2025-02-14 13:31:22
पिछले कुछ वर्षों से भारतीय चुनाव आयोग की भूमिका पर लगातार सवाल खड़े हो रहे हैं और ये सभी सवाल चुनाव आयोग की निष्पक्षता को लेकर हैं। विभिन्न राजनैतिक पार्टियों का आरोप है कि वर्तमान चुनाव आयोग निष्पक्षता के साथ व्यवहार नहीं कर रहा है। चुनाव आयोग सभी प्रकार से सरकार में बैठे राजनैतिक दल की तरफदारी करता दिख रहा है और कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि चुनाव आयोग विभिन्न प्रदेशों में चुनाव कराने के मुद्दे पर सरकार से निर्देशित हो रहा है। संवैधानिक व्यवस्था के तहत संविधान के भाग-15 (निर्वाचन) में सिर्फ पाँच अनुच्छेद है। निर्वाचन आयोग के संबंध में संविधान सभा का ध्यान मुख्य रूप से इसकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करने पर केंद्रित था। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने 15 जून 1949 को उक्त अनुच्छेद प्रस्तुत करते हुए कहा था कि ‘पूरी निर्वाचन मशीनरी एक केंद्रीय निर्वाचन आयोग के हाथ में होनी चाहिए, जो रिटर्निंग आॅफिसर, मतदान अधिकारियों और अन्य को निर्देश जारी करने का हकदार होगा।’ भारतीय संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से लेकर अनुच्छेद 329 तक निर्वाचन की व्याख्या की गई है। अनुच्छेद 324 निर्वाचनों का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण, निर्वाचन आयोग में निहित होना बताता है। संविधान ने अनुच्छेद 324 में ही निर्वाचन आयोग को चुनाव सम्पन्न कराने की जिम्मेदारी दी गयी है।
निर्वाचन आयोग: निर्वाचन आयोग एक स्थायी संवैधानिक निकाय है। संविधान के अनुसार निर्वाचन आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 को की गई थी। निर्वाचन आयोग से जुड़े उपबंधों का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 324 में हैं। प्रारंभ में आयोग केवल एक सदस्य आयोग था। वर्तमान में चुनाव आयोग तीन सदस्य आयोग है जिसमें एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो निर्वाचन आयुक्त होते हैं। यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 324 में हैं, दो अतिरिक्त आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान 16 अक्तूबर 1989 को किया गया था लेकिन उनका कार्यकाल 1 जनवरी 1990 तक ही चला। इसके बाद 1 अक्तूबर 1993 को दो अतिरिक्त निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की गई, तब से आयोग बहु सदस्य आयोग के रूप में चल रहा है, जिसमें निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाता है।
भारत के राष्ट्रपति द्वारा मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की जाती है। निर्वाचन आयोग का अध्यक्ष मुख्य निर्वाचन आयुक्त होता है। वर्तमान में राजीव कुमार मुख्य चुनाव आयुक्त है जो 18 फरवरी 2025 को सेवानिर्वत हो रहे हैं। परंतु वे अपने कार्यकाल में सबसे विवादित और पाक्षपाती रवैया अपनाने वाले आयुक्त होंगे।
चुनाव आयोग के कार्य और शक्तियाँ: चुनाव आयोग चुनाव कार्य को निष्पक्ष रूप से सम्पन्न कराने के लिए उत्तरदायी है। इसे संसद, राज्य विधायिका, राष्ट्रपति और उपराष्टपति हेतु चुनाव कराने का जिम्मा दिया गया है। चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव में राजनैतिक दलों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू करता है ताकि लोकतंत्र की गरिमा कायम रहे। चुनाव आयोग राजनैतिक दलों को विनयमित करता है तथा उन्हें चुनाव लड़ने के लिए पंजीकृत करता है। चुनाव आयोग प्रत्येक प्रत्याशी द्वारा चुनाव में धन खर्च किये जाने की सीमा तय करता है। चुनाव आयोग सुनिश्चित करता है कि सभी राजनीतिक दल अपनी वार्षिक और आर्थिक रिपोर्ट जमा करें। चुनाव के बाद दिशानिदेर्शों के उल्लंघन के मामले में यह सदस्यों को अयोग्य ठहरा सकता है।
