2023-09-06 10:58:37
अय्यंकाली का जन्म तिरुवनंतपुरम जनपद से 13 किलोमीटर दूर उत्तर में स्थित, छोटे से गांव वेंगनूर में 28 अगस्त 1863 को हुआ था। पिता अय्यन और मां माला की आठ संतानों में अय्यंकाली सबसे बड़े थे। माता-पिता ने उनका नाम कालि रखा था, जो पिता के नाम के साथ जुड़कर अय्यंकाली बन गया। उनकी जाति पुलायार (पुलाया) थी। वेंगनूर आगमन से पहले उनका परिवार पलावर थारावाड़ का रहने वाला था। अपने पैतृक गांव के नाम को अय्यन अपने नाम के साथ जोड़कर सम्मान से सहेजे हुए थे। वह उनकी पहचान का हिस्सा था। दक्षिण भारत में पुलायार अछूत जातियों में, सबसे नीचे की मानी जाती है। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में उनकी हैसियत भू-दास के समान थी। जमींदार लोग, मुख्यत: नैय्यर अपनी मर्जी से किसी भी पुलायार को काम में झोंक देते थे। सुबह से शाम तक काम करने के बाद उन्हें मिलता था, बामुश्किल 600 ग्राम चावल। कभी-कभी वह भी बेकार व घटिया किस्म का।
अय्यन बहुत मेहनती थे। उन्हें एक जमींदार ने जंगल को साफ कर जमीन खेती योग्य बनाने का काम सौंपा हुआ था। जमींदार अपेक्षाकृत उदार था। अय्यन के काम से प्रसन्न होकर उसने उन्हें पांच एकड़ जमीन भेंट कर दी थी। पुलायार जाति के लिए यह बड़ी बात थी। अपने परिवार के साथ अय्यन उसी जमीन में खेती करते थे। इस तरह अय्यंकाली के परिवार की आर्थिक स्थिति उनके जाति-बंधुओं की अपेक्षा बेहतर थी। बाकी पुलयारों की हैसियत उस समय भूदासों के समान थी। उन्हें बिना किसी मजदूरी के दूसरों के खेतों में काम करना पड़ता था। इस प्रथा को वहां ऊझीयम वाला कहा जाता था। पुलायारों की संख्या त्रावणकोर में अन्य अछूत जातियों की अपेक्षा कम ही थी। अकेले वे कोई संगठनकारी ताकत नहीं बनते थे। उनकी दयनीय अवस्था और शोषण के पीछे यह भी एक कारण था।
तत्कालीन समाज जातिवाद और छूआछूत पर टिप्पणी करते हुए चार्ल्स एलेन ने एक ईसाई मिशनरी की पत्नी द्वारा 1860 में अपनी एक मित्र को लिखे गए पत्र का हवाला दिया है। त्रावणकोर में व्याप्त छूआछूत को समझने के लिए यह टिप्पणी बहुत प्रामाणिक है।
नियम के अनुसार—
‘नैय्यर नंबूदरी ब्राह्मण से मिल सकता था, परंतु उसे छू नहीं सकता था। चोवन(इझवा) जाति के व्यक्ति के लिए नियम था कि वह नंबूरी ब्राह्मण से मिलते समय 36 कदम की दूरी बनाकर रखेगा। पुलायार जिसकी स्थिति दास जैसी है, को नंबूदरी से 96 कदम दूर खड़े होकर बात करनी पड़ती थी। नैय्यर से मिलते समय चोवाल को बारह कदम दूर खड़े रहने का प्रावधान था। वहीं पुलायार को नैय्यर से 66 कदम की दूरी रखनी पड़ती थी। इसी तरह संत थामस चर्च में विश्वास रखने वाला ईसाई, नैय्यर को छू सकता था, लेकिन नैय्यर के साथ भोजन करने की अनुमति उसे नहीं थी।’
जातीय शुचिता के नाम पर अमानवीय व्यवहार का कुछ ऐसा ही उल्लेख कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया में भी किया है। इससे तत्कालीन केरल में जाति-भेद और छूआछूत की त्रासद स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
पुलयार जाति के बच्चों को स्कूल जाकर पढ़ने-लिखने की अनुमति नहीं थी। वे केवल मेहनत-मजदूरी कर सकते थे। अछूत होने के कारण अय्यंकाली को केवल अपनी जाति के बच्चों के साथ खेलने का अधिकार था। फिर भी अय्यंकाली का बचपन स्वजातीय बच्चों से अलग था। वे अपेक्षाकृत मुक्त पारिवारिक वातावरण में पले-बढ़े थे। पिता को कहीं बेगार करने नहीं जाना पड़ता था। इस कारण उनके दोस्तों में कुछ तथाकथित ऊंची जाति के भी थे। बचपन ठीक-ठाक बीत रहा था कि एक दिन अचानक जाति-व्यवस्था का क्रूरतम चेहरा उनके सामने आ गया। उस दिन अय्यंकाली बच्चों के साथ फुटबॉल खेल रहे थे। उन्होंने फुटबॉल को ठोकर मारी, वह उछलती हुई दूर एक आंगन में जा गिरी। वह एक नैय्यर का घर था। गृहस्वामी गेंद को देखकर आग-बबूला हो गया। उसने अय्यंकाली को ऊंची जाति के बच्चों के साथ न खेलने की हिदायत दी। अपमान से आहत अय्यंकाली ने भविष्य में किसी सवर्ण से दोस्ती न करने की ठान ली। यह संकल्प आगे चलकर उनके और पुलायार समाज के लिए वरदान सिद्ध हुआ। उसके बाद अय्यंकाली ने अपनी जाति के लड़कों को जोड़ना शुरू किया। उन्हें एकजुट कर उनकी एक टीम तैयार की। इस तरह बचपन से ही नायकत्व की भावना उनके भीतर उभरती चली गई।
बचपन में ही एक और घटना घटी। झगड़े के दौरान अय्यंकाली ने ऊंची जाति के लड़के की पिटाई कर दी। वह पहला अवसर था जब एक पुलायार, जिसकी सामाजिक हैसियत गुलामों जैसी थी, ने ऊंची जाति के लड़के को पीटा था। माता-पिता घबरा गए। उन्हें डर था कि उच्च जाति के लोग अवश्य ही बदला लेंगे। ऐसा होना भी था, लेकिन तभी कुछ लोग आकर बीच-बचाव करने लगे। उससे बेपरवाह बालक अय्यंकाली यह कहते हुए बाहर निकल आया कि वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। घर पहुंचा तो माता-पिता ने उसकी जमकर पिटाई की। बाहरी लोगों से फिर कभी न उलझने का निर्देश दिया। माता-पिता का गुस्सा भी अय्यंकाली के संकल्प को डिगा न सका। वे अपनी जाति की दुर्दशा को लेकर सवाल उठाने लगे। इसी के आगे चलकर मुक्ति का विचार उसके दिमाग में जन्मा।
