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बहुजन समाज की राजनीतिक सोच का पता हमें मध्यकालीन संत शिरोमणि गुरु रविदास जी की वाणी के एक दोहे से मिलता है, जो इस प्रकार है- ‘ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिलै सबन को अन्न।, छोटे-बड़े सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न॥’ भावार्थ यह है कि बहुजन समाज के संत पहले से ही समतावादी विचारधारा के थे और आधुनिक भारत में महात्मा ज्योतिबा फुले, माता सावित्रीबाई फुले इसी प्रकार की समतावादी सोच के वाहक बने। जिनका मानना था कि बहुजन समाज (शूद्र) की दुर्गति का कारण सिर्फ अशिक्षा है। शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखना ब्राह्मणी संस्कृति का एक गहरा षड्यंत्र था और इसी षड्यंत्र के फलस्वरूप शूद्रों का भारतभूमि से सब कुछ उजड़ गया। महात्मा ज्योतिबा फुले के बाद बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने 14 अप्रैल 1891 को शूद्र समाज की अछूत जाति ‘महार’ में जन्म लिया। तत्कालीन समाज में महार जाति को अछूत माना जाता था, उन्हें छूना भी पाप था। उन्हें सार्वजनिक रास्तों पर चलने और सार्वजनिक कुंओं से पानी भरने की मनाही थी। इस तरह का जीवन अपने आप में मुश्किल भरा था। महार जाति शारीरिक बनावट, कद-काटी के हिसाब से समृद्ध और मजबूत थी। उनकी ऐसी शारीरिक बनावट और क्षमता देखकर ब्रिटिश सरकार ने महारों को सेना में भर्ती करना शुरू कर दिया था। रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश सेना में सूबेदार के पद पर थे। ब्रिटिश सेना में होने के कारण बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को सबसे पहले सातारा जिÞले के राजवाड़ा चौक पर स्थित शासकीय हाईस्कूल में दाखिला मिला था। उन्होंने 7 नवंबर, 1900 को अंग्रेजी की पहली कक्षा में दाखिला लिया था। इसी दिन से उनके शैक्षिक जीवन की शुरूआत हुई थी। बाबा साहेब ने अपने शैक्षणिक जीवन में ब्राह्मणी संस्कृति की अनेकों अमानवीय प्रताड़नाएं झेली। उनका जीवन ब्राह्मणी संस्कृति की प्रताड़ना को झेलते हुए बिता। परंतु बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने इन सभी अमानवीय प्रताड़नाओं को सहते हुए आगे बढ़ते गए और जीवन से कभी भी विमुख नहीं हुए। उनके ऐसे दृढ़ साहस के कारण ही वे अपने जीवन में देश-विदेश के शिक्षा संस्थानों से 32 डिग्रियाँ पाने में सफल रहे, वे अपने समय के दुनिया भर के छ: विद्वानों में से एक थे। उनकी असाधारण सोच, विद्वता के कारण ही उन्हें भारत के संविधान निर्माण का दायित्व सौंपा गया। जिसे उन्होंने 2 साल 11 महीने 18 दिन में पूरा किया। बहुजन समाज की मौलिक सोच के अनुसार ही संविधान में समता, स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय को ही साकार किया। संविधान में उन्होंने सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार दिये, महिलाओं के लिए भी उन्होंने पुरुषों के बराबर ही अधिकार दिये, किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं किया। बल्कि अगर यूँ कहे कि भारतीय महिलाओं के लिए बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने जो समता आधारित अधिकार देने का काम किया वह दुनिया भर में एक मिशाल है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने महिलाओं के अधिकारों को लेकर हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर अपना इस्तीफा दे दिया था चूंकि तत्कालीन नेहरू सरकार बाबा साहेब से वायदा करके हिन्दू कोड बिल को लोक सभा से पास कराने में असमर्थता दिखा रही थी। हालांकि यह बिल बाद में टुकड़ों में पास हुआ परंतु बाबा साहेब ने इसे अपना और भारतीय महिलाओं का अपमान समझकर नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। आज भारतीय महिलाओं को इन तथ्यों को समझकर बाबा साहेब को समझने और सम्मान देने की जरूरत है।
