




2025-12-13 14:21:06
फिल्म जगत के महान गीतकार शैलेंद्र को सुनते हुए शायद कभी ये बात जेहन में नहीं आई होगी कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में कालजयी गीतों की रचना करने वाले शैलेन्द्र को कभी कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिला। उनका जीवन जातिय भेदभाव की परछाईयों के साये में आगे बढ़ा और बेहद मुफलिसी के बीच खत्म हुआ। इसी का नतीजा था कि शैलेंद्र सिनेमाई जमीं के अजीम फनकार होते हुए भी जाति के चलते भुला दिए गये।
शैलेन्द्र का असली नाम था शंकरदास केसरीलाल। वे मूलरूप से बिहार के आरा के धूसपुर गांव के धुसी चमार जाति के थे। उनका जन्म पाकिस्तान के रावलपिंडी में 30 अगस्त 1923 को हुआ था। उनके पिता सैना में अधिकारी थे। उनके पिता की तबियत खराब होने पर उनका परिवार जब बहुत मुश्किलों में फंस गया तो वे लोग उत्तर प्रदेश के मथुरा में उनके चाचा के पास आ गये। मथुरा से ही बेहद गरीबी के बीच शैलेन्द्र ने हाई स्कूल तक की पढ़ाई पूरी की। हाई स्कूल परीक्षा में शैलेन्द्र ने उत्तर प्रदेश में तृतीय स्थान प्राप्त किया। इलाज के पैसे ना होने की वजह से अपनी एकलौती बहन को उन्होंने आँखों के सामने ही खो दिया। बचपन में जब शैलेंद्र हॉकी खेला करते थे लेकिन साथ खेलने वाले लड़के उनकी जाति को लेकर बुरा व्यवहार करते थे। उन्हें अक्सर ये तंज सुनना पड़ता था कि अब ये लोग भी खेलेंगे। परेशान होकर उन्होंने खेलना ही छोड़ दिया। पढ़ाई पूरी कर के वे बम्बई आ गये वहाँ रेलवे में नौकरी की पर अधिकारियों के परेशान करने के कारण वह भी छोड़नी पड़ी। उन्हें कविता का शौक था ही, एक कविता पाठ समारोह में उनका राज कपूर से मिलना हुआ और यहीं से उनकी सिनेमा जगत में इंट्री भी हुई। शैलेन्द्र ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत गीत लिखे।
शैलेन्द्र कवि, गीतकार, अभिनेता, संवादलेखक और फिल्म निर्माता भी रहे हैं। अपनी पहली फिल्म तीसरी कसम के निर्माता एवं गीतकार शैलेन्द्र जी स्वयं ही थे। बद किस्मती से 1966 में बनी यह फिल्म शैलेन्द्र जी की आखिरी फिल्म रही। इस फिल्म के निर्माण के लिए शैलेन्द्र ने ऊंची ब्याज दर पर ऋण लिया था। लेकिन दुर्भाग्यवश न तो यह फिल्म समय पर रिलीज हो सकी और न ही इसका खास प्रचार हो सका। एक बेहतरीन फिल्म होने के बावजूद यह फिल्म खिड़की पर अधिक कमाई न कर सकी। इस प्रकार का शैलेन्द्र जी का पैसा डूब गया और वे कर्ज के बोझ तले दब गये। इस असफलता से शैलेन्द्र जी का मन सिने जगत से हट गया। यद्यपि तीसरी कसम फिल्म को राष्ट्रपति स्वर्ण पदक मिला। बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवॉर्ड और कई अन्य पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया। मास्को फिल्म फैस्टिवल में भी इस फिल्म को पुरस्कार मिला। इसकी कलात्मकता की लंबी चौडी तारीफे की गई। ऐसी बेहतरीन फिल्म शैलेन्द्र जैसा सच्चा कवि ह्दय ही बना सकता था। उन्होंने सिनेमा में काम करने के लिए अपना