2025-06-20 19:10:12
भारत में बहुजन समाज उन सामाजिक घटकों का नाम है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में नहीं हैं। देश में इन जातिय घटकों की संख्या 85 प्रतिशत है। भगवान गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त करने के पश्चात् सारनाथ में पंचवर्गीय भिक्खुओं को पहला धम्म उपदेश देते हुए बहुजन समाज की अवधारणा बताई थी। जब भगवान गौतम बुद्ध ज्ञान की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे तब ये पंचवर्गीय भिक्खु गौतम बुद्ध से नाराज होकर उन्हें छोड़कर चले गये थे। ये कहने लगे थे कि गौतम बुद्ध पथ भ्रष्ट हो चले हैं। भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् सबसे पहले इन्हीं पांचों भिक्खुओं को खोजा और उन्हें अपना पहला धम्म उपदेश दिया। पहले धम्म उपदेश में भगवान बुद्ध ने बहुजन शब्द का प्रयोग किया था और इसी उपदेश में उन्होंने कहा था ‘चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकंपाय...’ अर्थांत, भिक्षुओं! बहुजन के हित के लिए, बहुजन के सुख के लिए और दुनिया के सुख के लिए निरंतर भ्रमण करते रहो। भगवान बुद्ध ने अपने जीवन काल में और उसके पश्चात् बुद्ध शासकों ने भी इसी परम्परा को निभाया और देश-विदेश की जनता का कल्याण किया। मान्यवर कासीराम जी ने बहुजन शब्द को भारतीय जनता के बीच उतारा और जनता में स्पष्ट संदेश दिया कि इस देश में बहुजन समाज 85 प्रतिशत है लेकिन फिर भी वह यहां का शासक नहीं है। यहां की शासक जातियां अल्पसंख्यक हंै वे यहां शासन सत्ता में हैं। इसीलिए यहां की बहुजन जनता के लिए मान्यवर कासीराम जी ने नारा दिया था, ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’ यह नारा देश में खूब प्रसारित-प्रचारित हुआ। इस नारे से समाज में जागरूकता और उत्साह बढ़ा। मान्यवर कासीराम जी से पहले समाज का अंक गणितीय सिद्धांत (15/85) नहीं था। आजादी के साथ देश में लोकतंत्र आया, हरेक नागरिक महिला हो या पुरूष, गरीब हो या अमीर सभी को वोट देने का समान अधिकार मिला। हर एक वोट की एक समान कीमत निर्धारित हुई।
देश को आजाद हुए 78 वर्ष हो चुके हैं। इन 78 वर्षों के दौरान लोकतंत्र को परिपक होकर सही दिशा में बढ़ जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं चूंकि समाज में बहुत सारी विषमताएं, विविधताएं और मानसिकताएें हैं जिनको देश की सरकारों द्वारा कानून बनाकर सुधारना चाहिए था। सबसे पहले सरकारों को देश से ‘जाति’ नामक जिन को कानून लाकर समाप्त करना चाहिए था। जो सरकारों ने नहीं किया चूंकि ब्राह्मणी संस्कृति का आधार जाति है, बिना जाति के हिन्दुत्व में कुछ भी नहीं है। इसलिए गांधी और गांधी के समकक्ष कांग्रेसी ब्राह्मणों ने जाति को ही आगे बढ़ाया, ब्राह्मणवाद को देश में मजबूत किया गया। गांधी स्वयं कहते थे कि जाति हिन्दुत्व का अभिन्न अंग है। शायद इसी वजह से कांग्रेसी ब्राह्मणों ने जाति के आधार पर समाज और सत्ता में अपने आपको सर्वोच्च बनाया। वास्तविक्ता के आधार पर कांग्रेस ही ब्राह्मणवाद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की जनक है चूंकि जब गांधी 1924 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो उन्होंने