धार्मिक यात्राएं बुद्धिहीनता व पिछड़ेपन की परिचायक
2022-08-23 09:24:11
आस्था का भावार्थ है-‘बिना किसी आधार, साक्ष्य और ज्ञान के किसी भी परिघटना को मन से सत्य मानकर उसका आचरण करना।’ बहुजन समाज में ‘आस्था’ नाम की बीमारी प्रचुरता के साथ मौजूद है। आस्था की बीमारी बहुजन समाज में क्यों अधिक है? इसको समझने के लिए इतिहास को समझना होगा। भारतीय समाज चार वर्णो- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र व 6743 जातियों में विभाजित है। बहुजन वर्ग की सभी जातियां शूद्र है। जिसमें दो उपवर्ग हैं-अछूत और सछूत। अछूत उपवर्ग में सभी अछूत जातियां है और सछूत उपवर्ग में सभी अति पिछड़ी जातियां जैसे-नाई, बढ़ई, कुम्हार, लौहार, गडरिये, माली, तेली तथा इनके समकक्ष अन्य सभी जातियां। इस उपवर्ग में कुछेक दबंग जातियां जैसे-जाट, गुर्जर, कुर्मी, पटेल, मराठा व अन्य समकक्ष जातियां भी है। जिनका आचरण दबंगाई और सामन्ती है, शायद खेती की जमीन के मालिक होने के कारण है। ये सभी अछूत व सछूत जातियां कामगार है जिनके पास किसी न किसी प्रकार का तकनीकी ज्ञान विरासत में था और आज भी है ये जमीन से संबंधित कार्यों के लिए जमीन से जुड़ी दबंग जातियों पर निर्भर है।
देवी-देवताओं व हिंदुत्व के भगवान
काँवड़ यात्रा 14 जुलाई से चल रही है। भारत जैसे देश में 33 करोड़ देवी-देवताओं और भगवानों का वास है, देवी-देवताओं व तथाकथित भगवानों की इतनी बड़ी संख्या देश में तब से चल रही है जब देश की आबादी 33 करोड़ भी नहीं थी। मुगल काल में जब भारत में अकबर का शासन था तो देश की कुल आबादी 16 करोड़ थी। यानी देवी-देवताओं की संख्या कुल जनसंख्या से दोगुनी थी; सम्राट अशोक के शासन काल में देश का क्षेत्रफल आज के भारत से तीन गुणा था और जनसंख्या 8 करोड़ थी तब भी तथाकथित देवी-देवताओं व भगवानों की संख्या 33 करोड़ थी यानि एक व्यक्ति के पीछे चार से अधिक देवी-देवता व भगवान खड़े थे तब भी आम जन गरीब व दरिद्र थे।
अकल से अंधा है पिछड़ा समाज
अति पिछड़े समाज के अकल के अंधों दिमाग की बत्ती जलाओ और सोचो कि ये सभी देवी-देवता, भगवान यहाँ की दरिद्र जनता के लिए कुछ क्यों नहीं कर पाये? सभी प्रकार की देवियाँ, भगवानों का यहाँ वास है जैसे सरस्वती, लक्ष्मी तब भी सबसे ज्यादा अशिक्षित और गरीब (निर्धन) भारत में ही हैं। सोचो इनमें अधिकतर संख्या बहुजन समाज की क्यों है। ज्ञान की कमत्तरता के कारण बहुजन समाज को कभी यह क्यों नहीं लगा कि यह कोई सुनियोजित साजिश है? सबसे पहले इस साजिश को महात्मा ज्योतिबा फुले जी, माली समाज के पुरखे ने समझा और शूद्र वर्ग के लिए स्कूल खोलने का संकल्प किया। फुले ने इस काम का बीड़ा उठाने के लिए पहले अपनी पत्नी माता सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया, और शूद्र वर्ग के लिए स्कूलों की स्थापना की। ब्राह्मणी मानसिकता की बिडम्बना देखिए कि जब माता सावित्रीबाई फुले जी स्कूल के लिए जाती थी तो रास्ते में हिंदुत्व के गुलाम उन पर गोबर, कीचड़ व कंकर-पत्थर फेंकते थे, उनके कपड़े खराब हो जाते थे। इस अभद्र व्यवहार से उन्होंने ब्राह्मणी संस्कृति के सामने हार नहीं मानी और वे एक थैले में दूसरी साड़ी लेकर जाती थी ताकि रास्ते में गंदी हो जाने के बाद उसे स्कूल में बदला जा सके।
अज्ञानता से उपजती है आस्था
