2023-06-03 05:45:44
दलित राजनीति का शुभारम्भ बाबा साहेब डॉ.
अम्बेडकर के संघर्ष से शुरू हुआ लेकिन अभी
तक यह जमीनी स्तर पर स्थापित नहीं हो पाया है।
दलितों के अतिमहत्वांकक्षी लोग मनुवादियों के
टुकड़ों पर पलकर समाज को बाँटने का काम कर
रहे हैं। इस प्रकार के नेता परोक्ष रूप से मनुवादियों
को फायदा पहुँचा रहे हैं। मनुवादी चरित्र के लोग
समाज को टुकड़ों में बाँटकर अपने लिए सत्ता
हासिल करने में महारथ रखते हैं। मनुवादियों को
देश से प्रेम न होकर सत्ता से प्रेम है, वे किसी भी
कीमत पर सत्ता में घुसे रहना चाहते हैं, जिसके
उदाहरण मुगल काल के दरबारों से ही मिलते हैं।
इसके उपरांत इन लोगों का ब्रिटिश हकूमत की
सत्ता से चिपकाना और देश के लिए मुखबरी
करना, इनका मुख्य काम था। भारत की जनता
अशिक्षित और समझ में कमजोर होने के कारण
ब्राह्मणी संस्कृति की चाल को समझने में हमेशा
विफल रही। इन सब कृत्यों में दलितों की भागीदारी
शून्य रही है चूंकि ये सभी अशिक्षित थे और
अधिकारों से वंचित थे।
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के मन में दलित
और उपेक्षित समाज के लिए जो दर्द था उसको
लेकर उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मैं दलित
व उपेक्षित समाज को मानवीय अधिकार नहीं दिला
दूंगा, तब तक मैं चैन से नहीं बैठूंगा। अपनी इस
प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने अपने जीवन का सब
सुख छोड़कर और अपने परिवार की परेशानियों
की परवाह किये बगैर समाज के दलित व उपेक्षित
वर्ग के लिए अथक संघर्ष किया और उनको यथा
संभव सरकार से अधिकार भी दिलाये।
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने दलित व
उपेक्षित समाज के लिए अपनी विशाल बौद्धिक
क्षमता के आधार पर अंग्रेज सरकार को यह मानने
के लिए विवश किया कि भारत के दलित व
उपेक्षित वर्ग के साथ अंग्रेजी शासन में भी अन्याय
हुआ। 1947 में भारत आजाद हुआ, बाबा साहेब
डॉ. अम्बेडकर आजाद भारत के पहले कानून मंत्री
बने। सरकार में संविधान निर्माण की जिम्मेदारी
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को मिली। संविधान
निर्माण के कार्य को बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर
करें, ब्राह्मणी संस्कृति के मनुवादी लोग इससे खुश
नहीं थे बल्कि वे मन से दुखी ही थे परंतु बाबा
साहेब डॉ. अम्बेडकर ने उनकी भावनाओं की
कोई परवाह नहीं की और उन्होंने संविधान निर्माण
के कार्य को पूरा करने में उपेक्षित वर्ग के लिए
एक अवसर देखा जिसके माध्यम से देश के दलित
व उपेक्षित वर्ग के लोगों को उनके मानवीय
अधिकार सुनिश्चित किये जा सकते थे। इसी भावना
के अनुरूप बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने दलित
व उपेक्षित वर्ग के लोगों के लिए सभी सार्वभौमिक
मानवीय अधिकार सुनिश्चित किये और संविधान
निर्मित सभा से उसे अपने बौद्धिक बल की योग्यता
से पास करवाया। देश में 26 जनवरी 1950 को
भारतीय संविधान लागू हुआ और समाज के सभी
वर्गों ने मनुवादियों को छोड़कर बाबा साहेब डॉ.