किशोरावस्था में गाने-बजाने का शौक पैदा हुआ। लोकगीतों में रुचि बढ़ी। उसी से रचनात्मकता ने जन्म लिया। किशोरावस्था पार करते-करते देह निखरने लगी थी। लोग अय्यंकाली के शरीर-सौष्ठव की प्रशंसा करने लगे। शरीर के साथ-साथ दिमाग भी हृष्ट-पुष्ट था। मुक्त परिवेश और अच्छी देहयष्टि। दोनों बातें अय्यंकाली का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए काफी थीं। लेकिन जिस जाति में उनका जन्म हुआ था, उसमें वे दुर्गुण समान थी। अछूतों के लिए ड्रेस कोड निर्धारित था। वे साफ कपड़े नहीं पहन सकते थे। सार्वजनिक मार्गों पर टहलना निषिद्ध था। ऊंची आवाज में बोलने को उदंडता माना जाता था। इस सबकी परवाह न करते हुए अय्यंकाली साफ कपड़े पहनता। दोस्तों के साथ निरुद्धिग्न टहलता। इस तरह वह मनुस्मृति के उस विधान का उल्लंघन करता था, जो शताब्दियों से शूद्रों और दासों पर शासन का कारण रहा था।
उम्र के साथ रचनात्मकता में भी निखार आ रहा था। अय्यंकाली लोकगीत गाने यहां तक कि रचने भी लगा था। अपने छोटे भाइयों गोपालन, चेतन तथा अपनी जाति के दूसरे किशोरों के साथ वह अपने रचे लोकगीत गाता, नाटक खेलता और उन्हें मनभाता आकार देता था। उसके मित्र उसे सम्मान के साथ उरपिल्लई (प्रिय) या मूथपिल्लई (ज्येष्ठ) कहते थे। अय्यंकाली के गीतों और नाटकों में सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश समाया होता था। स्वाधीनता का आह्वान किया जाता था। अय्यंकाली की भाषा तमिल मिश्रित मलयाली थी। इससे उसके गीतों और नाटकों का असर त्रावणकोर से आगे बढ़कर मालाबार ओर कोच्चि तक फैलने लगा। गीतों और नाटकों के जरिये वह मुक्ति संदेश को फैलाता। जातीय आधार पर हो रहे शोषण के बारे में वह लोगों को जागरूक करता। अय्यंकाली के माता-पिता के मन में बेटे को लेकर चिंता सदैव बनी रहती थी। लेकिन जन्मजात विद्रोही अय्यंकाली को इसकी चिंता न थी। संगठन है तो कुछ अनुशासन, ताकत का उचित सदुपयोग करने का हुनर भी होना चाहिए। सो अय्यंकाली ने अपने दल के सदस्यों को मार्शल आर्ट की शिक्षा देने के लिए एक प्रशिक्षक रख लिया, जो बहुत दूर से चलकर आता था। अय्यंकाली की गतिविधियां बाहरी लोगों को खटकती थीं। मगर उन्हें इसकी कतई परवाह नहीं थी।
उन दिनों दलितों को गांव में खुला घूमने और मुख्य मार्गों पर निकलने की आजादी नहीं थी। न ही वे साफ, धुला हुआ कपड़ा पहन सकते थे। अय्यंकाली को बनी-बनाई लीक पर चलने की आदत न थी। 25 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने अपने ही जैसे युवाओं का मजबूत संगठन तैयार कर लिया था। उनके साथी संकेत-मात्र से मरने-मारने को तैयार हो जाते थे। सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करते समय अय्यंकाली के सामने सबसे पहली चुनौती थी, पुलायारों को सार्वजनिक सड़कों पर चलने का अधिकार दिलाना। 1889 में ऐसी ही एक घटना घटी। कुछ दलित युवा सार्वजनिक रास्तों पर चलने के अधिकार को लेकर आंदोलनरत थे। उसी समय उनपर बाहरी (सवर्णों) ने उनपर हमला कर दिया। दोनों पक्षों के बीच जमकर संघर्ष हुआ। सड़क खून से लाल हो गई। इसी तरह की घटनाएं मनाक्कदु, काझाकुट्टम, कनियापुरम् जैसे क्षेत्रों में देखने को आईं। सवर्ण आतंक पर उतर आए थे।
बैलगाड़ी से क्रांति
निडर, निर्भीक अय्यंकाली ने अंतत: सीधे टकराने का फैसला कर लिया। 1893 की घटना है। अय्यंकाली ने दो हृष्ट-पुष्ट बैल खरीदे और एक गाड़ी। साथ में पीतल की दो बड़ी-बड़ी घंटियां। खुद को उन्होंने अपनी पारंपरिक पोशाक में सजाया हुआ था, जिससे उनकी धज अलग ही नजर आ रही थी। घंटियों को बैलों के गले में बांध, बैलगाड़ी पर सवार हो, अय्यंकाली ने बैलों को हांक लगाई। इशारा मिलते ही बैल गांव की सड़कों पर चल पड़े। मानो कोई योद्धा अपने विजय-अभियान पर अग्रसर हो। उन दिनों पुलायार के लिए बैलगाड़ी पर बैठना तो दूर, उसे खरीदना या पास रखना भी अपराध माना जाता था। अय्यंकाली का गाड़ी पर सवार होकर निकलना शताब्दियों पुरानी व्यवस्था को चुनौती थी। एक तरह से खुला ऐलान। बैलों के गलों में पड़ी घंटियां जोर-जोर से बज रही थीं। आवाज सुनकर बाहरी लोगों में खलबली मच गई। दूसरी ओर अछूतों के दिल अनहोनी की आशंका से दहलने लगे। अय्यंकाली अपनी बैलगाड़ी से गुजर ही रहे थे, सहसा कुछ सवर्णों ने आकर उनका मार्ग रोक लिया। वे अय्यंकाली को सबक सिखाना चाहते थे—
यह सब क्या है? तुम्हें चादर ओढ़ने की इजाजत किसने दी।
अय्यंकाली को ऐसे विरोध की आशंका थी। वे उसके लिए तैयार थे। तभी कुछ सवर्ण आगे बैलगाड़ी की ओर बढ़े। एक पल की भी देर किए बिना अय्यंकाली थोड़ा झुके। इससे पहले कि उपद्रवी कुछ समझ पाएं, अय्यंकाली के हाथों में दरांती (कृषि कार्य में उपयोग किया जाने वाला एक हथियार ) आ चुकी थी। उनका चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था। रास्ता रोके खड़े सवर्णों पर दरांती तान, धमकी-भरे अंदाज में अय्यंकाली ने कहा— ‘अगर किसी ने भी मेरा रास्ता रोकने की कोशिश की तो उसे मेरा यह हथियार मजा चखाएगा।’
एक पुलायार से जिसकी सामाजिक हैसियत दास के समान थी, जो गर्दन झुकाकर चुपचाप हुक्म बजाते आए थे, ऐसे विरोध की आशंका किसी को न थी। वे सहमकर पीछे हट गए। उसके बाद तो अय्यंकाली की बैलगाड़ी प्रतिदिन गांव की सड़कों से गुजरने लगी। इस घटना ने न केवल सवर्णों पर असर डाला, अपितु दलितों के बीच भी खलबली मच गई। हर कोई उसकी चर्चा अपनी-अपनी तरह से कर रहा था। उसके बाद अय्यंकाली का यश चारों ओर फैलने लगा। यह डॉ. आंबेडकर के सार्वजनिक राजनीति में प्रवेश से करीब 25 वर्ष पहले की घटना थी। जिसने अय्यंकाली को दमन के शिकार वर्गों का स्वाभाविक नेता बना दिया। 25 वर्ष की अवस्था में अय्यंकाली का विवाह कर दिया गया। उनकी पत्नी का नाम चेल्लमा था। आगे चलकर उस दंपति के यहां सात संतानों ने जन्म लिया।
