2024-10-18 13:08:59
भारत को आजाद हुए 75 वर्षों का समय गुजर चुका है, देश में साक्षरता दर, संपन्नता दर आदि कई मानवीय मानकों में सुधार देखा गया है। परंतु जेलों में दलितों की दशा में कोई भी सकारात्मक सुधार नहीं हुआ है। इसके लिए जिम्मेदारी किसकी है? इसे कौन देखेगा? और इसमें सकारात्मक सुधार कैसे लाया जाएगा? उच्चतम व उच्च न्यायालय द्वारा ऐसी हालत को देखकर अब से पहले ही जेल सुधार प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए थी। लेकिन वह अभी तक भी शुरू नहीं हुई। दलित समाज से सजा पाये लोग जेलों में वहीं काम कर रहे हैं जो आजादी से पहले कर रहे थे। आज भी जेलों में दलित समाज के कैदियों से हाथ से ही गटर साफ कराये जा रहे हैं, उन्हें जरूरी उपकरण भी मुहैया नहीं कराये जा रहे हैं। देश में आज डबल इंजन की सरकारें दलितों पर डबल अत्याचार, प्रताड़नाएं और ब्रिटिश काल से भी कई गुना शोषण कर रही हंै। 17 अक्तूबर को पूरे देश में वाल्मीकि जयंती बड़ी धूमधाम से मनाई गई। वाल्मीकि जयंती के नाम पर हिन्दू मानसिकता के ब्राह्मणवादी लोग तथाकथित वाल्मीकियों को उल्लू बनाकर उन्हें अपना हिन्दू भाई दर्शा रहे थे। ऐसे सभी वाल्मीकि तर्क और अकल के अंधे हैं। चूंकि ये एक तरफ आपको हिन्दू कहते हैं और उसी हिंदुत्व के चाबुक से आपका अमानवीय शोषण भी करते हैं। दुनिया भर में गटर साफ करने की अमानवीय प्रथा सिर्फ भारत में ही मौजूद है। जहाँ पर ब्राह्मणवादी लोग इनको अपना दूर से ही भाई बताते हैं। इनके पास नहीं जाते और न इन्हें छूते हैं और न इनके साथ किसी भी प्रकार का रिश्ता रखते हैं। यह सब कुछ वर्तमान भारत के हिन्दू का समाजशास्त्र है जो तथाकथित दलितों को नजर नहीं आ रहा है और वे निरंतरता के साथ इनके भ्रमजाल में फँसते चले जा रहे हैं।
ज्यादा दोष दलितों का, ब्राह्मणों (शोषणकर्ता) का उतना नहीं: समाज में जो व्यक्ति किसी भी शोषण को सहन करता है और लंबे समय तक सहन करके उसका आदि हो जाता है और वह व्यक्ति अपने शोषण के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठाता है तो वह व्यक्ति जो शोषण सह रहा है और जो उनके ऊपर शोषण कर रहा है वह उसके लिए अधिक गुनाहगार है। शोषण का ज्ञान होने पर मनुष्य को उनके विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए और शोषण को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प भी लेना चाहिए। भारत वर्ष की स्थिति दूसरे देशों की अपेक्षा थोड़ी अलग है। चूंकि यहाँ पर शोषणकर्ता जमात ही सर्वोपरि बनी रहती है और जिनका शोषण होता है वे शोषण के लिए मजबूर रहते हैं। भारत में यह सामाजिक व्यवस्था का भी दोष है और मानवीय मानसिकता का भी दोष है। चूंकि यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में मानवीय दोष अधिक दिखाई पड़ता है जो आमतौर पर सामाजिक स्थिति पर हावी रहता है। बाहर के समाज में मानवीय दृष्टिकोण से दलितों की दशा और उसका समाज में स्थान घृणित ही माना जाता है। जो समाज में मनुष्य की ऐसी स्थिति को व्यवहारिक बनाता है। समाज को अपने अन्दर ऐसी व्यवहारिक घृणित व्यवस्था का त्याग करना होगा और त्याग सिर्फ कहने के लिए नहीं उसे समाज में व्यवहारिक रूप में दिखाना भी होगा। भारत के अधिकांश लोग बात करते समय दलितो के प्रति अच्छी बातें करेंगे, सौहार्द भी प्रदर्शित करेंगे, लेकिन जब बात ऐसे घृणित कार्य को करने की आती है तब तथाकथित हिन्दूवादी लोग सब बातें भूलकर घृणित कार्यों के लिए दलित ही नजर आते हैं और अमूमन उन्हें ही ऐसे काम सौंपे जाते हैं। भारतीय जेलों में भारत सरकार का राज चलता है परंतु 75 वर्षों के बाद भी वहाँ का तालीबानी (हिंदूवादी) सिस्टम जोरे से मौजूद है। वर्तमान में भी वहाँ पर दलित कैदियों से हाथ से ही मल साफ कराया जाता है।
