2023-04-03 10:32:07
आज के दलित व
पिछडे (शूद्र वर्ण)
कहे जाने वाले लोग
इस देश के मूल
निवासी व शासक रहे हैं। ये
मूलनिवासी इस देश को बहुत
प्यार करते हैं, बहुत देश भक्त हैं।
इन मूलनिवासी लोगों में से किसी
ने कभी गद्दारी की ऐसा कोई
इतिहास नहीं है। इनका
गौरवशाली इतिहास रहा है।
इनका शासनकाल स्वर्ण काल
कहलाता है। पुष्यमित्र शुंग नामक
ब्राह्मण सेनापति ने मौर्य सम्राट
ब्रहदर्य की हत्या करके शासन पर
कब्जा कर लिया और देश में
मनुवाद लागू कर दिया। तबसे ही
देश कमजोर होता चला गया।
इससे देश विदेशियों का गुलाम
हो गया और हजारों साल गुलाम
रहा। ब्राह्मणवादी व्यवस्था में इन
लोगों ने केवल अपने सुखस
मृद्धि की कामना की छलकपट
से शासन पर कब्जा करने का
काम किया, यहां तक कि देश के
साथ गद्दारी करने से भी नहीं
चूके। वे इस देश की अस्मिता
को बचाने के लिय अपने प्राण
तो न्यौछावर कर सकते हैं लेकिन
कभी भी गद्दारी नहीं कर सकते।
सन 1857 की क्रांति, स्वतंत्रता
आंदोलन की लड़ाई में दलित
पिछड़े वर्ग से अनेक वीर और
वीरांगनाओं ने भाग लिया।
लेकिन यही दुख की बात है कि
इन नायकों का नाम हमेशा
इतिहास से छुपाया गया चूंकि ये
लोग अशिक्षित व नीची जातियों
से संबंधित थे। जाति एक ऐसा
कलंक है जो मरते दम तक पीछा
नहीं छोडता और इन्हें शहीद का
दर्जा देने से भी रोक लेता है। इन
वर्गों के साथ मनुवादी व
ब्राह्मणवादियों ने हमेशा ही छल
कपट किया और इन्हें अपने हक
व मान-सम्मान से वंचित रखा।
दलित व पिछडे वर्ग के
स्वतंत्रता सेनानियों में एक नाम
झलकारी बाई का आता है।
वीरांगना झलकारी बाई का जन्म
झांसी के निकट भोजला नामक
गांव में 22 नवम्बर 1830 को
एक साधारण कोली परिवार में
हुआ था। इनके पिता का नाम
सदोबा था। एक साधारण दलित
परिवार में जन्म लेने के कारण
झकारी बाई को कोई शिक्षा नहीं
मिली किन्तु इनमें बचपन से ही
वीरता व साहस विद्यमान था।
युवा होने पर इनका विवाह झांसी
के पूरनलाल कोली से हो गया।
पूरनलाल रानी लक्ष्मीबाई की
सेना में तोपची था। वीर साहसी
झलकारी बाई पर अपने बहादुर
व कुशल सैनिक पति का बहुत
प्रभाव पड़ा। झलकारी बाई में भी
एक कुशल सैनिक बनने की तीव्र
इच्छा पैदा हुई। उन्होंने धीरे-धीरे
घुड़सवारी करना, तीर तलवार
चलाना, भाला-बर्छी चलाना
आदि सैन्य विद्यायें सीख ली और
वे युद्ध कला में प्रवीण एक
सैनिक बन गई। यह खबर रानी
लक्ष्मीबाई तक भी पहुंची। एक
दो बार वे अपने पति के साथ
राजमहल गई। वहां उनकी रानी
से मुलाकात हुई। रानी झलकारी
बाई के व्यक्तित्व व उसकी युद्ध
कला की जानकारी से बहुत
प्रभावित हुई। दूसरे झलकारी
बाई की शक्ल रानी झांसी से
बहुत मिलती थी। यह सब
देखकर रानी ने झलकारी बाई
को महिला सेना में ले लिया।
कुछ समय बाद उन्हें महिला
सेना का सेनापति नियुक्त कर
दिया। राजा गंगाधर राव व रानी
लक्ष्मीबाई को पुत्र नहीं था अत:
उन्होंने दामोदर राव को दत्तक
