




2025-11-21 18:11:57
भारत 26 जनवरी 1950 को लोकतांत्रिक देश बना जिसके अनुसार सत्ता में संविधान सर्वोपरि है। संविधान की रक्षा और उसे जीवंत बनाए रखने के लिए संवैधानिक संस्थाओं का निर्माण मौजूद है। सभी संवैधानिक संस्थाएं अपने आप में स्वतंत्र है, कोई भी संस्था दूसरी संस्था के अधीन नहीं है। भारत में संविधान ही सर्वोपरि है, देश की संसद नहीं। संविधान निर्माताओं ने संविधान की रक्षा के लिए सभी उपायों का निर्माण किया ताकि किसी एक संस्था का दूसरी संवैधानिक संस्था के साथ टकराव न हो। इसी मूल भावना के तहत संवैधानिक संस्थाओं को पूर्ण स्वतंत्रता दी गई है ताकि वह सरकार या अन्य किसी के दबाव/प्रभाव में आकर कार्य न करे।
2014 से देश में मोदी-संघी मानसिकता की सरकार है जिनका मूल उद्देश्य हमेशा से समाज में उथल-पुथल और अशांति बनाए रखना है। संघियों की मानसिकता में संविधान को लेकर शुरू से ही खोट है, इसलिए वे हमेशा संविधान में बदलाव करने और देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की वकालत करते हैं। संविधान के अनुसार भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है जहां पर किसी एक धर्म को श्रेष्ठता नहीं है, यहाँ सभी धर्म समान है और सरकार का कोई भी धर्म नहीं है। संघियों की मानसिकता वाली सरकार जबसे देश में है तभी से देशभर में संघी मानसिकता के लोग अपने भाषणों के द्वारा देश में हिन्दू-मुसलमान आदि का नफरती माहौल पैदा करके चुनाव जीतने के कार्यक्रम में हर समय व्यस्त रहते हैं। संघियों को देश की समृद्धि और सफलता से कोई लेना-देना नहीं है, उनका मूल मकसद सिर्फ धार्मिक आधार पर सामाजिक सद्भाव में जहर फैलाना और उसी आधार पर किसी भी तरह से चुनाव में हेरा-फेरी करके सत्ता पर काबिज होना रहता है।
चुनाव आयोग: भारतीय चुनाव आयोग एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संवैधानिक संस्था है जिसका मुख्य कार्य देश में ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ चुनाव प्रक्रिया को पूरा करना है। चुनाव आयोग की भूमिका हमेशा तटस्थ रहकर, सभी चुनाव लड़ने वालों के साथ समानता के आधार पर व्यवहार करके सभी की भागीदारी सुनिश्चित करना है। संविधान निर्माताओं की मूल भावना यह रही थी कि भारत का चुनाव निष्पक्ष तरीके से हो, सभी मतदाताओं और चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के साथ किसी भी धार्मिक, लैंगिक या अन्य आधार पर भेदभाव न हो। परंतु वर्तमान मोदी सरकार संघियों की मूल भावना से संक्रमित होकर चुनाव आयोग को संघी आयोग में बदलने की प्रक्रिया में लगी हुई है। इसी भावना के तहत चुनाव आयोग में उसके सदस्यों की नियुक्ति का आधार मोदी सरकार से पहले था कि चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक तीन सदस्य कमेटी होगी उसमें एक सदस्य देश का प्रधानमंत्री या उसके द्वारा मनोनीत व्यक्ति, दूसरा सदस्य नेता प्रतिपक्ष, तीसरा व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश होंगे। मोदी सरकार ने चुनाव आयोग की नियुक्ति के गठन में बदलाव करके संघी मानसिकता के कारण उसे मोदी चुनाव आयोग में परिवर्तित कर दिया है। अब इस आयोग की नियुक्ति में एक सदस्य देश का प्रधानमंत्री, दूसरा सदस्य नेता विपक्ष और तीसरा सदस्य मोदी द्वारा नामित मोदी सरकार का मंत्री होगा; अब देश के मुख्य न्यायधीश की चुनाव आयोग के गठन में कोई भूमिका नहीं रही है। मोदी का यह फैसला दर्शाता है कि चुनाव आयोग में केवल संघी मानसिकता के व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाये और उन्हीं का इस्तेमाल करके देश के चुनाव को निष्पक्ष व पारदर्शी न रखा जाये।
हाल ही के वर्षो में जो चुनाव देश में सम्पन्न हुए हैं उनमें बड़े पैमाने पर धांधली, वोट चोरी और मतदाता सूची में बिना तथ्यात्मक कारण बताए नामों को हटाया और जोड़ा जाना शामिल है। जिसके द्वारा चुनाव आयोग की भूमिका पर देशवासियों का भरोसा दिनों दिन घटता हुआ नजर आ रहा है। हाल ही में बिहार के चुनाव की घोषणा के वक्त देश के मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार गुप्ता ने 8 अक्टूबर 2025 को प्रेस कांफ्रेस करके देशवासियों को बिहार के मतदाताओं की संख्या 11 करोड़ 42 लाख बताई थी, चुनाव सम्पन्न हो जाने के दिन यानि 11 नवम्बर 2025 को बिहार में 11 करोड़ 45 लाख वोट डाले