बहुजन वर्ग आर्यों (ब्राह्मण) से पराजित वर्ग है जिसको सेवा के लिए शूद्र बनाया गया और सेवा ली। स्थायी रूप से सतत गुलाम रखने के उद्देश्य से संपूर्ण शूद्र वर्ग के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग की महिलाओं को भी शिक्षा से वंचित रखा गया। शूद्र वर्ग की अछूत जातियों व अति पिछड़ी जातियों की शिक्षा पर कड़े प्रतिबंध लगाये गए। यहाँ तक कि अगर कोई शूद्र पढ़ने या पढ़ाने का कार्य करता तो उसके लिए मौत की सजा थी। इस प्रकार के अमानवीय व्यवहार के चलते कामगार व तकनीकी ज्ञान वाला समाज भयभीत और जड़ता में बदल गया। अपने तकनीकी ज्ञान में अशिक्षा के कारण सुधार व वैश्विक उत्कृष्टता और प्रतिस्पर्धा हासिल नहीं कर पाया। जिसके कारण भारत को तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में अप्रत्याशित नुकसान हुआ जो आज भी चल रहा है।
शोध व तकनीकी ज्ञान का शत्रु मनुवाद
दुनिया में पुनर्जागरण काल के साथ शोध व तकनीकी ज्ञान में बेतहाशा वृद्धि हुई है। यूरोप और अमेरिका आज उसी के आधार पर विश्व पटल पर अग्रणी है और यही ज्ञान उनके आर्थिक हालात को मजबूती दिये हुए है। भारत ने अपने बहुसंख्यक कामगार वर्ग को शूद्र की संज्ञा देकर उसकी उपेक्षा की और उसे समाज की मुख्यधारा से अलग रखा। लिहाजा यहाँ पर शोध आधारित तकनीकी ज्ञान जो यहाँ पहले से ही मौजूद था उसमें कोई उत्कृष्टता हासिल नहीं होने दी गयी। परिणामस्वरूप भारत भूमि से नोबल पुरस्कार विजेता जनसांख्यिकी के अनुरूप पैदा नहीं हो पाये। इसका मुख्य कारण यहाँ पर ब्राह्मणों द्वारा निर्मित जाति व्यवस्था और ब्राह्मण वर्ग की बनावटी व काल्पनिक सर्वोच्चता है। तकनीकी शोध के क्षेत्र में भारत सबसे निचले पायदान पर है जबकि यहाँ पर अपार संभावनाएं है परंतु ब्राह्मणवाद के चलते सब स्वत: ही ध्वस्त है। मनुवाद सभी मानवीय मूल्यों, संविधान व प्रजातंत्र का शत्रु है।
काँवड़वीर बन रहा बहुजन समाज
काँवड़ यात्रा पर जाना ज्ञान की कमी का परिचायक है। बहुजन समाज (एससी+एसटी+ओबीसी) के नौजवान लड़के जिनमें अच्छी शिक्षा नहीं है। ऐसी अन्ध आस्था के शिकार है, यह आस्था देश के उन हिस्सों में अधिक पायी जाती है जहाँ शिक्षा और तार्किक ज्ञान की कमत्तरता है और देश का वह भू-भाग अपेक्षाकृत पिछड़ा है। काँवड़ यात्रा का चलन शूद्र वर्ग की अति पिछड़ी जातियों जैसे कुम्हार, गडरिये, लौहार, बढ़ई, नाई, माली, तेली आदि में अपेक्षाकृत अधिक है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने इन सबको संविधान में समान अधिकार देकर आदेशित किया था कि शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो। लेकिन ये उनके बताये मार्ग पर न चलकर मनुवादियों की बात मानकर ब्राह्मणवादी संस्कृति को फायदा पहुँचाने के लिए काँवड़ के पाखंड में जुट गए।
काँवड़ यात्रा से फायदा किसका?
साफतौर पर काँवड़ यात्रा से फायदा वैश्यों और पुजारियों को है। वैश्य वर्ग द्वारा काँवड़ का किट जो 500 से 1000 रुपए में तैयार हो जाता है वह आराम से उसे 2500 से 3000 रुपए में बेचता है। सीधा 2000 रुपए की एक किट पर बचत; आंकलन के अनुसार अगर पाँच लाख कांवड़ियाँ यात्रा पर जाये तो 15 दिन में एक अरब का व्यापार। वह इस व्यवसाय को फैलाने और बहुजनों को प्रेरित करने के लिए टी.वी. व अन्य मीडिया आदि पर विज्ञापन महीनों से चलाना शुरू करते है। अरबों की कमाई करके टैंट लगवाकर भीखमंगों, पिछड़ों के लिए लंगर लगाकर पुण्य कमाने का नाटक करता है। बहुजन वर्ग के दिमाग से पैदल लोग महीनों काम छोड़कर पैदल ही काँवड़ लेकर निकल पड़ते है। धन, समय और शरीर का नुकसान करते है।
काँवड़ यात्रा पर सवर्ण क्यों नहीं जाते
काँवड़ यात्रा पर ब्राह्मण और वैश्य वर्ग कभी नहीं जाता। उन्हें पता है कि इस अन्ध श्रद्धा में फंसकर उन्हें आर्थिक और शारीरिक नुकसान होता है। वे जानते है कि काँवड़ उठाने से ना तो भगवान मिलेंगे और ना ही कोई पुण्य मिलने वाला है। वे ये भी जानते है कि इस प्रपंच से हमें सिर्फ और सिर्फ बहुजनों को बरगलाकर धन कमाना है तो वे खुद काँवड़ क्यों उठाये।
