2025-11-14 18:59:44
भारत एक बहुलतावादी देश है जहां पर मनुष्य से अधिक महत्व उसकी ‘जाति’ का है। ‘जाति’ नाम की बीमारी यहां के हर नागरिक को जन्म के साथ ही मिल जाती है और इस बीमारी से उसका पीछा मरने के बाद भी नहीं छूटता। ‘जाति’ नाम की बीमारी का संक्रमण केवल भारत में ही है, विश्व के अन्य देशों में यह बीमारी नहीं पाई जाती। यही एक प्रमुख कारण है जिससे भारत का हर मानवीय स्तर निम्नतम है। भारत का अतीत गौरवशाली रहा है, मगर जबसे ब्राह्मणी संस्कृति ने मनुष्य के पेशे के आधार पर उसकी ‘जाति’ निर्धारित करके उसे पक्का किया है तभी से भारत में मनुष्य की योग्यता से ज्यादा उसकी जाति अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। जाति-व्यवस्था ने देश की गरिमा को दिन-प्रतिदिन नीचे गिराया है। जातियों में परस्पर कार्मिक ऊंच-नीच की व्यवस्था है जिसके कारण एक मनुष्य अपने आपको दूसरे मनुष्य से भिन्न मानता है और उसी के अनुसार आपस में मेल-मिलाप नहीं रखता है। भारत के सभी लोग अपने बच्चों की शादी भी अपनी जाति के अंदर ही करते हैं, मनुष्य में विविधता की कमी के कारण उसका बौद्धिक विकास विश्व के सापेक्ष कम दिख रहा है। जाति नाम की बीमारी इस देश के लिए नई नहीं है, कई हजारों वर्षों से यह बीमारी समाज में विद्यमान है। लेकिन मनोवैज्ञानिक आधार पर जिन जातीय समूहों को श्रेष्ठ बनाया गया है वे अपने से नीचे वाली जातियों के साथ घृणात्मक व्यवहार करते हैं और अपने से निम्न स्तर की जातियों को अपने समकक्ष नहीं मानते। भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। जातिवाद को देश से जल्द से जल्द कानून बनाकर खत्म करना चाहिए था, मगर आजतक की सरकारों ने ऐसा नहीं किया। भारत के उत्थान के लिए सही यही होगा कि किसी भी राजनैतिक पार्टी की सरकार रहे उसे देश हित में जल्द से जल्द कानून बनाकर ‘जाति’ नामक बीमारी को प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर यह कार्य आजादी मिलने के पहले दशक में पूर्ण कर लिया गया होता तो शायद अब तक भारत विकसित देशों की श्रेणी में आ जाता। भारत को आजाद हुए 78 वर्ष हो गए हैं, यह बीमारी अब पक चुकी है इसलिए इसके विरुद्ध कठोर कानून बनाकर जाति नामक बीमारी को शीघ्र अति शीघ्र खत्म करना होगा।
मनुवादी-संघी सरकार जातिवाद की समर्थक: 2014 से देश में मोदी के नेतृत्व में मनुवादी संघी सरकार है जो अपनी नीतियों के अनुसार जाति को देश में बनाए रखना चाहती है। चूंकि मनुवादी संघियों की बुनियादी रणनीति रही है कि समाज को जातीय टुकड़ों में बांटो, उन्हें इकट्ठा मत होने दो और उन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर अपने लिए सत्ता की कुर्सी पक्की करो, उन्हें देश को सक्षम करने की चिंता नहीं, उन्हें किसी भी कीमत पर सत्ता की कुर्सी चाहिए। माननीय साहेब कांशीराम जी का नारा था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ इस नारे को सार्थक बनाने के लिए मान्यवर साहेब ने देश भर में घूम-घूमकर सभी पिछड़े, अति-पिछड़े, दलित व जनजाति समाज को जागरूक किया। उनमें राजनैतिक आकांक्षाओं का बीज बौया और जब यह बीज उपजकर सशक्त पौधा बनने लगा तब मनुवादी संघियों की चिंता भी उसी अनुपात में बढ़ने लगी। मनुवादी संघियों के बौद्धिक लोगों ने सत्ता