2024-11-02 09:54:38
बहुजन समाज एससी/एसटी/ओबीसी/पसमांदा धार्मिक अल्पसंख्यक से मिलकर बना है। संख्या बल के हिसाब से देश में बहुजन समाज 85 प्रतिशत के आसपास आँका जाता है। 85 प्रतिशत की जनसंख्या देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इतनी बड़ी संख्या के राजनैतिक समावेश के लिए एक से अधिक राजनैतिक पार्टियों का होना स्वाभाविक बन जाता है। देश का भौगिक आकार भी बड़ा है और देश के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न भाषायें भी बोली जाती है। सामाजिक संरचना में खान-पान और सांस्कृतिक अन्तर भी है। सभी प्रकार की भिन्नता के चलते बहुजन समाज की सामाजिक दशा कमोवेश एक जैसी ही है। इन सभी का सामाजिक आधार तकनीकी अधिक और कमोवेश कृषि से जुड़ा है। तकनीकी आधार के चलते इस समाज ने देश में तकनीकी ज्ञान को विकसित किया है। तकनीकी ज्ञान के आधार पर आज देश की ये सभी तकनीकी ज्ञान की जातियाँ उन्नत किस्म का तकनीकी ज्ञान रखती हंै। इस आधार पर इन सभी को वर्तमान में तकनीकी ज्ञान का आविष्कारक भी कहा जा सकता है। देश और दुनिया में जितने भी मनुष्य उपयोगी आविष्कार हुए हैं वे सभी तकनीकी ज्ञान के आधार पर ही हुए हैं। तकनीकी ज्ञान के आधार पर ही समाज में संपन्नता आयी है और समाज उन्नत बना है।
तकनीकी जातीय घटकों में एकता की कमी: तकनीकी ज्ञान के जातीय घटकों में उन्नत किस्म का तकनीकी ज्ञान तो विकसित हुआ है परंतु वे आपस में क्रमिक जातीयता का भी भाव रखते हैं। जातीय भिन्नता का भाव हिंदुत्व की जहरीली मानसिकता के कारण अधिक है। हिंदुत्व की मानसिकता के कारण ही देश का संपूर्ण बहुजन समाज 6743 जातियों में विभक्त है और इस सामाजिक विभक्तिकरण के कारण ही सभी जातीय घटकों में क्रमिक ऊंच-नीच और आपस में नफरत का भाव है। समाज के सभी जातीय घटक अपने आपको एक-दूसरे से या तो ऊँचा समझते हैं या फिर नीचा समझते हैं। उन सभी में रोटी-बेटी का रिश्ता भी नहीं है। इस क्रमिक ऊंच-नीच के भाव को ब्राह्मणी संस्कृति के षड्यंत्र ने अपने स्वार्थ के कारण इतना मजबूत कर दिया है कि ये सभी जातीय घटक आपस में एक-दूसरे से नफरत का भाव रखते हैं। इस जातीय विभक्तिकरण में छिपा है ब्राह्मणी संस्कृति का षड्यंत्रकारी राजनीतिकरण। इसी राजनीतिक भावना की प्रबलता के कारण ब्राह्मण-बनिया संस्कृति वाला 10 प्रतिशत समाज सत्ता में हैं और 90 प्रतिशत आबादी वाला बहुजन समाज उसकी गुलामी कर रहा है। देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था है, प्रजातंत्र के सिद्धांत के आधार पर समाज में जिस सामाजिक घटक की संख्या भारी होगी सत्ता भी उसी की होनी चाहिए। लेकिन देश में ब्राह्मणी षड्यंत्र के कारण ऐसा हो नहीं पा रहा है। प्रजातंत्र के इस मूल सिद्धांत को बहुजन समाज को अपनी सत्ता के लिए समझना होगा। आज ब्राह्मणी संस्कृति के षड्यंत्रकारी लोग बहुजन समाज का उनके जातीय घटकों में बँटवारा करने में लगे हैं। कुछेक लालच देकर उन्हें जातीय घटकों के सामाजिक संगठनों में फंसाया जा रहा है। परंतु अब समय आ गया है कि बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों को ब्राह्मणी संस्कृति के विभक्तिकरण रूपी हथियार को उन्हीं के विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहिए। बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों की सभी जातीय राजनीतिक पार्टियों को इकट्ठा व एकजुट होकर चुनाव लड़ना चाहिए। पार्टियाँ चाहें आपस में अलग-अलग रहें, चाहे उनके चुनाव चिन्ह भी अलग-अलग हों लेकिन उन्हें यह प्रण करना चाहिए कि बहुजन समाज की राजनीतिक पार्टियों के लोग आपस में एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव ना लड़ें। जिस क्षेत्र और प्रदेश में बहुजन समाज का राजनैतिक घटक मजबूत होगा वहाँ से उसे ही चुनाव लड़ने का अधिक मौका देना होगा। इस प्रकार की समझ के चलते बहुजन समाज के वोटों का बँटवारा नहीं होगा और उनमें एकता का भाव भी बेहतर बनेगा। चुनाव में अधिक सीटें जीतने का मौका भी सभी जातीय घटकों को मिल पाएगा। बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों का एक ही उद्देश्य होना चाहिए कि आपस में जातीय घटकों के वोटों का बँटवारा न हो सके और सत्ता भी बहुजन समाज के हाथों में आये।
बहुजन समाज में उभरती राजनैतिक प्रतिस्पर्धा: ब्राह्मण-बनिया संस्कृति का समाज दूसरों को अक्सर उपदेश देता है कि राजनीति में जाना और राजनीति करना अच्छी बात नहीं। बहुजन समाज का प्रबुद्ध वर्ग भी ब्राह्मणी संस्कृति के इसी बहकावे और छलावे में फंस रहा है और वह अपने बच्चों व सगे-संबंधियों को राजनीति में जाने से मना भी करता है। जबकि दूसरी तरफ ब्राह्मण-बनिया संस्कृति के लोग राजनीति में जाने की भरसक कोशिश करते हैं। जिसके फलस्वरूप आज देश की राजनीति में ब्राह्मण-बनिया समुदाय का वर्चस्व है। देश की कुल आबादी में उनकी जनसंख्या 10 प्रतिशत से भी कम हैं। लेकिन राजनीति में उनकी हिस्सेदारी 75-80 प्रतिशत है। बहुजन समाज को अपनी तर्क-बुद्धि से सोचना चाहिए कि अगर राजनीति इतनी खराब चीज है तो ब्राह्मण-बनिया संस्कृति के लोग इतनी बड़ी संख्या में राजनीति में क्यों जा रहे हैं? मतलब साफ है, राजनीति में जाना खराब बात नहीं है सिर्फ ब्राह्मण-बनिया संस्कृति का षड्यंत्रकारी मंतव्य है कि बहुजनों को राजनीति में जाने से कैसे रोका जाये? बहुजन समाज को उनके मानसिक षड्यंत्र को समझना होगा और उनके जाल में फँसने से बचना होगा।
वर्तमान समय में बहुजन समाज की राजनीतिक पार्टियों का उभार तेजी से हो रहा है। हर रोज नई-नई राजनीतिक पार्टियाँ जन्म ले रहीं है। राजनीतिक पार्टियों को सामाजिक नैतिकता के साथ आगे बढ़ाने के लिए सभी प्रकार के संसाधनों की जरूरत होती है। लेकिन बहुजन समाज अपेक्षाकृत संसाधन जुटाने में कमजोर है। इसलिए बहुजन समाज जरुरी संसाधनों की पूर्ति करने के लिए अपने समाज की तरफ देखता है और उम्मीद रखता है कि बहुजन समाज के सभी जातीय घटक राजनैतिक पार्टियों को बनाने और चलाने में मदद करें। 80 के दशक में बहुजन समाज के महापुरुष मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने बहुजन समाज के पास राजनैतिक संसाधनों की पूर्ति के लिए नारा दिया था कि हमें ‘आपका एक वोट और एक नोट चाहिए’तभी बहुजन समाज का प्रत्याशी धन्नासेठों की पार्टियाँ का मुकाबला कर पाएगा। लेकिन आज हम मान्यवर साहेब कांशीराम जी के इस नारे से 40 वर्ष आगे बढ़ चुके हैं। आज के समय में इस नारे को सार्थक करने के लिए और मनुवादी संस्कृति की पार्टियों का मुकाबला करने के लिए बहुजन समाज के प्रत्याशियों को आज ‘एक वोट और 10 के नोट’ की आवश्यकता होगी। अगर आज बहुजन समाज का प्रत्येक वोटर्स बिना ब्राह्मणी