2024-06-24 09:43:24
भारत एक जाति प्रधान देश है जहां पर मनुष्य की पहचान उसकी जाति से है, उसके गुणों और योग्यता के से नहीं। भारतीय समाज 6743 जातियों में विभक्त है, आपस में कोई एकता और भाईचारा नही है, क्रमिक ऊंच-नीच की भावना है, जाति धर्म का अभिनय अंग है। बिना जाति मनुष्य की पहचान नहीं है, जाति के आधार पर ही मनुष्य की योग्यता और सर्वोच्चता आंकी जाती है। जाति मनुष्य के जन्म के आधार पर तय होती है, कर्म के आधार पर नहीं और जन्म का आधार ही उसकी क्रमिक ऊंच-नीच का आधार है। देश में मनुष्य अपने काम से नहीं जन्म से मिली जाति से ऊंचा या नीचा माना जाता है। हमारे देश में संविधान सत्ता लागू होने के 75 वर्ष बाद भी जाति ही प्रधान बनी हुई है, बल्कि आजादी के बाद यह और मजबूत हुई है। ऐसा लगता है कि जिन लोगों ने जाति का सिस्टम बनाया उनको इसे बनाए रखने में फायदा दिखा, वे बड़े ही शातिर दिमाग के लोग रहे होंगे। ब्राह्मणी संस्कृति के अनुसार पूरा समाज चार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों में वर्गीकृत है और प्रत्येक जाति में कम से कम सात उपजातियां है। समाज को इतने टुकड़ों में तोड़कर रखना एक सुनियोजित ब्राह्मणवादी षड्यंत्र था। पूरा शूद्र वर्ग आज का बहुजन समाज है। शूद्र वर्ग में अछूत और सछूत दो उपवर्ग है। अछूत उप वर्ग में आज की सभी अनुसूचित जातियाँ और उनकी उपजातियाँ है और सछूत वर्ग में सभी अति पिछड़ी जातियाँ है। पिछड़ी जातियों में कुछेक जातियाँ खेती की जमीन होने के कारण दबंग चरित्र का प्रदर्शन करती है वे अपने ही वर्ग की दूसरी जातियों के प्रति ऊंच-नीच और सामंती भाव रखती है। उनमें दबंगई चरित्र का होना ही इन पिछड़ी जातियों जैसे जाट, गुर्जर, यादव, कुर्मी, पटेल आदि सवर्ण जातियों को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों का लठैत बनाता है जिसका वे भरपूर इस्तेमाल करते है। इन पिछड़ी जातियों को ज्ञान ही नहीं है कि वे अपने भाईयों से ही ब्राह्मणों (सवर्णों) की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं और अपने ही समाज को नुकसान पहुँचा रहे हैं।
जन्म आधारित जाति, ब्राह्मणों की देन: जन्म आधारित जाति की परिकल्पना ब्राह्मण समाज की देन है चूंकि इससे उन्हें ही फायदा है वे ही अन्य सभी से श्रेष्ठ बने हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ब्राह्मणों ने ही जाति को भारतीय समाज में स्थाई बनाया, योग्यता को इसमें घुसने ही नहीं दिया। काल्पनिक कथाओं, कहानियों की रचनाएं की और इन काल्पनिक कहानियों को पुराण कहा। पुराण का शाब्दिक अर्थ भी कहानी ही होता है ये तथ्यहीन होती है। इन काल्पनिक कहानियों को धर्म से जोड़ा गया। लोगों को धर्म का पालन करने का पाठ पढ़ाया, धर्म अनुसार कार्य न करने वालों को धर्म विरोधी बताया गया व दंड भी दिया। यह सब ब्राह्मण पुजारियों ने किया। इस प्रकार संपूर्ण शूद्र वर्ग का और विशेषकर अछूत वर्ग का शोषण हुआ। भारत में सवर्ण वर्ण के लोगों ने शूद्रों पर अमानवीय अत्याचारों की पराकाष्टा की हदें पार की, जिसके समानांतर पूरे विश्व में दूसरा कोई उदाहरण नहीं है।
महापुरुषों की शिक्षाओं का बहुजनों पर असर: शूद्र वर्ग का तमाम जातीय समूह आज का बहुजन वर्ग है। बहुजन वर्ग में समय-समय पर अनेकों महापुरुष हुए और उन्होंने बहुजन वर्ग के साथ हो रहे शोषण, उत्पीड़न और अमानवीय अत्याचारों का संज्ञान लेकर उनकी मुक्ति के लिए यथासंभव कार्य सुझाए, मगर अधिकतर लोगों ने उनके बताए मार्ग पर न चलकर, ब्राह्मणी दुश्मनों की शिक्षाओं को ही आत्मसात किया, दरिद्रता सही, उत्पीड़न और अन्याय सहन किया।