अम्बेडकर की भूरि-भूरि प्रसंशा की थी।
दलित मनुवादियों का चरित्र: भारत में दलितों
का कोई मौलिक चरित्र नहीं रहा है वे इतिहास में
मनुवादियों के थपेड़े खा-खाकर इतने निर्लज,
बेसमझ और असंवेदनशील हो चुके हैं कि उनको
यह समझ में नहीं आता कि तुम्हारा दोस्त कौन है
और तुम्हारा दुश्मन कौन? ये वे लोग
(एससी/एसटी/ओबीसी) हैं जिन्होंने विश्व के
महानतम विद्वान व अपने समाज के लिए अकेले
संघर्ष करने वाले और मनुवाद का मुकाबला करने
वाले बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को 1952 के
लोक सभा चुनाव में महाराष्ट्र की भंडारा सीट से
हरा दिया था। कांग्रेस की षडयंत्रकारी ब्राह्मणी
संस्कृति की रणनीति ने बाबा साहेब को एक अनपढ़
दलित व्यक्ति से हरवा दिया था। दलितों को इस
बेशर्मी के कृत्य पर आजतक कोई शर्म नहीं आयी।
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के लिए जो
प्रावधान भारतीय संविधान में किये उनका आज
पूरा समाज सुख भोग रहा है मगर उनमें यह अहसास
नहीं हो पा रहा कि यह सुख किसके कारण मिल
रहा है? बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने दलितों की
राजनीति के लिए इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (1937)
और ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ (1942) में बनाई
और अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर
‘रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया’ का निर्माण किया।
जो बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के परिनिर्वाण के
बाद अस्तित्व में आयी। आज कुछ लोगों को
छोड़कर समाज के अधिकतर लोग ब्राह्मणी संस्कृति
के मनुवादियों के पिछलग्गू बने हुए हैं और वे
ब्राह्मणवादियों को ही मजबूत कर रहे हैं। बाबा
साहेब डॉ. अम्बेडकर जी के परिनिर्वाण के बाद
राजनीति में घुसने की कुछेक दलित नेताओं की
अतिमहत्वाकांक्षा जरूरत से ज्यादा हिलोरे मारने
लगी थी और राजनीति का स्वाद चखने के लिए
दलित नेता विशेषकर महाराष्ट्र से आने वाले नेता
उस समय की कांग्रेस से समझौता करके राजनीति
की अभिलाषा को बलबती करने लगे। इसी
रस्साकशी में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के
नेताओं ने अपने लिए टिकट सुनिश्चित करने के
बदले रिपब्लिकन पार्टी के हित को अनदेखा किया।
जिसके कारण रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया अपनी
शैशवावस्था में ही ब्राह्मणी संस्कृति के लोगों द्वारा
दिये गए लालच में बिखर गई। उत्तर भारत में
रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया का झंडा व डंडा
बुलंद करने वाले प्रो. बी.पी. मौर्य ने 1962 में
रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया से चुनाव जीतकर
रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया को देश में मजबूती
प्रदान की। दलित व उपेक्षित समाज के वे अकेला
नेता थे जिनकी तूती पूरे उत्तर भारत में बोल रही
थी। लेकिन ब्राह्मणवादियों की रणनीति ने 1967
के चुनाव आते-आते बी.पी. मौर्य को लोक सभा
का चुनाव हराया और उनके संसदीय क्षेत्र से सभी
एमएलए रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया से जीते।
ब्राह्मणवाद का यही खेल आजतक जारी है, जो
अधिकतर को समझ नहीं आता। बहुजन समाज
के कुछेक बुद्धिजीवियों को यह समझ में नहीं आ
रहा है कि दलित व उपेक्षित समाज के राजनैतिक
नेताओं को कैसे तर्कसंगत, समाज हितैषी व
समझदार बनाया जाये?
उपेक्षित वर्ग (बहुजन समाज) की राजनीति
का परिदृश्य: मान्यवर साहेब कांशीराम जी का
2006 में परिनिर्वाण हुआ और उनके जाने के बाद
बहुजन समाज पार्टी पर बहन मायावती जी का
कब्जा हो गया। वह इसकी सर्वेसर्वा बन गई। उनके
नेतृत्व में 2007-2012 तक बहुजन समाज पार्टी
की पूर्ण बहुमत की सरकार रही और बहन
मायावती जी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी। अपने
मुख्यमंत्रीत्व काल में समाज की अपेक्षाओं के
अनुरूप कार्य भी हुए और सर्व समाज के लोगों
ने प्रदेश के शासन-प्रशासन की प्रशंसा भी की।
लेकिन 2012 के चुनाव में उनको हार का मुँह
देखना पड़ा। बहन जी चार-चार बार मुख्यमंत्री
रहते हुए ब्राह्मणी संस्कृति के मनुवादियों की
