2022-09-09 12:48:51
देश के वर्तमान हालात और सरकार की मनुवादी नियत को देखकर लगता है कि 2024 के आम चुनावों का वर्ष काफी हलचल भरा होगा। चूंकि मोदी-शाह का पूरा फोकस रहेगा कि इस चुनाव को कैसे जीतना है? सत्ता की कुर्सी कैसे कबजानी है? ईवीएम को कैसे उपयोग में लाना है? चुनाव आयोग व अन्य सरकारी मशीनरी का कैसे इस्तेमाल करना है? क्योंकि देश अब अच्छे से देख चुका है कि मोदी-शाह इस खेल में ढंके की चोट पर सफल हैं।
बहुजन समाज का हाल: वर्तमान में बहुजन समाज की नीति और नियत समाज में राजनैतिक चेतना व जोश पैदा करने के बजाय आराम-परस्ती और व्यापारिक है। जिसके कारण बहुजन समाज अपने नेताओं से उदासीन है और वह उनसे दिन-प्रतिदिन विमुख होता जा रहा है। पूरा बहुजन समाज अनेकों टुकड़ों में बिखरकर राजनीति में शक्तिहीन हो चुका है। बहुजन समाज की 6743 जातियां ब्राह्मणवाद की मानसिकता से बीमार है। यही मानसिकता उसकी सारी सामाजिक और राजनैतिक शक्ति के विनाश का कारण है। देश में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को छोड़कर बाकी सभी शूद्र हैं और पूरा शूद्र समाज दलितों व अल्पसंख्यकों सहित ‘बहुजन समाज’ है। बहुजन समाज को अपने सभी सामाजिक और राजनैतिक संगठनों को एकजुट करके शक्तिशाली और प्रभावकारी करना चाहिए, अपना एक भी वोट किसी भी कीमत पर गैर-बहुजन को नहीं जाने देना चाहिए, वैश्य समाज व्यवाहरिक रूप में मनुवादियों की ‘प्राण वायु’ है, चूंकि यह वर्ग उन्हें आवश्यक धन उपलब्ध कराता है और उसी धन शक्ति से उनके मनुवादी कार्य चलते हैं। समाज में ब्राह्मण 3 प्रतिशत, वैश्य 4-5 प्रतिशत, क्षत्रिय 6-7 प्रतिशत है, जिनकी कुल संख्या लगभग 15 प्रतिशत है। परंतु वैश्यों का देश की 80 प्रतिशत सम्पदा पर कब्जा है। यह धन अधिकांशत: बहुजन समाज से ही वैश्यों के पास आता है और वे इस धन से बहुजनों का भला न करके, मंदिर आदि में दान देकर ब्राह्मणों व पाखंड को ही सींचते है। कुल मिलाकर बहुजन समाज का नुकसान करते हैं। मंदिरों में चढ़ावे से ब्राह्मणों के बच्चे अच्छे से अच्छे देशी व विदेशी संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करके देश के संस्थानों में बड़े-बड़े अफसर बन रहे हैं। जबकि बहुजन समाज के बच्चे सड़कों, नालों के किनारे आवारा घूमकर बुरी संगत में अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं।
पिछड़ी जातियों में जागरूकता, समझ और एकता की कमत्तरता: यह तथ्यात्मक सत्य है कि अति पिछड़ी जातियों के अधिकारों की लड़ाई बहुजन समाज की दलित जातियों ने हमेशा लड़ी और उन सभी को संवैधानिक अधिकारों से अवगत कराया परंतु ज्ञान की कमत्तरता के कारण न इन जातियों ने कभी कोई संज्ञान नहीं लिया। ये अति पिछड़ी जातियां-जैसे कुम्हार, प्रजापति, गडरिये, लौहार, बढ़ई, नाई, बघेल आदि हैं।
विपक्ष की राजनैतिक मोर्चाबंदी: 2024 आने से पहले विपक्षी एकता की कोशिशे चल रही है। इसलिए पिछले दिनों तेलंगाना के सीएम केसीआर बिहार की राजधानी पटना आए। वहाँ उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नए डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव से मुलाकात की। जब केसीआर ने 2024 से पहले तीसरे मोर्चे को प्रभावी बनाने की बात कही तो नीतीश कुमार कहने लगे कि अब कोई तीसरा मोर्चा नहीं बल्कि मुख्य मोर्चा बनेगा। दरअसल, इसी मामले को सुलझाना विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या है। क्षेत्रीय दलों का एक बड़ा धड़ा है जो गैर कांग्रेसी-गैर बीजेपी मोर्चा बनाने के पक्ष में है। वे इसे तीसरा मोर्चा की संज्ञा देते हैं और इसके लिए केसीआर को ममता बनर्जी ने भी ढके-छिपे अपना समर्थन दे रखा है। पेंच यह है कि नीतीश कुमार की राय इससे थोड़ी अलग है। वह बिना