




2025-12-07 13:17:51
भारत बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक, बहु-भाषी और बहु-जातियो का देश है। भारत में आजादी के बाद, देश के जागरूक और बुद्धिजीवी लोग भारत को ‘कृषि प्रधान’ देश कहकर पुरकारते रहे हैं, मगर वास्तविकता के आधार पर यह देश कृषि प्रधान नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी जाति प्रधान देश है। भारत में सामाजिक व्यवस्था का आधार चार वर्णों में बंटा हुआ है और इन चारों वर्णों के लोगों को 6743 जातियों में विभक्त किया गया है। जिनमें आपसी मेल-मिलाप, उठना-बैठना, रोटी-बेटी का संबंध नहीं है। देश में ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च और ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ बताकर, ब्राह्मणों ने एक काल्पनिक श्रेष्ठता का षड्यंत्र रचा है, इस प्रकार की काल्पनिक संज्ञाएं ब्राह्मण वर्ग ने अपने आपको सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ बनाकर उच्चतम स्थान दिया है। दूसरे पायदान पर ब्राह्मण वर्ण ने अपनी रक्षा के लिए क्षत्रिय वर्ण का प्रावधान किया है जिसमें बहुत सारी जातियों का समावेश है और उनका मुख्य कार्य ब्राह्मणों की रक्षा-सुरक्षा करना ही रहा है। तीसरे पायदान पर ब्राह्मणों ने वैश्यों (बनिया) वर्ण को रखा है जिनका मुख्य कार्य व्यवसाय करना है और व्यवसाय से जो भी लाभ होगा, उससे यह वर्ण मंदिरों का निर्माण तथा मंदिरों में बैठाएँ गए ब्राह्मण-पुजारियों को दान-दक्षिणा देकर उन्हें समृद्ध बनाए रखने का काम करेगा। चौथे सामाजिक पायदान पर ब्राह्मणों ने शूद्र वर्ण की व्यवस्था की है जिसमें देश के सभी (एससी, एसटी, ओबीसी) वर्ण में आने वाली सभी जातियों को वर्गीकृत किया गया। शूद्र वर्ण में आने वाली सभी जातियों की संख्या इस देश में करीब 65-70 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त देश में करीब 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी है। अगर अल्पसंख्यक समुदाय की संख्या शूद्र वर्ग की संख्या के साथ जोड़ दी जाये तो यह संख्या करीब 80-85 प्रतिशत होती है। अब अल्पसंख्यक समुदाय में धार्मिक आधार पर मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन, पारसी आदि आते हैं। जो अतीत में अपना धर्म परिवर्तित करके दूसरे धार्मिक समुदायों में परिवर्तित हो गए थे। ये परिवर्तित हुए लोग अधिकांशतया एससी, एसटी, ओबीसी जातियों के ही थे। इनके परिवर्तित होने का मुख्य कारण ब्राह्मणवादी वर्चस्व का आतंक था और जो शूद्र वर्ण के लोग अपना मूल धर्म परिवर्तित करके दूसरे धार्मिक समुदाय में शामिल हुए उनमें से कुछेक लोग ऐसे भी थे जो सवर्ण वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) जातीय समुदायों से थे। उस समय की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के लोगों को शिक्षित होने का प्रावधान भी था इसलिए इन जातीय वर्गों से परिवर्तित हुए लोग अगर मुस्लिम समुदाय में गए तो वहाँ पर जाकर मस्जिदों में मौलवी बने; और अगर इनमें से कुछेक लोग ईसाई धर्म में परिवर्तित हुए तो वे वहाँ जाकर चर्चों में पादरी बने। इसी प्रकार दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों में जाकर जो लोग पहले से कुछ शिक्षित थे वे वहाँ पर धर्म गुरु बन गए और वहां जाकर भी उन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्ववादी जातीय श्रेष्ठता के भाव का त्याग नहीं किया बल्कि वहाँ पर भी जातिवादी व्यवस्था को जन्म दिया।
