2024-08-16 11:51:59
विंस्टन चर्चिल ने भारत को आजाद करने पर कहा था, भारत सिर्फ एक भौगोलिक अभिव्यक्ति है यह राष्ट्र नहीं है, जैसे इक्वेटर है उसी तरह भारत है। भारत एक बहुभाषी देश है। संविधान में यहाँ की 22 भाषाओं को प्रमुख माना गया है। यहाँ करीब 20 हजार बोलियां बोली जाती है इनमें से कुछ तो ऐसी है जिनके बोलने वालों की संख्या विश्व के कई देशों में बोले जाने वाली भाषाओं से कहीं अधिक है। भारत की धरती से चार प्रमुख धर्मों का जन्म हुआ है-बौद्ध, जैन, सिख व हिन्दू। भारत में सबसे अधिक धर्मों के अनुयायियों को पनाह मिली है जिसके आधार पर यहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का भाव दिखता है। विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि भारत आजाद होकर लंबे समय तक एकजुट व अखंड नहीं रह पाएगा, लेकिन अब भारत को आजाद हुए 78 वर्ष हो चुके हैं और भारत अपने संविधान की बदौलत एक मजबूत अखंड देश के रूप में आगे बढ़ रहा है।
विषमतावादी मनुवादी विचार: भारत की सामाजिक व्यवस्था विषमतावादी है। यहाँ मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव और ऊँच-नीच की व्यवस्था है। भारत में किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके गुणों के आधार पर नहीं बल्कि उससे संबंधित जाति से की जाती है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति स्वयं अपने आप में कुछ भी नहीं है, जबतक कि वह अपने नाम के साथ जाति लगाकर उसका उद्बोधन नहीं करता है। यहाँ पर राष्ट्रवादी संघी व्यक्ति व महात्मा कहे जाने वाले गांधी ने भी जाति को समाज का अभिन्न अंग माना है। आम व्यक्ति की समझ के आधार पर ‘जाति’ समाज की विभाजक है। इतिहास में इसे देश ने देखा और भोगा भी है। जाति के आधार पर समाज 6743 भागों में विभक्त है। जातियों में परस्पर क्रमिक ऊँच-नीच की व्यवस्था है। जिसके तहत एक जाति दूसरी जाति से या तो ऊँची है या नीची है। समाज में समानता नहीं है, विभिन्नता और विषमता विद्यमान है जो समाज को एकता के सूत्र में नहीं बंधने देती है। समाज में अगर एकता का भाव नहीं है, समाज में जब एकता का भाव होगा तभी समाज संगठित हो सकता है। विश्व जानता है कि संगठन और आपसी एकता में ही सामाजिक शक्ति निहित होती है, जो भारत के समाज में नहीं है। इसी के कारण भारत का भू-भाग 855 वर्षों तक विदेशी शासकों का गुलाम रहा है। देश के सामने समाज के बिखराव का ये सबसे बड़ा ज्वलंत उदाहरण है जिस कारण यहाँ की जनता को अपने अंदर आवश्यक सुधार करने चाहिए।
तथाकथित राष्ट्रवाद का पाखंड: वर्तमान समय में भारत में दो विचारधाराएं है, एक का नाम है तथाकथित पाखंड आधारित ‘राष्ट्रवाद’ और दूसरी विचारधारा ‘अम्बेडकरवाद’ है। राष्ट्रवादी मूल रूप से अपने आपको राष्ट्रभक्त मानते और कहते हैं जबकि ये वहीं लोग है जिनका भारत की आजादी की लड़ाई में कोई भी योगदान नहीं है बल्कि जब देशभक्त लोग आजादी के संघर्ष के लिए मैदान में थे तब ये तथाकथित राष्ट्रवादी संघी लोग अंग्रेजी शासकों के मुखबर बनकर आंदोलनकारियों की सूचना ब्रिटिश शासन के अधिकारी तंत्र को दे रहे थे। संघियों के तथाकथित राष्ट्रवादियों ने समाज में समता और समानता की बात नहीं की। इन तथाकथित राष्ट्रवादियों ने हमेशा समाज को जातिवादी मानसिकता के तहत बाँटकर रखने, और उसमें ऊँच-नीच की भावना को मजबूती देने की बात की। हिंदुत्व की विचारधारा वाले संघियों ने अपने तथाकथित ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ आधारित सामाजिक संरचना की वकालत की। मनुस्मृति संघियों की विचारधारा का महत्वपूर्ण हिंदुत्ववादी ग्रंथ माना जाता है। जिसमें देश की महिलाओं और शूद्र वर्ग (एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक) के लिए कोई मानवीय अधिकार नहीं है। मनुस्मृति दुनिया का सबसे घटिया मनुवादी