2024-04-05 13:12:05
भारत में 1991 से पहले मिश्रित अर्थव्यवस्था थी जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था फलने-फूलने में अधिक सार्थक सिद्ध नहीं हो पा रही थी। 1991 में जब नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी मिली थी उस वक्त देश के हालात बहुत खराब थे और देश का सरकारी खजाना खाली था। नरसिम्हा राव से पहले चंद्रशेखर की सरकार ने देश के 46.91 टन सोने को गिरवी रखा और 400 मिलियन डॉलर जुटाए तथा सरकार के तत्कालिक खर्चों को निपटाने के लिए विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों से कर्ज भी लिया था। इस हालात को देखते हुए प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत में पहली बार उदार और बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था की नींव रखी थी। जिसके माध्यम से देश में निवेशकों ने बड़े पैमाने पर निवेश किया और देश की अर्थव्यवस्था की हालत में अप्रत्याशित सुधार भी हुआ। लेकिन जितना इस बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था से देश को फायदा हुआ और देश में नौजवानों के लिए रोजगारों का सर्जन हुआ उतना ही इसका एक नकारात्मक पहलू भी रहा। नकारात्मक पहलू यह रहा था कि बहुजन समाज के रोजगार पाने लायक जो लोग थे उनको रोजगार पाने में कठिनाइयाँ हुई थी और पूरे बहुजन समाज (एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक) की अर्थव्यवस्था में गिरावट भी आयी थी। इस खुली अर्थव्यवस्था का दूसरा नकारात्मक पहलू यह भी रहा था कि देश में गरीबी-अमीरी के बीच की खाई और अधिक चौड़ी होनी शुरू होने लगी थी। जिसके कारण हाल के दशकों में तेज आर्थिक विकास के बावजूद आय और संपत्ति के बंटवारें के मामलों में पेरिस स्थित ‘वर्ड इनइंक्यूलिटी लेब’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में अब आर्थिक गैर बराबरी ऐतिहासिक रूप में उच्च स्तर पर पहुँच गई है, जो ब्रिटिश कालीन भारत के 1922 के दशक की तुलना में भी ज्यादा है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आबादी में शीर्ष 1 प्रतिशत सुपर अमीरों का देश की आय और संपत्ति में हिस्सा बढ़ते हुए क्रमश: 22.6 प्रतिशत और 40.1 प्रतिशत तक पहुँच गया है। इस मामले में भारत सबसे ऊँचे पायदान पर पहुँच गया है। यह रिपोर्ट बताती है कि देश में डॉलर के आधार पर अरबपतियों की संख्या 1991 में जहाँ सिर्फ एक थी, वह 2011 में बढ़कर 52 और 2022 में तीन गुना से भी ज्यादा बढ़कर 162 हो गई है। इन तीन दशकों में अरबपतियों की संपत्ति में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। कुल आय में उनका हिस्सा 1991 में जहाँ एक प्रतिशत से भी कम था वह 1922 में बढ़कर 25 प्रतिशत पहुँच गया है।
आर्थिक विषमता : 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से तेज आर्थिक वृद्धि के बीच जहाँ एक ओर गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले गरीबों की संख्या में गिरावट आई, वहीं आर्थिक गैर बराबरी में भी तेज वृद्धि हुई। इस तरह के आर्थिक विकास का विरोधाभास समय-समय पर कई अर्थशास्त्र का ज्ञान रखने वाले लोगों ने निम्न प्रकार से किया है।
राष्ट्रीय आय का 60 प्रतिशत हिस्सा शीर्ष 10 प्रतिशत भारतीय बटोर ले जाते हैं। निचली 50 प्रतिशत आबादी के हिस्से में मात्र 15 प्रतिशत हिस्सा आता है।
2022-23 के आँकड़ों के अनुसार एक औसत भारतीय की सालाना आय 2.3 लाख रुपए है, लेकिन शीर्ष एक प्रतिशत सुपर अमीरों की औसत सालाना आया 53 लाख रुपए हैं, जो आम भारतीय की औसत आय से 23 गुना अधिक है।