महापुरुषों ने शूद्र वर्ग (अछूतों) के शोषण उत्पीड़न और अन्याय से मुक्ति के लिए विषम परिस्थितियों के होते हुए भी, अपने त्याग, ज्ञान और अदम्य साहस के बल पर अन्याय से मुक्ति का मार्ग सुझाया। बहुजन समाज में अनेकों संत और महापुरुष हुए हैं लेकिन कुछेक नाम महत्वपूर्ण है जैसे महात्मा ज्योतिराव फुले, माता सावित्रीबाई फुले, शाहूजी महाराज, संत गाडगे जी महाराज, बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर, ई.वी.रामासामी पेरियार, ललई सिंह यादव (पेरियार), साहेब कासीराम जी आदि। महापुरुषों ने बहुजन समाज को शिक्षित करने, संगठित रहने और मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया। समाज के अग्रणी सोच और समझ के लोगों ने इन महापुरुषों के बताए हुए रास्ते को अपनाया और उस पर चलकर समाज जाग्रत, समृद्ध और संपन्न हुआ। ऐसा देखकर समाज के अन्य लोग भी प्रेरित हुए और एक से एक जुड़ता गया। शूद्र वर्ग की सभी जातियों को साहेब कासीराम जी ने ‘बहुजन’ नाम से पुकारा और उन्हें इक्कट्ठा करके उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया। उन्होंने पिछड़े वर्ग को जागरूक करने के लिए देशव्यापी आंदोलन चलाये जिसमें मुख्य था ‘मंडल कमीशन लागू करो, वरना कुर्सी खाली करो’।
अम्बेडकरवाद को भारत में तथाकथित अम्बेडकरवादियों से खतरा अधिक: भारत की एकता, समृद्धि और अखंडता के लिए सत्ताधारी दलों को अम्बेडकरवाद को भारत की सामाजिक व्यवस्था में रोपित करना चाहिए था, जो किया नहीं गया जिसका कारण समाज में पहले से जड़ जमाये बैठा ब्राह्मणवाद था। आजादी के बाद सत्ता कांग्रेस के हाथ आयी जहाँ पर ब्राह्मणी मानसिकता के मनुवादी ब्राह्मणों का जमावड़ा था। जिनको अम्बेडकरवाद से सख्त परहेज था लिहाजा उन्होंने आजादी के पहले 40 वर्षों तक अम्बेडकरवादी मिशन को भारत की सामाजिक जमीन पर उतरने ही नहीं दिया। सत्ता में बैठे मनुवादियों ने आरक्षित वर्ग की जातियों में से ऐसे लोगों की पहचान की जिनकी राजनैतिक आकांक्षायें हिलोरे मार रही थी और आसानी से बिकने के लिए तैयार थे। ऐसे लोगों ने इस कार्य को गति दी महाराष्ट्र में बैठे मनुवादी कांग्रेसियों ने अपना मनुवादी षड्यंत्रकारी हमला बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जी के 1956 में चले जाने के बाद महाराष्ट्र से शुरू किया और पहले वहाँ के अम्बेडकरवादियों को गुटों में विखंडित किया। लोगों में राजनीतिक आकांक्षाओं के बीज बोये, उन्हें जरूरी खाद-पानी दिया और परिणामस्वरूप वे सभी अम्बेडकरवादी कांग्रेस के मनुवादी जाल में फँसे, बाबा के मिशन को भूले और कांग्रेस की मंशा अनुसार समाज विरोधी कार्य में लगकर अपने को बड़ा दिखाने और करने की लालसा में लग गए और मिशन अम्बेडकर कमजोर होकर रेंगता हुआ नजर आया। इससे पहले ऐसे हालातों को देखकर बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर 18 मार्च 1956 को आगरा की एक सभा को संबोधित करते वक्त रोये थे, उन्होंने कहा था-‘मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया है।’ बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर, महात्मा ज्योतिराव फुले, माता सावित्रीबाई फुले महाराष्ट्र की भूमि से थे इसलिए उनके जन-जागरण और संघर्ष से निकली ऊर्जा का फैलाव भी महाराष्ट्र में अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा पहले और अधिक था। मनुवादी ब्राह्मणी षड्यंत्रों ने इसलिए पहले उसी पर हमला किया ताकि अम्बेडकर मिशन शक्तिशाली वृक्ष न बनकर फैले और वह वहीं पर कुंद होकर रह जाये। आज भी अम्बेडकरवादी मिशन संचालक वहाँ पर कुत्ते-बिल्ली की तरह आपस में ही लड़कर विघटित हंै। बाबा साहेब द्वारा गठित रिपब्लिकन पार्टी, बुद्धिष्ट सोसायटी आॅफ इंडिया, समता सैनिक दल, शेड्यूल कास्ट फैडरेशन आदि संगठन विखंडित होकर टुकड़ों में विभक्त हो चुके है। यह सब कुछ संगठन संचालकों के निजी स्वार्थ व त्याग की कमी के कारण ही घटित हो रहा है। अम्बेडकरवादी संचालनकत्तार्ओं ने व्यक्तिगत स्वार्थ, ज्ञान और त्याग की कमत्तरता के कारण अम्बेडकरवाद को शक्तिशाली नहीं बनने दिया है। आज चाहे वे अपने बचाव में कुछ भी कहें, तर्क दें, मगर वे मूल रूप से दोषी है जिसका खामयाजा आज पूरे बहुजन समाज को उठाना पड़ रहा है।
