2025-08-23 16:13:22
पिछले 11 वर्षों से केंद्र में मोदी-भाजपा की संघी सरकार है, जिनकी कार्यशैली को देखकर देश की जनता और विपक्ष के मन में बहुत सारे सवाल है। इन सभी सवालों को निराधार नहीं कहा जा सकता, चूंकि इन बिलों में निहित है संघी वैचारिकी की मंशा। संघी मानसिकता के व्यक्ति का एक चरित्र रहा है कि जो भी काम करो वह छिपकर करो, देखने में जनता को अच्छा लगे, लेकिन उसके अंदर जो वास्तविक मंशा निहित की गई है वह किसी को भी बाहर नजर न आये। ऐसी मानसिकता के व्यक्तियों को समाज की जागरूक जनता धूर्त कहकर संबोधित करती है। धूर्त का अर्थ है कि व्यक्ति सबकुछ जानता है, मगर वह उसे जनता में उजागर सार्वजनिक रूप से नहीं करता।
प्रस्तावित बिल के प्रावधान, सत्ता पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए खतरे की घंटी: 20 अगस्त 2025 को गृहमंत्री अमित शाह ने नया संवैधानिक संशोधन प्रस्ताव पेश किया, जो संसद और संसद के बाहर चर्चा का केंद्र बना हुआ है। अमित शाह द्वारा प्रस्तावित यह संवैधानिक संशोधन बिल सतही तौर पर देखने से सबको अच्छा लगता है। लेकिन बिल की अंतरात्मा (संघी मानसिकता) में क्या छिपा है इसका आंकलन 11 वर्षों से केंद्र में स्थापित मोदी-संघियों की सत्ता को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है? बहुजन जनता द्वारा चुनकर भेजे गए अपने प्रतिनिधियों को आगाह करना चाहिए कि अगर आप भगवान बुद्ध और अम्बेडकर के सच्चे अनुयायी हैं तो उसकी ऊपरी सतह को देखकर अच्छा बताए जाने पर उसे सही न मानें। उसे जाँचे-परखे और सही तथ्यों के आधार पर ही उसे सही मानें। संघी मानसिकता और अपने धूर्तपूर्ण कार्यों से पिछले करीब 3 हजार वर्षों से बहुजन जनता को मूर्ख समझकर दिग्भ्रमित करते आ रहे हैं। लेकिन बहुजन समाज की विडम्बना यह है कि वह संघियों की मानसिकता द्वारा परोसे गए प्रस्तावों को न जाँचती है और न परखती है, उन्हें सिर्फ अंधभक्तों की तरह मानने में ही अपनी भलाई समझती है, जो समाज के लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
भाजपा-संघियों की नीयत में खोट: संसद में पेश किये गए संवैधानिक संशोधन प्रस्ताव जनता को आकर्षित लग रहा है चूंकि उसमें प्रावधान किया गया है कि चाहे पीएम, सीएम या मंत्री हो उनके जेल जाने पर उन्हें इस्तीफा देना होगा। इस प्रस्ताव के तहत प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों को गंभीर अपराधिक मामलों में गिरफ्तारी और 30 दिनों से अधिक हिरासत में रहने पर, उन्हें पद से हटाने का प्रावधान है। आम जनता को लग रहा है कि ऐसे कानूनी प्रावधान लाने से राजनीति से भ्रष्टाचार हटाने में मदद मिलेगी। लेकिन इस तरह की बातें जनता के सामने इसलिए रखी जा रही है, ताकि देखने में उन्हें लगे कि राजनीति में साफ-सुथरे छवि के लोग आयें, मगर इन प्रस्तावों के पीछे छिपी रणनीति को कोई नहीं जानता, 11 वर्षों के भाजपा-संघी मानसिकता के शासन में देखने में आया है कि इन 11 वर्षों के दौरान देश में जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें चुनाव के लिए टिकट पाने वाले और जीतने वालों में अधिक संख्या मोदी-भाजपा खेमे की रही है। जिसे देखकर सवाल तो बनता है कि अगर मोदी-भाजपा की नीयत इस मुद्दे को लेकर गंभीर है या उनकी यह पहले से मूल नीति रही है कि देश की राजनीति को भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त किया जाये तो उसने अपने बैनर तले चुनाव