लेकिन सफलता अभी अधूरी थी। अय्यंकाली अपेक्षाकृत संपन्न माता-पिता की संतान थे। उनमें इतना साहस था कि बैलगाड़ी पर घूम सकें। लेकिन उन्हीं की जाति के बाकी लोगों में सार्वजनिक मार्गों पर चलने की न तो हिम्मत थी, न सवर्ण उन्हें अनुमति देने को तैयार थे। अय्यंकाली का अगला लक्ष्य था, दमन के कारण विश्वास खो बैठे दलितों में आत्मविश्वास पैदा करना। इसके लिए अय्यंकाली ने अपने संगठन को तैयार किया। उनका अगला कदम था, तिरुवनंतपुरम् में दलित बस्ती से पुत्तन बाजार तक आजादी के लिए जुलूस निकालना। यह आसान काम नहीं था। विरोधी घात लगाए बैठे थे। जैसे ही उनका काफिला सड़क पर पहुंचा, सवर्णों ने उनपर हमला कर दिया। अय्यंकाली के नेतृत्व में सैकड़ों दलित युवक निडर होकर विरोधियों से जूझ पड़े। सैकड़ों युवाओं को चोट आई। चेलियार में हुए उस संघर्ष से प्रेरित होकर दूसरे कस्बों और गांवों के दलित युवक भी सड़कों पर चलने की आजादी को लेकर निकल पड़े। मनक्कदु, काझाकोट्टम, कनियापुरम् सहित आसपास के इलाकों में जुलूस निकाले गए। सड़कें खून से लाल होने लगीं। सवर्णों का विरोध जितना बढ़ रहा था, उतना ही दलित युवा अपने अधिकारों को लेकर जाग्रत हो रहे थे। अय्यंकाली का प्रभाव और दलितों का विद्रोह बढ़ता ही जा रहा था। दूसरी दलित जातियां भी पुलायारों के साथ एकजुट होकर अधिकारों की मांग करने लगी थीं। संघर्ष गृहयुद्ध में बदलने लगा था।
पुलायार विद्रोह : शिक्षा क्रांति
उस संघर्ष से दलितों को दूसरे अधिकारों के लिए आवाज उठाने की प्रेरणा मिली। अय्यंकाली स्वयं अशिक्षित थे, लेकिन वे नहीं चाहते थे कि उनकी आने वाली पीढ़ियां भी शिक्षा से वंचित रहें। सरकार सभी के समान शिक्षा के दरवाजे वर्षों पहले खोल चुकी थी। मगर स्कूल प्रबंधन पर सवर्णों का अधिकार था। वे पुलायार और दूसरे दलित बच्चों के स्कूल प्रवेश से आनाकानी करते थे। 1904 में अय्यंकाली ने दलितों की शिक्षा के लिए आंदोलन आरंभ कर दिया। पुलायार और दूसरे अछूतों की शिक्षा के लिए उन्होंने उसी वर्ष वेंगनूर में पहला स्कूल खोला। वह केरल का पहला स्कूल था, जिसे केवल दलितों के अध्ययन के लिए खोला गया था। दलितों के लिए वह आशा की किरण जैसा था। परंतु सवर्णों से वह बर्दाश्त न हुआ। उन्होंने स्कूल पर हमला कर, उसे तहस-नहस कर दिया। अय्यंकाली के लिए वह बड़ा धक्का था। लेकिन निरंतर संघर्ष ने उनकी जिजीविषा को बढ़ा दिया था।
संघर्ष को सांस्थानिक रूप देने के लिए अय्यंकाली ने साधु जन परिपालन संघम नामक संस्था का गठन किया। उसका उद्देश्य था, पुलायार तथा दूसरे दलितों को शिक्षा के लिए प्रेरित करना। औपनिवेशिक सरकार भी दलितों में शिक्षा के प्रसार के लिए प्रयासरत थी। उस समय मिशेल त्रावणकोर शिक्षा विभाग के निदेशक थे। दलितों के लिए शिक्षा को लेकर अय्यंकाली ने अपनी संस्था के माध्यम से कई पत्र त्रावणकोर के दीवान और शिक्षा निदेशक को लिखे। औपनिवेशिक सरकार की नीति के चलते दीवान ने दलितों की शिक्षा के लिए 1907 में आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए थे। लेकिन आदेशपत्र जारी होने को जानबूझकर रोका गया था। अय्यंकाली द्वारा लगातार लिखने पर मिशेल को उसकी जानकारी मिली। उन्होंने दीवान को उस आदेश पर तत्काल अमल करने का आग्रह किया। अंतत: 1910 में आदेशपत्र जारी हुआ, परंतु स्कूल प्रबंधकों में जिनमें जमींदार सम्मिलित थे, उस आदेश पर अमल करने से इन्कार कर दिया।
इसपर अय्यंकाली 1 मार्च 1910 को पुजारी अय्यन की पांच वर्ष की बेटी पंचमी तथा अपने साथियों को लेकर उरूट अंबालम स्कूल, बलरामपुरम में पहुंचे। वहां अय्यंकाली समर्थकों तथा सवर्णों जिनमें नैय्यरों की संख्या सबसे ज्यादा थी, के बीच जमकर संघर्ष हुआ। गुस्साए नैय्यरों ने पुलायारों की बस्ती पर हमला कर दिया। उनके घर तहस-नहस कर डाले। उपद्रवी नैय्यर पुलायारों की बकरियों, जानवरों तथा गाड़ियों को लूटकर ले गए। औरतों और आदमियों को बुरी तरह से पीटा गया। जिसने भी सामना करने की कोशिश की, उसे बुरी तरह से दबा दिया गया। झोपड़ियों में आग लगा दी गई। सात दिनों तक पुलायारों की बस्ती से धूल और धुआं उड़ता रहा। चीख-पुकार की आवाजें आती रहीं। उरूट अंबालम स्कूल, बलरामपुरम् से उभरी चिंगारी हालांकि कुछ दिनों बाद शांत हो गई। लेकिन आसपास के इलाकों में उससे जो ज्वाला भड़की उसने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की याद दिला दी। उसने मायार्मुट्टम, वेंगनूर, पेरमबाझुथूर, कुनथकाल जैसे इलाकों को भी अपनी चपेट में ले लिया। केरल के मुख्य धारा के इतिहासकार उस घटना को पुलायार-विद्रोह के नाम से पुकारते हैं। उस विद्रोह में दलितों को जन और धन दोनों की भारी हानि हुई थी। उनके आगे रोजगार का संकट भी खड़ा हो चुका था। बावजूद इसके आजादी की ललक ऐसी थी कि तमाम विरोधों और दबावों के बावजूद आंदोलन आगे बढ़ता गया।