गए। अब जनता के मन में यह सवाल पैदा हो रहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार गुप्ता ने कुल वोटर्स की संख्या 11 करोड़ 42 बताई थी, लेकिन बिहार में कुल वोट 11 करोड़ 45 लाख पड़े। अब ज्ञानेश कुमार जी देश की जनता को यह बताए कि 3 लाख वोटों का अंतर जो दिख रहा है वह कैसे हुआ? इस तरह के देशभर में अनेकों उदाहरण है जिनपर चुनाव आयोग की तरफ से कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है, इस तरह की अस्पष्ट बयानबाजी से देश की जनता चुनाव आयोग को शक की नजर से देखती है। आज के समय में जनता का चुनाव आयोग से विश्वास उठता हुआ नजर आ रहा है और जनता दबी जुबान से कहने लगी है कि चुनाव आयोग अब भारतीय चुनाव आयोग न रहकर मोदी आयोग बन चुका है। लोकतंत्र में संवैधानिक स्वतंत्र संस्थाओं पर जनता का भरोसा कायम रहना बहुत ही महत्वपूर्ण है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों पर उठते सवाल: देश के सर्वोच्च न्यायालय पर संविधान की रक्षा का दायित्व है मगर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो फैसले दिये जा रहे हैं उन्हें देखकर अब जनता को लगने लगा कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भी राजनैतिक सत्ता से प्रभावित हो रहे हैं और लोकतंत्र कमजोर। वर्तमान उदाहरण आरक्षण पर क्रीमीलेयर को लेकर मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी से साफ होता है कि कहीं न कहीं न्यायपालिका भी संघी मानसिकता की सरकार के सुर में सुर मिला रही है। क्रीमीलेयर के मुद्दे को लेकर देश की जनता के मन में सवाल इस प्रकार है कि न्यायपालिका पहले आरक्षित समाज को यह बताए कि क्या आरक्षण प्राप्त पदों पर नियुक्तियाँ पूर्ण हो चुकी है? दूसरा सवाल यह है कि जिन व्यक्तियों के माता-पिता आईएस, आईपीएस पदों पर स्थापित हुए हैं क्या उनके बच्चों के प्रति समाज का रवैया जातीय आधारित सामाजिक नफरत से परे हो चुका है? आम समझ के मुताबित इस वर्ग के बच्चों को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए, परंतु उनके प्रति जातीय भेदभाव भी आरक्षण का आधार होता है। आईएस, आईपीएस बनने के बाद उनके परिवार की आर्थिक स्थिति में बदलाव जरूर आया होगा परंतु जातीय आधारित नफरत का भाव आज भी समाज में ज्यों का त्यों बना हुआ है। देश के मुख्य न्यायधीश व अन्य माननीय न्यायधीशों से निवेदन है कि वे इस मुद्दे को गहरी सामाजिक समझ के साथ देंखे और फिर अपनी राय देश के नागरिकों के सामने रखे। बहुजन समाज के नागरिक माननीय मुख्य न्यायधीश गवई जी की विचारधारा से सहमत नहीं है। इसलिए बहुजन समाज का माननीय मुख्य न्यायधीश गवई जी से निवेदन है कि वे आरक्षित वर्गों की जातियों को पहले यह बताए कि कब तक उनकी संख्या के हिसाब से सरकार द्वारा उनका आरक्षण पूरा कर दिया जाएगा, आपके माध्यम से जनता को ठोस जवाब चाहिए, जुमले नहीं।
आस्था के आधार पर फैसले देने से बचे न्यायपालिका: न्याय शास्त्र में आस्था का कोई स्थान नहीं है, आस्था एक व्यक्ति की सोच पर आधारित हो सकती है जो नागरिक हितों के विपरीत भी हो सकती है। आस्था पर आधारित न्यायालयों के फैसलों पूर्ण रूप से असंवैधानिक है और उनसे देश में अशांति का खतरा पैदा होता है, देश की एकता और अखंडता छिन्न-भिन्न होती है जिसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण अयोध्या में ‘राम मंदिर’ का फैसला है जिसे उच्चतम न्यायालय की पीठ ने आस्था के आधार पर दिया बताया। जो देश के आम नागरिकों के गले के नीचे नहीं उतर रहा है, इस राम मंदिर के आस्था आधारित फैसले से देश में सांप्रदायिकता बढ़ी है, पूरे देश में सामाजिक उन्माद और नफरत का भाव पैदा हुआ है। इसलिए न्यायपालिका मुख्य रूप से उच्च व उच्चतम न्यायालय आस्था पर आधारित फैसलों का स्वत: संज्ञान ले और अपने में निहित संवैधानिक शक्ति से आस्था आधारित फैसलों को निरस्त करे, आस्था पर आधारित पूर्व में दिये गए फैसलों का पुर्ननिरक्षण करे और उन्हें संवैधानिक दायरे में लाकर सही फैसले दे। देश के जो न्यायधीश ‘न्यायशास्त्र के सिद्धान्त’ पर न चलकर ‘आस्था के सिद्धांतों’ को ज्यादा तवजों दे रहे हैं उन्हें तत्काल प्रभाव से हटाया जाये।
(लेखक सीएसआईआर से सेवानिवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं)





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