चुनाव आयोग पर उठते सवाल: वर्तमान समय में चुनाव आयोग दिन-प्रतिदिन अपनी गरिमा को खोता हुआ नजर आ रहा है। पिछले कई वर्षों से चुनाव आयोग पर राजनैतिक दलों द्वारा आरोप लगाए जा रहे हैं कि चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के साथ मिलकर अन्य राजनीतिक दलों के साथ पक्षपात कर रहा है। वर्तमान में कई राजनैतिक दल चुनाव आयोग पर आरोप लगा रहे हैं कि चुनाव आयोग सत्ताधारी दल की मानसिकता और निदेर्शों के अनुसार कार्य कर रहा है। कुछ हद तक देश की जनता को भी ऐसा ही एहसास हो रहा है कि चुनाव आयोग विरोधी राजनैतिक दलों के साथ कड़ी कार्यवाही करके उन्हें दंडित करने का प्रयास करता है। जबकि उसी प्रकार के उल्लंघन के लिए सत्ताधारी दल के प्रत्याशियों को कुछ भी नहीं बोलता है और उनके खिलाफ कोई भी कार्यवाही नहीं करता है। इस तरह की गतिविधियाँ जनता को जब से राजीव कुमार मुख्य चुनाव आयुक्त बने हैं, अधिक देखने को मिली है। चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पूर्ण रूप से पक्षपाती बन गई है और जनता अब खुले रूप में कहने लगी है कि वर्तमान चुनाव आयोग भारत का चुनाव आयोग न रहकर मोदी-संघियों का चुनाव आयोग बन गया है। मोदी-संघी सरकार में संघी मानसिकता के लोग जो चाहते हैं उसे वे चुनाव आयोग से आसानी से करा लेते हैं जबकि विरोधी दलों की बात को न सुना जाता है और न कोई न्यायपूर्ण कार्यवाही होती है। जबकि न्यायशास्त्र का सिद्धांत है कि किसी के साथ अपनी समझ के अनुसार न्याय करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि किया गया न्याय होता हुआ दिखना भी चाहिए। आज के चुनाव आयोग में यह देखने को नहीं मिल रहा है। उसकी ऐसी कार्यप्रणाली के कारण चुनाव आयोग से जनता का भरोसा उठता जा रहा है। देश में इस तरह का बढ़ता वातावरण देश के लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है।
नफरती भाषणों का चुनाव में बढ़ता चलन: मोदी-संघी शासन के दौरान नफरती बयानबाजी का चलन अधिक तेजी से बढ़ता देखा गया है इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि संघियों की मानसिकता में दूसरे धर्मों, संप्रदायों के प्रति नफरत का भाव विद्यमान है। उनकी शिक्षा-दीक्षा में भी धार्मिक आधार पर नफरत को ही बढ़ावा दिया जाता है और उनके द्वारा समाज में सभी लोगों के साथ मिलजुलकर रहने की संस्कृति, सद्भाव और शांति नहीं होती है। उनकी संघी संस्कृति में समाज में उथल-पुथल और अशांति फैलाना आम बात होती है। इसलिए जबसे मोदी-संघी सरकार देश की शासन सत्ता में आई है तब से नफरती भाषणों का चलन अधिक बढ़ा है। बीते वर्ष 2024 में नफरत फैलाने वाले भाषणों में 74 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। इंडिया हेट लैब की रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल 1000 से अधिक नफरती भाषण दिये गए, जबकि 2023 में ऐसी 688 घटनाएँ दर्ज की गई थी। रिपोर्ट के अनुसार, शोध समूह इंडिया हेट लैब ने 10 फरवरी 2024 को प्रकाशित रिपोर्ट में कहा कि अल्पसंख्यक विरोधी नफरती भाषण के 1165 दर्ज मामलों में से 98.5 प्रतिशत में या तो स्पष्ट रूप से मुस्लिम समुदाय या उनके साथ ईसाई समुदाय को लक्षित किया गया है। वहीं लगभग 10 प्रतिशत में स्पष्ट रूप से ईसाइयों को या उनके साथ मुसलमानों को निशाना बनाया गया है। नफरती भाषणों में लगभग 80 प्रतिशत घटनाएँ भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों द्वारा शासित राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों में हुई। ऐसी अधिक घटनाएँ भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा शासित प्रदेशों में हुई है इसके अलावा विपक्ष शासित राज्यों में 20 प्रतिशत नफरती भाषणों की घटनाएँ दर्ज की गई। पिछले साल देशभर में नफरती भाषण की 47 प्रतिशत घटनाएँ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट, और मध्य प्रदेश में हुई। इन घटनाओं को देखकर जनता को साफ संदेश मिलता है कि भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल देश का सामाजिक वातावरण और सद्भाव को पुरजोर तरीके से नफरती बना रहे हैं।
2024 में 340 घटनाओं के लिए अकेले भाजपा जिम्मेदार थी जो देशभर में नफरत फैलाने वाले भाषणों के कार्यक्रमों की सबसे बड़ी आयोजक पार्टी बन गई। जिसकी 2023 के मुकाबले में 588 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, भाजपा द्वारा 50 ऐसे ही कार्यक्रम आयोजित किये गए। इसके बाद विश्व हिन्दू परिषद और उनके अनुसांगिक संगठन बजरंग दल नफरती भाषण कार्यक्रमों में दूसरे सबसे सक्रिय आयोजक रहे, जो पिछले साल 2024 में 279 घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। यह संख्या 2023 के मुकाबले 29.16 प्रतिशत अधिक है।