कांग्रेस के संविधान में दो प्रावधान जोड़े। पहला धर्मनिरपेक्षता और दूसरा अंहिसा। इन दोनों प्रावधानों को लेकर ब्राह्मणवादी संस्कृति के कट्टर कांग्रेसियों से नाराज हो गये। जिनमें एक थे शिवराम मुंजे जिन्होंने इसी बात पर कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। वे इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मिलने इटली गये। मुसोलिनी ने मुंजे को बताया कि इटली के लोग अच्छे हैं सभी मिलकर रहते हैं लेकिन वे रोमन साम्रज्य के गौरवशाली इतिहास पर गर्व नहीं करते। यही वाक्य शिवराम मुंजे के मतिष्क मे घर कर गया। जब वे वापस भारत आये तो बलिराम हेडगवार से मिले और उन्होंने मुसोलिनी के साथ हुई बातचीत के बारे में बताया। दोनों में विचार विमर्श हुआ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के निर्माण का खाका तैयार हुआ। बलिराम हेडगवार ने नागपुर में 25 सितंबर 1925 को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना की। इसके बाद मुंजे हिंदू महासभा में चले गये और हेडगवार ने आरएसएस की कमान संभाली।
नीति निर्माण की जरूरत: बहुजन समाज आज बिना किसी नीति के चल रहा है। जिसके कारण बहुजन समाज के अंदर लाखों की संख्या में जातिय संगठन हैं। जिनमें न एकरूपता है, और न स्पष्ट उद्देश्य, जिसके अभाव में सभी सामाजिक संगठन खुले सांड की तरह चल रहे हैं जिनका फायदा मनुवादी संगठन (आरएसएस) अपने समाजिक व राजनैतिक लाभ के लिए कर रहे हंै। नीति निर्धारण एक व्यवस्थित व आवश्यक प्रक्रिया है, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों को ध्यान में रखकर बनायी जाती है। नीति निर्धारण के निम्नलिखित तत्व हो सकते हैं:
1. समस्या की पहचान: नीति निर्धारण का पहला नियम है कि बहुजन समाज की समस्या को स्पष्ट रूप से समझा और परिभाषित किया जाये। बहुजन समाज में ढेर सारी आंतरिक विषमताएं हैं और इन्हीं विषमताओं को अपनी नीति में समाहित करके समाज को एक सूत्र में बांधा जाये। समस्या के कारक, प्रभाव और हितधारकों की पहचान की जानी चाहिए। बहुजन समाज संख्या में बड़ा है इसलिए उसके डेटा, शोध और हितधारकों की राय के आधार पर समस्या का विश्लेषण करना चाहिए। और तभी उसका सही हित व समाधान निकाला और समझा जा सकता है।
2. उद्ेश्य निर्धारण: नीति का उद्देश्य स्पष्ट, मापनीय और प्राप्त करने योग्य होना चाहिए। उद्देश्य समाज के सभी जातिय घटकों के कल्याण, समानता और उसके दीर्घकालिक लाभों पर केन्द्रित होना चाहिए। सभी हितधारकों का समानता और संख्या पर आधारित कल्याणकारी उद्देश्य होने चाहिए। सभी के लिए बेरोजगारी, मंहगाई कम करना, सभी के लिए शिक्षा और सभी तक उसकी पहुंच बढ़ाना आदि होना चाहिए।
3. हितधारकों का समावेश: नीति निर्माण में सभी प्रभावित पक्षों की भागीदारी सुनिश्चित करनी आवश्यक है। शुरुआत में सभी जातिय घटक इसमें सम्मिलित होने के लिए उत्साहित नहीं होंगे, लेकिन इस आधार पर उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए बल्कि उनको अपने साथ लाने का निरंतर प्रयास करना चाहिए। शुरुआत में केवल कुछेक जागरूक जातिय घटक ही आगे आयेंगे, लेकिन धीरे-धीरे उनको मिलने वाले प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ को देखकर बाकी लोग भी उनका अनुकरण कर सकते हैं। हितधारकों की राय के लिए परामर्श, विमर्श, संगोष्ठियां, सर्वेक्षण तथा सार्वजनिक मंचों का भी उपयोग करना चाहिए। यह सब करने के बाद समाज में नीति की स्वीकार्यता और प्रभावशीलता बढ़ पायेगी।
