2023-08-01 09:48:21
साल 1919 बैसाखी का दिन। पंजाब के अमृतसर में हजारों की तादाद में लोग एक पार्क में जमा हुए थे। रॉलेट एक्ट के तहत कांग्रेस के सत्य पाल और सैफुद्दीन किचलू को अंग्रेजों ने अरेस्ट कर लिया था। लोग वहां दोनों की गिरफ्तारी के खिलाफ शांति से प्रोटेस्ट कर रहे थे। जनरल डायर अपनी फौज के साथ वहां आ धमका। और घेर लिया पूरे बाग को। उसने न तो प्रदर्शनकारियों को जाने के लिए कहा और न ही कोई वार्निंग दी। डायर ने बस एक काम किया। अपनी फौज को फायरिंग करने का आॅर्डर दिया।
फिर शुरू हुआ नरसंहार। अंग्रेज उन मासूम लोगों पर दनादना गोलियां चलाने। उस फायरिंग में बहुत लोगों की जानें गईं। बाग का इकलौता एक्जिट गेट अंग्रेजों ने बंद कर रखा था। लोग बचने के लिए पार्क की दीवार पर चढ़ने लगे। कुछ जान बचाने के लिए कुएं में कूद गए। गोरों की इस हरकत से सब खिसियाए बैठे थे। पर इस घटना से एक इंसान था, जो इतना ज्यादा गुस्साया कि उसने जनरल डायर को टपका डालने का मन बना लिया। ये थे सरदार उधम सिंह। उधम सिंह की जिÞंदगी से जुड़े कुछ किस्सों पर नजर डाल लीजिए।
जन्म से लेकर अनाथालय तक
शहीद ऊधम सिंह के पिता पटियाली एटा के मूलनिवासी थे। जो 1880 में गांव सुनाम जिला संगरूर पंजाब में जाकर बस गये। आप चमार जाति में पैदा हुए। आपकी मां श्रीमती नारायणी देवी और पिताजी श्री चूहङराम जी थे। सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए आपके पिताजी पंजाब जाकर सरदार धन्ना सिंह के सम्पर्क में आये और सिख धर्म से प्रभावित होकर आपके पिता सरदार टहल सिंह और मां सरदारनी हरनामकौर बन गयीं। उनका जन्म 26 दिसम्बर 1899 में सुनाम पंजाब में हुआ था। 10 साल की उम्र में ही अनाथ हो गये। इनके बडे भाई साधू सिंह थे। दोनों बच्चों को सरदार चंचल सिंह ने एक अनाथालय में दाखिल करा दिया। अंग्रेजी, पंजाबी, हिंदी और उर्दू का अच्छा ज्ञान कर लिया और 1916 में दसवीं पास की। पहलवानी में भी खूब नाम कमाया। अनाथालय के पास एक फर्नीचर की दुकान भी चलायी। जहाँ भगत सिंह/सुखदेव/राजगुरु आदि क्रांतिकारियों का काफी आना जाना था और उनके मन में भारत भूमि को फिरंगियों से आजाद कराने की भावनाऐं पनपने लगीं। उसी दौरान 1919 में अंग्रेजों ने रौलट एक्ट कानून बनाया था। जिसके तहत अंग्रेजी पुलिस भारतीयों को बिना सूचना के भी गिरफ्तार कर सकती थी।
जलियांवाला बाग कांड और उनकी प्रतीज्ञा
उधम सिंह के सामने ही 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। उन्होंने अपनी आंखों से डायर की करतूत देखी थी। वे गवाह थे, उन हजारों बेनामी भारतीयों की हत्या के, जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे। यहीं पर उधम सिंह ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओह्ण ड्वायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। इसके बाद वो क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गए।
सरदार उधम सिंह क्रांतिकारियों से चंदा इकट्ठा कर देश के बाहर चले गए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बॉब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा कर क्रांति के लिए खूब सारे पैसे इकट्ठा किए। इस बीच देश के बड़े क्रांतिकारी एक-एक कर अंग्रेजों से लड़ते हुए जान देते रहे। ऐसे में उनके लिए आंदोलन चलाना मुश्किल हो रहा था। पर वो अपनी प्रतीज्ञा को पूरी करने के लिए मेहनत करते रहे। उधम सिंह के लंदन पहुंचने से पहले जनरल डायर बीमारी के चलते मर गया था। ऐसे में उन्होंने अपना पूरा ध्यान माइकल ओह्ण ड्वायर को मारने पर लगाया। और उसे पूरा किया।
भगत सिंह सें संबंध
उधम सिंह भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे। दोनों दोस्त भी थे। एक चिट्ठी में उन्होंने भगत सिंह का जिक्र अपने प्यारे दोस्त की तरह किया है। भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी। इन दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं दिखती हैं। दोनों का ताल्लुक पंजाब से था। दोनों ही नास्तिक थे। दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार थे। दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही। दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई। भगत सिंह की तरह उधम सिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था।