संस्कृति के जाल में फँसे बहुजन समाज के प्रत्याशी को अपना एक वोट और 10 का नोट देकर समर्थन करता है तो अवश्य ही बहुजन समाज का प्रत्याशी बहुजन समाज की ताकत से जीतकर विधान सभा या लोकसभा में पहुंचेगा। तभी वह बहुजन समाज के हित से जुड़े मुद्दे विधान सभा या लोकसभा में उठा पाएगा। इतना ही नहीं बहुजन समाज का प्रत्याशी जब अपने बल से जीतकर विधान सभा या लोकसभा में पहुँचेगा तो उसमें अपना नैतिक बल भी होगा और जिस व्यक्ति में नैतिक बल होगा उसे ब्राह्मणी संस्कृति के लोग परास्त नहीं कर पायेंगे। आज देश की लोकसभा में आरक्षित सीटों से जीतकर 131 सांसद हैं लेकिन ये सभी सांसद अपनी या अपने समाज की ताकत से जीतकर लोकसभा में नहीं पहुँचे हैं। इसलिए उनमें उनका नैतिक बल शून्य है जिसके कारण ये सभी 131 सांसद लोकसभा में समाज से जुड़े सवाल खड़े नहीं करते और न इनमें समाज से जुड़े मुद्दे उठाने की ताकत होती है। इनका सांसद बनना या न बनना समाज के लिए कोई मायने नहीं रखता। सामाजिक जरूरत के हिसाब से राजनीति पैत्ररेबाजी तथा राजनीतिक कौशल से काम करना चाहिए। इस सबके लिए बहुजन समाज में राजनैतिक एकता और उनकी एकजुटता अहम कार्य करेगी।
बहुजन समाज में कैसे मजबूत हो एकजुटता?: बहुजन समाज बिखरा हुआ समाज है और ब्राह्मण-बनिया संस्कृति के लोगों ने बहुजन समाज में अधिक-से-अधिक बिखराव करके उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है। ब्राह्मण-बनिया संस्कृति के लोग इस तथ्य को उनके संज्ञान में आने ही नहीं देते और उन्हें यह जानने ही नहीं देते कि ब्राह्मण-बनिया संस्कृति बहुजन समाज का दोहन और शोषण कर रही है। कृत्रिम रूप से बहुजन समाज में क्रमिक ऊंच-नीच को विभिन्न माध्यमों और ब्राह्मणी संस्कृति के पाखंडी कार्यक्रमों के द्वारा मजबूत बनाया जा रहा है। धार्मिक और संस्कृति क्रियाकलापों के द्वारा उनमें अंधभक्ति का लेप लगाया जा रहा है। हाल का ताजा उदाहरण है कि दीवाली के नाम पर पाखंडी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इन पाखंडी कार्यक्रमों में नवरात्रि, दशहरा, करवा चौथ, अहोई, धनतेरस, छोटी दीवाली, बड़ी दीवाली, गोवर्धन पूजा, भाई-दौज, छठ पूजा आदि अनेकों कृत्रिम पाखंड समाज में पेश किये जा रहे हैं। जिसके माध्यम से बहुजन समाज का आर्थिक और मानसिक शोषण हो रहा है। जिसका बहुजन समाज के जातीय घटकों को एहसास ही नहीं हो रहा है कि उनका शोषण और दोहन हो रहा है।
बहुजन समाज के जातीय घटकों में एकता स्थापित करने के लिए वैज्ञानिक आधार को अपनाना होगा और वैज्ञानिक आधार बड़ा सरल है। हर व्यक्ति को वह आसानी से समझ भी आ जाएगा। आसानी से समझने के लिए आम जन मानस अगर यह समझ ले कि पानी का बहाव प्राकृतिक रूप से ऊपर से नीचे की तरफ होता है जिसे ऊपर से ही रोका जा सकता है। यह प्रक्रिया हर व्यक्ति अपने जीवन में हर रोज देख रहा है। बहुजन समाज में जो क्रमिक ऊंच-नीच का जहर फैला हुआ है उसे जड़ से समाप्त करने के लिए क्रमिक रूप से जो ऊँचे बने हुए हैं उन्हें ही इसके लिए सबसे पहले पहल करनी होगी। उन्हें ही इस कृत्रिम पाखड़ी जाल को तोड़ना होगा और अपने से नीचे समझी जाने वाली जातियों के साथ मेल-मिलाप और सद्भाव बढ़ाना होगा। जो जातीय घटक क्रमिक रूप से नीचे समझे जाते हैं उनके द्वारा यह कार्यक्रम चलाना उतना सफल नहीं हो पाएगा जितना क्रमिक रूप से ऊँचे समझे जाने वाले जातीय घटक नीचे समझे जाने वाले जातीय घटकों के साथ मेल-मिलाप और सद्भाव बढ़ाने का कार्य करते हैं तो उनमें कोई मनोवैज्ञानिक उलझन भी नहीं होगी। इसलिए ऊँचे समझे जाने वाले जातीय घटक नीचे समझें जाने वाले जातीय घटकों के साथ मेल-मिलाप के माध्यम से एकता को मजबूत करें और क्रमिक ऊँच-नीच की मनोदशा को जड़ से उखाड़ फैकें। तभी सबका कल्याण संभव होगा।