व्यवस्था में बदलाव क्यों नहीं हो पा रहा है?: इस संबंध में हर व्यक्ति व अधिकारी बात तो करते हैं लेकिन मन से लागू नहीं करना चाहते, व्यवस्था संचालकों व अधिकारियों के मन में आज भी गहराई तक इसी अमानवीय व्यवस्था को बनाए रखने के बीज मौजूद हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो यह व्यवस्था अभी तक खत्म हो चुकी होती। 75 वर्षों का बहुत लंबा पीरियड होता है, 75 वर्षों में इस व्यवस्था का नामों-निशान भी नहीं मिलना चाहिए था, परंतु फिर भी यह व्यवस्था समाज में मौजूद है जो इस बात का सबूत है कि भारत सरकार की मशीनरी भी इस संबंध में कहीं-न-कहीं मानसिक रूप से दोषी है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने कई बार ऐसी अमानवीय व्यवस्थाओं का संज्ञान लिया है और सरकार को यथासंभव निर्देश भी दिये हैं। परंतु इस दिशा में कुछ भी कार्य होता नहीं नजर आता है। इसके लिए संक्षेप में अगर हम कहें तो देश का उच्चतम न्यायालय भी दोषी है। चूंकि उसकी निगरानी में ही ऐसे कार्य कराने के निर्देश दिये गए थे। फिर भी सकारात्मक परिणाम नजर नहीं आ रहे हैं तो इसकी जिम्मेदारी उच्चतम न्यायालय को भी लेनी चाहिए और अपने आदेशों की अव्हेलना और विफलता पर खुदी को ही संज्ञान लेकर सकारात्मक आदेश पारित करने चाहिए। इस दशा में कोई भी सुधार एक निश्चित समय सीमा के अंदर होना चाहिए जिसकी निगरानी उच्चतम न्यायालय को करनी चाहिए। हमें उम्मीद है कि अगर उच्चतम न्यायालय देश के अंदर फैली इस अमानवीय कुरीति को जड़ से खत्म करना चाहता है तो वह अवश्य ही इसे लागू करने में सक्षम होगा। शर्त सिर्फ इसमें यह होगी कि इस व्यवस्था के सुधार में ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोगों को न लगाया जाये और न उन्हें इसकी जिम्मेदारी दी जाये। देश में ऐसी सभी अमानवीय बुराईयां सिर्फ इसलिए मौजूद है चूंकि इनके विरुद्ध कार्य करने वाले लोगों में ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोगों की उपस्थिति होती है। इसलिए इस प्रकार की सुधार प्रक्रिया में ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोगों को न लगाया जाये। चूंकि ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोगों में तर्क और न्याय की कमी होती है और वे अपनी ब्राह्मणवादी संस्कृति को ही हमेशा चोरी-छिपे तरीके से उसे चलाते रहने में लगे रहते हैं।
जाति के आधार पर सौंपा जाता है काम:
दलित कार्यकर्ता दौलत कुंवर, जिन्हें कई बार जेल भेजा जा चुका है, बताते हैं कि जेल के अंदर जातिगत भेदभाव आम बात है। कुंवर का आरोप है कि जेल में कैदियों की जाति के आधार पर उन्हें काम सौंपा जाता है, जहां दलितों को अक्सर सफाई जैसे काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। एक दैनिक अखबार ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की जेलों में समय बिता चुके अन्य कैदियों और विचाराधीन कैदियों ने भी कुंवर के दावों का समर्थन किया।
जेल में झाड़ू लगाने के लिए किया मजबूर:
हापुड़ निवासी 43 वर्षीय इंदर पाल ने जेल में अपने 67 दिनों के अनुभव को साझा करते हुए बताया कि उन्हें दो हफ्ते तक झाड़ू लगाने के लिए मजबूर किया गया और बीमार होने पर बिना ब्रश के शौचालय साफ करने को कहा गया। गैरकानूनी हथियार रखने के आरोप में उत्तर प्रदेश की एक जेल में सात दिन बिताने वाले 23 वर्षीय मोनू कश्यप बताते हैं कि छोटी जाति के कैदियों को सीमित भोजन दिया जाता था जबकि अन्य को पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलता था। 38 वर्षीय राम बहादुर सिंह, जो उत्तर प्रदेश की ही एक जेल में बंद थे, ने कहा कि दलित कैदियों को अक्सर भोजन के लिए अलग कतार में खड़ा किया जाता था। उन्होंने कहा, यह ऐसा है जैसे हमें जानवरों की तरह बचा हुआ खाना खिलाया जाता है।