भारतीय समाज में झूठ, फरेब, नाटकबाजी, बहरूपियापन, ठगी व चालाकी ब्राह्मणवादी संस्कृति से ही उत्पन्न होकर समाज में समाहित हुई है। चूंकि इस प्रकार की सामाजिक कलाबाजी में ब्राह्मण समुदाय हमेशा से निपुण रहा है। ब्राह्मण वर्ण के लोग आज जो हिन्दू और सनातन धर्म का राग अलाप रहे है, अतीत में हिन्दू धर्म यहाँ का मूल धर्म नहीं था। यहाँ पर कोई भी अवधारणा ‘हिन्दू’ नाम से नहीं थी। ब्राह्मण वर्ण और उसकी संस्कृति को मानने वाले लोग जो वेदों को अपना मूल पवित्र और ज्ञान के भंडार का ग्रंथ मानते हैं, हिन्दू शब्द इन ग्रन्थों में कहीं भी नहीं पाया जाता है। इस साक्ष्य संगत आधार पर विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि भारत में रहने वाले मूल निवासी यहाँ पर कभी भी हिन्दू धर्म के नाम से नहीं जाने गए। हिन्दू धर्म भारत भूमि पर फारसी शब्द से उत्पन्न हुआ है जिसकी उत्पत्ति यहाँ पर दसवीं शताब्दी के बाद की है। इसलिए भारत में बसने वाले ब्राह्मण (विदेशी आर्य) को छोडकर बाकी जो भी इस पवित्र भूमि पर बसते हैं वे यहाँ के एससी, एसटी, ओबीसी व अल्पसंख्यक समुदाय के मूलनिवासी हैं, हिन्दू नहीं। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने 1931 की गोलमेज सम्मेलन में भारत से उपस्थित रजवाड़ों व गवर्नर अधीन प्रदेशों से गए प्रतिनिधियों के सामने यह पूर्ण रूप से सिद्ध कर दिया था कि यहाँ के एससी, एसटी, ओबीसी में वर्गीकृत लोग हिन्दू नहीं है, बल्कि वे यहां के अति विशिष्ट अल्पसंख्यक समुदाय के लोग है। दूसरा सामाजिक साक्ष्य यह है कि जिन लोगों ने इस अति विशिष्ट अल्पसंख्यक समुदाय से संबन्धित होकर शिक्षा के लिए उस समय के अंग्रेजी के स्कूल में अपना नामांकन कराया तब उनको धर्म के कॉलम में ‘हिन्दू’ नहीं लिखा गया बल्कि उन्हे ‘गैर ब्राह्मण’ लिखा गया। 1940 से पहले अंग्रेजी स्कूल में दाखिला लेने वाले लोग आज भी कुछेक मौजूद है और वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि जब हम स्कूल में प्रविष्ट होने के लिए गए तो हमारे प्रवेश पत्र के धर्म के कॉलम में ‘गैर ब्राह्मण’ लिखा गया और ब्राह्मण वर्ण के बच्चों के प्रवेश पत्र के धर्म के कॉलम में ‘ब्राह्मण धर्म’ लिखा जाता था। ये सभी साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारत वर्ष में न कभी हिन्दू और न सनातन धर्म प्रचलित था। सवर्ण वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) समुदाय के लोगों का धर्म ‘ब्राह्मण धर्म’ कहलाता था, शूद्र और अतिशूद्र वर्ण के लोगों का धर्म ‘गैर ब्राह्मण’ लिखा जाता था। इन सभी बातों के दस्तावेजी साक्ष्य आज भी मौजूद हैं इसलिए भारतीय समाज से विशेषकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों से बहुजन समाज की विनती है कि वे शूद्र वर्ण में वर्गित की गई जातियों के घटकों को हिन्दू या सनातन धर्म का बताकर समाज को भ्रमित न करें बल्कि उन्हें वास्तविक तथ्यों की जानकरी देकर अधिक से अधिक जागरूक करें।