बहुजन राजनीतिक पार्टियां बनायें गठबंधन: बहुजन समाज की राजनीतिक पार्टियों को मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए। समाज में विधान सभा और लोकसभा के चुनाव आमतौर पर चलते ही रहते हैं। इन सभी में बहुजन समाज के जातीय घटकों की भागीदारी और जीत सुनिश्चित कैसे हो? इस पर सभी को विचार-विमर्श करना चाहिए। आज समाज की राजनीतिक पार्टियाँ ब्राह्मणी संस्कृति के जाल में फँसकर अधिक बिखर रहीं है और चुनाव जीतने में विफल हो रहीं है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र इसके ज्वलंत उदाहरण हंै। दोनों ही प्रदेशों में बहुजन समाज के महापुरुषों ने अधिक जन जागरण किया और जनता को जगाया, समझाया तथा एकजुट रहने का पाठ भी पढ़ाया। लेकिन राजनीतिक चुनावों में परिणाम महापुरुषों की शिक्षा के उलट ही नजर आ रहे हैं। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने ‘रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया’ बनाई और समाज को सौंपकर एकजुट रहने का संदेश भी दिया लेकिन हमारे स्वार्थ और अहम के कारण बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जैसे महापुरुष के संघर्ष को हमने फेल कर दिया। इतना ही नहीं बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के वंशज भी बाबा साहेब की धरोहर को एकजुट रखने में विफल हुए। वे सभी आज ब्राह्मणी संस्कृति की राजनीतिक पार्टियों के दरवाजे पर स्वार्थवश भटककर दस्तक दे रहे हैं और विधान सभा की एक सीट के लालच में अपने महापुरुषों की अस्मिता को गिरवी रखने का काम कर रहे हैं। इसी तरह से उत्तर प्रदेश जहाँ पर मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने बहन मायवाती जी का साथ लेकर संघर्ष किया और समाज की राजनैतिक जड़ों को मजबूत किया वहाँ पर भी बहन जी ब्राह्मणी संस्कृति के जाल में फँसकर बहुजन समाज को परास्त करने का काम कर रही है। आज उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज का समर्थक और मतदाता हताश है और बहन जी से दिन-प्रतिदिन इस कदर नाराज होता जा रहा है कि उसने अब बहन जी से किनारा कर लिया है।
बहुजन समाज के पास अब एक ही विकल्प है कि सब आपस में एक होकर एकजुटता के साथ चुनाव लड़ें। बहुजन समाज अपने उन्हीं प्रत्याशियों को वोट दें जो समाज को मजबूत करने के उद्देश्य से एक साथ आकर चुनाव लड़ने के लिए समाज हित में एकमत हों और ऐसे सभी राजनैतिक घटक दल समाज हित को ही सर्वोपरि मानें। समाज हित के सामने सभी राजनैतिक घटकों का स्वार्थ नगण्य होना चाहिए। अगर ऐसा करने में कोई भी सामाजिक घटक साथ नहीं आता है तो पूरा बहुजन समाज एक मत से उसका बहिष्कार करे। बहुजन समाज की राजनीतिक पार्टियों के नियंत्रण के लिए आपसी सहमति से संघ का भी निर्माण करें। जिसका फैसला सभी जातीय घटकों के लिए सर्वोपरि होना चाहिए।
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