विधान तंत्र है जो मनुष्यों में गहराई तक जाकर भेदभाव की भावना अंकुरित करके उनमें घृणा को स्थापित करता है। जिससे समाज में भेदभाव की पक्की दीवारें खड़ी होती है। दुनिया में कहीं भी इतनी घटिया और अप्राकृतिक सामाजिक संरचना का तंत्र मौजूद नहीं है। परंतु हिंदुत्व की विचारधारा के अंधभक्त धूर्त अपने आपको मनुस्मृति आधारित सामाजिक संरचना का ख्वाब दिन की रोशनी में देखते रहते हैं। भारत में दूसरी विचारधारा ‘अम्बेडकरवाद’ है जिसके आधार पर सभी भारतीय भू-भाग पर रखने वाले मनुष्य समान है, सभी को सभी मानवीय अधिकार बराबरी के साथ प्राप्त है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने भारत का संविधान निर्मित किया और उसमें सभी नागरिकों को समानता के आधार पर अधिकार सुनिश्चित किये। जाति, धर्म और वर्ण के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया। भारत भू-भाग पर रहने वाला कोई भी व्यक्ति कहीं भी जा सकता है, कहीं भी जाकर बस सकता है और कहीं पर भी जाकर व्यापार आदि कर सकता है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने भारत में रहने वाली सभी महिलाओं के लिए पुरुषों के बराबर ही अधिकार दिये। यानि अधिकारों के मामले में बाबा साहेब ने महिलाओं और पुरुषों में कोई भेदभाव नहीं किया। जबकि हिदुत्ववादी विचारधारा के संघियों ने यहाँ तक कि महात्मा कहें जाने वाले गांधी ने भी महिलाओं व शूद्रों को मानवीय अधिकार दिये जाने का विरोध किया था। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने पुरुषों के समान महिलाओं को भी ‘एक वोट’ और उसकी ‘एक ही कीमत’ का अधिकार सुनिश्चित किया जबकि संघी मनुवादी मानसिकता के लोग महिलाओं को इन सब अधिकारों से वंचित रख रहे थे।
जातिवाद का जहर: भारतीय समाज में मनुवादियों ने जाति को समाज का अभिन्न अंग माना है। जाति के आधार पर मनुष्य की श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता को मापा जाता है। ब्राह्मण जाति के मनुष्य को बिना किसी कारण, बिना विशिष्टता और बिना योग्यता के जन्म के आधार पर ही श्रेष्ठ मान लिया जाता है। जाति ही मनुष्य की श्रेष्ठता का मापन और मानक यंत्र है। ब्राह्मणी मानसिकता से ओत-प्रोत तुलसीदास जैसे धूर्त व्यक्ति ने तो यहाँ तक लिखा है ‘‘पूजहि विप्र सकल गुण हीना। शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा॥’’ अर्थात तुलसीदास जी का कहना है कि ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान गुण से विहीन हो, उसकी पूजा करनी ही चाहिए, और शूद्र चाहे कितना भी गुणी व ज्ञानी हो, वो पूजनीय नहीं हो सकता है। तुलसीदास की इसी परिकल्पना से कोई भी मनुष्य जाति आधारित जहर की गहराई को समझ सकता है और वह यह भी जान सकता है कि जाति के आधार पर ब्राह्मणों ने समाज में किस तरह का जहर घोलकर समाज को हजारों टुकड़ों में विभक्त करके कमजोर किया है। जाति एक ऐसा रोग है जो जन्म से ही मनुष्य को मिलता है और जीवंत प्रर्यंत व मरणोपरांत भी मनुष्य इस रोग से मुक्ति नहीं पाता। जाति व्यवस्था की अवधारणा हिंदुत्ववादी ब्राह्मणी संस्कृति की देन है। जाति रूपी रोग से देश में मौजूद अन्य संस्कृतियाँ व विचारधाराएं भी संक्रमित हुई है। समझने के लिए आप इस्लाम की संस्कृति पर नजर डाल सकते हैं। इस्लाम में जाति जैसी अवधारणा नहीं है परंतु भारत भू-भाग से ब्राह्मणी संस्कृति में ऊँच-नीच और नफरत की भावना से तंग आकर भारत के जिस शूद्र समाज ने इस्लाम में बराबरी का व्यवहार देखकर परिवर्तित हुआ वे सभी इस्लाम में भी संक्रमणकारी जाति नाम के जीवाणुओं को साथ लेकर परिवर्तित हुए। उदाहरण के लिए- हिंदुत्व की विचारधारा में नाई, कुम्हार, बढ़ई, लौहार आदि जातियों के लोग इस्लाम में परिवर्तित होकर भी अपनी अतीत की जातियों के नाम से और काम से ही वर्गीकृत होकर सभी अपनी पूर्व की जातियों से ही जाने जा रहे हैं।