आबादी के निचले 50 प्रतिशत भारतीयों की औसत सालाना आय 71 हजार रुपए और बीच के 40 प्रतिशत भारतीयों की औसत सालाना आय 1.65 लाख रुपए है। यह दर्शाता है कि देश का 50+40 = 90 प्रतिशत भारतीयों की आय इतनी भी नहीं है कि वे सभी अपने परिवार का सही से भरण-पोषण भी कर सकें। तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और औसत दर्जे के खर्च करके खान-पान का खर्च भी बिना तनाव के वहन कर सकें।
शीर्ष एक प्रतिशत सुपर अमीर राष्ट्रीय आय का 22.6 प्रतिशत ले जाते हैं, लेकिन उनमें से भी शीर्ष 0.1 प्रतिशत, 0.01 प्रतिशत और 0.001 प्रतिशत अमीरों के हिस्से में राष्ट्रीय आय का क्रमश: 10 प्रतिशत, 4.3 प्रतिशत और 2.1 प्रतिशत आता है।
यह रिपोर्ट चार देश-विदेश के अर्थशास्त्रियों ने तैयार की है जिनमें फ्रांस के थॉमस सीकेटी के अलावा नितिन कुमार भारती, लुकास चाशैल और अनमोल रोमांची शामिल है। इन लोगों ने राष्ट्रीय आय, सकल परिसंपत्तियों, आयकर के आँकड़ों, अमीरों की सूचियों के अलावा आय-उपयोग और संपत्ति सर्वेक्षणों का इस्तेमाल किया है। इनके अनुसार भारत में आय और संपत्ति संबंधित आँकड़े पर्याप्त नहीं है और इनमें कई विसंगतियाँ है। इसलिए कई आलोचक इस शोध रिपोर्ट के दावों पर सवाल भी खड़े कर रहे हैं।
देश में गरीबी असल मुददा: प्रो. भगवती और उनके जैसे आर्थिक सुधारों के समर्थक अर्थशास्त्री बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी के इन आँकड़ों को ‘बेवजह डराने वाला’ और ‘मुद्दे से भटकाने’ वाला बताते हैं। उनका दावा है कि भारत जैसे देश के लिए असल मुद्दा आर्थिक गैर बराबरी नहीं बल्कि गरीबी दूर करना है। इसके लिए आर्थिक विकास को प्राथमिकता देनी ही चाहिए।
विकास पर जोर: विकास पर जोर देने से आर्थिक गैर बराबरी बढ़ती है जिसे लेकर चिंता करने की जरुरत नहीं होनी चाहिए। उनका तर्क है कि भारत में पिछले तीन दशकों में तेज आर्थिक वृद्धि के कारण गरीबी कम करने में मदद मिली है। इसलिए पुर्नवितरण के बजाय आर्थिक वृद्धि पर जोर बने रहना चाहिए। इस कारण वे मानते हैं कि सुपर अमीरों पर अधिक टैक्स बढ़ाने से निवेश पर नकारात्मक असर पड़ेगा और देश की वृद्धि को नकारात्मक धक्का लग सकता है। मोदी-संघी सरकार शायद इसी मॉडल को अपनाकर आगे बढ़ रही है। जिसके कारण पिछले 10 वर्षों में उनके मित्र, सुपर अमीरों का धन अधिक बढ़ा और आम जनता में उसका नकारात्मक प्रभाव दिखा है।
सुपर अमीरों की वृद्धि से सबको मिले फायदा: अर्मत्य सेन और उन जैसे कई अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि तेज वृद्धि दर से पैदा होने वाली आय और सम्पदा के न्याय संगत वितरण में नाकामी से बढ़ती गैर बराबरी अंतत: आर्थिक वृद्धि के पहिये को एक दिन रोक देगी। जो सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए भी बड़ा खतरा है। इसलिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे मदों में सार्वजनिक व्यय को बढ़ाने का प्रस्ताव दिया गया। सार्वजनिक व्यय को बढ़ाने के लिए सुपर अमीरों पर संपत्ति कर जैसे फैसलों की आज जरूरत है ताकि आर्थिक वृद्धि के दायरे को बढ़ाने और उसका फायदा देश के सभी लोगों तक पहुँचाने में मदद मिले। देश की आर्थिक समृद्धि में भी सभी की भागीदारी बनें।
