2024-05-17 11:35:46
प्रारंभ में बुद्ध के द्वारा जीवन जीने की कला की सरलतम शिक्षायें दी थी। बाद में इन शिक्षाओं ने धम्म का रूप ले लिया। सिद्धार्थ जन्म से ही जिज्ञासु प्रवृति के थे। जिज्ञासु प्रवृति और शांति की खोज में, दो राज्यों के बीच जल विवाद को सुलझाने के कारण उन्होंने गृह त्याग दिया। सबसे पहले वे भृगु आश्रम पहुँचे। उसके बाद आलार कालाम के पास गए और यहाँ से गया पहुँचकर तपस्या में लीन हो गए। 35 वर्ष की आयु में वैशाख की पूर्णिमा को निरंजना नदी के किनारे उन्हें संसार के सत्य का बोध हुआ। यहाँ उन्हें चार आर्य सत्यों के ज्ञान से वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद बौद्ध धर्म में विभिन्न सम्प्रदायों का विकास हुआ। बौद्ध धर्म का मूल रूप जिसमें विशाल दर्शन समाया हुआ है। ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ बुद्ध के धम्म को जानने के लिए मूलमंत्र है। इसकी दो और पंक्तियों में ‘धम्मं शरणं गच्छामि’ और ‘संघं शरणं गच्छामि’ भी है। बुद्ध के धम्म की मूल भावना को बताने वाले ये तीन शब्द बुद्ध की शरण में जाने का अर्थ रखते हैं। बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध धम्म की मौलिक विशेषता है। बौद्ध-दर्शन केवल दो ही प्रमाणों को स्वीकार करते है- प्रत्यक्ष और अनुमान। बौद्ध दर्शन की जन्मभूमि भारत है, प्राचीन भारत में यह धम्म सम्पूर्ण भारत में फला फूला और सम्राट अशोक के काल में इसका पूर्वी एशिया के देशों में प्रसार प्रचार हुआ। चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैंड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कंबोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म प्रमुख धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी करोड़ों बौद्ध अनुयायी हैं।
हीनयान और महायान
बौद्ध दर्शन हीनयान और महायान सम्प्रदाय के रूप में पाया जाता है। हीनयान वह संप्रदाय है जो बुद्ध की मौलिक शिक्षाओं को मान्यता देता है। बुद्ध की मौलिक शिक्षाएँ हैं। चार आर्य सत्य, अष्टांगिक मार्ग या मध्यम मार्ग और त्रिरत्न। बुद्ध ने उपदेश दिया कि न तो ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित कर्मकाण्ड के पालन में सुख है और न चावार्कों द्वारा प्रतिपादित इंद्रिय भोग में सुख है सुख तो इन दोनों के बीच में ही हो सकता है। इसलिए बुद्ध के मार्ग को मध्यम मार्ग कहा जाता है।
इसके विपरीत महायान वह संप्रदाय है जो बुद्ध की मौलिक शिक्षाओं, चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग और त्रिरत्न के साथ-साथ, बुद्ध की मूर्ति पूजा में भी विश्वास करता है। महायान वादियों ने तो मूर्ति पूजा के विरोधी बुद्ध को ही भगवान के रूप में प्रतिष्ठित कर डाला और निर्वाण के लिए ज्ञान के साथ-साथ बुद्ध की मूर्ति पूजा को आवश्यक माना। महायान वादियों ने अपने मार्ग की श्रेष्ठता को स्पष्ट करने हेतु अपने मार्ग को महायान और बुद्ध के कोरे ज्ञान के उपदेशों को मानने वालों के मार्ग को हीनयान की संज्ञा दी। मूर्ति पूजा की भावना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। महायान की दार्शनिक विवेचना से योगाचार (विज्ञानवाद) और माध्यमिक (शून्यवाद) का विकास हुआ। योगाचार संप्रदाय का मूल ग्रंथ है-असंगकृत ह्ययोगाचार भूमिशास्त्रा और माध्यमिक संप्रदाय का मूल ग्रंथ है-नागार्जुन कृत ‘माध्यमिक कारिका’।
हीनयान की दार्शनिक व्याख्या से वैभाषिक (बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद) और सौत्रांतिक (बाह्यार्थ अनुमेयवाद), दो दार्शनिक संप्रदायों का विकास हुआ।
