2024-07-20 12:04:08
नामदेव महाराज महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत है। उनका जन्म 26 अक्टूबर 1270 को हुआ। उनके पिता का नाम दामा सेठ और उनकी माता का नाम गोनई था। अपने पूर्वजो से ही वे टेलरिंग और कपडा प्रिंटिंग का काम करते थे। जानकारों के अनुसार नामदेव का जन्म महाराष्ट्र के सातारा जिले के कराड के पास नरसी वामनी ग्राम या मराठवाडा के परभणी में हुआ था। जबकि कुछ लोगो का मानना है की उनका जन्म महाराष्ट्र के पंढरपुर में हुआ, क्योकि उनके पिता भगवान विट्ठल के भक्त थे। नामदेवजी का विवाह कल्याण निवासी राजाई (राजा बाई) के साथ हुआ था और इनके चार पुत्र व पुत्रवधु यथा नारायण - लाड़ाबाई, विट्ठल - गोडाबाई, महादेव - येसाबाई , व गोविन्द - साखराबाई तथा एक पुत्री थी जिनका नाम लिम्बाबाई था। श्री नामदेव जी की बड़ी बहन का नाम आऊबाई था। उनके एक पौत्र का नाम मुकुन्द व उनकी दासी का नाम संत जनाबाई था, जो संत नामदेवजी के जन्म के पहले से ही दामाशेठ के घर पर ही रहती थी। संत शिरोमणि श्री नामदेवजी के नानाजी का नाम गोमाजी और नानीजी का नाम उमाबाई था।
संत नामदेवजी ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। विसोबा खेचर का जन्म स्थान पैठण था, जो पंढरपुर से पचास कोस दूर ओंढ्या नागनाथ नामक प्राचीन शिव क्षेत्र में हैं। इसी मंदिर में इन्होंने संत शिरोमणि श्री नामदेवजी को शिक्षा दी और अपना शिष्य बनाया। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे और उम्र में उनसे 5 साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत निवृत्तिनाथ, संत सोपानदेव इनकी बहिन बहिन मुक्ताबाई व अन्य समकालीन संतों के साथ पूरे महाराष्ट्र के साथ उत्तर भारत का भ्रमण कर अभंग(भक्ति-गीत) रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। संत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद दूसरे साथी संतों के साथ २इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी के साथ साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने अठारह वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ सिक्खों की धार्मिक पुस्तक गुरू ग्रंथ साहिब में मिलती हैं। इसमें संत नामदेवजी के 61 पद संग्रहित हैं।
सन्त नामदेवजी के समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ अलख निरंजन की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के विठोबा की उपासना भी प्रचलित थी। संत नामदेवजी पंढ़रपुर में वारी प्रथा शुरू करवाने के जनक हैं। इनके द्वारा शुरू की गई प्रथा अंतर्गत आज भी सामान्य जनता प्रतिवर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए पंढरपुर की वारी (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है), इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले वारकरी कहलाते हैं। विट्ठलोपासना का यह पंथ वारकरी संप्रदाय कहलाता है। श्री नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।
अनुक्रम
नामदेव जी का कालनिर्णय, जीवनचरित्र, नामदेव जी के मत, परलोक गमन, साहित्यक देन, ठाकुर को दूध पिलाना।
नामदेव जी का कालनिर्णय
वारकरी संत नामदेव के समय के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। मतभेद का कारण यह है कि महाराष्ट्र में नामदेव नामक पाँच संत हो गए हैं और उन सब ने थोड़ी बहुत अभंग और पदरचना की है। आवटे की सकल संतगाथा में नामदेव के नाम पर 2500 अभंग मिलते हैं। लगभग 600 अभंगों में केवल नामदेव या नामा की छाप है और शेष में विष्णुदासनामा की।
जीवन चरित्र
कुछ विद्वानों के मत से दोनों ‘नामा’ एक ही हैं। विष्णु (विठोबा) के दास होने से नामदेव ने ही संभवत: अपने को विष्णुदास नामा कहना प्रारंभ कर दिया हो। इस संबध में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार वि का राजवाड़े का कथन है कि नामा शिंपी (छीपा) का काल शके 1192 से 1272 तक है। विष्णुदासनामा का समय शके 1517 है। यह एकनाथ के समकालीन थे। प्रो॰ रानाडे ने भी राजवाड़े के मत का समर्थन किया है। श्री राजवाड़े ने विष्णुदास नामा की बावन अक्षरी प्रकाशित की है जिसमें नामदेवराय की वंदना की गई है। इससे भी सिद्ध होता है कि ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं और भिन्न भिन्न समय में हुए हैं। चांदोरकर ने महानुभावी नेमदेव को भी वारकरी नामदेव के साथ जोड़ दिया है। परंतु डॉ॰ तुलपुले का कथन है कि यह भिन्न व्यक्ति है और कोली जाति का है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबंध नहीं है। नामदेव के समसामयिक एक विष्णुदास नामा कवि का और पता चला है पर यह महानुभाव संप्रदाय के हैं। इन्होने महाभारत पर ओवीबद्ध ग्रंथ लिखा है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबंध नहीं है।