क्या हो रास्ता: नीति निर्माताओं के लिए यह एक जटिल दुविधा का विषय है, लेकिन यहाँ पर बाबा साहेब डॉ आंबेडकर जी द्वारा प्रतिपादित न्याय के आधार पर हमें यह याद रखना होगा कि सरकार द्वारा निर्मित की जा रही आर्थिक नीतियों से समाज के सभी वर्गों को समानता के आधार पर लाभ पहुँचे और समाज का प्रत्येक वर्ग समान अवसर और देश की संपत्ति-सम्पदा में आबादी के हिसाब से समान हिस्सेदारी पाकर देश के विकास में हिस्सेदार बने। वर्तमान समय में देश की जरूरत है कि सुपर अरबपतियों की बड़ी संख्या पर अधिक टैक्स दरें बढ़ाने की आवश्यकता है। ताकि आर्थिक गैर बराबरी पर अंकुश लगाया जा सके और सामाजिक सुरक्षा के दायरे को बढ़ाकर मजबूत बनाया जा सके। इस वर्ष दाबोस में 250 से अधिक अरबपतियों ने अधिक टैक्स लगाने की माँग पर अपना समर्थन दोहराकर देश के आर्थिक नीति निर्माताओं के लिए रास्ता खोल दिया है। जिसे आसानी से लागू करने की शुरूआत की जा सकती है। भारत में आर्थिक गैर बराबरी को इसी माध्यम से हल करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि देश के सभी लोगों का सर्वांगीण विकास हो सके।
वर्तमान संघी सरकार की दुविधा: आर्थिक नीतियों संघी मानसिकता की सरकारों की मूल सोच रही है कि देश में कुछेक लोग सुपर अमीर बनें, और बाकी बची हुई जनसंख्या उन्हीं के लिए काम करे। मोदी सरकार का यही आर्थिक मॉडल पिछले 10 वर्षों से विकसित होकर देश में चल रहा है। जिसके कारण भारत के सुपर अमीरों की सूची में 25 नाम वर्तमान में और जुड़ गए हैं और इनकी संख्या अब 162 से बढ़कर 187 हो गयी है। इसे देखकर लगता है कि देश की अधिसंख्यक जनता को मोदी-संघी सरकार की नीतियों से कोई फायदा नहीं हो रहा है। उनकी नीतियों से गरीब और गरीब होते जा रहे हैं और अमीर और अधिक अमीर बनते जा रहे हैं। मोदी की संघी आर्थिक नीतियों के कारण ही आज दुनिया भर में अंबानी और अडानी क्रमश: पहले और दूसरे नंबर पर हैं। इनको इस स्तर तक पहुँचाने में मोदी-संघी की आर्थिक नीतियों का बड़ा हाथ है। ये दोनों ही वर्तमान सरकार के संरक्षण में मिल रहे संरक्षित आर्थिक फायदे के कारण ही सुपर अमीरों की सूची में पहले और दूसरे स्थान पर पहुँच पाये हैं।
बहुजन समाज के लिए रास्ता: वर्तमान संघी सरकार द्वारा बहुजन समाज के लिए निर्मित की जा रही आर्थिक नीतियों से सावधान और चौकन्ना रहना चाहिए। उनको संघी सरकार के मूल विधान ‘मनुस्मृति’ में दिये गए शूद्र समाज के लिए आर्थिक प्रावधानों को ध्यान में रखकर संघी सरकारों को अपना अमूल्य वोट नहीं देना चाहिए। आपकी वोट से ही देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारों का निर्माण होता है इसलिए आप अपने विकास और अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को ध्यान में रखकर उपयुक्त बहुजन हितैषी सरकारों के निर्माण के लिए वोट करें और बहुजन हितैषी सरकारों का निर्माण करने में सहयोग दें। बहुजन समाज को अपने व्यवसाय, व्यापार, उद्योग धंधे स्थापित करने चाहिए। ये सब सहकारी मॉडल को अपनाकर आगे बढ़ना चाहिए। बड़े पैमाने पर अपने स्कूल-कॉलेज और अन्य जरूरी शिक्षण संस्थान भी खड़े करने चाहिए। बहुजन समाज को विरासत में कुछ भी नहीं मिला है। इसलिए इन सबका निर्माण सबके सहयोग से ही संभव हो पाएगा। बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर जी ने कहा था, ‘‘26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हमें यथाशीघ्र इस विरोधाभास को दूर करना होगा अन्यथा जो लोग असमानता से पीड़ित हैं वे राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को नष्ट कर देंगे जिसे इस विधानसभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।’’ डॉ. अम्बेडकर मुख्य रूप से कानून और कानून की प्रभावकारिता में विश्वास करते थे, और उन्होंने अपने सपनों के भारत को बनाने के लिए एक संवैधानिक तंत्र विकसित करने के लिए संघर्ष किया, जहां समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का निर्बाध प्रभाव हो।
