2023-09-23 12:12:00
मानव सामाजिक प्राणी है। मानव कल्याण हेतु तथागत गौतम बुद्ध ने विश्व को शांति तथा सामाजिक समता का संदेश दिया। हम सरदार भगत सिंह को एक शहीद के रूप में ही जानते हैं किंतु उन्होंने सामाजिक समता के सवाल पर, दलित समस्या पर वस्तु निष्ठ लेखन किया है। वे गौतम बुद्ध तथा डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर की तरह अनिश्वरवादी थे। भारत वर्ष भगत सिंह को क्रांतिकारी के रूप में ही जानता है। आईये आज उनकी 112 वीं जयंती पर उनके दूसरे पक्ष को जानने का प्रयास करते हैं।
भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को बंगा, जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पिता का नाम किशन सिंह तथा माता का नाम विद्यावती कौर था। वे पंजाबी जाट थे। उनका परिवार आर्य समाजी था। उनकी महाविद्यालयीन शिक्षा नेशनल कॉलेज आॅफ आर्ट्स, लाहौर में शुरू थी। इसी बीच अमृतसर के जालियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को रौलट एक्ट के विरोध में प्रदर्शन के दौरान बूढ़ों, जवानों तथा महिलाओं को गोलियों से भून दिया था, जिसमें 400 से अधिक लोग मारे गए तथा 2000 से अधिक घायल हुए थे। इस भीषण कांड का भगत सिंह के बाल मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने 1920 में कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी तथा वें महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन में कूद पड़े। भगत सिंह ने विदेशी सामान के बहिष्कार स्वरूप सरकारी स्कूलों की पुस्तकें व कपड़े जलाये।
सन 1921 में उत्तर प्रदेश के चौरा-चोरी हत्या कांड में गांधी ने किसानों का साथ नहीं दिया। इस घटना ने भगत सिंह को बहुत प्रभावित किया। गांधी के व्यवहार को देखते हुए उन्होंने गांधी का साथ छोड़ दिया। 9 अगस्त 1925 को चंद्रशेखर आजाद के साथ अन्य क्रांतिकारियों ने शाहजहाँपुर-लखनऊ पेसेंजर से काकोरी स्टेशन पर सरकारी खजाना लूट लिया था, जिसमें पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खा तथा ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी हुई थी।
क्रांतिकारियों को दी गई फाँसी से भगत सिंह बहुत उद्विग्न हुए। उन्होंने चंद्रशेखर आजाद की हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिक एसोशियेशन ज्वाइन कर ली। साथ ही वें नौजवान भारत सभा से भी संबंद्ध हो गए। चंद्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के दौरान उन्होंने जलती मोमबती पर अपना हाथ रखकर प्रतिज्ञा ली कि उनकी जिंदगी देश पर कुर्बान होगी।
केवल 20 वर्ष की आयु में भगत सिंह ने जून 1928 को अछूत समस्या पर ‘अछूत सवाल’ नामक लेख कीर्ति पत्रिका में लिखा, जो आज भी महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं ......हिंदू धर्म वर्णवादी व्यवस्था के आधार पर खड़ा है तथा उसकी संचालक उच्चवर्गीय ब्राह्मणवादी राजनीति व संस्कृति है। उसका सहारा लेकर दलितों का सामाजिक और आर्थिक शोषण किया जाता है। कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में नि:संग फिरता है। लेकिन इंसान का स्पर्श हो जाए, तो धर्म भ्रष्ट हो जाता है। जो निष्काम काम कर हमारे लिए सुविधा उपलब्ध कराते है, उन्हें ही हम दूर दुराते हैं। पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन हम इंसान को पास नहीं बिठा सकते हैं। अछूत समस्या एक अहम सवाल है। 30 करोड़ जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते है। उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, कुंए से उनके पानी निकालने से कुंआ अपवित्र हो जाएगा। ये सवाल बीसवीं सदी में किये जा रहे थे, जिन्हें सुनते ही शर्म आती है। काउंसिलों और असेंबलियों का कर्तव्य है कि उन्हें स्कूल, कॉलेज, कुंओं, सड़कों के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता दिलाये। जबानी तौर पर नहीं, वरन अपने साथ ले जाकर उन्हें कुंओं पर चढ़ाएँ और उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाये।