1. वैभाषिक मत (बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद) बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा ‘सर्वास्तित्ववाद’ कहते हैं। ये अर्थ को ज्ञान से युक्त अर्थात प्रत्यक्षगम्य मानते हैं। वैभाषिक संप्रदाय के मूल दार्शनिक ग्रंथ हैं।
2. सैत्रांतिक मत (बाह्याथार्नुमेयवाद) के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विवसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वसु बंधु कृत ‘अभिधर्म कोश’ और संघभद्र कृत ‘समय प्रदीपिका।’ सौत्रांतिक संप्रदाय का मूल ग्रंथ है कुमार लता का ‘कल्पना मण्डिलिका’।
बौद्ध दर्शन की तत्व मीमांसा
किसी भी दार्शनिक चिंतनधारा के स्वरूप को समझने के लिए हमें उसकी तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को समझना आवश्यक होता है। जहां तक बुद्ध की बात है उन्होंने तत्व मीमांसा के विवेचन में अपनी शक्ति व्यय नहीं की। उनका स्पष्टीकरण था कि जीव-जगत और आत्मा-परमात्मा के विषय में निश्चय रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता और मनुष्य जीवन को उन्नत बनाने और निर्वाण प्राप्ति में इनके ज्ञान से कोई सहायता भी नहीं मिलती अत: इन पर विचार करना व्यर्थ है। जगत के विषय में उन्होंने केवल इतना कहा कि इस जगत में न तो कोई वस्तु शाश्वत है और न पूणर्त या नश्वर। जगत के विषय में उनके इस सिद्धांत को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ कहा जाता है। परंतु उनके अनुयायियों ने इस जगत की व्याख्या अपनी-अपनी दृष्टि से प्रस्तुत की है।
हीनयान से संबंधित वैभाषिक एवं सौत्रांतिक, दोनों दर्शन वस्तु तथा चित्त की स्वतंत्रा सत्ता स्वीकार करते हैं। दोनों में अंतर इतना है कि वैभाषिक दर्शन वस्तु को इंद्रिय प्रत्यक्ष (चित्त निरपेक्ष) मानता है और सौत्रांतिक दर्शन अनुमान गम्य (चित्त सापेक्ष) मानता है। इसीलिए वैभाषिक दर्शन को बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद और सौत्रांतिक दर्शन को बाह्यार्थ अनुमेयवाद कहा जाता है। इनके विपरीत महायान से संबंधित योगाचार एवं माध्यमिक दर्शन वस्तु को न तो चित्त निरपेक्ष मानते हैं और न चित्त सापेक्ष। योगाचार दर्शन इनके मूल में विज्ञान की सत्ता मानता है। इसके अनुसार चित्त, मन और विज्ञप्ति, ये विज्ञान के ही पर्याय हैं और यह समस्त संसार बुद्धि (विचारों) का बना हुआ है (सर्व बुद्धिमयं जगत)। इसलिए योगाचार को विज्ञानवाद कहा जाता है। इसके विपरीत माध्यमिक संप्रदाय के लोग इस जगत के मूल में एक पारमार्थिक तत्व की सत्ता को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार यह परम तत्व न सत्य है न असत्य, न सत्य-असत्य दोनों है और न सत्-असत् दोनों नहीं हैं। इसको वे ‘शून्य’ की संज्ञा देते हैं। उनका यह ‘शून्य’ कोई अभाववादी शब्द नहीं है, अपितु एक अनिर्वचनीय परम तत्व का द्योतक है।
माध्यमिकों की इस विचारधारा को शून्यवाद अथवा शून्य द्वैतवाद कहा जाता है। आत्मा-परमात्मा के आध्यात्मिक स्वरूप को चारों संप्रदाय अस्वीकार करते हैं। इसलिए बौद्ध दर्शन को अनात्मवादी एवं अनीश्वरवादी दर्शन कहा जाता है। वैभाषिक एवं सौत्रांतिक आत्मा के स्थान पर चित्त, योगाचार विज्ञान और माध्यमिक शून्य के अस्तित्व में विश्वास करते हैं।
बौद्ध दर्शन कर्म सिद्धांत और पुनर्जन्म दोनों में विश्वास करता है, परंतु इसका कर्म सिद्धांत अन्य धर्म-दर्शनों से भिन्न है। बौद्ध दर्शन के अनुसार मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर नया जन्म प्राप्त करता है, परंतु इन पूर्व जन्म के कर्मों का फलदाता कोई अन्य (ईश्वर आदि) नहीं है, कर्म स्वयं ही अपने फल देते हैं।
