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अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व न देना लोकतंत्र के लिए खतरा

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2025-10-25 15:26:05

यूं तो बिहार का अतीत एक गौरवशाली इतिहास का रहा है। बिहार भगवान बुद्ध व चक्रवर्ती सम्राट अशोक की कर्मभूमि रही है। भगवान बुद्ध भारत में ही नहीं बल्कि पूरे एशिया महाद्वीप के प्रकाशपुंज हैं। आज बिहार में घोर जातिवादी राजनीति का बोल-बाला है। नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव 1990 के दशक में बिहार की राजनीति में आये और दोनों ने समाजवाद का नारा देकर जनता दल से शुरुआत की। जनता दल बाद में टूट गया जिसके बाद बिहार में एक घटक का नेतृत्व लालू प्रसाद करने लगे और दूसरे का नीतीश कुमार। नीतीश कुमार पिछले 20 वर्षों से संघी-भाजपा के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। 20 वर्ष का शासन काल एक अच्छा लम्बा समय होता है जिसके द्वारा दलित, पिछड़े व अल्पसंख्यकों के लिए कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण करके तथा शासन व्यवस्था में अनुपातिक हिस्सेदारी देकर उनको समृद्ध किया जा सकता था। लेकिन नीतीश कुमार के दिमाग में छिपी मनुवादी जातिवादी सोच ने ऐसा नहीं होने दिया। नीतीश हमेशा अंदरखाने संघीयों की शरण में रहे और संघीयों को ही आगे बढ़ाने का काम करते रहे।

लालू से मनुवादी संघियों को नफरत क्यों?

लालू भी एक हद तक यादव समाज का ही अधिक समर्थन करते दिखते हैं लेकिन उनमें नीतीश के सापेक्ष भिन्नता यह है कि वे ब्राह्मणवाद को मजबूत नहीं करते, जिसके कारण मनुवादी संघी मानसिकता के लोग बिहार में उनके खिलाफ दुष्प्रचार करते हैं और केन्द्र में बैठी मोदी-संघी सरकार लालू और उसके परिवार के ऊपर ईडी, सीबीआई, आईटी आदि को लगाये रहते हैं। अगर लालू और नीतीश की तुलना बहुजन समाज के हिसाब से करें तो नीतीश के मुकाबले लालू यादव एक बेहतर विकल्प हैं। इसके साथ ही लालू यादव को भी बहुजन समाज सचेत करना चाहता है कि वे यादवों को राजनीति में सशक्त बनाने के साथ-साथ बहुजन समाज के अन्य जातीय घटकों को हिस्सेदारी देकर सशक्त बनाने पर काम करें। और उन्हें उनकी संख्या के हिसाब से शासन में प्रतिनिधित्व देने का भी काम करें।

कांग्रेस में शुरुआती दिनों से ही मनुवादी और ब्राह्मणवादियों का वर्चस्व रहा है। लेकिन अब देश में सामाजिक समीकरण बदल रहे हैं। और उसके नेता जैसे राहुल और प्रियंका को भी अपने पुराने ब्राह्मणवादी-जातिवादी वर्चस्व को छोड़कर बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों को उनकी संख्या के अनुपात में हिस्सेदारी देनी होगी। वर्तमान में बिहार चुनाव में टिकट वितरण को देखकर ऐसा नजर नहीं आ रहा है, इस व्यवस्था को सुसंगत सुधारने की जरूरत है वरना बहुजन समाज आपको वोट देने से परहेज ही करता रहेगा। सुधरना कांग्रेसियों को होगा, मतदाताओं को नहीं।