लड़ने वाले इतनी बड़ी संख्या में भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को टिकट क्यों दिये? भाजपा संघियों की सरकारों में बने मुख्यमंत्री और मंत्री को देखकर आज देश के अंधों को भी दिखाई दे रहा है कि भाजपा के कोटे से बने मुख्यमंत्री और मंत्रियों की पृष्ठभूमि बाकी दलों की अपेक्षा अधिक दागदार है। भाजपा-संघ से जुड़े कुछेक दागदार व्यक्तियों के नामों को देखकर जनता अपने दिमाग से आंकलन कर सकती है कि भ्रष्टाचारियों और अपराधी किस्म के राजनीति से जुड़े व्यक्तियों का सबसे सुरक्षित स्थान भाजपा ही है। विपक्ष के जिन लोगों पर मोदी भाजपा ने भ्रष्टाचार और अपराध के गंभीर आरोप लगाए थे, जब उन लोगों ने मोदी भाजपा का दामन थामा तो वे सभी अपराधों से मुक्त हो गए और मोदी भाजपा ने उनको अपनी सरकार में शामिल करके मंत्री बना दिया। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र के अजीत पवार, भाजपा से असम के मुख्यमंत्री डॉ. हिमंत बिस्वा शर्मा जो पहले कांग्रेस में थे तब भाजपा के लोग उनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगा रहे थे। जैसे ही उन्होंने मोदी-भाजपा का दामन थामा, उन्हें असम का मुख्यमंत्री भाजपा द्वारा बनाया गया और वे अब दूध से धुले मोदी के सबसे बड़े हीरो माने जाते हैं।
कुछेक ऐसे उदाहरणों को देखकर लगता है कि मोदी भाजपा द्वारा लाये जा रहे संवैधानिक प्रावधानों के द्वारा राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराध कम करने की मंशा नहीं है बल्कि उनकी मानसिकता में एक बड़ा खेल छिपा है। भाजपा संघियों का छिपा खेल इस प्रकार हो सकता है कि इन प्रावधानों को संसद से पास कराकर, उन्हें कानून का रूप देकर विपक्ष की सरकारों के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को डर दिखाकर आसानी से ब्लैकमेल किया जा सकता है। वर्तमान में मोदी संघी सरकार ने सभी संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा किया हुआ है, आज मोदी-भाजपा किसी को भी ईडी, सीबीआई, इन्कम टैक्स आदि का डर दिखाकर ब्लैकमेल कर रही है। पिछले 11 वर्षों में ईडी के द्वारा जितने भी केस विपक्षी खेमे के व्यक्तियों पर आरोपित किये गए हैं उनमें से एक प्रतिशत केस भी देश की अदालतों में साक्ष्यों के आधार पर सही नहीं पाये गये। मोदी भाजपा द्वारा लगाए गए ऐसे साक्ष्य विहीन, मन-गढ़ंत केसों के आधार पर दशकों से विपक्ष के नेताओं ने सामाजिक व मानसिक अपमान व प्रताड़ना झेली है। इनमें से कुछेक लोगों ने मानसिक और सामाजिक प्रताड़ना को झेलते हुए अपनी वैचारिकी के विरुद्ध भाजपा का दामन थामने में ही अपनी सुरक्षा देखी और वे अन-बने मन से भाजपा में शामिल होकर अपराध मुक्त हो गए।
सत्ता द्वारा प्रस्तावित प्रावधानों से लोकतंत्र को खतरा: विरोधी नेताओं जैसे प्रियंका गांधी आदि ने आरोप लगाया है कि यह कानून उन मुख्यमंत्री और मंत्रियों को निशाना बनाने के लिए लाया जा रहा है जिन्हें चुनाव में हराना भाजपा द्वारा संभव नहीं हुआ। मनु सिंधवी ने इन प्रस्तावों द्वारा चोरों को पकड़ने के बजाय ‘विपक्ष को खत्म करने की साजिश बताया है’ उनका तर्क है कि इस कानून के तहत 30 दिनों के बाद व्यक्ति को पद से हटाया जाएगा भले ही उसके विरुद्ध कोई ठोस सबूत न मिले।