पुलिस ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सराहा: सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पुलिस अधिकारियों ने भी सराहा है। उत्तर प्रदेश के डीजीपी प्रशांत कुमार ने इस फैसले को भारतीय जेलों के अंदर श्रम की गरिमा को बहाल करने की दिशा में एक साहासिक कदम बताया है। उन्होंने कहा कि यह फैसला सदियों से चली आ रही जाति और व्यवसाय के गलत मिलाप को खत्म करने का आह्वान करता है, जिसने पूरे समुदायों को दांसता और अपमान के जीवन में धकेल दिया है। डीजीपी ने कहा कि यह फैसला अनुच्छेद 21 में निहित न्याय की उम्मीद जगाता है और जेलों में जाति-आधारित श्रम की जंजीरों को तोड़ने और समानता को बढ़ावा देने वाले सुधारों का आग्रह करता है।
कई सालों की लड़ाई के बाद फैसला: सामाजिक कार्यकतार्ओं ने भी इस फैसले की सराहना की है। मेरठ कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर और दलित कार्यकर्ता सतीश प्रकाश का कहना है कि जेल मैनुअल में बदलाव केवल शुरूआत है। असली मुद्दा मानसिकता का है। जाति ग्रस्त समाज में जेल के अंदर और बाहर दोनों तरह से प्रभुत्व बना रहता है। सामाजिक इंजीनियरिंग बहुत जरूरी है। वकील और दलित कार्यकर्ता किशोर कुमार ने कहा कि जेल प्रशासन के लिए दलित शब्द उन चीजों से अलग नहीं है जिन्हें वे पारंपरिक पेशे कहते हैं, जैसे कि मैला ढोना, झाड़ू लगाना और सफाई करना।
एक दैनिक अखबार से बात करते हुए कुछ जेल अधिकारियों ने कहा कि उनकी जेलों में भेदभाव की अनुमति नहीं है। उत्तराखंड में डीआईजी (जेल) दधीराम मौर्य ने कहा कि हमारी जेलों में कोई जाति-आधारित कार्य नियुक्ति नहीं होती है। पिछले साल नवंबर में हमारे नए जेल मैनुअल के अनुसार इसे बंद कर दिया गया था।
अपर जिला न्यायाधीश शहजाद अली, जो बुलंदशहर में जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण के सचिव भी हैं, ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला वकीलों और कार्यकतार्ओं को इसके अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए मजबूती प्रदान करेगा। उन्होंने कहा, हम शिकायतों के निपटारे के लिए नियमित रूप से जेलों का दौरा करते रहते हैं। अब हम इसके सख्त अनुपालन को सुनिश्चित करेंगे और उल्लंघन की स्थिति में तत्काल कार्रवाई करेंगे।
दलित कैदियों में जगी न्याय की उम्मीद : सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए देश भर के जेल मैनुअल में मौजूद कई औपनिवेशिक काल के नियमों को रद्द कर दिया है। इन नियमों को श्रम के जाति-आधारित विभाजन को मजबूत करने वाला बताया गया था, जो विशेष रूप से हाशिए पर मौजूद समुदायों को निशाना बनाते थे। यह फैसला दलित कार्यकर्ताओं और कैदियों द्वारा सालों से जेलों में व्याप्त जातिगत भेदभाव की शिकायतों के बाद आया है। देश को आजाद हुए 75 वर्ष का समय बीत गया है। इतना बड़ा काल खंड मायने रखता है कि इन 75 वर्षों के दौरान एससी/एसटी/ओबीसी व अन्य दलित समुदाय के कैदियों के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार क्यों होता रहा? और इसकी जिम्मेदारी किसकी थी? देश के उच्चतम न्यायालय ने ऐसी अमानवीय व्यवस्थाओं को रद्द करने में इतना समय क्यों लगाया? और इसके लिए कौन जिम्मेदार है यह भी सुनिश्चित होना चाहिए? 75 वर्षों के दौरान ऐसी अमानवीय व्यवस्था को जिन लोगों ने झेला है उन्हें यह बताना चाहिए कि उनका दोष क्या था और उन्होंने यह अमानवीय व्यवहार क्यों झेला? सवाल कानून का कम है और ब्राह्मणवादी मानसिकता का ज्यादा है। इस देश की सामाजिक व्यवस्था में आज तक मनुवादी व्यवस्था का विधान क्यों विद्यमान है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह सुनिश्चित होना चाहिए और ऐसे लोगों को यथासंभव दंड भी मिलना चाहिए। यह देश उच्चतम न्यायालय से न्याय की उम्मीद करता है और न्याय पूर्णतया संविधान सम्मत होना चाहिए। न्याय देते वक्त अदालतों को लेश मात्र भी मनुवादी व्यवस्था को संज्ञान में नहीं लाना चाहिए। अगर न्याय देते वक्त मनुष्य के मस्तिष्क में ब्राह्मणवादी विचार आता है तो अवश्य ही वह विचार न्याय प्रकिया को प्रभावित करेगा।
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