जाति धर्म के कारण आयी दूरियों पर दु:ख व्यक्त करते हुए वें कहते हैं-‘समाज के कमजोर वर्ग पर अन्याय हो रहा है तुम उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ भी नही बन सकेगा। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक व आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही देश के मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोये हुए शेरों उठो और बगावत खड़ी कर दो।’
भगत सिंह के सामने एकदम साफ था कि कांग्रेस जमींदारों, महाजनों, व्यापारियों तथा उभरते पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्तियों की पार्टी है। वे समाजवाद के पहले व्याख्याता थे। उन्होंने ‘अकाली’ तथा ‘कीर्ति’ नामक दो अखबारों का संपादन किया। वे हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बांग्ला, संस्कृत, अंग्रेजी व आयरिश भाषा के ज्ञाता थे। केवल 23 वर्ष की आयु में उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड, रूस की क्रांति का गहरा अध्ययन किया था। वे देशभक्त ही नहीं वरन अध्ययनशील विचारक, कलम के धनी, दार्शनिक, चिंतक, लेखक तथा पत्रकार थे।
भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव ने 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर के सहायक पुलिस अधीक्षक जे.पी. सांडर्स को मारा। 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय संसद (सेंट्रल असेंबली) में बम्ब फेंककर तथा बम्ब विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया, विरोध प्रदर्शित किया। उन्होंने वहाँ से भागने से इंकार कर दिया।
जेल में उनका करीबन दो साल तक अध्ययन बराबर जारी रहा। जेल की अव्यवस्था के खिलाफ उन्होंने अपने साथियों के साथ जेल में 64 दिन भूख हड़ताल की थी। उन्हें मौत की सजा सुनाई गई, किन्तु उन्होंने माफीनामा लिख कर देने से मना किया था।
भगत सिंह ने अंग्रेज सरकार को जेल से पत्र लिखा था, जिसमें वे कहते हैं.....मुझे अंग्रेज सरकार के विरुद्ध भारतीयों के युद्ध का प्रतीक स्वरूप एक युद्ध बंदी समझा जाए, उन्होंने 3 मार्च 1931 को अपने भाई कुलतार सिंह को पत्र में देश प्रेम व ओत-प्रोत कुछ पंक्तियाँ लिख भेजी थी। वे सरकार को कहते है मुझे फाँसी देने के बजाय गोलियों से उड़ा दिया जाये
फाँसी पर जाने से पूर्व भगत सिंह ने भंगी के हाथों से बनाया हुआ भोजन खाने की इच्छा व्यक्त की थी। फाँसी के पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। उन्हें वह जीवनी पूरी करने का समय दिया गया। 23 मार्च 1931 को शाम 7:33 बजे लाहौर केंद्रीय कारागार में भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दी गई।
‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’? इस शीर्षक से भगत सिंह ने अंग्रेजी में जेल में एक लेख लिखा था, जो 27 सितम्बर 1931 को लाहौर से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘द पीपल’ में प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने ईश्वर की उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये है। इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ-साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और वर्गभेद की स्थितियों का विश्लेषण किया गया है।
भगत सिंह एक अच्छे पाठक, लेखक व वक्ता थे। उनकी कृतियाँ है
<एक शहीद की जेल नोट बुक (संपादक-भूपेन्द्र हूजा)
<सरदार भगत सिंह-पत्र व दस्तावेज (वीरेंद्र संधु)
<भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज (संपादक-चमनलाल)
देश की आजादी के लिए मर मिटने वाले, अनिश्वरवादी तथा अछूतों के सच्चे हितैषी, समाज चिंतक शहीद भगत सिंह को उनकी कोटि-कोटि नमन!
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