पुलायार आंदोलन जातीय दमन के विरोध में उठी आवाज थी। साम्यवादी विचारक उसे वर्ग-संघर्ष की तयशुदा सैद्धांतिकी के अंतर्गत देखते आए हैं। तथाकथित राष्ट्रवादी लेखकों, पत्रकारों की पुलायार आंदोलन को लेकर क्या राय थी। यह के। रामकृष्ण पिल्लई की टिप्पणी से पता चल जाता है। पिल्लई स्वदेशाभिमानी के संपादक थे। उन्हें कार्ल मार्क्स की जीवनी के अनुवाद का श्रेय भी दिया जाता है, जो मार्क्स के बारे में किसी भी भारतीय भाषा में प्रकाशित पहली पुस्तक थी। दलित बच्चों को स्कूल में भर्ती कराने की अय्यंकाली तथा उनके सहयोगियों की मांग तथा उसे सरकार के समर्थन पर पिल्लई ने अपने समाचारपत्र स्वदेशाभिमानी में जो लिखा वह त्रिवेणी संघ के नेताओं पर कांग्रेसी नेताओं की टिप्पणी की याद दिलाता है। त्रिवेणी संघ के नेता जब कांग्रेस के पास टिकट लेने गए तो उसके नेताओं ने न केवल इन्कार कर दिया, अपितु उनका उपहास उड़ाया गया। टिकट मांगने पर किसी को कहा जाता कि वहां(संसद और विधानसभा) क्या साग-भंटा बोना हैङ्घ.किसी को कहा जाता कि वहां क्या भैंस दुहनी है? किसी को ताना मारा जाता कि वहां क्या भेड़ें चरानी हैं? किसी को यह कहकर फटकार दिया जाता कि वहां क्या नमक-तेल तौलना है। रामकृष्ण पिल्लई ने इतनी तीखी भाषा का प्रयोग तो नहीं किया, मगर वे सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों के प्रवेश के सख्त विरोधी थे। अपने समाचारपत्र में उन्होंने लिखा था कि दलित बच्चों को सरकारी स्कूलों में भर्ती का आदेश अनपढ़-गंवार और पीढ़ियों से मेहनत-मजदूरी पर गुजर-बसर करते आए लोगों, के बच्चों को उन बच्चों के साथ जोड़ देना है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने दिमाग को तराशते हुए आए हैं। यह घोड़े और भैंस को एक ही गाड़ी में जोत देने जैसा है।
नया स्कूल खोलना जितना कठिन था, उससे कहीं अधिक कठिन था, उसमें पढ़ाई की व्यवस्था करना। उन दिनों में दलितों में कोई पढ़ा-लिखा था नहीं। अय्यंकाली अशिक्षित थे। समस्या थी कि पढ़ाए कौन? जो पढ़े-लिखे थे उनमें से कोई आगे नहीं आ रहा था। सरकार उस समय दलितों के स्कूल में पढ़ाने के लिए छह रुपये महीना देती थी। किसी को आगे न आते देख मासिक वृत्तिका को बढ़ाकर नौ रुपये कर दिया गया। तब, लंबी प्रतीक्षा और कोशिशों के बाद परमेश्वरन पिल्लई नाम का एक युवक पढ़ाने के लिए तैयार हुआ। परमेश्वरन तिरुवनंतपुरम के कैथमुक्कू गांव का रहने वाला था। जिन संस्कारों के बीच वह पला-बढ़ा था, वे अछूतों के संपर्क में आने की अनुमति नहीं देते थे। पहले दिन जब वह स्कूल पहुंचा तो इसी ऊहापोह से घिरा हुआ था। उस समय उसकी प्रगतिगामी मेधा और सामाजिक-सांस्कृतिक कुंठाओं के बीच द्वंद्व जारी था। उस घटना का उल्लेख ग्रीश्मा ग्रीश्मम ने अपने आलेख डेस्टिनी चेंजिज में इस प्रकार किया है—
नए अध्यापक ने स्कूल में अनिच्छापूर्वक ऐसे प्रवेश किया, मानो वह किसी कूड़ाघर में जा रहा हो। उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक कुंठा तथा प्रगतिगामी के बीच द्वंद्व छिड़ा हुआ था। वह बहुत डरा हुआ था। स्थिति तनावपूर्ण थी। उसी क्षण स्कूल को चारों ओर से घेरे खड़े लोगों ने शोर मचाना आरंभ कर दिया। अय्यंकाली के समर्थक और विरोधी एक-दूसरे के आमने-सामने थे। अफरा-तफरी का माहौल था। तभी एक व्यक्ति अध्यापक की ओर बढ़ा, जो मारे भय के बुरी तरह कांप रहा था। जैसे-तैसे अध्यापक को कक्षा तक पहुंचाया गया। दिन में कक्षाएं चलीं। मगर रात होते ही सवर्णों का दल फिर आ पहुंचा। देखते ही देखते, स्कूल को उजाड़ दिया गया। अय्यंकाली और उनके विरोधियों में मानों होड़ मची थी। बिना किसी विलंब के स्कूल का नया ढांचा खड़ा कर दिया गया। अध्यापक को सुरक्षित लाने-ले जाने के लिए रक्षक लगा दिए गए। तनाव और आशंकाओं के बीच स्कूल फिर चलने लगा।
जैसे-जैसे अय्यंकाली का आंदोलन तेज हो रहा था, वैसे-वैसे उनके विरोधी भी बढ़ते जा रहे थे। उसकी प्रतिक्रिया में दलितों के बीच स्वतंत्रता और समानता को लेकर चेतना भी जाग्रत हो रही थी। उनकी आंखें सपने देखने लगी थीं। इसके साथ-साथ अय्यंकाली की सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ रही थी। सामाजिक उत्थान की दिशा में उनके योगदान की उपेक्षा करना असंभव हो चला था। 1888 में त्रावणकोर में विधायिका परिषद की स्थापना की गई थी। उसके आठ सदस्य थे। उसके पीछे त्रावणकोर के राजा श्रीमूलमथिरुनाल रामवर्मा की प्रेरणा थी जो प्रशासन में जनप्रतिनिधियों को सम्मिलित करना चाहते थे। 1904 तक व्यापारी, जमींदार, ही श्री मूलम पोपुलर असेंबली के सदस्य बन सकते थे। प्रत्येक जिला प्रमुख द्वारा दो सदस्यों का चयन किया जाता था। कोई भी जमींदार जो कम से कम 100 रुपये सालाना लगान देता हो, अथवा व्यापारी जिसकी सालाना आय 6000 रुपये से अधिक हो, वह चुना जा सकता था।
1912 में अय्यंकाली को श्री मूलम पोपुलर असेंबली का सदस्य चुन लिया गया, उसके बाद वे मृत्युपर्यंत उस पद पर बने रहे। अय्यंकाली पहले दलित थे जिन्हें औपनिवेशिक भारत में राज्य विधायिका का सदस्य मनोनीत किया गया था। विधायिका के सत्र के दौरान, राजा और दीवान की उपस्थिति में अय्यंकाली ने जो भाषण दिया उसमें उन्होंने दलितों के संपत्ति अधिकार, शिक्षा, राज्य की नौकरियों में विशेष आरक्षण दिए जाने तथा बेगार से मुक्ति जैसे मसलों पर बात की थी। 4 मार्च 1912 को अय्यंकाली द्वारा राज्य की विधयिका में दिए गए भाषण का ऐतिहासिक महत्त्व है। वह सरकार के सामने दलित हितों को लेकर उठने वाली किसी दलित की पहली आवाज थी। उसमें अय्यंकाली ने कहा था ‘पुलायारों के प्रतिनिधि के रूप में मैं सरकार को, हमारे बच्चों को वैंगनुर ऐलीमेंट्री स्कूल, दक्षिणी त्रावणकोर के विद्यालयों में प्रवेश के लेकर की गई मदद के लिए अपना आभार प्रकट करना चाहता हूँ। अभी तक पुलायार जाति के बच्चों के प्रवेश के केवल सात स्कूलों को अनुमति दी गई है। मैं चाहता हूं कि राज्य के सभी स्कूलों में हमारे बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो। पुलायार अपने बच्चों को उन सभी स्कूलों में भर्ती करा सकते हैं, जिनमें इड़ावा जाति के बच्चों को प्रवेश की अनुमति है।’