पर काबिज होने के लिए अपनी षड्यंत्रकारी रणनीति बनाई कि जिस समाज को मान्यवर कांशीराम जागरूक व इकट्ठा कर रहे हैं उसको कैसे अशक्त बनाया जाये। देश में पिछड़े और अति पिछड़े समाज की सैंकड़ों ऐसी जातियां-उपजातियां है जिनकी संख्या 0.25 प्रतिशत से लेकर 1.6 और 2.0 प्रतिशत तक है। इन जातियों-उपजातियों में से अगर 6-7 जातियों-उपजातियों को राजनीति के लालच या किसी छलावे में फंसाकर मनुवादियों के पाले में ला दिया जाये। तो फिर इन पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियों की संख्या 5-7 प्रतिशत हो जाएगी जो देश की राजनीति में सत्ता बनाने और बिगाड़ने में बहुत अहम रोल अदा करेगा।
कांशीराम जी के बहुजन जातीय एकजुटता के फार्मूले को किया विफल: बहुजन समाज की पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति व उपजातियों को देश की संपदा में कोई हिस्सेदारी नहीं मिली है। साहेब कांशीराम जी चाहते थे कि अगर देश का यह अति पिछड़ा व पिछड़ा समाज राजनीतिक रूप से जागरूक व इकट्ठा हो जाये तो वह इस देश में अपनी सत्ता स्थापित कर सकता है। इसी उद्देश्य को पाने के लिए मान्यवर साहेब ने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक साइकिल रैलीयां निकाली, छोटी-छोटी सभाएं की, जिनकी अगुआई उन्होंने खुद की थी। पूरे देश में वे साइकिल के माध्यम से गली-गली घूमे, लोगों से बातचीत की, लोगों को उन्होंने उनकी हिस्सेदारी के बारे में बताया, जागरूक किया और उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया, जिसके परिणामस्वरूप कश्मीर से लेकर दक्षिण के राज्यों तक पिछड़े व अति पिछडों के समाज में राजनैतिक आकांक्षाएं उगती दिखाई दी। मान्यवर साहेब ने इन जातियों के लोगों में से कुछेक के अंदर राजनैतिक समझ व क्षमता देखकर उन्हें विभिन्न प्रदेशों से चुनाव लड़ने के लिए भी प्रेरित किया। फलस्वरूप देश के कई प्रदेशों से विधायक और सांसद चुनकर आने लगे जिसे देखकर मनुवादी संघियों ने अपने को सत्ता में बनाए रखने के लिए खतरा माना और उन्होंने कांशीराम जी के फार्मूले को विफल करने के लिए उन जातीय घटकों के लोगों को पकड़ा जिनकी संख्या 0.25 प्रतिशत से लेकर 1.6 और 2.0 प्रतिशत तक है। इससे अधिक संख्या वाली जाति और उपजातियों के लोग मनुवादियों के छलावों में कम फंसे शायद उन जातियों में राजनैतिक समझ अपेक्षाकृत अधिक दिखाई दी। इसके साथ ही इन जातीय घटकों में शिक्षा और जागरूकता का स्तर भी बेहतर था, इसलिए वे मनुवादी संघियों के जाल में नहीं फंसे।
सत्ता में निरंतरता के साथ बने रहने का संघी गणित: सत्ता में निरंतरता के साथ बने रहने के लिए संघियों ने अपने ऐसे कई शोध संस्थान खोले हैं जिनका मुख्य शोध कार्यक्रम यही है कि लोगों को कैसे छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर, बहुजन समाज का कैसे बांटा जाये और उन्हें मनुवादी जाल से मुक्त न होने दिया जाये। देश का पूरा समाज 6743 जातियों में विभक्त है, इन सभी जातियों में उपजातियाँ भी हैं जो सभी छोटे-छोटे जातीय समूहों में बंटकर समाज में अलग-थलग रहते हैं। भारत के समाज में जातीय विभक्तिकरण के कारण एकजुटता का अभाव है। इसी अभाव के कारण कोई भी जातीय समूह शक्तिशाली नहीं बन पाता और न वह मनुवादियों को किसी भी तरह से परास्त