बौद्ध दर्शन का ज्ञान एवं तर्क मीमांसा
बौद्ध दर्शन में ज्ञान के स्वरूप और उसे प्राप्त करने के उपायों के संबंध में भी बड़ा मतभेद है। वैभाषिक और सौत्रांतिक दोनों बाह्य जगत की सत्ता स्वीकार करते हैं, यह बात दूसरी है कि वैभाषिक उसे चित्त निरपेक्ष मानते हैं और सौत्रांतिक चित्त सापेक्ष। पदार्थों के धर्मों एवं चित्त की क्रियाओं के ज्ञान को ये वास्तविक ज्ञान मानते हैं। वैभाषिकों के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के दो साधन हैं। ग्रहण और अध्यवसाय। ग्रहण का अर्थ है इंद्रियों द्वारा प्रत्यक्ष करना, इसके द्वारा पदार्थ के सामान्य रूप का ज्ञान होता है। पदार्थ को नाम एवं जाति आदि कल्पना से संयुक्त करना अध्यवसाय है। सौत्रांतिक इंद्रिय प्रत्यक्ष के आधार पर चित्त द्वारा अनुमान करने की क्रिया पर बल देते हैं।
योगाचार सम्प्रदाय (विज्ञानवाद)
योगाचार और माध्यमिक जगत की स्वतंत्र सत्ता नहीं मानते, वे उसकी केवल व्यावहारिक सत्ता मानते हैं। योगाचार उसके मूल में विज्ञान और माध्यमिक शून्य के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और उसको प्राप्त करने के लिए योग की क्रियाओं पर बल देते हैं। इनके अनुसार बुद्धि ही आकार के साथ है अर्थात् बुद्धि में ही बाह्यार्थ चले आते हैं। चित्त अर्थात् आलयविज्ञान में अनन्त विज्ञानों का उदय होता रहता है। क्षणभंगिनी चित्त सन्तति की सत्ता से सभी वस्तुओं का ज्ञान होता है। वस्तुत: ये बाह्य सत्ता का सर्वथा निराकरण करते हैं। इनके यहाँ माध्यमिक मत के समान सत्ता दो प्रकार की मानी गई है। (अ) पारमार्थिक (ब) व्यावहारिक। व्यावहारिक में पुनश्च परिकल्पित और परतन्त्र दो रूप ग्राह्य हैं। यहाँ चित्त की ही प्रवृत्ति तथा निवृत्ति (निरोध, मुक्ति) होती है। सभी वस्तुऐं चित्त का ही विकल्प है। इसे ही आलयविज्ञान कहते हैं। यह आलयविज्ञान क्षणिक विज्ञानों की सन्तति मात्र है।
माध्यमिक सम्प्रदाय (शून्यवाद)
यहाँ बाह्य एवं अन्त: दोनों सत्ताओं का शून्य मेंं विलयन हुआ है, जो कि अनिर्वचनीय है। ये केवल ज्ञान को ही अपने में स्थित मानते हैं और दो प्रकार का सत्य स्वीकार करते हैं। (अ) सांवृत्तिक सत्य- अविद्याजनित व्यावहारिक सत्ता। (ब) पारमार्थिक सत्य-प्रज्ञाजनित सत्य।
बौद्धों के इन चारों सम्प्रदायों में से प्रथम दो का सम्बन्ध हीनयान से तथा अन्तिम दोनों का सम्बन्ध महायान से है। हीनयानी सम्प्रदाय यथार्थवादी तथा सर्वास्तिवादी है, जबकि महायानी सम्प्रदायों में से योगाचारी विचार को ही परम तत्त्व तथा परम रूप में स्वीकार करते हैं। माध्यमिक दर्शन एक निषेधात्मक एवं विवेचनात्मक पद्धति है। यही कारण है कि माध्यमिक शून्यवाद को सर्ववैनाशिकवाद के नाम से भी जाना जाता है।
बुद्ध का दर्शन
बौद्ध धर्म पशुओं और अहिंसा की रक्षा पर जोर देता है। बुद्ध के अनुसार मानव स्वयं अपने भाग्य का निवारण करने वाला होता है, को ईश्वर नहीं होता है। इसलिए बौद्ध धर्म वेदों और ईश्वर की प्रमाणिकता पर विश्वास नहीं करता है। बौद्ध धर्म की सारी शिक्षा का सारांश चार्य आर्य सत्य? में मिलता है।
बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित है। इसमें विश्वास प्रणाली के मुख्य सिद्धांत कर्म, पुनर्जन्म और नश्वरता हैं।
बुद्ध द्वारा प्रचारित चार महान सत्य हैं कि जीवन दुख से भरा है।
1. दुख जीवन का अंतिम सत्य है। बुद्ध ने पहले सत्य का प्रतिपादन किया कि दु:ख पीड़ा का एक कारण है। मनुष्य का संपूर्ण जीवन दुखों से पूर्ण है, जिन्हें वह क्षणभर के लिए सुख समझ बैठता है वे भी तृष्णा को उत्पन्न करते हैं और इस प्रकार दुखों को उत्पन्न करते हैं।