मोदी नफरती भाषणों के सबसे बड़े प्रेरक: हेट स्पीच रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि भारत में लोकसभा चुनाव अभियान में चरम के साथ मई 2024 के आसपास ऐसी घटनाओं में तेजी से बढ़ोत्तरी देखी गई। रिपोर्ट में 21 अप्रैल 2024 को राजस्थान के बासवाड़ा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विशेष रूप से परेशान करने वाले भाषण का उल्लेख है, जहाँ उन्होंने रूढ़िवादी बातें कहीं और अपने ही देश के नागरिकों के एक वर्ग को घुसपैठिए और ज्यादा बच्चे करने वाले शब्दों से संबोधित किया। रिपोर्ट में पाया गया कि भाषण से पहले 16 मार्च से 21 अप्रैल के बीच 61 हेट स्पीच की घटनाएँ हुई। ये घटनाएँ मोदी के भाषण के बाद घटनाओं में 3 गुना से अधिक की वृद्धि देखी गई। रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि चुनाव के दौरान मुस्लिम विरोधी नफरत को एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया।
नफरती भाषणों में भाजपा सबसे आगे: रिपोर्ट के अनुसार 40 प्रतिशत (462) नफरत भरे भाषण राजनेताओं द्वारा दिये गए। जिनमें से 452 के लिए भाजपा नेता जिम्मेदार थे। साल 2023 की तुलना में जब भाजपा नेताओं ने 100 नफरत भरे भाषण दिये उसमें यह 352 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है। नफरती भाषण देने वाले 10 सबसे अधिक लोगों में से 6 राजनेता थे, जिनमें यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ, प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह शामिल थे। आदित्य नाथ ने 86 (7.4) प्रतिशत नफरत भरे भाषण दिये, जबकि मोदी ने 63 जो 2024 में ऐसे सभी भाषणों का 5.7 प्रतिशत है। आदित्यनाथ के नेतृत्व वाले उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक हेट स्पीच की घटनाएँ दर्ज की गई। जो 2023 की तुलना में 132 प्रतिशत अधिक है। इसके बाद महाराष्ट्र में 210 ऐसी घटनाएँ दर्ज की गई, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कांग्रेस शासित हिमाचल प्रदेश में भी 2024 में भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल व उनके अन्य अनुसांगिक संगठनों की गतिविधि के कारण हेट स्पीच की घटनाएँ बड़ी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि नफरत फैलाने वाले भाषणों में राष्ट्रीय वृद्धि के बावजूद दक्षिणी राज्य कर्नाटक में ऐसी 20 प्रतिशत की गिरावट दिखी है। यह बदलाव काफी हद तक राज्य में राजनीतिक बदलावों के कारण है, मई 2023 तक कर्नाटक में भाजपा का शासन था लेकिन चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत के बाद नफरत भरे भाषणों में गिरावट आई है।
देश के वर्तमान राजनैतिक परिवेश को देखकर जनता को साफ नजर आ रहा है कि देश में नफरती भाव को बढ़ाने के लिए संघी-भाजपा मोदी और शाह का नेतृत्व तथा उनके सहयोगी हिंदुत्ववादी संगठनों जैसे-विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, हिन्दू वाहिनी, गौरक्षा दल, आदि हिंदुत्ववादियों की मानसिकता वाली शाखायें देश में नफरत और सद्भाव को खराब करने के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। मूल रूप से संघियों के चरित्र में फॉसिस्ट प्रवृति के अवयव सक्रिय हैं जो उन्हें कभी भी समाज में शांति और सद्भाव के साथ नहीं रहने देते। यह देश के बुद्धिजीवी वर्ग का दुर्भाग्य है कि देश में संघी मानसिकता के फासिस्टों की संख्या 3-5 प्रतिशत हो सकती है जो पूरे देश की जनसंख्या 97-95 प्रतिशत को अपने फासिस्ट एजेंडे के मुताबिक नाचने में कामयाब हो रहे हैं।
ये सब देखकर बहुजन स्वाभिमान संघ बहुजन समाज के विभिन्न जातीय घटकों के लोगों से आग्रह करता है कि संघी फासिस्टों के इस गंदे खेल को समझें और देश की शांति और सद्भाव के लिए इससे दूरी बनाकर रखें। संघी मानसिकता के इन फासिस्टों का प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विश्वास नहीं है इनका एक ही सटीक इलाज है कि इन्हें हर कीमत पर सत्ता से दूर रखा जाये। बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों से आशा करते हैं कि वे हिन्दू मानसिकता की सोच रखकर अंधभक्त न बनें अपने आपको एक अच्छा इंसान बनायें। बहुजन समाज अपनी आने वाली पीढ़ियों के विकास के एकजुट होकर सामुहिक रूप से संघर्ष करें और अपने महापुरुषों को आत्मशात करके उसपर चलने का संकल्प लें। बहुजन समाज की बिडंबना ये है कि वे अभी तक अपने महापुरुषों की शिक्षाओं पर न चल रहें है और न उनकी शिक्षाओं को आत्मशात कर पा रहे हैं।
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