पुत्र के रूप में गोद ले लिया।
कुछ समय बाद ही राजा गंगाधर
राव का देहान्त हो गया। इस
समय दामोदर राव बालक ही
था। लार्ड डलहौजी ने दत्तक पुत्र
को राज का उत्तराधिकारी मानने
से इंकार कर दिया। इससे रानी
झांसी और ईस्ट इंडिया कम्पनी
के संबंध खराब हो गये। रानी
झांसी ने भी सन 1857 की क्रांति
में भाग लिया था।
लार्ड डलहौजी ने 23 मार्च
1858 को ईस्ट इंडिया कम्पनी
की सेना द्वारा आक्रमण करा
दिया। सेना की इस टुकडी का
नेतृत्व कैप्टन सर हयू रोज कर
रहे थे। रानी झांसी भी वीर थी,
युद्ध कला में प्रवीण थी। उसने
अंग्रेजों की सेना से लड़ाई में
मोर्चा संभाला। इस लड़ाई में
गुलाम गौस खान,बख्सी और
झलकारी बाई के पति पूरनलाल
आदि ने अंग्रेज सेना का डटकर
मुकाबला किया। उधर महिला
सेना में मोतीबााई, जूडी,
सुन्दरबाई तथा काशीबाई आदि
दलित वर्ग की वीरांगनाओं ने
अपना खून बहाया। किला चारों
तरफ से अंग्रेज सेना से घिर गया।
निर्णायक युद्ध शुरु हो गया।
लेकिन रानी की सेना का एक
गद्दार सैनिक अंग्रेजों से मिल
गया और झांसी के किले का
ओरछा गेट का फाटक खोल
दिया। इस गेट से अंग्रेज सेना
किले में घुस गई। एक गद्दार के
विश्वासघात के कारण झलकारी
बाई का पति पूरनलाल वीरगति
को प्राप्त हुआ। झलकारी बाई
अपने पति को नमन कर अंग्रेज
सेना पर टूट पडी। भंडारी गेट से
उन्नाव गेट तक युद्ध का संचालन
करते हुए झलकारी बाई ने रानी
लक्ष्मीबाई को एक गुप्त रास्ते से
किले से सुरक्षित बाहर निकाल
दिया और स्वयं रानी लक्ष्मीबाई
बनकर एवं कौशल और एक
अच्छी सूझबूझ का परिचय देते
हुए अंगजी सेना से मोर्चा लेती
रही। एक ब्राह्मण सैनिक ने
अंग्रेजों को यह भेद बता दिया कि
यह रानी लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि
उसकी हमशक्ल झलकारी बाई है,
रानी तो किले से बाहर चली गई
है। बडी बहादुरी से लड़ते -लड़ते
झलकारी बाई को कई गोलियां लग
गई और वो वीरांगना वीरगति को
प्राप्त हुई।
झलकारी बाई की देश भक्ति
और शहादत को दबा दिया गया
जबकि रानी लक्ष्मीबाई का चारों
और गुणगान हुआ और इतिहास में
उनका नाम दर्ज हो गया। भले ही
देश के इतिहासकारों ने वीरांगना
झलकारी बाई के साथ पक्षपात
किया हो, उनकी शहादत को कोई
जगह नहीं दी और उनके बलिदान
को रेखांकित न किया हो। लेकिन
एक दिन सत्य को सामने आना ही
था। झलकारी बाई को इतनी
अधिक लोक मान्यता मिली की
उनकी शहादत बहुत दिनों तक
छुपी न रह सकी। झांसी के लोक
इतिहासकारों, कवियों व लेखकों
ने वीरांगना झलकारी बाई के
स्वतंत्रता संग्राम में दिये योगदान को
स्वीकारा तथा उनका गुणगान भी
जनता में पहुंचाया। वीरांगना
झलकारी बाई को अपनी मातृभूमि
की रक्षा के लिये किये बलिदान को
इतिहास में सदैव याद किया
जायेगा।
(वीरांगना झलकारी बाई जी
को उनके 166वें शहादत दिवस
पर कोटि-कोटि नमन।)
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