दीवान ने टोका। अय्यंकाली ने कहना जारी रखा -‘‘नए बच्चों को फीस में में छूट दी जा सकती है। सरकार मुस्लिम बच्चों को फीस में छूट देती है, जो हमसे कहीं आगे हैं। पुलायार बच्चों को भी वैसी ही छूट मिलनी चाहिए।’
दीवान ने कहा, ‘क्या पुलायारों के बच्चे मुस्लिमों की तरह फीस में छूट नहीं ले रहे हैं? मेरा मानना है कि ऐसा होना चाहिए।’
अय्यंकाली ने कहा, ‘पुलायारों को इंजीनियर, स्वास्थ तथा औषध विभाग में भर्ती किया जा सकता है। उनमें कई योग्य सदस्य हैं, जिन्हें शिक्षा विभाग में भर्ती किया जा सकता है। हालांकि पुलायारों को सड़कों पर चलने, कानून की मदद लेने, अदालत जाने के अधिकार के संबंध में शाही आदेश जारी हो चुका है, इसके बावजूद उन्हें रोका जा रहा है। कुछ लोग इसमें बाधा डाल रहे हैं। हमें राहत पहुंचाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए।’
अय्यंकाली द्वारा पुलायार बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में आ रही परेशानियों को विधान परिषद में लगातार उठाए जाने से सरकार चेती। 1914 में सरकार ने शिक्षा-नीति पर कठोरता से पालन के आदेश दे दिए। शिक्षा निदेशक मिशेल स्वयं हालात का पता लगाने के लिए दौरे पर निकले। मिशेल के आने की खबर से अधिकारी सचेत हो गए। दलित विद्यार्थियों के प्रवेश को और अधिक लटकाना संभव न था। मिशेल की आगमन की खबर सुनकर जब स्कूल प्रशासन हरकत में आया। लेकिन दलित विद्यार्थियों को स्कूल में प्रवेश करते देख सवर्णों ने हंगामा कर दिया। उपद्रवी भीड़ ने मिशेल की जीप को आग लगा दी। बावजूद इसके वह अधिकारी सरकारी आदेश का पालन करने के लिए डटा रहा। उस दिन आठ पुलायार छात्रों को प्रवेश मिला। उनमें 16 वर्ष का एक किशोर भी था जो पहली कक्षा में प्रवेश के लिए आया था।
यह अय्यंकाली की जीत थी, परंतु समस्याओं का यही अंत नहीं था। सवर्णों ने अपने बच्चों के दिमाग में भी जहर घोला हुआ था। दलित बच्चे पढ़ाई के लिए जैसे ही कक्षा में प्रवेश करते, वे दूसरे दरवाजे से बाहर निकल जाते थे। इससे अध्यापकों को बहाना मिला। वे दलित छात्रों को प्रवेश देने से फिर आनाकानी करने लगे। इससे दलितों का आक्रोश भड़क पड़ा। वे स्कूल का सवर्णों द्वारा विरोध के खिलाफ फिर सड़क पर उतर आए। अय्यंकाली उनका नेतृत्व कर रहे थे। झगड़े हुए। त्रावणकोर के कई शहरों में सांप्रदायिक दंगों जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। अय्यंकाली ने सरकार के सामने मुद्दे को उठाया। कानून का हवाला दिया। उसके फलस्वरूप सवर्णों के हिंसक विरोध के बावजूद दलित विद्याथिर्यों की संख्या बढ़ती गई। 1913-16 के दौरान नैय्यर विद्यार्थियों की संख्या में कुल वृद्धि 45 प्रतिशत, ईसाई विद्यार्थियों की 50 प्रतिशत, मुस्लिमों की लगभग 100 प्रतिशत रही जबकि दलितों में परायस जाति के विद्यार्थियों की संख्या में 400 प्रतिशत और पुलायार विद्यार्थियों की संख्या में सीधे 600 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। इससे अय्यंकाली के प्रभाव तथा उनके आंदोलन की गंभीरता को समझा जा सकता है।
साधु जन परिपालन संघम
अय्यंकाली ने सवर्णों से सीधे टकराव मोल लिया था। उनकी कार्यशैली आंख में आंख डालकर बात करने की थी। लेकिन यह सब आसान काम नहीं था। जनसंख्या की दृष्टि से पुलायार कोई बड़ी ताकत नहीं थे। बावजूद इसके यदि अय्यंकाली को अपेक्षित कामयाबी मिली तो इसके पीछे उनकी दूरदृष्टि, कुशल नेतृत्व क्षमता और साहस का बड़ा योगदान था। उन दिनों सरकार और समाज के सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर सवर्ण जातियों का वर्चस्व था। उनमें भी सर्वाधिक संख्या ब्राह्मणों की थी। ज्ञान के सभी महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर उनका अधिकार था। सवर्ण जातियां डरती थीं कि पढ़ने-लिखने का अधिकार मिलते ही उन्हें मुफ्त में मिलने वाले श्रम से हाथ धोना पड़ेगा। इसलिए वे एकजुट होकर दलित शिक्षा का विरोध करते थे। उन्हें शिक्षा से वंचित रखने के पीछे भी यही कारण था। जबकि सरकार सभी को समान शिक्षा का कानून उनीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही पास कर चुकी थी। मगर कानून में अमल का काम जिन अधिकारियों के जिम्मे था, उनमें लगभग सभी सवर्ण होते थे। इसलिए दलित कल्याण से जुड़े कानून सिर्फ कानून बनकर रह जाते थे। अय्यंकाली जानते थे कि बड़ी कामयाबी दूसरों की दया पर नहीं आती। पुलायार यदि अपने बच्चों को शिक्षित करना चाहते हैं तो उन्हें विरोधियों से स्वयं निपटना होगा। इसलिए उन्होंने जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता तैयार किए थे, जो अय्यंकाली के कहने पर मरने-मारने को तैयार रहते थे। उनके मार्गदर्शन के लिए बड़े संगठन की आवश्यकता थी। उसके लिए अय्यंकाली ने 1907 में साधु जन परिपालन संघम की स्थापना की थी। उस संगठन में उन सभी जातियों का स्वागत था जो जाति और वर्गभेद के आधार पर शताब्दियों दमन और शोषण का शिकार बनती आई थीं।