समस्या यह है कि न सिर्फ मुसलमानों को बल्कि दूसरी अल्पसंख्यक कौमों जैसे- ईसाईयों, सिखों व बौद्धों को भी प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है। पहले विधानसभाओं में ईसाई सदस्य रहते थे। वे मंत्री भी बने और वे ऐसे स्थानों से चुने जाते थे जहां ईसाईयों की संख्या लगभग नगण्य थी। देश की एक बड़ी कौम को प्रतिनिधित्व नहीं देना हमारी राष्ट्रीय असफलता का प्रतीक है। हमें इस बारे में सोचना पड़ेगा। अन्यथा यह लोकतंत्र के लिए खतरा बन जायेगा। देश में ऐसी परिस्थितियां रही हैं कि अल्पसंख्यक तबकों को न तो संसद में और न ही राज्य विधानसभाओं में उनकी आबादी के अनुरूप प्रतिनिधित्व मिला है। इस समय बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव के लिए जो टिकट बांटे जा रहे हैं उनमें लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी, कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने मुसलमानों की संख्या के अनुपात में कम को टिकट दिए हैं।

बिहार, उत्तरप्रदेश और बंगाल ऐसे राज्य हैं जहां मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी है। इसके मद्देनजर राजनीतिक पार्टियों को वहां मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों को भी समानुपातिक हिस्सेदारी देनी चाहिए। एक जमाने में काफी संख्या में मुसलमान विधायक और सांसद बनते थे। अब यह गौरवशाली परंपरा समाप्त की जा रही है।

मुस्लिम विरोधी भाजपा: हाल ही में भाजपा के केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने साफ कहा है कि हमें मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए और मुसलमानों को उन्होंने नमक हराम तक बताया। इससे खराब गाली और क्या हो सकती है? यदि यही स्थिति बनी रही तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब पूरे देश में एक भी सांसद या विधायक मुसलमान नहीं होगा, मोदी-संघी मानसिकता के लोग तो यही चाहते हैं। ऐसी स्थिति आने से पहले देश के नेतृत्व को सोचना चाहिए और लोकतंत्र को बचाना चाहिए।

अल्पसंख्यक के नाम पर देश में केवल जैन और सिखों को प्रतिनिधित्व मिलता है, वो भी नाम मात्र इक्का-दुक्का। देश में जैनियों की जितनी संख्या है उन्हें उससे कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व मिलता है। उससे हमें कोई शिकायत नहीं है। जैन एक संपन्न कौम है। जैनियों के अनुभव और उनकी बुद्धिमत्ता उल्लेखनीय है और देश के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान भी है। मगर समस्या यह है कि मुसलमानों को ही नहीं बल्कि एक दूसरी अल्पसंख्यक कौम ईसाईयों को भी प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है। पहले विधानसभाओं में ईसाई समुदाय का प्रतिनिधित्व रहता था। वे मंत्री भी बनते और वे ऐसे स्थानों से चुने जाते थे जहां ईसाईयों की संख्या लगभग नगण्य होती थी। देश की एक बड़ी कौम को प्रतिनिधित्व नहीं देना हमारी राष्ट्रीय असफलता है। देश की जागरूक जनता को इस बारे में सोचना पड़ेगा। क्योंकि देश सभी का है, यह सिर्फ मनुवादी-संघियों का ही नहीं है।

विदेशों से सीख ले मोदी सरकार: भारत में न सिर्फ चुने हुए प्रतिनिधियों में बल्कि देश की अनेक संवैधानिक संस्थाओं में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। न्यायपालिका, विशेषकर उच्च न्यायालयों, में ऐसी ही स्थिति अब बनती जा रही है। जो भी हो, राजनीति में इसका उपाय क्या है? जब मतदाता उन्हें नहीं चुनेंगे तो फिर उनका प्रतिनिधित्व कैसे होगा? कई देशों में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। लंदन का मेयर मुसलमान है। कनाडा की संसद में कई सिख हैं। अमेरिका में कई भारतवासी बसते हैं, जो सीनेट एवं हाउस आॅफ रिप्रिजेन्टेटिव्स के सदस्य हैं। यहां तक कि इन देशों में भारतीय हिन्दू गवर्नर भी हैं, जज भी हैं। पाकिस्तान की संसद में बहुत सारे हिन्दू हैं जो पाकिस्तान के विकास में योगदान दे रहे हैं। दुनिया में इस तरह के और भी देश होंगे जहां अल्पसंख्यक यदि चुनाव से प्रतिनिधित्व हासिल नहीं कर पाते तो उन्हें मनोनीत किये जाने का प्रावधान होता है। इतनी बड़ी आबादी-चाहे वह मुसलमानों की हो या ईसाईयों की, उनका देश की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान है।