डॉ. अम्बेडकर का राजनैतिक संघर्ष: बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का राजनैतिक संघर्ष 1920 से शुरू होता है और उनका यह संघर्ष उनकी आखिरी सांस 6 दिसम्बर 1956 तक जारी रहा। अपने इस संघर्ष के दौरान उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ (1925), ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ (1936), ‘आॅल इंडिया शैड्यूल कास्ट फेडरेशन’ (1942), और ‘रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया’ (1956) की स्थापना की। साथ ही उन्होंने सिद्धार्थ कॉलेज और मिलिंद कॉलेज की भी स्थापना की। दिसंबर 1926 में, बॉम्बे के गवर्नर ने उन्हें बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य के रूप में नामित किया; उन्होंने अपने कर्तव्यों को गंभीरता से लिया, और उन्होंने आर्थिक मामलों पर सकारात्मक सोच के साथ काम किया। वे 1936 तक बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य थे। आॅल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन था जिसकी स्थापना दलित समुदाय के अधिकारों के लिए 1942 में बाबा साहेब द्वारा की गई थी। वर्ष 1942 से 1946 के दौरान, बाबा साहेब डॉ.अम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम मंत्री के रूप में कार्य किया। इसके अलावा उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं जैसे मूकनायक (1920), बहिष्कृत भारत (1927), जनता (1930), समता और प्रबुद्ध भारत (1955) भी शुरू किये।
कांशीराम जी का राजनीतिक संघर्ष: बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के परिनिर्वाण के पश्चात मान्यवर साहेब कांशीराम जी का बहुजन समाज के राजनैतिक पटल पर उदय हुआ और उन्होंने सबसे पहले बाबा साहेब द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी में काम करना शुरू किया लेकिन कुछ ही दिनों के बाद वे समझ गए कि यहाँ मेरा काम करना लक्षित उद्देश्य नहीं दे पाएगा। चूंकि रिपब्लिकन पार्टी में खुदगर्ज और स्वार्थी लोगों की अधिकता है, संघर्ष और त्याग की भावना की कमतरता है इसलिए उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया को छोड़कर बामसेफ नाम का संगठन बनाया और संचालित किया। इस संगठन का निर्माण 1978 में सर्वप्रथम मान्यवर कांशीराम जी द्वारा किया गया तब उनके सहयोगी संस्थापक थे दिनाभाना जी और खापर्डे जी। इसके बाद कांशीराम जी ने 6 दिसंबर 1981 को ‘दलित शोषित समाज संघर्ष समिति’ (डीएस4) बनायी। कांशीराम जी ने भारत के दलितों और अन्य उत्पीड़ित समूहों को संगठित करने के लिए नारा दिया था ‘ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस4’। डीएस4 के माध्यम से उन्होंने दलित व अत्यंत पिछड़ी जातियों जैसे नाई, कुम्हार, लौहार, गडरिये, बढ़ई, धोबी, तेली-तमोली, मल्लाह, कुशवाह, मौर्य, शाक्य व अन्य समकक्ष जातियों में राजनैतिक चेतना पैदा करने के लिए नुक्कड़ सभाओं, बैठकों व रैलियों का आयोजन पूरे देश में किया। इन जातीय घटकों के उन नौजवानों जो राजनीति में जाने की इच्छा रखते थे उन्हें प्रशिक्षित किया। इस काम के लिए उन्होंने देशभर में जगह-जगह कैडर कैंप लगाए। कैडर कैंपों के माध्यम से बहुजन समाज में जन्में महापुरुष, नायक व नायिकाओं की शिक्षाओं से समाज को अवगत कराया तथा चुनाव लड़ने की प्रक्रिया से भी अवगत कराकर उन्हें प्रशिक्षित भी किया। डीएस4 के माध्यम से देश के कई स्थानों पर बहुजन समाज के उम्मीदवारों को चुनाव भी लड़ाया गया। इसके उपरांत मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की जिसके माध्यम से देशभर में विधान सभाओं व संसद का चुनाव भी लड़ा। 1993 में पहली बार 67 सीटों पर विधायकों को जीत मिली थी; 2007 में मायावाती ने 206 विधानसभा सीटें जीतकर अकेले दम पर सरकार बनाई और पांच साल प्रदेश की सत्ता संभाली; 2012 और 2017 में गिरा मायावती का जनाधार; साल 2015 में बसपा का वोट शेयर 1.13 प्रतिशत, 2013 में 5.35 प्रतिशत, 2008 में 14.05 प्रतिशत, और 2003 में 5.76 प्रतिशत था। बसपा ने साल 2008 में दिल्ली में अपना उच्चतम वोट शेयर 14.05 प्रतिशत हासिल किया था। इस चुनाव में बसपा ने दो सीटें भी जीती थी।
राजनैतिक गलतियाँ होना किसी से भी संभव: गलतियाँ होना सभी मनुष्यों के लिए स्वाभाविक है, चाहे वे समाज के महापुरुष हो, नायक या नायिका हो लेकिन इन गलतियों का पता तुरंत नहीं लगता है और न इन्हें मापने का कोई यंत्र मौजूद है। जब समाज में यह गलती नजर आने लगती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। मान्यवर साहेब कांशीराम जी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है उन्होंने बसपा की पूरी बागडोर बहन मायावती जी को सौंपकर उन्हें बसपा का सर्वेसर्वा सुप्रीमो बना दिया था। शायद यह उनके जीवन की एक सबसे बड़ी भूल थी जिसके कारण बहुजन समाज को लम्हों की गलती वर्षों तक भुगतनी पड़ रही है और बहन जी के नेतृत्व में अब बसपा अपने आखिरी दिन गिन रही है। बसपा को बनाने में बहुजन समाज के लाखों-करोड़ों लोगों का संघर्ष लगा है जिसके कारण बसपा नाम की राजनैतिक शक्ति अस्तित्व में आई। बहन जी के शासन काल में बसपा ने जनहित के हजारों कार्य ऐसे किये जैसे सम्राट अशोक के बाद किसी अन्य नेता ने नहीं किये। उन्होंने अपने शासन काल में बहुजन समाज से जुड़े नायक और नायिकाओं के नाम पर हजारों शिक्षण संस्थायें व पार्क इत्यादियों का निर्माण करवाया। यह कार्य सम्राट अशोक के बाद भारत भूमि पर उनका अद्वितीय कार्य है।