रणनीति को समझने में शायद असफल रही,
परिणामस्वरूप उनके नेतृत्व में पार्टी को हारना
पड़ा। हारने का मुख्य कारण था-कि उन्होंने अपने
आस-पास गुलाम, चाटुकार, व भ्रष्ट प्रवृति के लोगों
को अपनी चौखट पर बैठाकर रखा और उन्हीं के
मतानुसार फैसले लिए जाने लगे।
अम्बेडकरवादियों (मिशनरी) के लिए बहन जी
के दरवाजे बंद हो गए और बहुजन समाज के
हित में होने वाले कार्य भी बंद हो गए। आज बहन
जी के इर्द-गिर्द लालची किस्म के चाटुकार,
राजनैतिक दलाल और भ्रष्टाचारी लोगों के बादलों
का घोर अंधेरा छाया हुआ है। जो बहन जी को
आज के राजनैतिक परिदृश्य को समझने में विफल
कर रहा है। आज के राजनैतिक परिदृश्य में प्रत्येक
दल अपने-आपको मजबूत करने व दुश्मन को
कमजोर करने के लिए गठबंधन कर रहा है जो
बहन जी को समझ नहीं आ रहा है, वे लगातार
‘एकला चलो’ का ही वक्तव्य दे रहीं है। जिसके
कारण देश के प्रमुख राजनैतिक दल अब उनकी
उपेक्षा कर रहे हैं। कोई भी राजनैतिक दल गठबंधन
के लिए उन्हें न पूछ रहा और न निमंत्रण दे रहा
है। इसका सीधा असर बहुजन समाज
(एससी/एसटी/ओबीसी/अल्पसंख्यक) के लोगों
पर पड़ रहा है। अब बहुजन समाज के सभी जातीय
घटक विभिन्न राजनैतिक दलों में अपनी जगह
तलाशते नजर आ रहे हैं। आज बहुजन समाज
के सभी घटक बहन जी के ‘एकला चलो’ वक्तव्य
से नाराज हैं और बहन जी के समर्थकों में यह
भाव पनप रहा है कि बहन जी कहीं न कहीं
मनुवादी संघी भाजपा को समर्थन दे रहीं है जो
अब सभी को सत्य लग रहा है। उनके इस परोक्ष
समर्थन में कोई न कोई डर या लालच अवश्य है।
इस संशय की स्थिति में बहन जी को खुद लोगों
(बहुजन समाज) को स्पष्टीकरण देना चाहिए
ताकि लोगों के मन में बैठा भ्रम दूर हो जाये।
अन्यथा बहुजन समाज पार्टी का बचा-कुचा किला
भी ढह जाएगा। बहुजन समाज के करोड़ों लोगों
का संघर्ष व्यर्थ हो जाएगा।
बहुजन समाज का राजनीतिक विकल्प:
बहुजन समाज में नित नए जातीय घटक बन रहे
है ऐसे सामाजिक व राजनीतिक संगठनों को
नकारना होगा चूंकि ये सभी सामाजिक व
राजनैतिक संगठन ब्राह्मणी संस्कृति के मनुवादियों
द्वारा ही समाज के लोगों की अतिमहत्वाकांक्षाओं
को खाद-पानी देकर बलबती किये जा रहे हैं।
इसमें उनका छिपा रणनीतिक एजेंडा यह है कि
बहुजन समाज को जितना अधिक से अधिक
टुकड़ों में बांटो, उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा
बढ़ाओ, उतना ही मनुवादियों को फायदा पहुँचेगा
और वे निरंतरता के साथ सत्ता में बने रहेंगे। बहुजन
समाज के सभी जातीय घटक स्वार्थ वश इसी तथ्य
को समझने में विफल हो रहे हैं। विफल ही नहीं
वे इसी राजनैतिक छलावे में फँसकर अंधे भी हो
रहे हैं उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। आज के
इस राजनीतिक परिदृश्य में मायावती जी की एकला
चलो रणनीति राजनैतिक परिपेक्ष्य में पूर्णतया
विफल है। पिछले कई चुनावों के परिणामों को
देखकर भी वह कोई सबक नहीं ले पा रही हैं तो
यह उनकी राजनैतिक महामूर्खता ही दिखती है।
जिसके कारण समाज का बौद्धिक वर्ग अब यह
सोचने लगा है कि देश में दलित राजनीति का
विकल्प क्या होना चाहिए? इसी के संदर्भ में 28
मई को बहुजन समाज के कुछेक बुद्धिजीवियों ने
मिलकर एक बैठक की जिसमें सभी ने देश में
वर्तमान दलितों की राजनीति को देखकर दुख
जताया और अपने विचार रखे। सभी ने एक स्वर
में यह महसूस किया और कहा कि अब वक्त आ
गया है जब समाज को अपने सामाजिक व
राजनैतिक दलों पर विश्वास न करके, अपने मुद्दों
की लड़ाई लड़नी चाहिए। जिसके लिए सबसे
पहले अपने समाज व लोकहित में मुद्दों की पहचान
करनी चाहिए। राजनैतिक दल वर्तमान सत्ताधारियों
को छोड़कर बहुजन समाज के मुद्दों पर कार्य करने
की गारंटी दे उनको ही वोट देकर सत्ता में लाना
चाहिए। सिर्फ वोट देकर बैठना नहीं होगा उन मुद्दों
पर कितना काम हो रहा है उनका भी निरंतरता के
साथ आंकलन करते रहना होगा। उस प्रदेश के
सत्ताधारियों को यह बताते रहना होगा कि हमारे
इन मुद्दों पर हमारी अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं
हो रहा है। इसलिए आने वाले किसी भी चुनाव
में मनुवादियों को सत्ता से बाहर करना होगा।
॥ जय भीम, जय भारत, जय संविधान॥
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