4. समाधानों का मूल्यांकन: समाज के सामूहिक हित के लिए विभिन्न नीतिगत विकल्पों की पहचान करके और उनके संभावित प्रभावों का विश्लेषण करना चाहिए। प्रत्येक विकल्प के लाभ, लागत, जोखिम और व्यवहार्यता का भी आंकलन करना चाहिए। स्पष्टता और वैज्ञानिकता का समावेश करने के लिए डेटा आधारित वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
5. पारदर्शिता और जवाबदेही: नीति निर्माण प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए, ताकि जनता का विश्वास बना रहे। समाज के विभिन्न सामाजिक संगठनों के संचालन को देखकर लगता है कि पारदर्शिता और जवाबदेही न होने के कारण आज बहुजन समाज के सामाजिक संगठनों के प्रति समाज में विश्वसनीयता घट रही है। समाज के सभी संगठन आज समाज पर बोझ बन गये हैं। नीति के प्रभावों और परिणामों और उसके मूल्यांकन के लिए एक निषपक्ष तंत्र स्थापित करना चाहिए। जवाबदेही के लिए नियमित रिर्पोेटिंग और फीडबैक की व्यवस्था भी करनी चाहिए।
6. लचीलापन: सामाजिक संगठनों की नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि वे बदलते परिवेश में समय के अनुकूल बन सकें। समय-समय पर नीति की समीक्षा और संशोधन के लिए प्रावधान हो ताकि नीति में लचीलापन और अनुकूलनशीलता बनी रहे।
7. कानूनी और नैतिक अनुपालन: समाज में नीति निर्माण का कार्य संविधान, कानून और नैतिक मानकों के अनुरूप होना चाहिए। नीति में किसी भी जातीय समूह के साथ भेदभाव, अपना व पराये की भावना नहीं होनी चाहिए। नीति निर्धारण में न्याय समानता की अवधारणा होनी चाहिए।
8. संसाधन प्रबंधन: नीति के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक वित्तिय, मानव व तकनीकी संसाधनों का आवश्यकता के अनुसार आंकलन करने के बाद ही कार्यान्वयन की कार्रवाई होनी चाहिए। संसाधनों का कुशल और प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करना चाहिए। बहुजन समाज को अपने छोटे-छोटे संसाधनों का बड़े पैमाने पर सभी को सम्मिलित करके, उसे प्रभावी तरीके से समाज के सामने लानी चाहिए।
9. संचार और जागरूकता: नीति के उद्देश्यों और लाभों को जनता तक स्पष्ट रूप से प्रसारित करें ताकि संस्था की सभी नीतियां प्रत्येक हितधारक के पास कम से कम समय में पहुंचे। हम सभी आज संचारक्रांति के युग में हैं। प्रभावी संचार के लिए डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया और अन्य किफायती मंचों का उपयोग करके सभी जरूरी बातों को हर हितधारक तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए। जागरूकता अभियान चलाकर नीति की स्वीकार्यता बढ़ायें और इस कार्य के लिए समाज के सभी जातिय घटकों के अंदर से उत्प्रेरक निकालें। समाज के उत्प्रेरक जागरूकता और संचार को कारगर बनाने के लिए अधिक लाभदायक हो सकते हैं।