बहन मायावती जी ने अम्बेडकरवाद को अपने शासन काल में मजबूत किया और बाबा साहेब व मान्यवर साहेब कांशीराम जी के नाम पर कई शहरों व जनपदों का नाम रखा। जिसे देखकर उत्तर प्रदेश की बहुजन जनता खुश होकर उन्हें ध्यानवाद दे रही थी और आज भी प्रदेश की जनता बहन जी को दोबारा लाने के लिए कामनाएँ करती है। परंतु जब से बहन जी ने अपनी मौलिक विचारधारा ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ का उद्घोष किया है तब से बहन जी को समर्थन देने वाली बहुजन जनता बहन जी से नाराज है और उसी का परिणाम है कि बहन जी का वोट प्रतिशत चुनाव दर चुनाव घटता जा रहा है। बहुजन समाज की जागरूक जनता आज यह महसूस करके कहने को मजबूर है कि मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने बहन जी को बसपा का सुप्रीमो बनाकर बड़ी गलती की है। जो अम्बेडकरवाद की विचारधारा के एकदम विरुद्ध है। चूंकि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर खुद कहते थे कि सामाजिक व राजनैतिक संस्थाओं में आंतरिक लोकतंत्र अवश्य ही होना चाहिए। मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने बहन जी को बसपा का सर्वेसर्वा बनाकर उसके आंत्रिक लोकतंत्र को खत्म कर दिया है। अब उनके दरवाजों पर बसपा के समर्पित कार्यकर्ता न के बराबर और राजनैतिक दलाल अधिक नजर आते हैं। पूरा बहुजन समाज आज मजबूर होकर यह कहने को मजबूर है कि बहन जी कहीं न कहीं ब्राह्मणवाद को मजबूर करने का काम कर रही हैं। शायद ब्राह्मणवादी संघी सरकारों के साथ उनका छिपा समझौता है। बहुजन समाज यह जानता है कि अगर इस देश में उसका कोई दुश्मन है तो वह ब्राह्मणवाद और संघी संस्कृति के लोग है। एक अंग्रेजी कहावत के अनुसार, ‘एक दिमाग से दो दिमाग हमेशा अच्छे होते हैं’ परंतु मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने बहन जी के अकेले दिमाग को सबसे अच्छा समझा और उन्हीं को बसपा का सुप्रीमो बना दिया। बसपा के घटते जनाधार को देखकर बहुजन समाज अंदर ही अंदर दुखी और उद्वेलित है और वह हर समय सोचता रहता है कि जायें तो जायें कहाँ?
बहुजन समाज के सामने समाधान: आज देश में राजनैतिक गठबंधनों का दौर है। बहुजन समाज की जनसंख्या देश में 85 प्रतिशत है। पहले के मुकाबले बहुजन समाज सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर समृद्ध और जागरूक भी हुआ है। बहन जी के नेतृत्व में बसपा की कार्यशैली के कारण समाज में बिखराव है। आज समाज के कई राजनैतिक संगठन नई-नई राजनैतिक पार्टियाँ लेकर समाज के सामने आ रहे हैं। बहुजन जनता पसोपेश में हैं कि वह क्या करे और क्या न करें? इन सब बातों को देखते हुए बहुजन समाज के सामने एक ही विकल्प नजर आता है कि वह समाज में उभरते सामाजिक व राजनैतिक संगठनों को इकट्ठा करके एक मजबूत गठबंधन का निर्माण करे और उसमें बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों को उनकी संख्या के हिसाब से हिस्सेदारी और जिम्मेदारी दें। समाज को और अधिक जागरूक व सक्षम बनाने के लिए विधान सभा की हर सीट पर कम से कम 100 से अधिक अम्बेडकरवादी विचारधारा के प्रेरक स्थापित करें जो समाज को निरंतरता के साथ जागरूक करके उन्हें अपनी वोट बहुजन समाज को देने के लिए संकल्पित कराते रहे। बहुजन समाज की राजनीति दोबारा कारगर रूप से खड़ी करने के लिए सभी को त्याग करना पड़ेगा। संघर्ष और त्याग के बल पर ही नेताओं का चुनाव हो और यथासंभव जिम्मेदारियाँ दी जाए। सामाजिक और राजनैतिक संगठनों से सुप्रीमो की संस्कृति को समाप्त किया जाए और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल किया जाए। राजनैतिक दलालों और मानसिक गुलामों को बहुजन समाज के संगठनों से दूर किया जाए अगर ऐसा करने में बहुजन समाज सफल होता है तो वह दिन दूर नहीं होगा जब बहुजन समाज देश की सत्ता पर काबीज हो सकेगा।
बहुजन एकता जिंदाबाद





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