प्रधानमंत्री के दफ्तर से फाइल निकलते ही कोविंद जी राष्ट्रपति भवन के गेट पर फाइल पर हस्ताक्षर करने के लिए मौजूद रहते थे। उनके कार्यकाल मे कोई भी फाइल राष्ट्रपति कोविंद जी के दफ्तर में एक मिनट भी नहीं रुकी, चाहे वह बहुजन समाज के हितों के विरुद्ध ही क्यों न हो। माननीय कोविंद जी अपने राष्ट्रपति काल में उड़ीसा के ‘जगन्नाथ मंदिर’ दर्शन के लिए गए, वहाँ पर पुजारियों ने उनको मंदिर में प्रवेश करने से रोका था चूंकि वे निम्न जाति से थे। इसी तरह उनको राजस्थान के पुष्कर मंदिर में भी पुजारियों द्वारा रोका गया था, उन्हें इस बात पर भी कभी शर्म नहीं आई। वर्तमान माननीय राष्ट्रपति श्रीमति द्रौपदी मुर्मू जी भी आजकल हिन्दुत्ववादी मंदिरों के दर्शन करती घूम रही है और संघियों से जुड़े लोगों के प्राईवेट अस्पतालों का उद्घाटन भी कर रही है। माननीय श्रीमती मुर्मू जी से आदिवासी और दलित समाज जानना चाहता है कि आपके इस कार्य से समाज को क्या फायदा हो रहा है? आप समाज को बताए कि आपके द्वारा संवैधानिक पद लेने के बाद आदिवासी समाज को क्या लाभ पहुंचा है? माननीय मुर्मू जी दलित व आदिवासी समाज के लिए अच्छा यह होगा कि आप देश की राष्ट्रपति होने के नाते आदिवासी व दलित समाज को यह बताएं कि उनके समाज के नौजवान नक्सली बनने के लिए मजबूर क्यों है?

उपरोक्त दोनों राष्ट्रपतियों के कृत्यों के सापेक्ष जब दलित व बहुजन समाज के जातीय घटक देखते है कि माननीय के.आर. नारायण जी जब देश के राष्ट्रपति बने थे तो उनके कृत्यों के सापेक्ष आप कहाँ खड़े होते हैं? माननीय के.आर. नारायण जी एक विद्वान, कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ व दूरदृष्टि व्यक्तित्व के धनी थे जब वे देश के राष्ट्रपति थे तब उनके सामने देश की न्यायपालिका में न्यायधीशों की नियुक्ति की एक फाइल लाई गयी थी। उस समय वाजपेयी प्रधानमंत्री थे उन्होंने वह फाइल प्रधानमंत्री कार्यालय को अपनी टिप्पणी के साथ वापिस की थी जिसमें पूछा गया था कि दलित व पिछड़े समाज के न्यायधीशों के नाम इस लिस्ट में क्यों नहीं हंै? इस लिस्ट में दलित व पिछड़े समाज के न्यायधीशों के नाम जोड़कर फाइल दोबारा भेजी जाये। यही फाइल संशोधित होकर दोबारा राष्ट्रपति भवन को भेजी गई जिसमें माननीय के. जी. बालाकृष्णन जी का नाम शामिल किया गया था जो बाद में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश बनकर सेवानिवृत हुए।