ईसाईयों ने भारत के विकास में बहुत मदद की है। सारे देश में ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूल और अस्पताल हैं। वे परोपकार के बहुत सारे काम करते हैं। उनका एक भी प्रतिनिधि न होना क्या चिंता की बात नहीं है? हमारी संसद और विधानसभाओं को सोचना चाहिए कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व कैसे दिलाया जाए। क्या मनोनयन के जरिए? या आनुपातिक प्रतिनिधित्व के जरिए? या किसी और तरीके से? बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां मुसलमानों की संख्या काफी है। इन राज्यों में तो इस तरह का प्रबंध होना ही चाहिए। बिहार के चुनाव के बाद क्या स्थिति उभरकर आती है यह देखा जाना बाकी है। भले ही बड़े राजनैतिक दलों ने उन्हें पर्याप्त संख्या में टिकट न दिया हो, मगर यह देखा जाना बाकी है कि क्या वे किसी छोटी-मोटी पार्टी से या निर्दलीय उम्मीदवार के रुप में चुनकर आते हैं या नहीं। बिहार विधानसभा के नतीजों के दिन यह साफ हो जाएगा कि बिहार, जहां बहुत गौरवपूर्ण परंपराएं रही हैं, वहां के मतदाताओं ने इस चुनाव में क्या किय?

महागठबंधन में ब्राह्मणवाद की झलक: सभी घटक दलों ने अपने उम्मीदवारों के चयन में कोर वोट बैंक (जातिगत सर्मथकों) का पूरा ख्याल रखा है। सभी घटक दलों को मिलाकर देखें तो गठबंधन में पिछड़ा-अतिपिछड़ा को अधिक भागीदारी मिली है। कुल 255 उम्मीदवारों में 56 फीसदी उम्मीदवार पिछड़े हैं। इनमें भी एमवाई (मुस्लिम-यादव) की संख्या अधिक है। महागठबंधन में सबसे अधिक 67 यादव उम्मीदवार हैं, जबकि 30 मुस्लिमों को टिकट दिया गया है। 30 कुर्मी-कुशवाहा तो 33 ईबीसी को उम्मीदवार बनाया गया है। दलित और सवर्ण वर्ग से 41-41 उम्मीदवार चुनावी मैदान में हैं। 13 वैश्य भी चुनावी मैदान में है। दलवार देखें तो राजद ने जहां एक तिहाई से अधिक उम्मीदवार केवल यादवों को बनाया है तो 18 मुस्लिमों को भी चुनावी मैदान में उतारा है। कांग्रेस ने एक तिहाई से अधिक सवर्णों को उम्मीदवार बनाया है। वीआईपी ने अतिपिछड़ों पर अधिक भरोसा किया है। वामदल में सबसे अधिक दलित और यादव उम्मीदवार हैं।

राजद ने 143 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है। इनमें 50 यादव उम्मीदवार हैं, जबकि 18 मुस्लिम हैं। सत्ताधारी दल के वोट में सेंध लगाने के लिए राजद ने 18 कुर्मी और कुशवाहा को भी उम्मीदवार बनाया है। आठ वैश्य तो 14 सवर्ण उम्मीदवार बनाए गए हैं। सवर्ण में छह भूमिहार, पांच राजपूत और तीन ब्राह्मण हैं। 19 दलितों को भी राजद ने उतारा है। ये सभी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। पिछली बार 2020 के चुनाव में राजद ने 144 में से 58 यादवों को उम्मीदवार बनाया था, जबकि अतिपिछड़े 23, मुस्लिम से 18 और सवर्ण वर्ग से 13 उम्मीदवार बनाए थे।

