Sunday, 23rd November 2025
Follow us on
Sunday, 23rd November 2025
Follow us on

राष्ट्रपिता ज्योतिराव फूले महापरिनिर्वाण दिवस

News

2025-11-22 16:52:04

इस देश में शूद्रों, अतिशूद्रों तथा महिलाओं की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दशा बहुत ही दयनीय रही है। ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था में इनका कोई मान सम्मान नहीं रहा, इन्हें केवल उपभोग की वस्तु और गुलाम की तरह ही इन्हें समझा गया। इनमें निराशा की इतनी हद कि इन्होंने इस सब को अपना भाग्य ही मान लिया और कभी किसी भी समय इनके मन में अपने अन्याय के प्रति विद्रोह की भावना नहीं जगी। तथागत गौतम बुद्ध के लगभग 2350 वर्ष बाद फुले दंपत्ति जैसे महामानव हुए जिन्होंने इन उपेक्षित तथा दीनहीनों की सुध ली और इनमें मान सम्मान से जीने की ज्योति जलाई। इसके पहले शूद्रों, अतिशूद्रों तथा महिलाओं को न शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था न ही सम्पत्ति का अधिकार था। जिनको न शिक्षा मिली हो, न सम्पत्ति का अधिकार हो और जिन पर अनेक प्रकार के सामाजिक बंधन लगे हों, उन लोगों की किसी भी प्रकार की प्रगति अथवा विकास असंभव है। वे केवल स्थायी तौर पर गुलाम बने रहने के लिये मजबूर हैं। यह अमानवीय व्यवस्था किसी परम्परा अथवा किसी श्रमण संस्कृति से व्यवहार में नहीं आई बल्कि इस अमानवीय व्यवस्था को संस्थागत मान्यता प्राप्त थी। रामायण, गीता, मनुस्मृति आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में इन वर्गों के साथ अत्याचार तथा अमानवीय व्यवहार के लिखित कानूनी प्रावधान भरे पड़े हैं। ये लोग धार्मिक बंधनों में इतने जकड़ गये कि इन्होंने कभी इन अत्याचारों के विरूद्ध विद्रोह करने की हिम्मत नहीं जुटाई और इसे अपना भाग्य समझकर ढोते रहे। बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह पर बंधन, शिक्षा पर पाबंदी, बेटी पराया धन तथा घर की चार दीवारी तक सीमित रहने जैसे अत्याचारी व अमानवीय प्रथाओं के अनेकों उदाहरण सामने हैं। जैसे-

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,

ये सब ताड़न के अधिकारी।

पूजिये विप्र ज्ञान गुण हीना,

न शूद्र ज्ञान गुण प्रवीणा।

ज्योतिराव का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पूना शहर के पास नेवसे गांव में हुआ। इनके पिता का नाम गोविन्दराव फुले तथा माता का नाम चिमणाबाई था। बचपन में ही ज्योतिराव की माता का देहांत हो गया। उनका लालन पालन उनकी मौसेरी विधवा बहन सगुणाबाई ने किया। यद्यपि सन 1820 में अंग्रेजों ने देश में सभी के लिये शिक्षा की नीति लागूू कर दी थी लेकिन इस समय तक उच्च वर्ग के लोग ही लिखे पढ़े थे। अत: शिक्षा का पूरा लाभ वे ही उठा रहे थे। चूंकि पठन-पाठन में उच्च वर्ग के लोगों का ही वर्चस्व था, इसलिये वे शूद्र वर्ग के बच्चों के साथ भेदभाव करते और उनको पढ़ने के लिए स्कूल मेंं प्रवेश ही नहीं मिलता था। इस प्रकार सबको शिक्षा की नीति का कोई उपयोग शूद्र वर्ग के लोगों को नहीं हो रहा था। शूद्र वर्ग के लोगों की सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक दशा इस पेशवाई युग में बदतर ही थी। वे तो गुलामों जैसा जीवन ही जीने के लिए मजबूर थे। शूद्रों की परछाई से भी ब्राह्मण अपने को अपवित्र होना मानते थे। इसलिये इस वर्ग के लोगों के सार्वजनिक स्थानों पर खुलेआम जाने तथा सार्वजनिक कुंओं से पानी भरने, अच्छे कपडे व गहने पहनना आदि इन सब बातों पर ब्राह्मणों ने कड़ी पाबंदी लगा रखी थी। अपना भाग्य समझकर शूद्र वर्ग के इन असहाय लोगों को इन अमानवीय व्यवस्थाओं को मानने पर मजबूर होना पड़ा।