10. निगरानी और मूल्यांकन: किसी भी नीति के कार्यान्वयन की प्रगति को ट्रैक करने के लिए एक मॉनिटरिंग सिस्टम स्थापित करना चाहिए। समय-समय पर यह नीति का मूल्यांकन करके समाज को बताना चाहिए कि नीति सही रास्ते पर है या नहीं। अगर नीति उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्य नहीं कर रही है तो उसमें अधिक कारगरता लाने के लिए बिना समय गंवाये समय-समय पर आवश्यक बदलाव भी करने चाहिए।
11. नये राजनैतिक दलों का पहले आंकलन करें: आज अनेक जातीय घटकों के राजनीतिक दल उभरकर सामने आ रहे हैं। जिन्हें शायद आवश्यक शक्ति व संसाधन मनुवादियों द्वारा छिपे ढंग से दिया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर राजेन्द्र पाल गौतम ने पहले संघी मानसिकता के केजरीवाल के लेफ्टिनेंट बनकर समाज को गुमराह किया और समाज की शक्ति को विघटित करने का काम किया। वे अब संघी मानसिकता के केजरीवाल को छोड़कर कांग्रेस में पहुंचकर बहुजन समाज को गुमराह करने का काम कर रहे हैं। बहुजन समाज को अपने ऐसे निकम्मे नेताआें से सावधान रहना चाहिए और इनके किसी भी छलावे में आकर अपना वोट मनुवादी मानसिकता के लोगों को नहीं देना चाहिए। बहुजन समाज की वोट से ही आज केन्द्र और राज्यों में सरकारें बन रहीं हैं लेकिन उनमें बहुजन समाज के कल्याण की भावना नहीं है।
12. राजनैतिक दल में परिवारवाद न हो: नीति निर्धारण तत्वों में परिवारवाद की भावना नहीं होनी चाहिए। जिस राजनैतिक संगठन में परिवारवाद घुसेगा वहां से लोकतंत्र समाप्त हो जायेगा।
13. संस्था में सुप्रीमो संस्कृति ना हो: बहुजन समाज के राजनैतिक दलों में व्यक्तिवाद और सुप्रीमो संस्कृति बढ़ रही है। इसे समाज और संस्था के स्वास्थ्य व हित के लिए बिना समय गंवाये बहिष्कृत कर देना चाहिए।
14. संस्था में विचार-विमर्श को मिले महत्व: आज सामाजिक विचार-विमर्श कमजोर है, व्यक्तिवाद और धन शक्ति का प्रभाव बढ़ रहा है। धन शक्ति से संगठनों में गुर्गे पाले जा रहे हैं, जिनका काम सिर्फ चाटूकारिता और अपने आकाओं का गुण-गान करना रहता है।
15. मानसिकता और आचरण हो योग्यता का विशिष्ट आधार: सामाजिक संस्थाओं में अपने पराये के आधार पर जिम्मेदारियां सौंपी जा रही हैं जिसके कारण संस्थाओं की गतिशीलता और कार्यशीलता निष्क्रिय हो रही है। कारगरता लाने के लिए निष्पक्षता पर जोर दिया जाये। अपने समाज की कमजोरियों को प्राथमिकता के आधार पर खत्म करना चाहिए।
16. बहुजन समाज के राजनैतिक दल: दूसरी तरफ बहुजन समाज के अन्य राजनैतिक दल के नेता जैसे- चन्द्रशेखर उर्फ रावण, अखिलेश यादव आदि सभी आरएसएस के पोषक हैं और वहीं से ऊर्जा प्राप्त कर रहे हैं। बहुजन समाज की रणनीति होनी चाहिए की ये सभी भटके हुए बहुजन समाज के घटक एक मंच पर आकर निस्वार्थ भाव से समन्यवता व न्याय के साथ जिसकी जितनी संख्या है उसे राजनीति में उतनी ही हिस्सेदारी देकर एकसाथ मिलकर चुनाव लड़ें और चुनाव में अपने वोट से ब्राह्मणवाद और मनुवाद को परास्त करें।
बहुजन समाज में कारगरता, एकरूपता और सत्ता तक पहुंचने की रणनीति के लिए समाज के सभी जातीय घटकों को एकता के साथ, सभी प्रकार के लाभ, लालच का त्याग करके समर्पण भाव से अपने महापुरूषों के बताये गये रास्ते पर चलकर अपने संख्याबल को कारगर ऊर्जा में परिवर्तित करके सत्ता में स्थापित करने का काम करना होगा।
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