भारत में 1991 से पहले मिश्रित अर्थव्यवस्था थी जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था फलने-फूलने में अधिक सार्थक सिद्ध नहीं हो पा रही थी। 1991 में जब नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी मिली थी उस वक्त देश के हालात बहुत खराब थे और देश का सरकारी खजाना खाली था। नरसिम्हा राव से पहले चंद्रशेखर की सरकार ने देश के 46.91 टन सोने को गिरवी रखा और 400 मिलियन डॉलर जुटाए तथा सरकार के तत्कालिक खर्चों को निपटाने के लिए विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों से कर्ज भी लिया था। इस हालात को देखते हुए प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत में पहली बार उदार और बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था की नींव रखी थी। जिसके माध्यम से देश में निवेशकों ने बड़े पैमाने पर निवेश किया और देश की अर्थव्यवस्था की हालत में अप्रत्याशित सुधार भी हुआ। लेकिन जितना इस बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था से देश को फायदा हुआ और देश में नौजवानों के लिए रोजगारों का सर्जन हुआ उतना ही इसका एक नकारात्मक पहलू भी रहा। नकारात्मक पहलू यह रहा था कि बहुजन समाज के रोजगार पाने लायक जो लोग थे उनको रोजगार पाने में कठिनाइयाँ हुई थी और पूरे बहुजन समाज (एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक) की अर्थव्यवस्था में गिरावट भी आयी थी। इस खुली अर्थव्यवस्था का दूसरा नकारात्मक पहलू यह भी रहा था कि देश में गरीबी-अमीरी के बीच की खाई और अधिक चौड़ी होनी शुरू होने लगी थी। जिसके कारण हाल के दशकों में तेज आर्थिक विकास के बावजूद आय और संपत्ति के बंटवारें के मामलों में पेरिस स्थित ‘वर्ड इनइंक्यूलिटी लेब’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में अब आर्थिक गैर बराबरी ऐतिहासिक रूप में उच्च स्तर पर पहुँच गई है, जो ब्रिटिश कालीन भारत के 1922 के दशक की तुलना में भी ज्यादा है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आबादी में शीर्ष 1 प्रतिशत सुपर अमीरों का देश की आय और संपत्ति में हिस्सा बढ़ते हुए क्रमश: 22.6 प्रतिशत और 40.1 प्रतिशत तक पहुँच गया है। इस मामले में भारत सबसे ऊँचे पायदान पर पहुँच गया है। यह रिपोर्ट बताती है कि देश में डॉलर के आधार पर अरबपतियों की संख्या 1991 में जहाँ सिर्फ एक थी, वह 2011 में बढ़कर 52 और 2022 में तीन गुना से भी ज्यादा बढ़कर 162 हो गई है। इन तीन
दशकों में अरबपतियों की संपत्ति में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। कुल आय में उनका हिस्सा 1991 में जहाँ एक प्रतिशत से भी कम था वह 1922 में बढ़कर 25 प्रतिशत पहुँच गया है।
आर्थिक विषमता : 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से तेज आर्थिक वृद्धि के बीच जहाँ एक ओर गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले गरीबों की संख्या में गिरावट आई, वहीं आर्थिक गैर बराबरी में भी तेज वृद्धि हुई। इस तरह के आर्थिक विकास का विरोधाभास समय-समय पर कई अर्थशास्त्र का ज्ञान रखने वाले लोगों ने निम्न प्रकार से किया है।
राष्ट्रीय आय का 60 प्रतिशत हिस्सा शीर्ष 10 प्रतिशत भारतीय बटोर ले जाते हैं। निचली 50 प्रतिशत आबादी के हिस्से में मात्र 15 प्रतिशत हिस्सा आता है।
2022-23 के आँकड़ों के अनुसार एक औसत भारतीय की सालाना आय 2.3 लाख रुपए है, लेकिन शीर्ष एक प्रतिशत सुपर अमीरों की औसत सालाना आया 53 लाख रुपए हैं, जो आम भारतीय की औसत आय से 23 गुना अधिक है।