ऐसी ही विषम परिस्थितियों के समय सावित्री बाई फुले का जन्म हुआ। सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में छोटे से गांव धनकवाड़ी में हुआ। सावित्रीबाई सुंदर थी। इनके पिता का नाम खन्डोजी नेवसे पाटिल तथा माता का नाम लक्ष्मीबाई था। तीन भाइयों सिदुजी, सखाराम व श्रीपति की सावित्रीबाई अकेली लाडली बहन थी। उनकी अपने मायके में कोई शिक्षा नहीं हुई। यद्यपि उनकी शिक्षा ग्रहण करने की आकांक्षा थी। जब सावित्री 9 वर्ष की थी, तब सन 1840 में गोविन्द राव फुले के पुत्र ज्योतिराव से उनका विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ। ज्योतिराव उस समय 13 वर्ष के थे। फुले दम्पत्ति का प्रसंग हो तो ज्योतिराव फुले के बारे में जानना अति आवश्यक है।

हिन्दू समाज में स्त्रियों की स्थिति भी बदतर थी। समाज में बाल विवाह की कुप्रथा चलन में थी। बहुत कम आयु की बालिकाओं का विवाह कर दिया जाता था। कई बहुत कम आयु की बालिकाओं का विवाह बड़ी आयु के पुरुषों के साथ कर दिया जाता था। इस कारण अनेक बालिकायें कम उम्र में ही विधवा हो जाती थी। विधवाओं को या तो अपने पति के साथ सती होकर पति के साथ चिता में जलना होता था अन्यथा विधवाओं का जीवन नारकीय था। विधवा पुनर्विवाह पर पाबंदी थी। स्त्रियों पर शिक्षा की पाबंदी, विधवाओं को अच्छे खाने व कपड़े पहनने पर पाबंदी और शुभ अवसरों पर समारोह में शामिल होने की पाबंदी थी। विधवा का कोई कसूर न होने के बावजूद भी उन्हें अपशकुनि, हत्यारिन, डायन, निकम्मी जैसे शब्दों से बुलाया जाता था, अपमान किया जाता था। उनका यौन शोषण भी होता था।

ज्योतिराव को अंग्रेज पादरी की सिफारिश से स्कॉटिश मिशन विद्यालय में पढ़ाई के लिये प्रवेश मिल गया था। उनकी शिक्षा में बहुत रूचि थी। कोर्स की पुस्तकें पढ़ने के साथ-साथ वे पुस्तकालय में भी अनेक पुस्तकें पढ़ते थे, उन्होंने शिवाजी महाराज, मार्टिन लूथर, बुकर टी वाशिंगटन, बुद्ध तथा कबीर आदि महापुरुषों के विषय में पुस्तकें पढ़ी। एक दुर्घटना ने ज्योतिराव के जीवन की धारा बदल दी। अपने एक ब्राह्मण मित्र सदाशिव के विवाह में वे बारात में शामिल हो गये। इस पर ब्राह्मण उन पर बहुत क्रोधित हुये। शूद्र होने पर ज्योतिराव को बहुत भला बुरा कहा, गालियां दी और उन्हें वहां से भगा दिया। ज्योतिराव वहां से घर आ गये, बहुत दुखी हुये और चिंता में पड़ गये। वे यही सोच विचार करते रहे कि समाज में यह विषमता के क्या कारण है। वे सोचते रहते कि ईश्वर ने तो ईसाई, मुसलमान, बुद्ध सबको बनाया है फिर इनमें विषमता क्यों नहीं हैं? इसका कारण जााने के लिये उन्होंने कई ग्रन्थों का अध्ययन किया। वे इस निर्ष्कष पर पहुंचे कि सारे रोगों की जड़ ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद है। इन ब्राह्मणों ने अपने लाभ के लिए इन सारी बुरी मान्यताओं को जन्म दिया है तथा इन्हें धर्म का लबादा पहनाकर समाज में थोप दिया है। शिक्षा के सारे अधिकार अपने पास रख लिये हैं, बाकी सबके लिये शिक्षा के दरवाजे बंद कर दिये हैं। इस प्रकार सारे लोगों को मूर्ख बनाकर ये अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। वे इसी सोच विचार में डूब गये कि लोगों को इस दुर्दशा से निकालने तथा ब्राह्मणवाद का मुकाबला करने के लिए शूद्र वर्ग के लोगों में शिक्षा का प्रसार होना ही एक मात्र उपाय है। शिक्षित होने के बाद ही इन लोगों का सामाजिक और आर्थिक उत्थान संभव है। अब ज्योतिराव फुले ने शूद्र वर्ग के लोगों तथा स्त्रियों में शिक्षा के प्रसार के लिये अपना तन, मन धन समर्पण करने का संकल्प ले लिया।