बहुजन समाज की अधूरी आजादी: वर्ण व्यवस्था के आधार पर ब्राह्मणी संस्कृति के मनुवादी ने समाज को चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र में विभक्त किया। इस व्यवस्था के आधार पर शूद्र वर्ग (सभी वर्गों की महिलाओं सहित) सबसे बड़ा व अधिसंख्यक है। जिसकी जनसंख्या देश में लगभग 90 प्रतिशत है। आजादी का सटीक से आंकलन करने के लिए आजादी को चार भागों में विभक्त कर सकते हैं। राजनैतिक आजादी, सामाजिक आजादी, आर्थिक आजादी और व्यक्ति की गरिमा की आजादी। इन चारों आजादियों को शूद्र वर्ग के परिपेक्ष्य में देखे और उसका आंकलन करे तो पाते हैं कि शूद्र वर्ग की 90 प्रतिशत जनता को सिर्फ पहली आजादी ही उपलब्ध है। 25 प्रतिशत आजादी राजनीतिक आजादी है जहाँ पर देश का हर मनुष्य महिला हो या पुरुष ‘एक वोट और उसका एक मूल्य’ है। इस अधिकार को पाने में सभी समान हो पाये हैं परंतु बाकी तीन प्रकार की आजादियों में देश के सभी पुरुष और महिलाएँ समान नहीं है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा के अपने आखिरी संबोधन में कहा था कि ‘26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक जीवन में तो हमारे पास समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे साथ असमानता होगी।’ भारत 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के साथ ही एक संप्रभुत्व, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक राज्य बन गया। अपने भाषण में डॉ अम्बेडकर एक नए गणतांत्रिक राज्य और पुरानी सभ्यता के बीच के अंतर्विरोधों के बारे में इशारा कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा है कि लोकतंत्र ‘भारतीय भूमि का केवल ऊपरी पोशाक’ है। उनके अनुसार, यहां की संस्कृति ‘अनिवार्य तौर पर अलोकतांत्रिक’ है और यहां के गांव ‘स्थानीयता का गंदा नाला, अज्ञानता, संकीर्णता और सांप्रदायिकता के घर’ हैं। भारत जैसे गरीब और गैर-बराबरी वाले देश में संविधान के जरिए छुआछूत खत्म करना, वंचितों के लिए सकारात्मक उपाय करना, सभी वयस्कों को मतदान का अधिकार देना और सबके लिए समान अधिकार तय करना, उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी और आज भी है।
सामाजिक, आर्थिक और गरिमा की आजादी के तीनों पायदानों पर बहुजन समाज निम्नतम स्तर पर है। अगर हम वर्तमान परिपेक्ष्य में केंद्र और प्रदेशों की संघी सरकारों का आंकलन करें तो पाते हैं कि देश में सामाजिक आजादी और सौहार्द के नाम पर विषमता और नफरत का भाव पिछले 10 वर्षों में अधिक बढ़ा है, समाज में आपसी वैमनष्यता बढ़ी है, आपसी सौहार्द और एकता के भाव में कमी आयी है। समाज में अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध नफरत और वैमनष्यता का भाव खड़ा किया गया है तथा उनके ऊपर उत्पीड़न की घटनाएँ बढ़ी हैं, इन वर्गों की महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ भी बढ़ी हैं। दलितों के ऊपर खुलेआम पेशाब करने जैसी घटनायें दर्शाकर उसकी गरिमा को तार-तार किया गया है। देश की आर्थिक स्थिति का आंकलन करने पर पता चलता है कि देश की 50 प्रतिशत जनता के पास कुछ भी धन-सम्पदा नहीं है और वे अपना जीवन यापन घोर गरीबी में बिता रहे हैं। इन सब तथ्यों से पता चलता है कि देश की आजादी का मतलब बहुजन समाज के लिए कुछ भी नहीं है। आजादी में उनका हिस्सा सिर्फ 25-30 प्रतिशत तक सीमित होकर, अपने आप में समाज कलंकित हो रहा है। भारत अगर एक सुसंस्कृत, समृद्ध व शक्तिशाली देश बनना चाहता है तो बहुजन समाज को चारों प्रकार की आजादी जल्द से जल्द सुनिश्चित करनी होगी। अगर ऐसा करने में भारत की सरकार आवश्यक कदम उठाने में देरी करेगी तो भारत के लोकतंत्र को खतरा भी उसी अनुपात में बढ़ेगा।
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