संस्था के गठन के साथ ही अय्यंकाली को ईसाई, आर्यसमाजी और हिंदू सुधारवादी संगठनों की ओर से बुलावा आने लगा। वे अय्यंकाली के प्रभाव का लाभ उठाकर पुलायार और दूसरी दलित जातियों में अपनी पैठ बनाना चाहते थे। अय्यंकाली यूं भारत की संत-परंपरा में विश्वास रखते थे। नारायण गुरु, स्वामी सदानंद जैसे सुधारवादी धर्मगुरुओं का उनपर प्रभाव था। बावजूद इसके वे अपने आंदोलन को धार्मिक होने से बचाना चाहते थे। उनका मुख्य ध्येय दलितों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान था। उसके लिए शिक्षा सबसे जरूरी उपकरण थी। इसलिए उन्होंने धार्मिक संगठनों से दूरी बनाए रखी। वैसे भी वे संगठन को शक्ति के स्तर पर भी आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे, जो धार्मिक संगठनों और धमार्चार्यों की छत्रछाया में असंभव था। साधु जन परिपालन संघम पर नारायण गुरु की संस्था श्रीनारायण धर्मपरिपालन संघम का असर था। संस्था के संचालन की जिम्मेदारी थॉमस वाडियार को सौंपी गई थी। वह पेशे से अध्यापक तथा अय्यंकाली के रिश्तेदार और भरोसेमंद थे। संघम की आरंभिक बैठकों में लिए गए फैसलों से अय्यंकाली के आधुनिक सोच का अनुमान लगाया जा सकता है।
उस संस्था के प्रमुख संकल्प थे—
1. प्रति सप्ताह कार्यदिवसों की संख्या 7 से घटाकर 6 पर सीमित करना
2. श्रमिकों को एक दिन का अवकाश तथा
3. कार्य के दौरान मजूदरों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार से मुक्ति
‘साधु जन परिपालन संघम’ का मुख्य कार्यालय वैंगनूर में बनाया गया था। वहां एक कांन्फ्रेंस हाल और पुस्तकालय भी था। संघम की ओर से नियम बनाया गया था कि सभी सदस्य सप्ताह में एकदिन, अपनी समस्याओं पर विचार करने के लिए अवश्य जमा होंगे। मासिक सदस्यता शुल्क भी निर्धारित की गई थी। संस्था की स्थापना के साथ ही स्त्री-पुरुष दोनों उससे जुड़ने लगे। देखते ही देखते उसकी शाखाएं केरल और तमिलनाडु के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में खुलने लगीं। लोग उनकी बैठकों में नियमित रूप से आने लगे। संगठन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी उत्साहवर्धक थी। इसका अनुमान उनके द्वारा किए गए सहयोग से भी लगाया जा सकता है। संघम को अपने दैनिक खर्चों के लिए धन की आवश्यकता थी। उसके लिए दलित स्त्रियां पिडीयारी(मुट्ठी-मुट्ठी भर चावल जुटाना) बेचकर संघम की मदद करने लगीं। इससे उसका प्रभावक्षेत्र और कार्यक्षेत्र दोनों बढ़ते गए।
संघम की पैठ जीवन के हर क्षेत्र में थी। उस समय तक अदालतें स्थापित हो चुकी थीं। परंतु अछूतों के अदालत का न्याय प्राप्त करना आसान न था। अदालतों में काम करने वाले सभी उच्च जाति के थे। यदि कोई दलित अदालत जाने का साहस भी करता तो, वहां मौजूद लोग उसका भरपूर शोषण करते थे। अछूतों के बारे में बनी-बनाई धारणा थी, इसलिए सजा देते समय भी पक्षपात किया जाता था। अछूतों को वैकल्पिक न्यायतंत्र की आवश्यकता थी। उसे देखते हुए अय्यंकाली ने वह किया, जिसकी उम्मीद किसी अशिक्षित व्यक्ति से कम ही की जाती है। अछूतों के आपसी झगड़ों के समाधान के लिए अय्यंकाली ने सामुदायिक न्यायालयों समुदाय कोदाथी की स्थापना की। उसका मुख्य केंद्र वेंगनूर में बनाया गया। केंद्रीय कार्यालय में पुस्तकालय और एक कांफ्रेंस हॉल भी बनाया गया था, जहां नियमित बैठकों की व्यवस्था की गई थी। संघम के प्रत्येक कार्यालय में स्थानीय अदालतों का गठन किया गया। सामुदायिक न्यायालयों की संरचना एकदम औपचारिक न्यायालयों जैसी ही थी। वैसे ही वकील, जज, पुलिस, समन पहुंचाने के लिए बैलिफ (दूत), मुंशी वगैरह। यहां तक कि शाखा अदालत के निर्णय के विरुद्ध अपील की व्यवस्था भी थी। कोई भी पीड़ित सामुदायिक अदालत के मुख्य कार्यालय में जाकर, शाखा अदालतों के फैसले के विरुद्ध अपील कर सकता था। जहां स्वयं अय्यंकाली मुख्य न्यायाधीश के रूप में मौजूद रहते थे।
लोगों के मनोरंजन तथा सांस्कृतिक एकता को बढ़ाने के लिए समाजं की स्थापना की गई थी। समाजं में लोग इकट्टा होकर लोकनृत्य, गाना-बजाना करते थे। नाटक भी खेले जाते थे। उनके माध्यम अय्यंकाली सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध चेतना जगाने का काम करते थे। बाद में समाजं ने जरूरतमंद पुलायार विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल का निर्माण भी किया। साधु जन परिपालिनी संघम ने केरल के दलितों के बीच चेतना फैलाने का काम किया। उसके प्रभाव में लोग सप्ताज में एक दिन अवकाश करने लगे। रविवार को अवकाश के दिन लोग मिलते-जुलते, समाजं की गतिविधियों में हिस्सा लेते और भविष्य के लिए कार्यक्रम बनाते थे।
पहली श्रमिक हड़ताल
अय्यंकाली दलितों की शिक्षा के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे थे। कानून बन चुका था। सरकार साथ थी। मगर सवर्ण जो कि बाहरी थे, उनका विरोध जारी था। इस मुद्दे पर आमने-सामने के टकराव भी हो चुके थे। लगातार दबाव पड़ने से सवर्ण विवश हुए थे। पुलयारों सहित दूसरे दलितों को स्कूलों में प्रवेश मिलने लगा था। मगर वे इतनी जल्दी हार मानने को तैयार न थे। उन्होंने पुलायारों को काम के दौरान तंग करना शुरू कर दिया था। लेकिन अय्यंकाली आंदोलन को भटकने से रोकना चाहते थे। उनके सामने प्रमुख मुद्दे थे। अछूतों को शिक्षा, रोजगार और भूमि में हिस्सेदारी। विधान परिषद के सदस्य के रूप में वे इन मांगों को सरकार के सामने उठा चुके थे। उन्हें उम्मीद थी कि समय के साथ दलितों के प्रति सवर्णों के रुख में नर्मी आएगी। लेकिन सवर्णों के रवैये में कोई बदलाव न हुआ। आखिरकार अय्यंकाली को दबाव की रणनीति अपनानी पड़ी।