अपने इस पुनीत कार्य में अपनी पत्नि सावित्री बाई को लगाने के लिए ज्योतिराव ने उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। सावित्री भी अपने पति के सानिध्य में रहते हुए शिक्षित होने के लिये उत्सुक थी। सावित्री भी अब पढ़ने के लिये विद्यालय जाने लगी। सावित्रीबाई ने सन 1847 में मिसेज मिचेल के ‘नार्मल स्कूल’ से अध्यापिका का प्रशिक्षण पूरा किया। ब्राह्मणवादी लोगों ने सावित्री के पढ़ने का बहुत विरोध किया, बहुत तंज कसे लेकिन फुले दम्पति ने इनकी कोई परवाह नहीं की। अब फुले दम्पति शिक्षित होकर शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये तैयार हो चुकी थी। यद्यपि अंग्रेज पादरियों ने भारत में शिक्षा की शुरुआत कर दी थी लेकिन दकियानूसी समाज अपनी लड़कियों को पढ़ाना ही नहीं चाहता था इसलिये अंग्रेजों ने लोगों को अपनी लड़कियां पढ़ाने के लिये प्रेरित करने का यत्न किया लेकिन कोई खास परिणाम नहीं निकला। फुले दम्पति ने सर्वप्रथम लड़कियों को शिक्षित करने की मुहिम को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया।

ज्योतिराव फुले ने 1 जनवरी 1848 को पूना की बुधवार पेठ में अपनी पहली गैर-सरकारी कन्या पाठशाला खोली। इस समय ज्योतिराव की आयु केवल 21 वर्ष और सावित्री बाई की 17 वर्ष ही थी। इतनी कम उम्र में फुले दम्पति समाज सेवा के क्षेत्र में उतर गई। इनके द्वारा कन्याओं को पढ़ाने की शुरुआत ने समाज में क्रांति की मशाल जलाने के लिए मशाल का काम किया। क्रांति की शुरुआत ज्योतिराव ने घर से ही की और अपनी अशिक्षित पत्नि सावित्रीबाई को सब विरोधों के बावजूद पढ़ाकर इतना सक्षम बनाया कि वे हर परिस्थिति में आने वाली समस्याओं का सामना कर सकें। अंग्रेजों ने समाज में शिक्षा का प्रचार किया तो लोग अब शोषण और असमानता का मतलब समझने लगे, ब्राह्मणवाद के खेल को भी समझने लगे और इससे मुक्त होने के लिए छटपटाने लगे। लेकिन ऐसे समय अंधेरे में दिशा देने के लिये फुले दम्पत्ति ने समाज के प्रति अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को निभाया। इस शिक्षा का पूरा-पूरा लाभ सवर्ण उठाने लगे। वे पढ़-लिख कर अंग्रेज सरकार में बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त हो गये लेकिन आश्चर्यजनक शूद्रों और स्त्रियों की शिक्षा का विरोध भी करते रहे। ताकि ये इनकी दांस्ता के चंगुल से आजाद न हो जायें। ये लोग अंग्रेजों के नाम में गरीब, किसान व शूद्रों का शोषण करने लगे और अपनी दमनकारी नीति चलाते रहे।