1920 में ऊधम सिंह डॉ. अम्बेडकर से मिले तो आपने बाबा साहेब से मार्गदर्शन चाहा। जबाव में बाबा साहेब ने यही कहा का आप पढाई के साथ साथ अपने समाज और देश के प्रति जो आपके कर्तव्य हैं। उनसे विमुख मत होना।
डायर का अंत
सरदार उधम सिंह जलियांवाला बाग नरसंहार से आक्रोशित थे। इस आक्रोश का निशाना बना उस नरसंहार के वक़्त पंजाब का गवर्नर रहा माइकल फ्रेंसिस ओह्ण ड्वायर। 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हॉल में बैठक थी। वहां माइकल ओह्ण ड्वायर भी स्पीकर में से एक था। उधम सिंह उस दिन टाइम से वहां पहुंच गए।
अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा रखी थी। पता है कैसे उन्होंने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के शेप में काट लिया था। और बक्से जैसा बनाया था। उससे उनको हथियार छिपाने में आसानी हुई। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओह्ण ड्वायर को निशाना बनाया। दो गोलियां लगी जिससे उसकी तुरंत मौत हो गई। इसके साथ ही उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। और दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते।
जज ने सवाल दागा कि वह ओह्ण ड्वायर के अलावा उसके दोस्तों को क्यों नहीं मारा। उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई औरतें थीं। और हमारी संस्कृति में औरतों पर हमला करना पाप है।
इसके बाद उधम को शहीद-ए-आजम की उपाधि दी गई, जो सरदार भगत सिंह को शहादत के बाद मिली थी।
उधम सिंह का निधन
4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया। 14 मार्च को ब्रिअसटन जेल में डाल दिया गया। आपके साथियों ने और बकीलों ने आपको बचाने में कामयाब भी हो गये थे। लेकिन आपने कोर्ट में खुद अपने विरुद्ध गवाही देकर फांसी को स्वीकार किया। फांसी के फंदे पर लटकने से पहले आपने संदेश दिया कि....
‘आप मेरे लिए दुखी मत होना। ये शरीर नाशवान है। मैं बच सकता था,ये खुद डायर की पुत्री मिस गोल्डी डायर ने आश्वासन दिया था। मैं अपने देश की आजादी के वास्ते बलिदान कर रहा हूँ। गुलामी में रहकर बुढापे में मरुं इससे बेहतर तो देश के लिए जबानी में कुर्बान होना मेरे लिए गौरव की बात है। मैं सभी के लिए नतमस्तक हूँ। आप अपने देश व समाज की भलाई के लिए संघर्षरत रहना और देश में व्याप्त हर प्रकार के भेदभाव को खत्म करना। यही मेरी शुभकामना है। ’
31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। इस तरह उधम सिंह भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में अमर हो गए। 13 जुलाई 1974 को उनका अस्थिकलश भारत लाया गया। बहन मायावती ने सम्मान में वलिदान दिवस पर 1911 में उ.प्र. में जिला ऊधम सिंह नगर बनाया जो आज उत्तराखंड में आता है। अंग्रेजों को अंग्रेजों के घर में घुसकर मारने का जो काम सरदार उधम सिंह ने किया था, उसकी हर जगह तारीफ हुई। यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी इसकी तारीफ की। नेहरू ने कहा कि माइकल ओह्ण ड्वायर की हत्या का अफसोस तो है, पर ये बेहद जरूरी भी था। जिसने देश के अंदर क्रांतिकारी गतिविधियों को एकाएक तेज कर दिया।
सरदार उधम सिंह के इस महाबदले की कहानी आंदोलनकारियों को प्रेरणा देती रही। इसके बाद की तमाम घटनाओं को सब जानते हैं। अंग्रेजों को 7 साल के अंदर देश छोड़ना पड़ा और हमारा देश आजाद हो गया। उधम सिंह जीते जी भले आजाद भारत में सांस न ले सके, पर करोड़ो हिंदुस्तानियों के दिल में रहकर वो आजादी को जरूर महसूस कर रहे होंगे।
शहीद सरदार ऊधम सिंह को उनके शत्-शत् नमन!
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