कांग्रेस को साथ लिए कोई मोर्चा बनाने के पक्ष में नहीं है। ऐसा ही विचार अब तक एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार का भी रहा है। हालांकि दोनों नेताओं ने विपक्ष में बेहतर संजोयक की वकालत की है। नीतीश कुमार के दिल्ली दौरे में भी सबसे अधिक मंथन इसी बात पर हो रहा था और यूपीए के नए संयोजक की भी तलाश हो रही है। माना जा रहा है कि नीतीश कुमार इस पद के लिए सबकी पसंद हो सकते हैं। शरद पवार अब तक गैर आधिकारिक रूप से यह भूमिका निभाते रहे हैं। लेकिन स्वास्थ्य कारणों से उनकी भी इच्छा है कि किसी दूसरे अनुभवी हाथों में यह भूमिका हो। राजनीति दाव-पेंच का खेल है जो सभी दल अपने-अपने दाव-पेंच चलाएंगे और ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी चाहेंगे, जिसका गणित सभी की इच्छानुसार बैठाना कठिन काम है। शायद यह काम नीतिश कुमार अच्छी तरह कर पायेंगे। चूंकि उनके रिश्ते सभी गैर भाजपा दलों से सामान्य हैं और उनका भारतीय राजनीति में अच्छा अनुभव भी है। आज देश बर्बादी के मुहाने पर खड़ा है। इसलिए सभी को देश और जनता की खातिर थोड़ी-थोड़ी कुर्बानी या एडजेस्ट करना चाहिए। लेकिन बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो बहन मायावती और औवेसी इस खेल में कहाँ है? उनकी उपेक्षा करना विपक्षी मोर्चे की कवायद बेमानी होगी।
बिहार से शुरू होगा बदलाव: बिहार में सरकार से हटने के बाद बीजेपी पूरे घर में ही बदलाव की सोच रही है। लेकिन इसमें दुविधा है। 2020 के अंत में नीतीश कुमार के साथ जब बीजेपी फिर सत्ता में आई तो पुराने नेताओं को दरकिनार कर नए नेताओं की टीम बनाई गई। लेकिन डेढ़ साल के अंदर ही सरकार गिरने से बीजेपी के सामने यह दुविधा है कि वह पुराने नेताओं को फिर से मोर्चे पर लाये या फिर से कोई नई टीम उतारे। अब 2024 आम चुनाव के लिए समय कम है, ऐसे में पार्टी को जल्दी ही कोई बड़ा फैसला लेना होगा। लेकिन सियासी गलियारों में अब तक के जो संकेत है, उनके हिसाब से बड़ा बदलाव होना तय है। यह भी माना जा रहा है कि केंद्रीय नेतृत्व से किसी बड़े नाम को राज्य में पार्टी की कमान दी जा सकती है। पूरा बहुजन समाज भाजपा और संघ की मानसिकता और देश-प्रदेश में बढ़ते उत्पीड़न, अत्याचारों से परेशान है। इसलिए भाजपा का बिहार से जाना तय है। भाजपा के जोड़-तोड़ जुगाड़ एक्सपर्ट नेता अमित शाह ने कल ही पार्टी सांसदों की बैठक ली, उन्होंने उस मीटिंग में सभी को 350+का टारगेट दे दिया है। हर एक को टार्गेट सामने रखकर काम करना है जिसके लिए सभी जरूरी संसाधन पार्टी जुटायेगी। वैसे भी मोदी-शाह की जोड़ी हमेशा चुनाव मोड में रहती है। चुनाव जीतने के लिए उनके लिए सब कुछ जायज है, नैतिकता, न्याय, गरिमा और संवैधानिक मर्यादा का कोई मतलब नहीं, सिर्फ जीतना है।
मोदी-भाजपा सरकार में जनता से जुड़े मुद्दे मोदी की कर्तव्य परायणता में नहीं है। देश की जनता को मोदी के आठ वर्षों के शासन में सिर्फ खोखले नारे और झूठ ही परोसा गया है। प्रजातंत्र में प्रजा की आवाज नहीं है, बोलने पर दबाया और जेल भेजा जा रहा है। देश का आंतरिक ढाँचा शोध, तकनीक व आर्थिक रूप में खोखला है, सिर्फ मोदी के मित्र मालामाल हो रहे हैं। जनता महँगाई और रोजगार से त्रस्त है। आज चुनाव आयोग और देश का प्रशासनिक तंत्र ईमानदारी से स्वतंत्र चुनाव कराने का भरोसा जनता को सुनिश्चित करे और चुनाव कराये तो जनता जल्द से जल्द मोदी-संघी शासन से मुक्ति हो जायेगी।