नामदेव विषयक एक और विवाद है। गुरु ग्रन्थ साहिब में नामदेव के 61 पद संग्रहित हैं। महाराष्ट्र के कुछ विवेचकों की धारणा है कि गुरुग्रंथ साहब के नामदेव पंजाबी हैं, महाराष्ट्रीय नहीं। यह हो सकता है, वह महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव का कोई शिष्य रहा हो और उसने अपने गुरु के नाम पर हिन्दी में पद रचना की हो। परंतु महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव ही के हिंदी पद गुरुग्रंथसाहब में संकलित हैं क्योंकि नामदेव के मराठी अभंगों और गुरुग्रंथसाहब के पदों में जीवन घटनाओं तथा भावों, यहाँ तक कि रूपक और उपमाओं की समानता है। अत: मराठी अभंगकार नामदेव और हिंदी पदकार नामदेव एक ही सिद्ध होते हैं।
महाराष्यट्रियन विद्वान वारकरी नामदेव जी को ज्ञानेश्वर का समसामयिक मानते हैं और ज्ञानेश्वर का समय उनके ग्रंथ ज्ञानेश्वरी से प्रमाणित हो जाता है। ज्ञानेश्वरी में उसका रचनाकाल 1212 शके दिया हुआ है। डॉ॰ मोहनसिंह दीवाना नामदेव के काल को खींचकर 14वीं और 15वीं शताब्दी तक ले जाते हैं। परंतु उन्होंने अपने मतसमर्थन का कोई अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। नामदेव की एक प्रसिद्ध रचना तीर्थावली है जिसकी प्रामाणिकता निर्विवाद है। उसमें ज्ञानदेव और नामदेव की सहयात्राओं का वर्णन है। अत: ज्ञानदेव और नामदेव का समकालीन होना साक्ष्य से भी सिद्ध है। नामदेव, ज्ञानेश्वर की समाधि के लगभग 55 वर्ष बाद तक और जीवित रहे। इस प्रकार नामदेव का काल शके 1192 से शके 1272 तक माना जाता है।
नामदेव जी के मत
बिसोबा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक ये सगुणोपासक थे। पंढरपुर के विट्ठल (विठोबा) की उपासना किया करते थे। दीक्षा के उपरांत इनकी विट्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के अनुसार इनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुण का काई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिंदी में सौ के लगभग पद रचे हैं। इनके पदों में हठयोग की कुंडलिनी-योग-साधना और प्रेमाभक्ति की (अपने राम से मिलने की) तालाबेली (विलभावना) दोनों हैं। निगुर्णी कबीर के समान नामदेव में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव विद्यमान है। कबीर के पदों में यत्र-तत्र नामदेव की भावछाया दृष्टिगोचर होती है। कबीर से पूर्व नामदेव ने उत्तर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जो निर्विवाद है।
परलोक गमन
आपने तीन बार तीर्थ यात्राएं की व साधु संतो के साथ भ्रमण करते रहे। ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई, त्यों त्यों आपका यश फैलता गया। आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया। आपके साथी संत ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए। जीवन के अंतिम दिनों में श्री नामदेवजी पुन: पंढरपुर आ गए और 21 जुलाई सन 1350 शनिवार को सपरिवार संजीवन समाधी’ लेकर मोक्ष प्राप्त किया। आज भी उनके भक्त इस दिन को ‘श्री नामदेव समाधि दिवस’ के रूप में याद करके अपने को धन्य समझते है। उन्होंने समाधि भी श्री विट्ठल भगवन के मंदिर में जाने वाली सीढ़ियों (जिसे मराठी में पायरी कहते है) में ली। उनकी अंतिम इच्छा भी यही थी की श्री हरि विट्ठल के दर्शनार्थ जो भी भक्त मंदिर में प्रवेश करे तब उनकी रज कण मेरे माथे पर पड़े और वो श्री विट्ठल के दर्शन करे आज भी वो स्थान ‘श्री नामदेव पायरी’ के नाम से जाना जाता है।
साहित्यक देन
नामदेव जी ने जो बाणी उच्चारण की वह गुरुग्रंथ साहिब में भी मिलती है। बहुत सारी वाणी दक्षिण व महाराष्ट्र में गाई जाती है। आपकी वाणी पढ़ने से मन को शांति मिलती है।
ठाकुर को दूध पिलाना
एक दिन नामदेव जी के पिता किसी काम से बाहर जा रहे थे। उन्होंने नामदेव जी से कहा कि अब उनके स्थान पर वह ठाकुर की सेवा करेंगे जैसे ठाकुर को स्नान कराना, मन्दिर को स्वच्छ रखना व ठाकुर को दूध चढ़ाना। जैसे सारी मयार्दा मैं पूर्ण करता हूँ वैसे तुम भी करना। देखना लापरवाही या आलस्य मत करना नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे। नामदेव जी ने वैसा ही किया जैसे पिताजी समझाकर गए थे। जब उसने दूध का कटोरा भरकर ठाकुर जी के आगे रखा और हाथ जोड़कर बैठा व देखता रहा कि ठाकुर जी किस तरह दूध पीते हैं? ठाकुर ने दूध कहाँ पीना था? वह तो पत्थर की मूर्ति थे। नामदेव को इस बात का पता नहीं था कि ठाकुर को चम्मच भरकर दूध लगाया जाता व शेष दूध पंडित पी जाते थे। उन्होंने बिनती करनी शुरू की हे प्रभु! मैं तो आपका छोटा सा सेवक हूँ, दूध लेकर आया हूँ कृपा करके इसे ग्रहण कीजिए।
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