न्यायपालिका में संघीयों की घुसपैठ: दो दशकों से देखा जा रहा है कि संघी मनुवादी मानसिकता के लोगों को सत्ताबल के सहारे नामित करके न्यायपालिका में घुसाया जा रहा है। जिसके परिणाम उनके द्वारा दिये गए फैसलों में स्पष्ट दिखते हैं। उदाहरण के तौर राम मंदिर का फैसला, जिसे आस्था के आधार पर मंदिर के पक्ष में सुनाया गया। उच्चतम न्यायालय का यह फैसला पूर्णतया असंवैधानिक था। उस समय की उच्चतम न्यायालय की पीठ में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर थे। जिन्होंने सर्वसम्मति से यह फैसला 9 नवम्बर 2019 को सुनाया। इस तरह के संविधान की भावना के विपरीत दिये गए फैसलों का उच्चतम न्यायालय के सम्पूर्ण न्यायधीशों की पीठ का गठन करके उसको लागू होने से पहले उसका पुर्ननिरक्षण कराना चाहिए था जो मनुवादी संघी मानसिकता के चलते नहीं किया गया। इस असंवैधानिक फैसले का न्याय संगत पुर्ननिरक्षण कराने के लिए एडवोकेट महमूद प्राचा ने उच्चतम न्यायालय में पुर्ननिरक्षण की याचिका दायर की जिसे उच्चतम न्यायालय ने न्याय की दृष्टि से न देखकर दंड देने की दृष्टि से देखा और एडवोकेट महमूद प्राचा पर 6 लाख का जुर्माना लगाया। जजों की यह संघी मानसिकता संविधान सम्मत न्याय की भावना को कुचलने और जनता को हतोत्साहित करने जैसा है।

धार्मिक आधार पर नफरत फैलाने वालों के खिलाफ स्वत: संज्ञान ले न्यायपालिका: जबसे देश में मोदी संघी सरकार है तब से संघी मानसिकता के लफरझंडिस जनता के बीच और संसद में खड़े होकर धार्मिक आधार पर ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जिन्हें कोई भी सभ्य और सुसंस्कृत व्यक्ति नहीं कर सकता। बीजेपी सांसद रमेश बिधुडी ने संसद में खड़े होकर ‘ओए भड़वे’, ‘ओए आतंकवादी’, ‘ओए कटवे’ जैसे अशोभनीय व असंसदीय शब्दों का बेशर्मी से इस्तेमाल किया था। इसके अलावा भी भाजपा के सांसद अनुराग ठाकुर व भाजपा से जुड़े मंत्री कपिल मिश्रा ने भी नफरत भरे शब्दों का इस्तेमाल बेशर्मी से किया था। जिसपर न न्यायपालिका और संसद में संवैधानिक पदों पर बैठे किसी भी व्यक्ति ने इसका उचित संज्ञान नहीं लिया और न इन धार्मिक नफरती चिंटूओं को कोई सख्त संकेत दिया। यह संवैधानिक पदों पर बैठे पदाधिकारियों की नपुंसकता को दर्शाता है।

नफरती चिंटुओं का संभावित उपचार: देश में पिछले करीब एक दशक से धार्मिक सद्भाव में आग लगी हुई है और यह आग किसी और ने नहीं बल्कि मनुवादी संघी मानसिकता के लोगों द्वारा ही सुलगाई गई है। ऐसे हालात को देखते हुए देश में सामाजिक, धार्मिक सौहार्द के उद्देश्य से सुझाव है कि देश में जितने भी नफरत फैलाने वाले लोग है उनको साक्ष्यों के साथ बंदी बनाया जाये और उनपर देश विरोधी काम के लिए संविधान सम्मत सजा भी दी जाये। इस तरह के व्यवहार में कोई भाई-भतीजावाद या पार्टीवाद नहीं होना चाहिए चूंकि जबसे संघी मोदी और संघी अमित शाह देश की सत्ता में बैठे हैं तब से कार्रवाही सिर्फ विरोधियों पर होती है संघी व ब्राह्मणी मानसिकता से जुड़े लोगों पर नहीं। बल्कि उनको संरक्षण देकर उन्हें बचाया जा रहा है। दूसरे धार्मिक आधार पर नफरत फैलाने वाले व भाषण देने वाले योगी जैसे बुलडोजर नेताओं पर कार्रवाई करके उनको देश में वोट देने के अधिकार से तत्काल प्रभाव से वंचित किया जाये। ऐसा करके ही हम देश के संविधान और लोकतंत्र की रक्षा करने में सक्षम हो सकेंगे।

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01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

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