ब्राह्मणों के इलाके में शूद्र ज्योतिराव द्वारा खोली गई कन्या पाठशाला के विरूद्ध कट्टरपंथी जहर उगलने लगे और लोगों को भड़काने लगे। सावित्रीबाई और सगुणाबाई समाज में कन्याओं की शिक्षा के लिये खूब प्रचार करती थी जिससे प्रेरित होकर छात्राओं की संख्या बढने लगी। लेकिन ब्राह्मण लोग अध्यापकों को डराते धमकाते और उन्हें भगा देते थे। स्कूल चलाने में ज्योतिराव को कठिनाई होने लगी। तब ज्योतिराव ने अपनी पत्नि को शिक्षिका की जिम्मेदारी संभालने के लिये प्रेरित किया। सावित्रीबाई ने इस जिम्मेदारी को लेने के लिये अपनी सहमति प्रदान की और इसे निभाने के लिए दृढ़ निश्चय प्रकट किया। इस प्रकार सावित्रीबाई फुले को देश की प्रथम शिक्षिका बनने का गौरव प्राप्त हुआ। अब सावित्री कन्या पाठशाला में छात्राओं को पढ़ाने के लिये जाने लगी। इससे तो जैसे भूचाल ही आ गया। कट्टरपंथियों के कलेजों पर सांप लेट गया और ब्राह्मण जल भुनकर राख हो गये। ब्राह्मण छात्रों और उनके परिजनों को डराते और उन्हें कहते कि पढ़ो मत वरना तुम्हारी सात पीढ़ियां नर्क में जायेंगी। इसके उलट ज्योतिराव उन्हें समझाते हुये कहते,‘‘ अब ब्राह्मणों का नहीं अंग्रेजों का राज है। अंग्रेज सरकार ने कहा है कि यदि आप नहीं पढ़ेंगे तो आपकी चौदह पीढ़ियां नरक में जायेगीं’’। सावित्रीबाई पर गोबर व कीचड़ भी फेंकते जिससे उनके कपड़े गंदे हो जाते। उनको हतोत्साहित करने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचे गये। उनके विरूद्ध कई अफवाहें भी फैलाई गई। शूद्र समाज के लोगों को उनके विरूद्ध खूब भड़काया और इन मूर्ख लोगों ने सावित्रीबाई के चरित्र पर कई तरह से लांछन भी लगाये, ज्योतिराव पर भी अपमानजनक टिप्पणियां करते थे।

लेकिन धन्य हो सावित्रीबाई को उनके साहस और दृढ़ निश्चय को। सवर्णो द्वारा किये जाने वाले अत्याचार व अपमान की परवाह न करते हुए सावित्रीबाई अपने पथ से तनिक भी विचलित नहीं हुई और लक्ष्य प्राप्ति के लिये अधिक मजबूत दृढ़ निश्चय किया। अपनी चाल का फुले दम्पत्ति पर कोई भी असर न होते देख ब्राह्मणों ने ज्योतिराव के पिता गोविन्दराव को भड़का दिया। उन्हें डराया गया, समाज से बहिष्कृत करने की धमकी दे दी। ब्राह्मणों की चाल का असर हुआ। गोविन्दराव ने अपने बेटे ज्योतिराव को चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘या तो अपने पिता को चुनो या स्त्री शिक्षा को। पिता को न चुनने पर पिता का घर छोड़ना होगा।’’ ज्योतिराव ने पिता का घर छोड़ने का विकल्प चुना। ज्योतिराव ने अपनी पत्नि से उनका निर्णय पूछा। सावित्रीबाई अब शिक्षा प्रसार के रास्ते पर बहुत आगे बढ़ चुकी थी, इसलिये क्रांतिकारी सावित्रीबाई ने समाज हित में अपने पति की लाइन को ही चुना और अपने पति का साथ देने का ही निर्णय किया। फुले दम्पत्ति ने कितनी ही जिल्लत सही, कितना ही अपमान सहन किया, कितने ही दंश झेले किन्तु अपने समाज सेवा के रास्ते से विचलित नहीं हुये। उन्होंने इस अपमान की जड़ को समझा, उस अपमान को अपनी पूंजी बनाया और इसी को अपने लिए ताकत में बदल लिया। इस प्रकार मनुवाद व ब्राह्मणवाद की विषमतावादी, षडयंत्रकारी तथा शोषणकारी घिनौनी व्यवस्था को नष्ट करने के लिये निकल पड़े।