यह 1907 की घटना है। रूस की बोल्शेविक क्रांति से भी एक दशक पहले की, जब श्रमिकों ने अपने श्रम का इस्तेमाल अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए किया था। त्रावणकोर राज्य में सर्वाधिक जमीन नैय्यरों के अधिकार में थी। पुलायार उन्हीं के खेतों में मेहनत-मजूदरी करते थे। एक तरह से बेगार, क्योंकि पूरे दिन की मजदूरी के बदले उन्हें मात्र छह सौ ग्राम चावल प्राप्त होता था, वह भी मालिक की मर्जी से। अछूत बच्चों की पढ़ाई में आ रही अड़चन को देखते हुए पुलायारों ने घोषणा कर दी कि वे खेतों में उस समय तक काम नहीं करेंगे, जब तक उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश और बाकी अवसर नहीं दिए जाते। जमींदारों ने इसे हंसकर टाल दिया। उन्हें लगता ही नहीं था कि पुलायार हड़ताल के बारे में सोच भी सकते हैं। जिनके घर चूल्हा ही मजूदरी मिलने के बाद जलता हो, उनके बारे में ऐसा सोचना नाममुकिन भी नहीं था। सो कुछ लोग उपहास में उंगलियों पर हिसाब लगाने लगे कि पुलयारों के घर में उपलब्ध राशन के हिसाब से हड़ताल कितने दिन खिंच सकती है—एक दिन...दो दिन...ढाई दिन....उसके बाद तो उन्हें सिर झुकाकर आना ही पड़ेगा।
उन दिनों आज की तरह न टेलीफोन थे, न रेडियो, न ही टेलीविजन। पचास-साठ किलोमीटर की बात हो तो आने-जाने में ही दो दिन लग जाते थे, जबकि वहां तो मामला सैंकड़ों किलोमीटर में फैला हुआ था, लेकिन पुलायारों की आंखों में भविष्य का सपना था और थी, उस सपने के लिए कुछ भी बलिदान करने की जिद। सो हड़ताल खिंचती चली गई, धीरे-धीरे उसमें दूसरी मांगें भी सम्मिलित होती चली गईं;
जैसे कि—
1. नौकरी को स्थायी किया जाए
2. दंड या दुर्व्यवहार से पहले उचित जांच होनी चाहिए। केवल अनुमान या दूसरों के कहने पर दंड देने से बचा जाए।
3. कामगारों को झूठे मुकदमों में फंसाने पर रोक।
4. मजदूरों के साथ अनुचित मारपीट पर तात्कालिक रोक
5. सार्वजनिक मार्गों पर चलने की स्वतंत्रता
6. दलित बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश
इसके अलावा एक और मांग थी, परती और खाली पड़ी जमीन को उपजाऊ बनाने वाले को उसका मालिकाना हक देने की। कुछ लोगों को दलितों का काम करने से इन्कार करना, हड़ताल पर जाना ही अनुचित लगा। वे लोग समूह बनाकर पुलायारों को डराने धमकाने भी लगे। मार-पीट की घटनाएं भी हुईं। इन सब घटनाओं का अय्यंकाली को पहले से ही अंदेशा था। इसलिए हालात से निपटने के लिए उन्होंने अपने समर्थकों को तैयार किया हुआ था। जमींदार के लोगों ने मजदूरों को डराना-धमकाना आरंभ किया तो संगठन के लोग बीच में आ गए। इससे झगड़े और मार-पीट की नौबत आ गई। उसमें ज्यादा नुकसान दलितों को हुआ, लेकिन वे हड़ताल पर डटे रहे। वह धान की रोपाई के दिन थे। देर होने से फसल कमजोर होने की संभावना थी। कुछ जमींदारों ने खुद सारा काम करने की कोशिश की। लेकिन उन्हें काम करने का अभ्यास नहीं था, इस कारण वे बीमार पड़ने लगे। जितने काम को कोई पुलायार अकेला कर देता था, उतना काम छह-छह नैय्यर मिलकर भी नहीं कर पाते थे। अगर वे मजदूर खोजने जाते तो मजदूर मुंह-मांगी मजदूरी मांगता था। नतीजा यह हुआ कि खेत जंगल में बदलने लगे। हड़ताल का लंबा खिंचना पुलायारों के लिए भी समस्या थी। अधिकांश लोग मजदूरी पर पलते थे। उनके घर में खाने की समस्या पैदा होने लगी। समाचार नैय्यरों तक पहुंचा तो वे बहुत खुश हुए। लगा कि एक-दो दिन से ज्यादा हड़ताल खिंच नहीं पाएगी। उसी समय अय्यंकाली ने अपना तुरुप का इक्का चल दिया। वे विझिंजोम में समंदर से मछलियां पकड़ने वाले मछुआरों के पास गए। उनसे कहा कि वे एक-एक पुलायार को अपने साथ नाव पर रखें और बदले में अपनी आय का एक हिस्सा उसे दें।
मछुआरे स्वयं जातीय भेदभाव और शोषण का शिकार थे। उन्होंने अय्यंकाली के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। इससे क्षुब्ध जमींदारों ने पुलायारों की बस्ती में आग लगा दी। आंख में आंख डालकर बात करने वाले अय्यंकाली ने उसी अंदाज में उसका जवाब दिया। उनकी सेना ने जमींदारों के घरों में आग लगाना आरंभ कर दिया। गांव में जमींदार इक्का-दुक्का ही होते थे। जबकि दलितों की संख्या अधिक होती थी। एक बार बस्ती में आग लगा देने से उनका बड़ा नुकसान तो होता था, मगर बाद में जले हुए को समेटना बाकी रह जाता था। लेकिन जमींदारों पर हमले से उनका कहीं ज्यादा नुकसान होता था। यह डर भी लगा रहता था कि न जाने कहां ओर किधर से विद्रोही चले आएं। इससे उनमें भय का संचार होने लगा। अय्यंकाली चाहते थे कि जमींदार स्वयं समझौते के लिए आएं। वही हुआ भी। अंतत: जमींदारों को ही समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा। 1 मार्च 1910 को सरकार ने विद्यालयों में प्रवेश संबंधी कानून बनाकर पुलायार तथा दूसरे दलितों के लिए शिक्षा में प्रवेश का रास्ता साफ कर दिया। उसके अलावा मजदूरी में वृद्धि, सार्वजनिक मार्गों पर आने-जाने की आजादी जैसी मांगें भी मान ली गईं। वह भारतीय इतिहास में मजदूरों की प्रथम हड़ताल थी, बोल्शेविक क्रांति से पहले की, जिसने वहीं किया था, जिसकी मांग कभी कार्ल मार्क्स ने की थी। ईएमएस नंबूदरीपाद ने अय्यंकाली के आंदोलन पर कुछ नहीं लिखा, लेकिन एक लेख में वे अय्यंकाली के इशारे पर बुलाई गई पहली श्रमिक हड़ताल की चर्चा करने से रोक नहीं पाते :
‘अय्यंकाली केवल दलितों के नेता नहीं थे। वे खेतिहर मजदूरों के भी नेता थे। उनके आंदोलन में धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों के अलावा उच्च जातियों के लोग भी सम्मिलित थे। आधुनिक केरल के नवनिर्माण में अय्यंकाली का योगदान नारायण गुरु जितना ही है। दलित बहुजनों को संगठित कर, उनके हक की लड़ाई लड़ने वाले अय्यंकाली नारायण गुरु की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, जिन्होंने पिछड़ी जाति के इझ़वाओं को संगठित कर, उनके अधिकारों के लिए संघर्ष किया था...’