61 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस के एक तिहाई से अधिक उम्मीदवार सवर्ण वर्ग से हैं। इनमें भूमिहार आठ, राजपूत पांच, ब्राह्मण सात और एक कायस्थ हैं। पार्टी ने 10 मुस्लिमों को भी टिकट दिया है। पांच यादव, चार कुर्मी-कुशवाहा, छह ईबीसी, तीन वैश्य तो 12 दलित चुनावी मैदान में हैं। वामदल 33 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें सबसे अधिक दलित और यादव नौ-नौ उम्मीदवार हैं। सात कुर्मी और कुशवाहा तो एक ईबीसी को टिकट मिला है। दो वैश्य और तीन सवर्णों को टिकट मिला है। वहीं वीआईपी 15 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। वीआईपी ने अतिपिछड़ों पर अधिक भरोसा किया है। आठ उम्मीदवार ईबीसी हैं। वीआईपी से तीन यादव, एक कुर्मी/कुशवाहा, दो सवर्ण तो एक दलित भी चुनावी मैदान में हैं। इंडियन इन्क्लूसिव पार्टी (आईआईपी) तीन सीटों पर चुनाव लड़ रही है। उसके दो उम्मीदवार ईबीसी तो एक सवर्ण हैं।

समाधान: भारत की जनसंख्या सभी धर्मों, जातियों व क्षेत्रों की जनता से मिलकर बनी है। जनता के सभी घटकों में अलग-अलग सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताएं हो सकती है। उसी आधार पर भारतीय संविधान में भी सभी जातीय, धर्म व समुदायों को समता, समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता का प्रावधान दिया गया है। देश में लोकतांत्रिक संवैधानिक सत्ता है। लोकतंत्र को मजबूत व स्वस्थ रखने के लिए राजनैतिक दलों व अन्य संवैधानिक संस्थानों में उनकी संख्या के हिसाब से भागीदारी होनी चाहिए तभी देश का लोकतंत्र मजबूत हो सकेगा और देश में रहने वाले सभी लोगों को अपनी हिस्सेदारी का एहसास भी हो सकेगा। देश की प्रगति में सभी समुदायों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। किसी भी जातीय घटक व धार्मिक आस्था वाले घटकों को वंचित करना लोकतंत्र के लिए सही नहीं होगा। लोकतंत्र सभी जातीय व धार्मिक घटकों की नियति के आधार पर बना है इसलिए शासन व्यवस्था और सभी संवैधानिक निकायों में उनकी आनुपातिक भागीदारी सुनिश्चित करना ही देश की समृद्धि व लोकतंत्र को मजबूत बनाने का एकमात्र उपाय है।

वर्तमान समय में मनुवादी-संघी मानसिकता के राजनेता जो देश के अल्पसंख्यकों के ऊपर अवांछनीय प्रहार कर रहे हैं, देशभक्त न समझकर उन्हें देश का शत्रु मानना चाहिए। संवैधानिक न्यायालयों में बैठे न्यायधीशों को अपनी मनुवादी मानसिकता से ऊपर उठकर संविधान की भावना के अनुरूप अपने फैसले देने चाहिए। इतना ही नहीं संवैधानिक न्यायालयों में बैठे न्यायधीशों को मनुवादी-संघी विचारों से संक्रमित लोगों के बयानों पर स्वत: संज्ञान लेकर उन्हें वोट देने के अधिकार से वंचित करना चाहिए। ऐसा पहले भी भारत के पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायण जी ने स्वत: संज्ञान लेते हुए महाराष्ट्र के बाला साहेब ठाकरे को वोट देने के अधिकार से वंचित किया था, इस संदर्भ को पूरे देश के संवैधानिक न्यायालयों में मनुवादी-संघी बयान वीरों को वोट देने के अधिकार से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।

कांग्रेस और लालू यादव की आरजेडी के नेताओं ने अपने हाथों में संविधान की किताब लेकर जनता को बता रहे थे कि जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी ही होगी उसकी हिस्सेदारी। लेकिन टिकट वितरण को देखकर ऐसा नजर नहीं आ रहा है। आज का मतदाता 1990 का मतदाता नहीं है, वह अब जागरूक है। इसलिए उसे जनसंख्या के हिसाब से अपना पूरा प्रतिनिधित्व चाहिए।

मोदी और संघीयों को हटाओ, देश बचाओ

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01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

2024-01-13 16:38:05