वहीं एआईएमआईएम प्रमुख और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी बिल का विरोध किया। उन्होंने कहा कि यह विधेयक संघवाद, दोहरे खतरे, शक्तियों के पृथक्करण, उचित प्रक्रिया के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और निर्वाचित सरकार के लिए लोगों के अधिकार को कमजोर करता है। यह संशोधन कार्यकारी एजेंसियों को न्यायाधीश, जूरी और जल्लाद बनने की खुली छूट देगा। एक तुच्छ आरोप और मात्र संदेह के आधार पर, कोई भी एजेंसी किसी मंत्री या मुख्यमंत्री को हिरासत में ले सकेगी। कानून के शासन वाले समाज में, किसी व्यक्ति को स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा सुनवाई के बाद ही दंडित किया जा सकता है, और वह भी तब जब अपराध बिना किसी संदेह के सिद्ध हो जाए। इस मामले में, केवल एक आरोप के आधार पर, मंत्री पद खोने की सजा दी जाएगी। शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है। संसदीय लोकतंत्र में, किसी मंत्री या मुख्यमंत्री को केवल दो तरीकों से हटाया जा सकता है: पहला, यदि सरकार का मुखिया (प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री) उन्हें हटाने की सिफारिश करता है या दूसरा, यदि मंत्रिपरिषद स्वयं विधायिका में विश्वास खो देती है।
राजनैतिक गठजोड़: इन प्रस्तावों का एक बड़ा आयाम उपराष्ट्रपति चुनाव से जोड़कर भी देखा जा रहा है। इस बिल के संसद में पास होने पर सहयोगी दलों पर दबाव बनाने के लिए काम किया जा सकता है। मोदी भाजपा का पूर्व में इतिहास ऐसा ही रहा है कि वह अपने सहयोगियों या मित्रों पर भरोसा न करके उन्हें पहले कानूनी जाल में फंसाया जाता है और फिर उन्हें अपने पक्ष में वोट देने के लिए मजबूर किया जाता है। वर्तमान बिल के प्रावधान कुछ इसी तरफ इशारा करते हैं, चूंकि मोदी भाजपा की सरकार चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की बैशाखी पर टिकी हुई है अगर इन दोनों बैशाखियों से जुड़े संसद सदस्य, मोदी द्वारा प्रस्तावित उपराष्ट्रपति के उम्मीदवार को वोट नहीं करेंगे तो मोदी-भाजपा के व्यक्ति को जीतना कठिन हो सकता है। शायद संविधान के अंदर संशोधन करने के प्रस्ताव को लाने का मकसद संघियों की इसी सोच के मूल में छिपा है। इस बिल के दायरे में पीएम भी है, उन्हें इससे बाहर रखना चाहिए था वरना देश विरोधी मानसिकता की भाजपा संघी जैसी सरकारें देश की राजनीति में अस्थिरता भी ला सकती है?
लोकतंत्र पर बढ़ता खतरा: भाजपा की प्रथम पंक्ति में खड़े होने वाले नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री रहते हुए संसद में एक बार अपना बयान दिया था कि ‘लोकतंत्र लोक-लिहाज से चलता है’ लेकिन यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस राजनैतिक पार्टी में भारतीय लोकतंत्र का संवैधानिक अंश है ही नहीं वह लोक-लिहाज की रक्षा कैसे करेगी? भाजपा-संघियों का इतिहास, उनकी बेबफाई और उनके देश विरोधी कृत्यों से भरा पड़ा है। जिसको मोदी भाजपा द्वारा अपने अंधभक्तों की फौज खड़ी करके अनर्गल प्रचार के द्वारा दबाया जा रहा है। लेकिन वह दबने के बजाय दिनो-दिन जनता में अधिक उजागर होता जा रहा है। आम जनता में एक कहावत है कि कबूतर बिल्ली को देखकर अपनी आँखें बंद कर लेता है और वह अपनी मानसिकता के आधार पर यह समझने लगता है कि बिल्ली अब उसे नहीं देख रही है। मगर बिल्ली अपने लक्ष्य से भटकने के बजाय कबूतर को अपना शिकार बना ही लेती है। मोदी-संघी सरकार भी भारत की जनता को कबूतर की मानसिकता वाला ही मान रही है। मगर मोदी संघी सरकार को यह जानना भी उतना ही आवश्यक है कि लोकतंत्र में अधिकांश जनता मुंह से कम बोलती है, और सत्ता दल के कृत्यों को देखकर, उसका आंकलन करके अपना वोट देने का फैसला करती है। शायद अब जनता ने मोदी को सत्ता से हटाने का मन बना लिया है, मगर मोदी सत्ता से हटना नहीं चाहते इसलिए वे ऐसे अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक बिलों को संसद में लाकर जनता को विफल करने की रणनीति बना रहे हैं।