आबादी के निचले 50 प्रतिशत भारतीयों की औसत सालाना आय 71 हजार रुपए और बीच के 40 प्रतिशत भारतीयों की औसत सालाना आय 1.65 लाख रुपए है। यह दर्शाता है कि देश का 50+40 = 90 प्रतिशत भारतीयों की आय इतनी भी नहीं है कि वे सभी अपने परिवार का सही से भरण-पोषण भी कर सकें। तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और औसत दर्जे के खर्च करके खान-पान का खर्च भी बिना तनाव के वहन कर सकें।
शीर्ष एक प्रतिशत सुपर अमीर राष्ट्रीय आय का 22.6 प्रतिशत ले जाते हैं, लेकिन उनमें से भी शीर्ष 0.1 प्रतिशत, 0.01 प्रतिशत और 0.001 प्रतिशत अमीरों के हिस्से में राष्ट्रीय आय का क्रमश: 10 प्रतिशत, 4.3 प्रतिशत और 2.1 प्रतिशत आता है।
यह रिपोर्ट चार देश-विदेश के अर्थशास्त्रियों ने तैयार की है जिनमें फ्रांस के थॉमस सीकेटी के अलावा नितिन कुमार भारती, लुकास चाशैल और अनमोल रोमांची शामिल है। इन लोगों ने राष्ट्रीय आय, सकल परिसंपत्तियों, आयकर के आँकड़ों, अमीरों की सूचियों के अलावा आय-उपयोग और संपत्ति सर्वेक्षणों का इस्तेमाल किया है। इनके अनुसार भारत में आय और संपत्ति संबंधित आँकड़े पर्याप्त नहीं है और इनमें कई विसंगतियाँ है। इसलिए कई आलोचक इस शोध रिपोर्ट के दावों पर सवाल भी खड़े कर रहे हैं।
देश में गरीबी असल मुददा: प्रो. भगवती और उनके जैसे आर्थिक सुधारों के समर्थक अर्थशास्त्री बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी के इन आँकड़ों को ‘बेवजह डराने वाला’ और ‘मुद्दे से भटकाने’ वाला बताते हैं। उनका दावा है कि भारत जैसे देश के लिए असल मुद्दा आर्थिक गैर बराबरी नहीं बल्कि गरीबी दूर करना है। इसके लिए आर्थिक विकास को प्राथमिकता देनी ही चाहिए।
विकास पर जोर: विकास पर जोर देने से आर्थिक गैर बराबरी बढ़ती है जिसे लेकर चिंता करने की जरुरत नहीं होनी चाहिए। उनका तर्क है कि भारत में पिछले तीन दशकों में तेज आर्थिक वृद्धि के कारण गरीबी कम करने में मदद मिली है। इसलिए पुर्नवितरण के बजाय आर्थिक वृद्धि पर जोर बने रहना चाहिए। इस कारण वे मानते हैं कि सुपर अमीरों पर अधिक टैक्स बढ़ाने से निवेश पर नकारात्मक असर पड़ेगा और देश की वृद्धि को नकारात्मक धक्का लग सकता है। मोदी-संघी सरकार शायद इसी मॉडल को अपनाकर आगे बढ़ रही है। जिसके कारण पिछले 10 वर्षों में उनके मित्र, सुपर अमीरों का धन अधिक बढ़ा और आम जनता में उसका नकारात्मक प्रभाव दिखा है।
सुपर अमीरों की वृद्धि से सबको मिले फायदा: अर्मत्य सेन और उन जैसे कई अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि तेज वृद्धि दर से पैदा होने वाली आय और सम्पदा के न्याय संगत वितरण में नाकामी से बढ़ती गैर बराबरी अंतत: आर्थिक वृद्धि के पहिये को एक दिन रोक देगी। जो सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए भी बड़ा खतरा है। इसलिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे मदों में सार्वजनिक व्यय को बढ़ाने का प्रस्ताव दिया गया। सार्वजनिक व्यय को बढ़ाने के लिए सुपर अमीरों पर संपत्ति कर जैसे फैसलों की आज जरूरत है ताकि आर्थिक वृद्धि के दायरे को बढ़ाने और उसका फायदा देश के सभी लोगों तक पहुँचाने में मदद मिले। देश की आर्थिक समृद्धि में भी सभी की भागीदारी बनें।