कर पाता है। अगर पूरा बहुजन समाज मान्यवर साहेब कांशीराम जी के मिशन के अनुसार इकट्ठा हो जाए तो फिर वह सत्ता की कुर्सी पर भी काबिज हो सकता है। परंतु इस समाज में एकजुटता की भारी कमी है जिसके कारण देश का अल्पसंख्यक (ब्राह्मण) जो देश की जनसंख्या में केवल 3 प्रतिशत है, वह हमेशा सत्ता की कुर्सी पर विराजमान रहता है। इस राजनैतिक करिश्मे के पीछे ब्राह्मणों की बुद्धि का खेल नहीं है बल्कि बहुजन समाज की बिखरी हुई जातियों में एकजुटता की कमी है। देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है, लोकतंत्र में जिसकी संख्या अधिक होती है वह ही सत्ता की कुर्सी पर विराजमान होता है परंतु ब्राह्मणवादी शक्तियों ने लोकतंत्र को विफल बनाने के उद्देश्य से बहुजन समाज की पिछड़ी व अति पिछड़ी 0.25 प्रतिशत से लेकर 1.6 और 2.0 प्रतिशत तक है, उनको अधिसंख्यक बहुजन जातियों से अलग करके सत्ता का दिखावटी लालच देकर मनुवादी एजेंडे को सफल बनाने के लिए कैसे एक साथ लाया जाये। इस प्रकार के षड्यंत्रकारी शोध कार्यक्रम दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थानों में बैठकर संघी-मनुवादी चला रहे हैं, इनका मुख्य उद्देश्य यही है कि बहुजन समाज के हाथ में सत्ता न आए और ब्राह्मणों की सत्ता निरंतरता के साथ देश में बनी रहे।
बहुजन समाज के राजनैतिक व सामाजिक संगठनों में खोट: देश में बहुजन समाज के लाखों सामाजिक संगठन है सभी अपने आपको अम्बेडकरवादी कहते हैं मगर वे सभी सामाजिक संगठनों के संचालक और बहुजन समाज के राजनीतिक दलों के नेता सिर्फ मनुवादियों की गुलामी करने के उद्देश्य से बहुजन समाज के बीच जाकर अपने आपको चमकाने के लिए काम करके मनुवादियों के आर्थिक टुकड़ों पर पलते हैं। बहुजन समाज आज चौराहे पर हैं, नेता विहीन है, सामाजिक संगठनों के बहुत सारे संचालक और नेता अपने आपको चमकाने के उद्देश्य से मनुवादियों संघियों के बीच जाकर समाज की संख्याबल के आधार पर अपना राजनैतिक मूल्य और वजन बताकर मनुवादी संघियों के हाथों बिकने के लिए हर समय लालायित रहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या आज बहुजन समाज में अधिक हो चुकी है, कहने के लिए तो ये सभी नेता अपने आपको अम्बेडकरवादी बताते हैं मगर इनमें से किसी में भी अम्बेडकरवाद को समझने व उसके अनुरूप आचरण नहीं है। जिसके कारण आज देश भर में अम्बेडकरवाद विफल होता नजर आ रहा है और ऐसे लोगों की वजह से ही ब्राह्मणवाद और मनुवाद दिन-प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा है।
बहुजन समाज के अग्रणीय व शिक्षित लोगों में अधिक मनुवाद: मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद से बहुजन समाज के शिक्षित व अग्रणीय लोगों मनुवाद की अधिकता देखने को मिल रही है। आज बहुजन समाज का साधारण स्तर का पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपने ही समाज के सुशिक्षित व विश्वविद्यालयों में स्थापित प्रोफेसर मनुवादियों के हाथों बिकने के लिए लाइन लगाकर खड़े हैं और मनुवादियों को अपने समाज की भीड़ दिखाकर उनसे अपना मोल-भाव भी कर रहे हैं। जबकि उनके पीछे बहुजन समाज की जनता नहीं है मगर वे अपनी वाक-पटुता, शैक्षिक योग्यता और अपना राजनैतिक अनुमानित मूल्य मनुवादियों के सामने रखते हैं ताकि उनकी अधिक से अधिक कीमत पर बोली लग सके।