ब्राह्मणवाद और बुद्धवाद एक साथ नहीं चल सकते: भारत में ब्राह्मणवाद के वर्चस्व से पहले ‘बुद्ध धम्म’ ही आम जनता का धर्म था, न यहाँ कोई जातिवाद था और न देश का पूरा समाज हजारों जातियों में विभाजित था। वर्तमान समय में मोदी शासन ने सत्ता के बल पर देश में जातिवाद, धर्मवाद, अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरत के भाव को जनता में परोसा है और वे इन सभी बातों को हर रोज अपने पाखंडी छलावों से ब्राह्मणवाद को मजबूत कर रहे हैं। मोदी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री होते हुए शासकीय शक्ति से ब्राह्मणवाद को कदम-दर-कदम मजबूत कर रहे हैं। कुछेक पाखंडी तथाकथित साधु-संत जैसे धीरेन्द्र शास्त्री बागेश्वर धाम, अनिरुद्धाचर्या, रामभद्राचर्या, रामदेव, आदि जो देश में काले धन को शोधित करके पाखंडी भाजपा की सरकार को चुनाव जीतने के लिए मोटा-मोटा चंदा देने का प्रबंध कर रहे हैं। मोदी-संघी सरकार ऐसे सभी कथित पाखंडी बाबाओं, सत्संगकर्ताओं, कथाकर्त्ताओं आदि को संरक्षण देकर देश में ब्राह्मणवाद को पोषित कर रहे हैं। मोदी स्वयं ब्राह्मणवाद को मजबूत और पोषित करने के लिए कथित प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों में जैसे केदारनाथ मंदिर, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, तिरुपति बालाजी, बोधगया व राम मंदिर (अयोध्या) आदि में जाकर और वहाँ पर अपने कैमरामैन की टीम के सामने समाधि मुद्रा में बैठकर देश की धर्मांध जनता को ब्राह्मणवाद परोसकर प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जनता का वोट लूटने का काम कर रहे हैं। देश में आज जितने भी बड़े-बड़े कथित हिन्दू मंदिर कहलाये जाते हैं अक्सर वे सभी बुद्ध मंदिरों से परिवर्तित करके छलावामयी पाखंडी नीति से हिन्दू मंदिरों में परिवर्तित किये गए हैं। इन बड़े-बड़े हिन्दू मंदिर जो बुद्ध मंदिर से परिवर्तित है उनमें हजारों-करोड़ का चंदा आता है। चंदा देने वाले अधिकांशतया देश के किसान, मजदूर, तकनीकी कामगार जो शूद्र समाज की श्रेणी में आते हैं उनको मंदिरों में बैठे ब्राह्मण-पुजारी लूटकर अपनी जीविका को सुगम बना रहे हैं।
मोदी-संघी सरकार सबसे बड़ी पाखंडी और नफरत की प्रचारक: पिछले 11 वर्षों के मोदी शासन में देखा गया है कि मोदी स्वयं और उसके संघी दोस्त, व्यापारी मित्र देश की जनता को बड़े पैमाने पर गुमराह करके नफरत की खेती कर रहे हैं जिससे देश की आम जनता में धार्मिक उन्माद, परस्पर असहिष्णुता, आम जीवन में अधिक देखने को मिल रही है। मोदी काल से पहले ब्राह्मणवाद मौजूद तो था मगर वह प्रखर होकर खुलेआम देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात नहीं कर रहा था। चूंकि भारत के संविधान में भारत भूमि पर रहने वाले सभी लोग स्वतंत्र रूप से किसी भी धर्म को स्वेच्छा से अपना सकते हैं, अपने आस्था वाले धर्म का प्रचार भी कर सकते हैं तथा साथ में अपनी आस्था वाले धर्म के अनुसार पूजा पद्धति व आचरण भी कर सकते हैं। मगर मोदी के सत्ता में आने के बाद से देश में धर्मांधता का युग तेजी से बढ़ा है और उसका प्रचार-प्रसार भी सरकारी तंत्र के सहारे खुलेआम हुआ है और बड़े पैमाने पर होता ही जा रहा है। देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं में कट्टर ब्राह्मणी संस्कृति के