तखल्लुस या उपनाम को ही नाम के रूप में प्रयोग किया। ये वो दौर था जब दलितों और मुसलमानों को सिनेमा में सफल होने के लिए अपना नाम बदलकर अपनी पहचान छुपानी पड़ती थी। शैलेन्द्र के दलित होने की जानकारी उनकी मौत के बाद पहली बार सार्वजनिक तौर से तब सामने आयी जब वर्ष 2015 में उनके बेटे दिनेश शैलेंद्र ने अपने पिता की कविता संग्रह अंदर की आग की भूमिका में इसके बारे में लिखा। इस भूमिका को पढ़ने के बाद साहित्य जगत के मठाधीशों ने दिनेश को जातिवादी कहते हुए उनकी जमकर आलोचना की थी।
भारत में जब तथाकथित अपर कास्ट ब्राह्मण-क्षत्रिय होने की बात को छाती ठोक कर बताते हैं तो उनका ये जातिय दंभ सबको नॉर्मल लगता है। लेकिन वहीं पर जब कोई दलित अपनी आइडेंटिटी को लेकर असर्ट करता है तो उसे जातिवादी होने का तमगा थमा दिया जाता है।
बहरहाल शैलेंद्र ने तमाम मुश्किलों के बाद भी खुद के सपनों का पीछा किया और वो मुकाम हासिल किया जो आज तक कोई गीतकार हासिल न कर सका। वे हम बहुजनों के रोल मॉडल हैं। उन्हीं के शब्द हैं- तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर।
उन्होेंने 800 से ज्यादा गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीतों को बेहद लोकप्रियता हासिल हुई। इनमें आवारा’ ’दो बीघा जमींन’, ’श्री 420’, ’जिस देश में गंगा बहती है’, ’संगम, सीमा’, ’मधुमती’, ’जागते रहो’,’ गाइड’, ’काला बाजार’, ’बूट पालिस’, ’यहूदी, ,’पतिता’, ’दाग’, ’मेरी सूरत तेरी आंखें’, ’बंदिनी’, ’गुमनाम’ और ’ तीसरी कसम’ ज्वैल थीफ, दिल एक मंदिर, राजकुमार, चोरी-चोरी, अराऊंड द वर्ल्ड, बरसात, कठपुतली, ब्रह्मचारी, मुसाफिर, नागिन, आह, बसंत बहार, छोटी बहन, अनाड़ी, सूरत और सीरत, दिल अपना और प्रीत पराई, दूर गगन की छांव में, सुजाता, आरजू, बरसात, जंगली, असली-नकली, हरियाली और रास्ता, रात और दिन, सांझ और सवेरा, गुनाहों का देवता, दीवाना, हरे कांच की चूडियां, आस का पंक्षी, उसने कहा था, ससुराल, राजहठ, संगीत सम्राट तानसेन, लव मैरिज, कन्हैया, बम्बई का बाबू, एक गांव की कहानी, आशिक, एक फूल चार कांटे, दूर गगन की छांव में जैसी महान फिल्मों के गीत शामिल हैं।
उन्होंने अपने गीतों में वंचना का शिकार लोगों की पीड़ा को जुबान दी। अपने गानों में उन्होंने समता मूलक समाज निर्माण और मानवतावादी विचारधारा को शब्दों में पिरोया है। उन्होंने दबे-कुचले लोगों को संघर्ष का नारा दिया था।
हर जोर-जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है।
शैलेन्द्र जी के गाने बहुत ही ऐतिहासिक हैं और दिल की गहराईयों को छूने वाले हैं। उनके गाने आज भी हर आयु के लोग सुनना और गुनगुनाना पसंद करते हैं। उनके जन्म दिवस के मौके पर हर वर्ष मुंबई में ‘शैलेन्द्र नाइट’ का आयोजन किया जाता है जिसमें फिल्म जगत की सभी जानी मानी हस्तियां बड़े उत्साह के साथ शामिल होती हैं। शैलेन्द्र जी का 14 दिसंबर 1966 को मुंबई में निधन हो गया।





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