क्या हो रास्ता: नीति निर्माताओं के लिए यह एक जटिल दुविधा का विषय है, लेकिन यहाँ पर बाबा साहेब डॉ आंबेडकर जी द्वारा प्रतिपादित न्याय के आधार पर हमें यह याद रखना होगा कि सरकार द्वारा निर्मित की जा रही आर्थिक नीतियों से समाज के सभी वर्गों को समानता के आधार पर लाभ पहुँचे और समाज का प्रत्येक वर्ग समान अवसर और देश की संपत्ति-सम्पदा में आबादी के हिसाब से समान हिस्सेदारी पाकर देश के विकास में हिस्सेदार बने। वर्तमान समय में देश की जरूरत है कि सुपर अरबपतियों की बड़ी संख्या पर अधिक टैक्स दरें बढ़ाने की आवश्यकता है। ताकि आर्थिक गैर बराबरी पर अंकुश लगाया जा सके और सामाजिक सुरक्षा के दायरे को बढ़ाकर मजबूत बनाया जा सके। इस वर्ष दाबोस में 250 से अधिक अरबपतियों ने अधिक टैक्स लगाने की माँग पर अपना समर्थन दोहराकर देश के आर्थिक नीति निर्माताओं के लिए रास्ता खोल दिया है। जिसे आसानी से लागू करने की शुरूआत की जा सकती है। भारत में आर्थिक गैर बराबरी को इसी माध्यम से हल करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि देश के सभी लोगों का सर्वांगीण विकास हो सके।
वर्तमान संघी सरकार की दुविधा: आर्थिक नीतियों संघी मानसिकता की सरकारों की मूल सोच रही है कि देश में कुछेक लोग सुपर अमीर बनें, और बाकी बची हुई जनसंख्या उन्हीं के लिए काम करे। मोदी सरकार का यही आर्थिक मॉडल पिछले 10 वर्षों से विकसित होकर देश में चल रहा है। जिसके कारण भारत के सुपर अमीरों की सूची में 25 नाम वर्तमान में और जुड़ गए हैं और इनकी संख्या अब 162 से बढ़कर 187 हो गयी है। इसे देखकर लगता है कि देश की अधिसंख्यक जनता को मोदी-संघी सरकार की नीतियों से कोई फायदा नहीं हो रहा है। उनकी नीतियों से गरीब और गरीब होते जा रहे हैं और अमीर और अधिक अमीर बनते जा रहे हैं। मोदी की संघी आर्थिक नीतियों के कारण ही आज दुनिया भर में अंबानी और अडानी क्रमश: पहले और दूसरे नंबर पर हैं। इनको इस स्तर तक पहुँचाने में मोदी-संघी की आर्थिक नीतियों का बड़ा हाथ है। ये दोनों ही वर्तमान सरकार के संरक्षण में मिल रहे संरक्षित आर्थिक फायदे के कारण ही सुपर अमीरों की सूची में पहले और दूसरे स्थान पर पहुँच पाये हैं।
बहुजन समाज के लिए रास्ता: वर्तमान संघी सरकार द्वारा बहुजन समाज के लिए निर्मित की जा रही आर्थिक नीतियों से सावधान और चौकन्ना रहना चाहिए। उनको संघी सरकार के मूल विधान ‘मनुस्मृति’ में दिये गए शूद्र समाज के लिए आर्थिक प्रावधानों को ध्यान में रखकर संघी सरकारों को अपना अमूल्य वोट नहीं देना चाहिए। आपकी वोट से ही देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारों का निर्माण होता है इसलिए आप अपने विकास और अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को ध्यान में रखकर उपयुक्त बहुजन हितैषी सरकारों के निर्माण के लिए वोट करें और बहुजन हितैषी सरकारों का निर्माण करने में सहयोग दें। बहुजन समाज को अपने व्यवसाय, व्यापार, उद्योग धंधे स्थापित करने चाहिए। ये सब सहकारी मॉडल को अपनाकर आगे बढ़ना चाहिए। बड़े पैमाने पर अपने स्कूल-कॉलेज और अन्य जरूरी शिक्षण संस्थान भी खड़े करने चाहिए। बहुजन समाज को विरासत में कुछ भी नहीं मिला है। इसलिए इन सबका निर्माण सबके सहयोग से ही संभव हो पाएगा। बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर जी ने कहा था, ‘‘26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हमें यथाशीघ्र इस विरोधाभास को दूर करना होगा अन्यथा जो लोग असमानता से पीड़ित हैं वे राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को नष्ट कर देंगे जिसे इस विधानसभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।’’ डॉ. अम्बेडकर मुख्य रूप से कानून और कानून की प्रभावकारिता में विश्वास करते थे, और उन्होंने अपने सपनों के भारत को बनाने के लिए एक संवैधानिक तंत्र विकसित करने के लिए संघर्ष किया, जहां समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का निर्बाध प्रभाव हो।
मोदी हटाओ देश में आर्थिक समानता लाओ
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