अम्बेडकर मिशन संचालकों का ब्राह्मण पुजारियों जैसा आचरण: जिस तरह हिंदुत्व के मंदिरों में बैठे पुजारी मंदिरों में अपनी जेब से कोई दान नहीं देते वे सिर्फ दान लेते है। कमोवेश वैसा ही चरित्र अम्बेडकरवादी संगठनों के संचालन कत्तार्ओं में देखने को मिल रहा है। अम्बेडकरवादी संगठनों के संचालन से जुड़े हुए व्यक्ति समाज को अपने स्वार्थ में इस्तेमाल करने के लिए संगठनों से जुड़े है। उन्होंने आजतक संगठनों को चलाने के लिए कोई सिस्टम नहीं बनाया वे सिर्फ कुछ अवसरों पर समाज से चंदा इक्कट्ठा करके अम्बेडकरवाद के नाम पर कार्यक्रम करते हैं। इस तरह वे हमेशा परजीवी बने रहते है। उनकी अपनी कोई शक्ति नहीं है वे हमेशा समाज के स्वार्थी धन्नासेठों पर निर्भर रहते हैं और इस तरह के धन्नासेठ इनको अपने व्यक्तिगत तथा राजनैतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं।
अम्बेडकर मिशन संचालक ज्यादातर सरकारी कर्मचारी: मिशन संस्थाओं में ज्यादातर क्लास तीन-चार के कर्मचारी सरकारी विभागों में काम करने वाले ही बने। इन लोगों में थोड़ा नेतागिरी का शौक था उसे चमकाने और अपने विभागों में रोब दिखाने के लिए संस्था के अध्यक्ष, मंत्री-संतरी बने और समय अनुसार संस्था को आगे बढ़ाया। संस्थाओं के संचालन के लिए आवश्यक धन राशि समाज के अन्य साथी कर्मचारियों से चंदा इक्कट्ठा करके काम शुरू किया। कोई स्थायी सिस्टम विकसित नहीं किया, संस्थाओं में हमेशा धन का अभाव रहा। इन संस्थाओं से जुड़े लोग विभिन्न कारणों से अपने ही साथियों पर आचरण, भ्रष्टाचार और अपारदर्शिता के आरोप लगाकर संस्थाओं को विखंडित कर अलग-अलग गुट बनाकर संस्था का संचालन करने लगे। इस तरह अम्बेडकरवादी संस्थाओं को बाँटकर कमजोर रखना ब्राह्मणी संस्कृति के सरकारी अधिकारीयों की षड्यंत्रकारी सोच और शह ने भी अपना काम किया। नतीजन एक संस्था की कई-कई अशक्त संस्थायें बन गयी और अम्बेडकरवाद मजबूत गति पकड़ने के बजाय कमजोर पड़ता गया।
संचालकों में राजनैतिक ललक: कुछेक शातिर व कुटिल सोच के व्यक्तियों ने संस्थाओं को माध्यम बनाकर अपने को राजनैतिक पार्टियों में स्थापित किया और ऐसा करने वाले व्यक्तियों ने संस्था को कमजोर किया। ऐसी मानसिकता के लोग राजनैतिक लाभ उठाकर व्यक्तिगत रूप में मजबूत और स्थापित तो हुए, मगर अम्बेडकर मिशन कमजोर हुआ।
व्यक्तिगत लालच ने किया अम्बेडकर मिशन कमजोर: भ्रष्टाचार से धन कमाकर सशक्त बने व्यक्तियों ने अपने धन के प्रभाव की ताकत से अम्बेडकरवादी संस्थाओं पर कब्जा किया और संस्थाओं को अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया। लिहाजा जमीन पर मिशन मोड की भावना से अम्बेडकरवाद को स्थापित करने के लिए काम नहीं हुआ। परिणामस्वरूप फर्जी अम्बेडकरवादी पैदा हुए और उन्होंने समाज को विभिन्न माध्यमों से ठगना शुरू किया, जिससे समाज के लोगों का भरोसा कमजोर हुआ।
संचालकों में फोटो सूट और दिखावे की प्रवृति: वर्तमान युग तकनीक और सूचना क्रांति का है। हर व्यक्ति के हाथ में कैमरे से लेश मोबाइल है, संस्था के लोगों का ध्यान काम पर कम फोटो कराने में और उन्हें सोशल मीडिया पर डालने में अधिक सक्रिय रहता है। संस्था को चन्दा देने के नाम पर सभी पीछे की तरफ देखते है और फोटो सूट में आगे की लाइन में खड़े होते हैं। ऐसी प्रवृति के लोग अपने को चमकाने पर अधिक और संस्था पर कम ध्यान देते है। आज संस्थाओं को जरूरत है निस्वार्थ, समर्पित कार्यकतार्ओं की और एक साथ मिलकर काम करने की न कि मान्यवर, श्री व श्रीमति लगाकर अपने को ही सम्मान देने की।
जय भीम, जय संविधान
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