2023-11-04 08:16:20
यह निर्विवाद सत्य है कि भारत में मनुवादी व्यवस्था और जातिवाद का बोलबाला है। देश में संविधान लागू होने के बाद कानूनी स्तर पर तो संविधान के प्रावधान लागू हुए परंतु सामाजिक व्यवस्था के लिए संविधान के प्रावधानों को लागू नहीं किया गया। वास्तविकता के आधार पर भारत का संविधान दुनिया में इसलिए ही विशिष्ट व श्रेष्ठ है चूंकि इस संविधान में कानूनी व सामाजिक व्यवस्था के लिए प्रावधान हैं। देश में आज तक पूरा संविधान लागू ही नहीं किया है। जिसके कारण समाज में अपेक्षित बदलाव नहीं आ पाये। संविधान के अनुच्छेद 13 में यह प्रावधान स्पष्ट रूप से दिया गया है कि 26 जनवरी 1950 से पहले समाज में जो अवैज्ञानिक व अतार्किक सामाजिक प्रावधान चलन में थे वे अब निरस्त हंै। परंतु वास्तविकता इसके विपरीत ही रही सरकार द्वारा सामाजिक प्रावधानों का खुला उल्लंघन किया गया। तत्कालीन सरकारों व न्यायालयों ने अभी तक इस तरह के संविधान विरोधी आचरणों का संज्ञान नहीं लिया है। जिसके कारण ये सभी अतार्किक व अवैज्ञानिक मान्यताएं समाज में चलती रहीं और फलती-फूलती रहीं हैं। देश को आजादी मिलने के बाद सत्ता हस्तांतरण कांग्रेसी सरकार को हुआ और उस वक्त कांग्रेस के नेताओं में ब्राह्मणी संस्कृति के मनुवादियों की अधिकता थी। सभी मनुवादी कांग्रेसी नेता अपने दिलो-दिमाग से नहीं चाहते थे कि संविधान को सअक्षर लागू किया जाये। इसलिए राज व्यवस्था से संबंधित संविधान को लागू किया गया और सामाजिक व्यवस्था वाला भाग लागू नहीं किया गया। भारत की अधिसंख्यक जनता संविधान को समझने में असक्षम है। कांग्रेस के उस वक्त के शीर्ष नेता कट्टर ब्राह्मणी संस्कृति से ओत-प्रोत थे जिनमें मुख्य थे बाल गंगाधर तिलक, मोहनदास करमचंद गांधी, मदन मोहन मालवीय, सी. राजगोपालाचारी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, बल्लभभाई पटेल, गोविद वल्लभ पंत, जवाहर लाल नेहरू व अन्य सैंकड़ों वरिष्ठ कांग्रेसी नेता। जिन्होंने उस समय बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के द्वारा दिये गए सामाजिक व्यवस्था के प्रावधानों का पुरजोर विरोध भी किया था। अचंभित करने वाली बात यह थी कि इन नासमझ कांग्रेसियों में कुछेक कमसमझ शूद्र (पिछड़े) समाज के नेता भी थे। जिन्होंने हमेशा मनुवादी संस्कृति का समर्थन किया। उदाहरण के लिए जब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को देश का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया तो उस समय के पंडे-पुजारियों ने उन्हें देश की सत्ता की कुर्सी पर बैठाने का यह कहकर विरोध किया था कि वे शूद्र समाज से हैं। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की खुद की मानसिकता भी मनुवादी रोग से पीड़ित थी। इसलिए राष्ट्रपति बनने के बाद भी राष्ट्रपति भवन में रहने के दौरान राष्ट्रपति भवन की रसोई में गाय के गोबर से लेप लगवाते थे और वहीं पर बने भोजन को जमीन पर बैठकर ही ग्रहण करते थे। इससे पता चलता है कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की मानसिकता में किस कदर मनुवादी व्यवस्था का जहर था।
कांग्रेसियों में मजबूत थी मनुवादी मानसिकता: बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जब संविधान सभा जाना चाहते थे तो उस समय के ब्राह्मणी संस्कृति के कांग्रेसी नेताओं ने उनका विरोध किया था और उनको चुनाव लड़ने के लिए कोई सीट नहीं छोड़ी थी। यह देखकर उस समय के बंगाल से बहुजन नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल ने बाबा साहेब से अनुरोध किया था कि आप संविधान सभा में जरूर जायें और उसके लिए उन्होंने खुलना संविधान सभा सीट से चुनाव लड़ने का उन्हें मसवरा दिया। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जोगेन्द्र नाथ मंडल के समर्थन में खुलना सीट के मुस्लिम बाहुल मतदाताओं वाली सीट से भारी मतों से जीतकर भारत की अविभाजित संविधान सभा में पहुँचे थे। इसके उपरांत भारत का विभाजन हो गया और संविधान सभा की खुलना सीट पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश कहलाता है वह उस समय के पाकिस्तान के हिस्से में चली गई। इसके पीछे ब्राह्मणी संस्कृति की मानसिकता यह थी कि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को संविधान सभा में आने से कैसे रोका जाये? इसके उपरांत बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने मुंबई से खाली हुई सीट पर संविधान सभा के लिए दोबारा चुनाव लड़ा जिसके पक्ष में उस समय के ब्राह्मणी संस्कृति के कांग्रेसी नहीं थे। परंतु उस समय की ब्रिटिश सरकार का बाबा साहेब के लिए परोक्ष समर्थन था इसलिए बाबा साहेब को वहाँ से जीताना कांग्रेसियों की मजबूरी बनी। दूसरा कारण यह भी था कि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर उस समय के विश्वभर के छ: श्रेष्ठ विद्वानों में से एक थे। भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में भी बाबा साहेब के समकक्ष कानूनविद व संविधानविद व्यक्ति नहीं था। इस मजबूरी को भाँपकर गांधी ने कांग्रेसियों से आग्रह किया कि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को मुंबई से संविधान सभा के लिए जीताना है। इस प्रकार बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संविधान सभा में मुंबई से जीतकर आये और संविधान सभा में संविधान मसौदा समिति के चेयरमैन भी बन पाये। बाबा साहेब ने कड़ी मेहनत और लगन से दुनिया भर के संविधानों और कानूनों का अध्ययन करके 2 साल 11 महीने 18 दिन का समय लगाकर अपनी सेहत की परवाह किये बगैर 20-20 घंटे कार्य करके भारत के संविधान का निर्माण किया और 25 नवम्बर 1949 को भारत का संविधान भारत के राष्ट्रपति को विधिवत सौंपा।
बहुजन समाज विरोधी है मनुवादी मानसिकता: बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर 1952 में लोक सभा के लिए अपना पहला चुनाव महाराष्ट्र की भंडारा सीट से लड़ रहे थे तो मनुवादियों ने उनके विरुद्ध उन्हीं के समाज के अनपढ़ व्यक्ति को खड़ा करके बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को चुनाव में हरवाया था। ब्राह्मणी संस्कृति के मनुवादियों की हमेशा रणनीति रही है कि बहुजनों के नुकसान के लिए बहुजनों के व्यक्ति को ही खड़ा करो और उसे आवश्यक खाद-पानी देकर इतना बलवती करो कि वह बहुजनों के हितैषी व्यक्ति को हराने में सक्षम बने। बहुजन समाज के व्यक्तियों को यह अच्छी तरह से मालूम होना चाहिए कि कांग्रेस बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की बौद्धिक क्षमता और उनकी विद्वता के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से ही बाबू जगजीवन राम को लायी थी। जगजीवन राम जी हालांकि मनुवादी व्यवस्था की मानसिकता से संक्रमित थे परंतु बौद्धिक रूप में सक्षम भी थे। वे मनुवादी मानसिकता को छोड़कर अन्य समकक्ष कांग्रेसी नेताओं से विद्वान भी थे और वे जिस मंत्रालय में भी रहे वहाँ पर कारगर रूप से सफल भी रहे। उनकी बौद्धिक क्षमता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है वे भारत में एक सफल राजनेता सिद्ध हुए।
बहुजन नेताओं को शीर्ष पद नहीं देना चाहते मनुवादी: 1977 में जब श्रीमती इंदिरा गांधी चुनाव हार गई थी उस वक्त देश में प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में मोरारजी देसाई, बाबू जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह थे। परंतु ब्राह्मणी संस्कृति और मनुवादी मानसिकता के कारण उस समय के तथाकथित नेता जय प्रकाश नारायण ने जनता दल के नेताओं की मध्यस्था के तौर पर मोरारजी देसाई का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए सुझाया और उसी नाम के लिए सभी को एकमत किया। उस समय की जनता दल सरकार में भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ पार्टी भी हिस्सेदार थी जिसके प्रमुख नेता अटल बिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवाणी थे। मनुवादियों की यह छिपी रणनीति थी कि किसी भी कीमत पर दलित को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना है। उस समय के वरिष्ठ संघी नेता नानाजी देशमुख ने संघी प्रचारकों व कैडरों को गुप्त चिट्ठियाँ लिखी थी कि बाबू जगजीवन राम जी एक दलित नेता है उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने देना है। उनका प्रधानमंत्री बनना भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं होगा