मोदी का मकसद सिर्फ चुनाव जीतना: गुजरात में विधानसभा चुनाव की तैयारियाँ शुरू हो चुकी है। पिछले कुछ दिनों से गुजरात चुनाव की पूरी कमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद अपने हाथों में ले रखी है। कुछ महीनों से वह राज्य में नियमित चक्कर लगा रहे हैं। ऐसे ही दौरे के तहत पिछले हफ्ते जब वह गुजरात में थे तो अचानक बीजेपी दफ्तर पहुँच गए। वहाँ उन्होंने राज्य के नेताओं के साथ लंबी मीटिंग कर हालात की समीक्षा की। उन्होंने सभी नेताओं से दो टूक कहा कि किसी चुनाव को हल्के में न लें। पीएम मोदी ने अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की चुनौती के बारे में सीधे-सीधे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन इतना जरूर बोले कि अगर कोई जनता के बीच जाकर तरह-तरह के प्रलोभन दे रहा है तो इसे काउंटर करें। इसके लिए सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के बारे में आक्रामक रूप से प्रचार करें। उन्होंने अगले तीन महीने में इस मोर्चे पर आक्रामक रूप से काम करके पार्टी के सभी नेताओं को जनता के बीच जाने को कहा। माना जा रहा है कि जब तक चुनाव की तारीख घोषित होगी, उससे पहले पीएम मोदी के गुजरात के कई ओर दौरे होगें। चूंकि राज्य में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं।
दिल्ली में आप का अदृश्य मनुवादी खेल: दिल्ली की जागरूक जनता को तय करना पड़ेगा कि क्या केजरीवाल की पूर्णतया छिपी संघी मानसिकता की सरकार दिल्ली और देश हित में है? और अगर है तो कैसे? केजरीवाल वैश्य वर्ग से आते हैं और जब से वे दिल्ली की राजनीति में है। तब से सिर्फ अपने जातीय बंधुओं का हित सर्वोपरि रखकर बहुजन समाज के हितों की उपेक्षा और उसका दिखावा कर रहे हैं। बाबा साहेब का सिर्फ नाम लेकर फ्री की सुविधाओं का ढ़ोल पीटकर दिल्ली और देश की जनता को छलावे में रखकर मूर्ख बना रहे हैं। बहुजन समाज की सभी जातियों को राजनीतिक मामलों में निजी और छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठकर राजनीति में प्रतिनिधित्व के साथ हिस्सेदारी को अधिक महत्व देना चाहिए। अदृश्य खेल खेलने की नीति देश में संघियों की मानसिकता की ही देन है ताकि उनका खेल किसी को न दिखे और न समझ में आये। मोदी इसी जहरीले सामाजिक परिवेश में पले-बड़े और पूरी तरह रचे है और उसी के आधार पर जनता और देश को सर्वाधिक हानि पहुंचा रहे हैं। केजरीवाल सबके सामने खुद कबूल कर चुके हैं कि वे और उनका परिवार संघी रहा है। उसी मानसिकता के आधार पर वे राजनैतिक आरक्षण से जीतकर आये ‘आप’ विधायकों, मंत्रियों को दिल्ली और देश में बहुजन समाज की राजनीति और अम्बेडकरवाद को बिना किसी शोर-शराबे के कमजोर करने का काम कर रहे हैं। संघी मोदी, मोहन भागवत और गांधी से भी जहरीला ‘हरी घास में हरा साँप है’ केजरीवाल। गांधी भी कांग्रेस में रहकर केजरीवाल की तरह दिखावटी आवरण में दिखता था लेकिन अंदर से पूरी तरह अम्बेडकरवाद का शत्रु था जिसे उस समय बहुजन नेता नहीं समझ पाये थे इसलिए बहुजन समाज को संगठित होकर, दिल्ली व अन्य प्रदेशों से ‘केजरीवाल भगाओ’ का आंदोलन चलाना चाहिए।
केजरीवाल को 80% से अधिक वोट दलितों और अल्पसंख्यकों का मिलता है परंतु जब हिस्से की बारी आती है तो उसे अपने जातीय भाई गुप्ता, गोयल, जैन या राजपूत याद रहते हैं। सभी मलाई वाले विभाग उन्हें दिये जाते हैं। साफतौर पर इसके तीन प्रमुख कारण है-पहला ‘खून पानी से गाढ़ा होता है’, दूसरा-वैश्य वर्ग कमाने और आकाओं को खिलाने में महारथ रखता है’ शायद यह कार्य दलित और अल्पसंख्यक इतनी सफाई से न कर पायें। तीसरा शूद्रों और मुसलमानों के लिए केजरीवाल की मानसिकता में नफरत का अदृश्य भाव है। जो केजरीवाल के द्वारा राज्य सभा में एक राजपूत और गुप्ता बंधुओं को चुने जाने से जग जाहिर होता है। पंजाब में भी दलितों की भारी उपेक्षा की गयी। बहुजन बुद्धि से आंकलन करो और सब मिलकर मनुवाद और ब्राह्मणवादी मानसिकता का विरोध करो।
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