फ्री खाने के लालच में बढ रहा काँवड़ रोग
स्थानीय जनता इसे तथाकथित धार्मिक यात्रा समझ कर हरिद्वार से दिल्ली तक के पूरे 250 किमी. से अधिक के भाग पर टैंट, लंगर, स्वास्थ्य चिकित्सा शिविर आदि लगाकर पुण्य अर्जित करने के भाव से सेवा करते है। यह सुविधा समाज के धार्मिक गुंडों व अपराधियों को साल दर साल इस तथाकथित धार्मिक यात्राओं के लिए प्रेरित करने का माध्यम है। इस प्रकार की तथाकथित धार्मिक यात्राएं भिन्न-भिन्न नामों से पूरे देश के पिछड़े वर्ग की सभी जातियों में है। इन यात्राओं के मूल में पिछड़े वर्ग की जनता में उपयुक्त शिक्षा का न होना है जिसके लिए सरकार और उनका नेतृत्व करने वाले उन्हीं के समाज के नेता मुख्य रूप से जिम्मेदार है। इस पिछड़े समाज को भगवान बुद्ध के संदेश ‘अपना दीपक स्वयं बनो’ को आत्मसात करना चाहिए और अपनी विकास यात्रा पर खुद ही बढ़ना चाहिए तथा इन सभी काल्पनिक देवीदेवता व भगवानों का समूल त्याग करना चाहिए। काँवड़ यात्रा के द्वारा बहुजन समाज के नौजवान युवकों को नशे में धकेला जाता है, ताकि वह बर्बाद हो जायें।
धार्मिक यात्राओं से आजतक कोई चपरासी भी नहीं बन पाया
यह सत्य है कि ऐसी काँवड़ व अन्य तथाकथित धार्मिक यात्राओं से मानव इतिहास में पिछड़े वर्ग की जातियों से एक चपरासी तक पैदा नहीं हुआ जबकि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 में पिछड़ों के लिए दिये गए प्रावधान से अनेकों व्यक्ति उच्च पदों पर सरकार में स्थापित हो रहे हैं। शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करके देश के उन्नत नागरिक बन पा रहे हैं। मा. साहेब कासीराम जी ने 1990 के दशक में पिछड़े वर्ग के आरक्षण के लिए देशव्यापी आंदोलन छेड़ा और नारा दिया ‘मंडल कमीशन लागू करो नहीं तो कुर्सी खाली करो’ आंदोलन के परिणामस्वरूप मंडल कमीशन लागू हुआ और पिछड़े वर्ग की 52 प्रतिशत आबादी के लिए हिंदुत्व के छलावे की मानसिकता के षड्यंत्र के तहत 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान हुआ। वास्तविक जमीन पर दिया गया यह आरक्षण आज तक 10 प्रतिशत भी पूरा नहीं हो पाया है।
भ्रष्ट सरकारें देती है काँवड़ जैसी यात्राओं को बढ़ावा
देश में भ्रष्टाचार जीवन का अभिन्न अंग हो गया है, इन पाखंडी यात्राओं से सरकार में बैठे मंत्री-संतरी सभी सरकारी लूट की योजनाओं का निर्माण करने में अपना ज्ञान और समय लगाते हैं। काँवड़ यात्रा के लिए टैंटों, स्वच्छता, मार्ग को अवरोध मुक्त रखने की व्यवस्था आदि पर बजटीय व्यवस्था की जाती है। कोरोना महामारी शुरू होने से पहले दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने टैंट लगाने के लिए एक अग्रवाल ठेकेदार को 10 करोड़ रुपए में ठेका दिया था। इतने पैसे के टैंट में पूरी दिल्ली को बसाया जा सकता है। मगर ठेकेदार अग्रवाल के टैंट किसी की नजर में नहीं आ पाये थे। यह मामला पूर्णतया संग्दिध था; मनुवादी मानसिकता की सरकारें संविधान विरोधी धार्मिक मेलों व यात्राओं का आयोजन करके अकूत धन कमाने की योजना बनाते है और काम के ठेके अपने नजदीक के लोगों को ही देते है ताकि भ्रष्टाचार बाहर न आ पाये और शोर न मचे। केजरीवाल जो पढ़ा-लिखा राजनेता व ऊपर से बनिया है। इसलिए बेईमानी और भ्रष्टाचार भी उनमें उत्कृष्टता के साथ मौजूद है। वैसे भी वे मनुवादी संस्कृति में पले-बढ़े है तो हर कार्य निपुणता के साथ ही करते हैं जिसका प्रदर्शन उन्होंने राज्यसभा चुनावों में सवर्ण उम्मीदवार देकर प्रदर्शित किया, यह सब सबको समझ में आ रहा है।
जय भीम, जय विज्ञान, जय संविधान