पिता का घर छोड़ने पर फुले दम्पत्ति के सामने आजीविका की समस्या आई। ऐसे मुसीबत के समय उनके मुंशी गफ्फार वेग ने उनकी काफी सहायता की। चूंकि फुले दम्पति स्कूल में मुफ्त ही पढ़ाते थे इसलिये अपने जीवन यापन के लिये ज्योतिराव बांध के काम में माल सप्लाई का ठेका लेने लगे। यहीं उनको मजदूरों की समस्याओं की जानकारी मिली। इसलिये उन्होंने कुछ समय बाद पूना के गंज पेठ में अछूतों की बस्ती में एक नई पाठशाला खोली। लेकिन यहां भी मनुवादियों ने अनेक प्रकार की अड़चने डाली और इस पाठशाला को भी चलाना मुश्किल दिखने लगा। लेकिन ज्योतिराव के मित्रों का साथ, सावित्रीबाई का अड़िग साहस तथा अंग्रेजों द्वारा दी गई आर्थिक व नैतिक सहायता ने ज्योतिराव के आत्म-विश्वास को नहीं डिगने दिया।

भारत के इतिहास में अछूतों के लिये यह पहली पाठशाला थी। यहीं से पहली बार ज्योतिराव ने अछूतों को औरों की तरह इंसान होने का अहसास कराया। ज्योतिराव ने स्कूल खोले और सावित्रीबाई उनका संचालन और प्रबंधन बहुत सही तरीके से करती थी। अभी तक स्वर्ग नर्क के फेर में पड़े अपनी दयनीय हालत को अपने पूर्व जन्मों का फल मानकर अन्धकारमय व नारकीय जीवन व्यतीत करने वाले अछूतों को फुले दम्पत्ति ने ठीक से समझाया उन्हें सही रास्ते का ज्ञान कराया तथा उन्हें शिक्षा व उन्नति के मार्ग पर चलने के लिये प्ररित किया। सावित्री पढ़ाने के साथ-साथ छात्रों को सामाजिक रूप से जाग्रत भी करती थी। वे उन्हें शिक्षा का महत्व समझाते हुये कहती थी,‘‘ पढ़ने से इंसान ज्ञानी और बुद्धिमान बनता है। वह अपने हित-अहित के बारे में सोचकर निर्णय लेने में सक्षम बनता है। तभी तो अंग्रेजों ने इतनी उन्नति की है। लेकिन भारत में पढ़ने का अधिकार ब्राह्मणों ने अपने पास ही रखा है चूंकि वे शिक्षा का महत्व जानते हैं। इसलिये वे अंग्रेज सरकार में बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त हैं और हर प्रकार का सुख व आनन्द ले रहे है। लेकिन शूद्र, अतिशूद्र तथा कन्याऐं अपनी शिक्षा पर ब्राह्मणों द्वारा लगे प्रतिबंध के कारण पिछड़े हुये हैं और गुलामों का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। इसलिये डरने की जरूरत नहीं है। खूब पढ़ो, ओरों को भी पढ़ाओ तथा अपना खोया हुआ मान-सम्मान पाने के लिये जागो, उसे हासिल करो।’’

ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले दम्पति एक दूसरे के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे। अपने समाज सेवा तथा गरीबों, अछूतों तथा कन्याओं की शिक्षा के अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए तन, मन, धन से दिन रात लगे रहे। ज्योतिराव फुले ने सन 1848 से 1852 तक पूना और उसके पास के गांवों में 18 पाठशालायें खोली। सावित्रीबाई के बेहतर संचालन और प्रबंधन से पाठशालाओं ने दिन दूनी-रात चौगुनी उन्नति की। वे स्वयं शिक्षा के लिये पाठयक्रम बनाती और उसे लागू करती थी। सावित्री ने अपने शिक्षण संस्थानों द्वारा एक वर्ग विहीन तथा शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिये क्रांतिकारी पहल की और हजारों सालों से जमी ब्राह्मणवाद की मजबूत नींव को हिला दिया। उनके इस पवित्र कार्य में मुंशी गफ्फार बेग की बेटी फातिमा बेग ने भी सावित्रीबाई का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया। सावित्रीबाई की कर्मठता तथा समर्पण को देखते हुए ज्योतिराव के मित्र व बड़ौदा के महाराजा संयाजीराव गायकवाड़ के स्नेह पात्र मामा परमानन्द ने बड़ौदा रियासत के दीवान को पत्र लिखकर बताया कि‘‘ ज्योतिराव से भी अधिक उनकी पत्नि सावित्रीबाई की जितनी भी सराहना की जाये, उतनी ही कम है। उन्होंने अपने पति का साथ दिया, कितनी ही मुसीबतों का डटकर मुकाबला किया लेकिन कभी विचलित नहीं हुई। ऐसी त्यागी महिला बिरला ही मिलेगी।’’ अंग्रेज सरकार ने भी उनके प्रयासों की बहुत सराहना की। पूना कॉलिज के पर्यवेक्षक मेजर कैंडी ने उनकी पाठशाला के बारे में लिखा,‘‘ इस पाठशाला की कन्याओं की बुद्धि और प्रगति देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। ‘पूना आॅब्जर्वर’ नामक पत्र ने लिखा,‘‘ ज्योतिराव की पाठशालाओं में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या सरकारी पाठशालाओं की छात्र संख्या से दस गुनी अधिक है। इसका मुख्य कारण है- सरकारी पाठशालाओं की तुलना में ज्योतिराव की पाठशालाओं की अध्यययन प्रणाली श्रेष्ठ है तथा अध्ययन-अध्यापन का स्तर ऊंचा है।

छात्रोंं की बढ़ती संख्या के कारण बेताल पेठ, पूना में एक पाठशाला अछूता छात्रों तथा दूसरी अछूत छात्राओं के लिये खोलनी पड़ी। बच्चे गरीब परिवारों से थे, इसलिये पुस्तकों की जरूरत पूरी करने के लिये ज्योतीराव ने बहुत प्रयत्न करके छात्रों के लिये एक पुस्तकालय खोला। यह छात्रों के लिये भारत में पहला पुस्तकालय था। कुछ अंग्रेज अधिकारी व कुछ ईसाई पादरी इस पुस्तकालय में पुस्तकें देने में मदद करते थे। सावित्री ने महिलाओं को जाग्रत करने और संगठित करने के लिए‘‘ महिला सेवा मंडल’’ नामक एक संस्था की स्थापना की। भारत की यह पहली महिला सेवा संस्था है जिसकी सावित्रीबाई स्वयं सैक्रेटरी थी। उन्होंने बेसहारा, गरीब व अनाथ बच्चों को अपने घर में आसरा दिया और उनकी शिक्षा की व्यवस्था भी करती थी। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी लेकिन वे सब बच्चों की सेवा करती थी। फुले दम्पत्ति का शूद्रों और कन्याओं को शिक्षा, ब्राह्मणवाद तथा मनुवाद के विरूद्ध समाज में जाग्रति फैलाने का कारवां आगे बढ़ता ही जा रहा था। इससे कट्टरपंथी हिन्दू विचलित हो गये और उन्होंने ज्योतिराव को मरवा देने में ही हिन्दू धर्म की रक्षा का स्थायी उपाय सुझा। उन्होंने धोडिबा कुंभार और धौडिबा रोड़े नाम के दो हट्टे-कट्टे गुन्डों को ज्योतिराव की हत्या के लिए भेजा। लेकिन हत्या करने से पहले ही वे ज्योतिराव की पकड़ में आ गये। उन्होंने कबूल किया कि उन्हें ज्योतिराव की हत्या के लिये भेजा गया है और उन्हें इस काम के लिय पैसे मिलेंगे। पैसे वाली बात पर ज्योतिराव मरने के लिये तैयार हो गये लेकिन इस शर्त पर कि वे कल अपने बच्चों को पढ़ने जरूर भेजें जिससे कि वे पढ़कर इतने स्वावलम्बी बन जाये और उन्हें पैसों के लिय किसी की हत्या करने की नौबत ही न आने पाये। ज्योतिराव की इस बात से वे बहुत शर्मिन्दा हुए और उन्होंने हथियार फेंक दिये। तब ज्योतिराव ने उन्हें समझाया कि किसी व्यक्ति को मारने से उसका शरीर ही नष्ट होता है लेकिन सोच नहीं मरती। सावित्री इससे तनिक भी विचलित नहीं हुई। सावित्री ने ज्योतिराव से कहा,‘‘ हमारे ही समाज के लोग और हमारे ही दुश्मन । आप उनके लिये ही इतना संघर्ष कर रहे हैं। फिर भी वे आपको मारना चाहते हैं, क्यों?’’ ज्योतिराव ने कहा,‘‘ यही तो सबसे बड़ी विडम्बना है कि इस पाखन्डी धर्म के चक्कर में पड़कर हमारे अपने ही समाज के लोग अपने भाइयों के दुश्मन बने हुए हैं। ये सब अज्ञानता के कारण हो रहा है। उनको इस अज्ञानता को दूर करना बहुत जरूरी है तभी वे सही गलत का फैसला करेंगे’’। दोनों हत्यारों ने गलत रास्ता छोड़ दिया। घोंडिबा कुमार ने सुशिक्षित होकर ‘ पंडितराव’ की उपाधि प्राप्त की और ‘वेदाचार’ नामक ग्रंथ की रचना की। घोडिबा रोड़े ज्योतिराव का अंगरक्षक बन गया।