ब्राह्मणवादियों को स्थापित कर दिया गया है ताकि वे वहाँ बैठकर संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य न करें। बल्कि वे वहाँ बैठकर वहाँ पर मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल ब्राह्मणवाद को मजबूत करने के लिए करें। देश के सभी शिक्षण संस्थाओं, विश्वविद्यालयों आदि में ब्राह्मणवादी संस्कृति के लोगों को ही नियुक्त करके आदेशित किया जा रहा है कि वे वहाँ पर बैठकर उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल ब्राह्मणवाद को मजबूत करने के लिए खुलेआम करें। देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों तथा वैज्ञानिक परिषदों के अधीन आने वाले सभी संस्थानों में ब्राह्मणवादी-संघी मानसिकता के निदेशक स्थापित कर दिये गए हैं ताकि वहाँ पर ब्राह्मणवाद को मजबूती के साथ फैलाकर मजबूत किया जा सके। इन सभी वैज्ञानिक व तकनीकी संस्थानों में भगवाकरण की संस्कृति के अधीन शाखाएँ सुचारु रूप से लगाई जा रही हंै और इन सभी वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थानों में जनता उपयोगी तकनीकों व शोध पर कार्य न होकर पाखंडी छलावामयी किस्म के गाय, गोबर, मूत्र पर परियोजनाएं बनाकर देश का धन लूटने के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। इन सभी कारणों से आज देश की वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान की उत्पादकता विश्व के सापेक्ष निम्नतम स्तर पर पहुँच चुकी है।
ब्राह्मणवाद की गिरफ्त में न्यायपालिका: संविधान निर्माताओं ने इस देश की पाखंडी संस्कृति को संज्ञान में रखकर संवैधानिक संस्थाओं को सरकार के नियंत्रण से स्वतंत्र रखा था ताकि किसी भी प्रकार से आताताही प्रकृति के व्यक्तियों का संवैधानिक संस्थाओं में हस्तक्षेप न हो पाये, अगर ऐसा होने की कोई भी कार्रवाही जन्म लेती है तो इन संस्थाओं में बैठे लोगों की जिम्मेदारी होगी कि वे सभी संविधान की भावना को अक्षुण रखने के लिए संविधान सम्मत कदम उठाएंगे और सरकार में बैठे ऐसे सभी व्यक्तियों के खिलाफ संविधान सम्मत कठोर कार्रवाई करेंगे। लेकिन आज संवैधानिक न्यायालयों में बैठे न्यायधीशों का खुलेआम ब्राह्मणवादी चरित्र जनता के सामने नजर आ रहा है। इन न्यायालयों में अधिकांशतया ब्राह्मण वर्ण के न्यायधीशों को ही बैठाया जा रहा है ताकि ये ब्राह्मणवादी मानसिकता के न्यायधीश सरकार द्वारा असंवैधानिक कार्यों के खिलाफ हस्तक्षेप न करें और सरकार की कार्रवाई को संवैधानिक दायरे में बताकर उसको संरक्षित करें।
उपरोक्त तथ्यों के साथ बहुजन जनता से अपील है कि वे ब्राह्मणों के कुचक्र में न फंसे, अतीत में पैदा हुए अपने महापुरुषों तथागत बुद्ध, कबीरदास, रविदास, महात्मा ज्योतिबा फुले, पेरियार, संत गाडगे, बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर, मान्यवर साहेब कांशीराम जी की शिक्षाओं को अपने जीवन में आत्मसात करके उसका आचरण करके अपने आपको सशक्त और समृद्ध बनाएं। अम्बेडकरवाद और ब्राह्मणवाद एक दूसरे के विरोधी होने के कारण एक साथ नहीं चल सकते इसलिए देशहित में अम्बेडकरवाद को मजबूत करें।
(लेखक सीएसआईआर से सेवानिवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं)





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