पुन: केरल के मुख्यमंत्री के रूप में अय्यंकाली तथा 1907 की श्रम-हड़ताल को याद करते हुए उन्होंने कहा था—1907 में अय्यंकाली ने खेतिहर मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व किया था, उन्होंने बिखरे हुए और असंगठित श्रमिकों को एकजुट कर, उन्हें संगठित ताकत में बदलने में कामयाबी हासिल की थी।
महिलाओं के उभोवस्त्र-अधिकार के लिए संघर्ष
स्तन ढकने के अधिकार के विरोध में नंगेली द्वारा राज्य के अधिकारियों को अपने स्तन काटकर दे देने की घटना का उल्लेख पीछे किया जा चुका है। त्रावणकोर राज्य की दलित महिलाओं के साथ त्रासदी थी कि उन्हें अपना वक्ष ढकने का अधिकार प्राप्त नहीं था। केवल घुटने से कटि तक हिस्सा वे ढक सकती थीं। वक्ष के ऊपर के हिस्से पर वे केवल गहने पहनने की छूट थी। उन्हें सोने या चांदी के गहने धारण करने का अधिकार नहीं था। पत्थर का कंठहार उनके गुलाम होने की निशानी था। वह भी काले ग्रेनाइट पत्थर के। उल्लंघन करने पर उन्हें पेड़ से बांधकर कोड़े की सजा दी जाती थी। पत्थर के कंठहार वे चाहे जितने पहन सकती थीं। उसी तरह का आभूषण उनकी कलाई पर भी बंधा रहता था। कानों के लिए लोहे की बालियां पहननी पड़ती थीं, जिन्हें कुनुक्कु कहा जाता था। अय्यंकाली दलितों की सर्वांग मुक्ति चाहते थे। महिलाएं भी उनके मुक्ति आंदोलन का हिस्सा थीं।
गुलामी के प्रतीक उन आभूषणों से मुक्ति के लिए अय्यंकाली ने दक्षिणी त्रावणकोर के नियत्तिंकर नामक स्थान से आंदोलन की शुरूआत की। सभा में आई स्त्रियों से उन्होंने कहा कि वे दासता के प्रतीक इन आभूषणों को त्यागकर सामान्य ब्लाउज धारण करें। इसपर सवर्णों की तुरंत प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने धमकी दी कि पुरानी परिपाटी को तोड़ने का अंजाम बुरा हो सकता है। लेकिन अय्यंकाली को शुरू से ही ऐसी चुनौतियों का सामना करने की आदत थी। उसके बाद दंगे शुरू हो गए। स्थिति उस समय और बिगड़ गई जब सेंट्रल त्रावणकोर के पुलायार नेता गोपालदास ने स्त्रियों की सभा बुलाकर पत्थर के आभूषणों को फेंक कर, सामान्य बलाउज पहनने का आवाह्न किया। उसकी परिणति त्रावणकोर के अलग-अलग क्षेत्रों में दंगों के रूप में हुई। दलित यहां तक कि औरतें भी पीछे हटने या समझौता करने को तैयार न थीं। दंगों में दोनों ही पक्षों को भारी नुकसान हुआ। दलित हार मानने को तैयार न थे। अंतत: दोनों पक्षों को समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा। जीत अय्यंकाली की ही हुई। सरकार, नैय्यर नेताओं और अय्यंकाली के बीच समझौता हुआ। उसके बाद क्यूलोन नामक कस्बे में दलित औरतों की बड़ी सभा बुलाई गई। उसमें अय्यंकाली तथा नैय्यर सुधारवादी नेता चेगंनाचेरी परमेश्वरन पिल्लई की उपस्थिति में सैंकड़ों दलित महिलाओं ने गुलामी के प्रतीक ग्रेनाइट के कंठहारों को उतार फेंका।
आदर्श जनप्रतिनिधि
एक जनप्रतिनिधि के रूप में भी अय्यंकाली पुलायारों तथा दलितों के अधिकार की लड़ाई लड़ते रहते थे। पुलायारों के पास न तो अपना घर होता था, न ही खेती योग्य जमीन। खेतिहार मजूदर के रूप में, बेगार की तरह अपनी सेवाएं प्रदान करते थे। भूस्वामी उन्हें कभी भी बाहर निकाल सकता था। श्री मूलप्रजा सभा के सदस्य के रूप में उन्होंने पुलायारों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत, उनकी गरीबी और उसके कारण हो रही दुर्दशा के बारे में उन्होंने कई बार मुद्दा बैठकों में उठाया था। उन्होंने मांग की थी कि पुलायारों को रहने के लिए आवास तथा खाली पड़ी जमीन उपलब्ध कराई जाए। स्थानीय अधिकारी उनके पुलायारों द्वारा खेती योग्य बनाई गई भूमि को पहले ही उन्हें आवंटित कर चुके थे। लेकिन जमींदार उसमें बाधा बने हुए थे। अय्यंकाली द्वारा निरंतर उठाई गई मांग का परिणाम यह हुआ कि वैंगनूर से 6 किलोमीटर दूर विलंपिंसला में 300 एकड़ कृषि भूमि पुलायारों को आवंटित कर दी। इसके अतिरिक्त निदंमनगाद क्षेत्र के वूझमल्लुकल गांव में 200 सौ एकड़ भूमि उन्हें और दी गई। कुल 500 एकड़ भूमि को 500 पुलायार परिवारों के बीच, एक एकड़ प्रति परिवार के हिसाब से बांट दिया गया। यह अय्यंकाली की बड़ी जीत थी। भू-दास के रूप में खेती करते आए पुलायार अब अपनी भूमि पर खेती कर, आजादी से रह सकते थे।
विधानपरिषद के सदस्य के रूप में अय्यंकाली ने पुलायारों की सरकारी नौकरियों में अनुपस्थिति और बेरोजगारी का मुद्दा उठाया था। उन्होंने कहा था कि जब तक पुलायार अपेक्षित योग्यता प्राप्त नहीं कर पाते, उन्हें निचले दर्जे की या मजूदरी के काम पर लगाया जाए। उसके फलस्वरूप अनेक पुलायार युवाओं को सरकारी नौकरी मिली। उन्होंने धर्म पर सीधा हमला नहीं किया। मगर वे पुलायारों को पुरोहितों और धार्मिक आडंबरों से बाहर आने, आचरण की पवित्रता पर जोर देने तथा संगठित रहने की निरंतर अपील करते रहे। उनके प्रयासों से पुलायारों तथा दूसरे दलितों को 1912 में प्रजा सभा में मनोनीत किया गया, जिससे दलितों की राजनीतिक भागीदारी का रास्ता प्रशस्त हुआ।
अय्यंकाली 1904 से ही दमे की बीमारी का शिकार थे। मगर स्वास्थ्य की चिंता न करते हुए वे अपने समाज के कल्याण, उसे न्याय दिलाने के लिए निरंतर जूझते रहते थे। इसके लिए उन्होंने पूरे त्रावणकोर की यात्राएं की थीं। अंतत: 24 मई 1941 को उन्होंने पूरी तरह से बिस्तर पकड़ लिया। और 18 जून 1941 को मृत्यु की उस अनथक न्याय-योद्धा ने संसार छोड़ दिया। उम्र में अय्यंकाली जोतीराव फुले से 45 वर्ष छोटे थे, और पेरियार से 16 वर्ष बड़े। केरल में उन्होंने वही काम किया, जो फुले ने महाराष्ट्र और पेरियार ने तमिलनाडु में किया था। यह बात अलग है कि अय्यंकाली के योगदान की उपेक्षा हुई। आधुनिक केरल में स्त्रियां बाकी देश की अपेक्षा यदि ज्यादा साक्षर और जागरूक हैं तो उसका बहुत कुछ श्रेय अय्यंकाली को जाता है।
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