फुले दम्पति द्वारा अनाथ बालाश्रम और बालहत्या प्रतिबंधक गृह जैसी संस्थाएं भी चलाई जा रही थी। इसी से काशीबाई नामक धोखा खाई गर्भवती ब्राह्मणी जो कि विधवा थी, उसके नवजात लडको को गोद ले लिया और उनका नाम यशवंत रखा। यह लड़का आगे शिक्षित होकर डॉक्टर बना। ज्योतिराव और सावित्रीबाई का सामाजिक संघर्ष जोरों से चल रहा था। लेकिन पक्षाघात से पीड़ित ज्योतिराव फुले ने 27 नवम्बर 1890 को इस संसार को अलविदा कह दिया।

अब सावित्री अकेली रह गई लेकिन वे टूटी नहीं। उन्होंने ज्योतिराव के सामाजिक क्रान्ति के अधूरे काम को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। सारी जिम्मेदारी अब उनके कंधों पर आ पड़ी। वे एक युग पुरुष के कामों को आगे बढ़ाने में समर्पित हो गई। कार्यकर्ता और अनुयायी उनके बेहतर नेतृत्व से बहुत खुश व उत्साहित थे। ज्योतिराव द्वारा स्थापित सत्य शोधक समाज का अध्यक्ष सावित्रीबाई को बनाया गया। सावित्री अपने पति की मृत्यु के बाद लगभग सात साल तक सामाजिक क्रांति के आंदोलन का नेतृत्व करती रही। उन्होंने शिक्षा के साथ-साथ समाज के नैतिक विकास पर भी जोर दिया। बहुसंख्यक लोगों में फैली बुराईयों और कुप्रथाओं पर भी प्रहार किया, लोगों को इन्हें छोड़ने के लिए समझाया अपने कई भाषणों में सावित्री ने व्यसन, दान, कर्ज, उद्योग, सदाचरण, विद्यादान और सत्य कर्म पर अपने विद्वत्त विचार रखे। माता सावित्रिबाई ज्योतिबा फुले के मिशन को अपने अंतिम समय तक चलाती रहीं।

राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले जी को कोटि-कोटि नमन!

Post Your Comment here.
Characters allowed :


01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

2024-01-13 16:38:05