अगर वह प्रधानमंत्री बनने में सफल होते हैं तो यह भारतीय संस्कृति के साथ बड़ा अनर्थ होगा। बाद में जब मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई तो प्रधानमंत्री की रेस में सिर्फ दो व्यक्ति चौधरी चरण सिंह और बाबू जगजीवन राम जी थे। उस समय की राजनीति को भाँपकर इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को असक्षम समझकर उनके समर्थन का ऐलान कर दिया था। कांग्रेसियों द्वारा चौधरी चरण सिंह को समर्थन दिये जाने के कारण देश के प्रधानमंत्री तो बन गए थे। लेकिन भारत के संसदीय इतिहास में वे अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो एक दिन भी संसद का सामना नहीं कर पाये। जिसके फलस्वरूप चौधरी चरण सिंह की सरकार 1980 में गिर गई, परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस भारी संख्या में जीतकर सत्ता में वापिस आ गई। श्रीमती इंदिरा गांधी फिर देश की प्रधानमंत्री बन गई।
ओबीसी नेताओं में सूझ-बूझ व एकता भाव की कमी: मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने जब देश में पिछड़े वर्ग की जातियों को जागरूक करने का अभियान चलाया तो उस समय उत्तर प्रदेश की सरकार में अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे। जिन्होंने सत्ता के बल पर बहन जी को बंधक बनाकर ‘गेस्ट हाऊस कांड’ कराया जो बहुत ही निम्नतर स्तर के राजनीतिक विद्वेष का प्रमाण है। उस गेस्ट हाऊस कांड में मुलायम सिंह द्वारा बहन जी की हत्या करने तक का षड्यंत्र था। जिसका बहन जी ने बड़ी बहादुरी और विवेक से मुकाबला किया था। बहन जी की राज्य व्यवस्था और प्रशासनिक क्षमता के सामने आज देश का कोई भी नेता खड़ा नहीं होता है। उन्होंने अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार में बहुजन समाज के हितों के लिए जो कार्य किये वह देश में सर्वश्रेष्ठ हैं। बहन जी ने अपनी प्रशासनिक क्षमता का लोहा सभी वर्गों से मनवाया जिसकी प्रशंसा आज उनके विरोधी मनुवादी लोग भी करते हैं।
सपा व ओबीसी नेताओं की मानसिकता में गहरा मनुवाद: बहुजन समाज के जागरूक घटक यह बात जानते हैं कि अखिलेश यादव और उसका पूरा परिवार मनुवादी मानसिकता से बीमार है। उनके पिता मुलायम सिंह यादव के राजनैतिक संबंध संघी मानसिकता के नेताओं जैसे अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी व नरेंद्र मोदी से गहरे रहे हैं। बहन जी के मुख्यमंत्रित्व काल में बहुजन समाज के दलित नौजवानों को जो नौकरियां मिली थी अखिलेश यादव की सरकार ने उन कर्मचारियों को पदस्थ किया था। असिस्टेंट इंजीनियरों को जूनियर इंजीनियर बना दिया गया था, दलित विरोधी कार्य अखिलेश सरकार में अधिक किये गए थे। अखिलेश सरकार ने बहन जी की सरकार में बनाए गए बहुजन समाज के महापुरुषों के स्मारकों को भी तुड़वाने व उन्हें अव्यवस्थित करने का काम भी किया था। बहुजन समाज को अखिलेश यादव व उसके परिवार के सदस्यों की मानसिकता का अच्छा ज्ञान है। शूद्रों में दलित विरोधी मानसिकता रखने वाली दबंग जातियों के नेताओं से बहुजन समाज को सावधान रहना चाहिए और उनसे कोई भी समझौता नहीं करना चाहिए। समाज के जो नेता बहन जी को ‘इंडिया’ नाम के गठबंधन में आने की वकालत कर रहे हैं उन्हें इतिहास और इस देश की राजनीति का ज्ञान नहीं है। उनमें अधिकतर स्वार्थी है, उनमें त्याग की कोई भावना भी नहीं है। इस संदर्भ में बहुजन समाज के नेताओं को बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा स्थापित की गई रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया के इतिहास को भी समझ लेना चाहिए। कांग्रेसियों ने आरपीआई के नेताओं को राजनीतिक स्वार्थ में फंसाकर पार्टी को दर्जनों दुकड़ों में बाँटकर ध्वस्त कर दिया। मनुवादियों के इस सारे इतिहास को समझकर बहन जी का अकेला चलो का फैसला श्रेष्ठ व बहुजन हित में लगता है। बहुजन समाज के हर व्यक्ति को अपने आपको ही मजबूत करना चाहिए। किसी भी लालच में मनुवादी मानसिकता के नेताओं के साथ गठबंधन में नहीं जाना चाहिए। बहुजन समाज के पास सिर्फ अब एक ही विकल्प है कि अपना वोट बीएसपी को दें और दिलायें।
॥ जय भीम, जय संविधान॥
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