वोट चोरी से देश में मोदी सरकार: पिछले कुछेक महीनों में विपक्षी दलों ने मोदी की चुनावी कार्यशैली का भंडाभोड़ किया है, उससे साफ हो गया है कि मोदी-भाजपा सत्ता देश की जनता की वोट से चुनी हुई सरकार नहीं है बल्कि वह मशीनों में हेरा-फेरी करके, वोटों की चोरी करके सत्ता में आई है। इसलिए जनता अब सोच रही है कि मोदी भाजपा ने उनके साथ बहुत बड़ा धोखा और छल किया है, उसे अब सत्ता से उखाड़ फेंकना जनता के लिए आवश्यक हो चला है। ऐसे डर के तहत मोदी भाजपा सरकार चिंतित है कि सत्ता पर काबिज कैसे रहा जाए? उन्हें पता है कि सत्ता से जाने के बाद शायद आने वाली सरकारें उन्हें जेल में डाल देंगी। मोदी-भाजपा ने जो 11 वर्षों तक बादशाहत का जीवन जिया है और अपने अंधभक्तों को सत्ता की मलाई चटाई है उन सबका क्या होगा? जिन संवैधानिक संस्थाओं को मोदी-भाजपा ने अपने सत्ताकाल में कमजोर किया है और उनका खुलेआम दूरप्रयोग किया है उनमें बैठे गुलामों का क्या होगा? इस तरह की सभी चिंताएँ मोदी-संघी सरकार पर मानसिक दबाव बना रही हैं कि अनंत काल तक सत्ता में कैसे स्थापित रहा जाये? ताकि उनके और उनके अंधभक्तों पर वैभवशाली और विलासतापूर्ण जीवन पर कोई खतरा पैदा न हो।
प्रस्तावित कानूनों का भविष्य: मोदी संघियों द्वारा प्रस्तावित विधेयक संसद की स्लेक्ट कमेटी को भेजा जा सकता है। जिसका अवलोकन वहाँ पर बैठे सत्ता और विपक्ष के सदस्यों द्वारा किया जाएगा। संसद की स्लेक्ट कमेटी मोदी-शाह के प्रस्तावों से सहमत होती है? अन्यथा स्लेक्ट कमेटी अपने सुझावों के साथ इस बिल को दोबारा चर्चा के लिए संसद को भेज सकती है। इस पर संसद स्लेक्ट कमेटी के प्रावधानों से संतुष्ट होकर सुझाए गए प्रावधानों को बिल में शामिल करके संसद से पास करा सकती है। उसके उपरांत यह बिल राष्ट्रपति के समक्ष जाएगा और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद, अधिसूचित होकर कानून का रूप ले लेगा।
कानून बनने पर संशय: भारतीय संविधान में संशोधन बिल दोनों सदनों से पास होने और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद लागू कर दिया जाता है। लेकिन इन सबके बावजूद देश के उच्चतम न्यायालय को उसकी समीक्षा और जांच करने की शक्ति प्राप्त है। जिसके तहत वह उसे जांचता है। अगर बिल संवैधानिक दायरे में पाया जाता है तो उच्चतम न्यायालय उसे लागू करने का रास्ता साफ कर देता है। अन्यथा ऐसे बिल जो आम जनता और देश के लोकतंत्र के लिए खतरा बन सकते हैं उन्हें तुरंत रोक भी सकता है। इसलिए हमें लगता है मोदी-शाह द्वारा प्रस्तावित बिल देश के लोकतान्त्रिक चरित्र से जुड़ा मुद्दा है इसलिए शायद यह बिल भी उच्चतम न्यायालय की जांच-पड़ताल के लिए जाएगा जहां उसे निरस्त भी किया जा सकता है? इसी के साथ जुड़ा दूसरा विधायी मुद्दा यह है कि यह संवैधानिक संशोधन पारित कराने के लिए मोदी-भाजपा सरकार दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत जुटा पाएगी? हमें लगता है कि ऐसा होना असंभव है।
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