बहुजन समाज के नेता कैसे सुधारे? बहुजन समाज में लाखों सामाजिक संगठन है और सभी संगठनों में राजनैतिक आकांक्षा पाले हुए बहुत से लोग इन संगठनों से लंबे समय से चिपके हुए है कि शायद एक दिन मेरी भी किसी राजनैतिक दल द्वारा बोली लगाई जा सके। अगर बोली का मूल्य ठीक-ठाक मिलता है तो उस वक्त, नेता समाज और संगठन की परवाह न करके समाज को लात मारकर मनुवादियों की गुलामी के लिए अपने आपको समर्पित कर देगा। आज समाज के सामने सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि वह भरोसा किस पर करे और किस पर न करे? समाज को आज अपनी विफलता का मंजर साफ नजर आ रहा है कि वह किसे अपना नेता माने और किसे न माने? चूंकि आज सभी सामाजिक संगठनों के संचालक और बहुजन राजनेता खुलेआम या छिपे ढंग से बिके हुए नजर आ रहे हैं। बहुजन समाज की गरीब जनता ने अपने राजनैतिक दल (बीएसपी) को अपने खून पसीने की कमाई से सींचा और उससे उम्मीद लगाई थी कि एक दिन यह हमारे समाज की राजनैतिक ताकत बनेगी और समाज को समृद्ध बनाने का काम करेगी। मगर वह भी आज छिपे ढंग से मनुवादी संघियों के लिए परोक्ष रूप से काम करती नजर आ रही है। बीएसपी ने बहन मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज की बुनियादी अवधारणा के विरुद्ध नीतियों में बदलाव किया है और उन्होंने बहुजन समाज के स्थान पर सर्वजन कर दिया है, ‘हाथी नहीं गणेश है ब्रह्म विष्णु महेश है’ का नारा अपने अंधभक्तों के द्वारा स्थापित करा दिया है। राजनीति में सफल होने के लिए समाज के नेता को दुख-दर्द में शामिल होना होता है, सड़क पर उतरकर उनके आंदोलन में ऊर्जा भरने का काम भी करना होता है, मगर बहन जी ऐसा कोई भी काम नहीं कर रही है जिससे वे अपने समाज के दुख-दर्द को महसूस कर सके। शायद उनका यह व्यवहार इसलिए बन गया है कि जिस समाज ने उनको सफल बनाने के लिए अपने धन-बल से उन्हें 40 साल तक सींचा, उसकी कीमत अब उनके लिए नगण्य हो चुकी है। परोक्ष रूप से अब उनकी पूरी शक्ति अपने द्वारा वैध-अवैध रूप से कमाई गई संपत्ति को मनुवादियों के षड्यंत्रकारी जाल (इन्कम टैक्स, सीबीआई, ईडी आदि) से बचाना है। उनके स्वभाव में ऐसा परिवर्तन शायद इसलिए ही हो पाया है चूंकि उन्होंने कभी भी अपने समाज के लोगों को समाज की रणनीति में शामिल करके उनके साथ विमर्श नहीं किया। उन्होंने अपने परिवार और अन्य संबंधियों को स्थापित करने के लिए समाज को चौहराहे पर लाकर छोड़ दिया। अब उनके मुख्य सलाहकार या कार्यकारी कर्ता-धर्ता सतीश मिश्रा जी है जिन्होंने अपने रणनीति कौशल से बहन जी को मनुवादी संघियों के जाल में फंसा दिया है और वे अब किसी भी सूरत में उससे बाहर नहीं आ सकती।
ऐसी परिस्थिति को देखकर अब बहुजन समाज को अपना अन्य कोई अम्बेडकरवादी नेता जो पूर्ण रूप से अम्बेडकरवादी हो, मिशन के लिए समर्पित हो, लालची न हो और अम्बेडकरवाद को पूरी तरह से अपने अंदर आत्मसात कर चुका हो, ऐसे ही व्यक्ति को समाज अपना नेता समझे और समाज की बागडोर उसे ही सौंपे। साथ ही समाज को सावधान भी रहना होगा कि बहन जी जैसी स्थिति आने पर वह उस व्यक्ति को भी तुरंत छोड़ दे और उसके स्थान पर कोई दूसरा सक्षम व्यक्ति को तुरंत लायें।





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