2. दुख का कारण (दुख समुदाय)। बुद्ध ने दूसरा सत्य का प्रतिपादन किया कि मनुष्य के दुखों का मूल कारण अज्ञान है। अज्ञान के कारण ही वह इन्द्रिय भोग में सुख समझने लगता है तथा और अधिक पाने की इच्छा अर्थात् तृष्णा से सदैव दुखी रहता है। दुख को रोकना संभव है।
3. दुख का निवारण संभव (दुख निरोध)। बुद्ध ने तीसरे सत्य का प्रतिपादन किया कि मनुष्य कि अज्ञान अर्थात् जीवन के प्रति मोह तथा और अधिक प्राप्त करने की तृष्णा की समाप्ति से मनुष्य इन सांसारिक दुखों से छूटकारा प्राप्त कर सकता है।
4. दुख निवारण का उपाय (दुख निरोध मार्ग अथवा निर्वाण मार्ग) बुद्ध ने चौथे सत्य का प्रतिपादन किया कि मनुष्य जीवन के मोह तथा और अधिक प्राप्ति की तृष्णा से मुक्त होने के लिए उन्होंने आष्टांगिक मार्ग या मध्यम मार्ग की खोज की।
1. सम्यक दृष्टि- बुद्ध के अनुसार मनुष्य के दुखों का मूल कारण अज्ञान है, अज्ञान के कारण ही उसकी भौतिक वस्तुओं में आसक्ति होती है, वह और अधिक पाने की इच्छा (तृष्णा) से ग्रसित रहता है और सदैव दुखी रहता है। अत: सबसे पहली आवश्यकता है-सत्य ज्ञान।
2. सम्यक संकल्प- बुद्ध के अनुसार सत्य ज्ञान होने के बाद दूसरी आवश्यकता है उस सत्य के आधार पर पर चलने का दृढ़निश्चय।
3. सम्यक वचन- बुद्ध के अनुसार तीसरा मार्ग है। संयमित वाणी, सत्य वचन (सम्यक वचन, सम्मा वाचा)। उनके अनुसार असत्य एवं कटु वाणी मनुष्य के अनेक दुखों का कारण होती है अत: उसे सदैव सत्य बोलना चाहिए और कभी भी कटु नहीं बोलना चाहिए।
4. सम्यक कर्म- सम्यक वचन के बाद सम्यक वचन के अनुसार सम्यक कर्म अर्थात सत्य कर्म करना आवश्यक है। बुद्ध के अनुसार सत्य कर्मों में सत्य, अहिंसा, अस्तेय तथा करुणा का पालन एवं अधिक भोजन करने, इंद्रिय भोग में लीन होने और निंदा करने आदि दुष्कर्मों से दूर रहना आवश्यक है।
5. सम्यक जीव- बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अपनी जीविका कमाने के लिए भी उचित मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। गलत रास्तों से धनोपार्जन करने एवं आवश्यकता से अधिक धनोपार्जन करने का बुद्ध ने निषेध किया है।
6. सम्यक व्यायाम- इसका अर्थ है कि अपनी तथा दूसरों की भलाई के लिए सदैव प्रयत्न करना। इसके लिए आत्मानुशासन एवं करुणा, इन दो का होना आवश्यक है। जब तक मनुष्य अपने पर नियंत्रण नहीं करता और दूसरों की भलाई के लिए तैयार नहीं होता वह सम्यक् व्यायाम नहीं कर सकता। संयम, करुणा और दया बौद्ध आचार के मूल आधार माने जाते हैं।
7. सम्यक स्मृति- इसका अर्थ है-सत्य मति। गौतम बुद्ध के अनुसार निर्वाण के इच्छुक को अपनी मति को सदैव सही रखना चाहिए, उसे चार आर्य सत्यों को सदैव अपनी स्मृति में बनाए रखना चाहिए और तदनुकूल आचरण करना चाहिए।
8. सम्यक समाधि- बुद्ध के अनुसार उपरोक्त सात मार्गों का पालन करने वाले व्यक्ति का ही मन शांत हो सकता है और वही एकाग्र मन से समाधि की स्थिति प्राप्त कर सकता है। बुद्ध ने मन को संसार से हटा लेने को ही समाधि कहा है। इस स्थिति में ही मनुष्य संसार के दुखों से छूट सकता है निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
आष्टांगिक मार्ग पर चलने हेतु शरीर शुद्धि पहली आवश्यकता है। शरीर शुद्धि के बौद्धदर्शन में तीन साधन बताए हैं-शील, समाधि तथा प्रज्ञा। इन्हें त्रिरत्न कहते हैं। यहाँ इनका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत हैं।
1. शील अर्थात सात्विक कर्म। अहिंसा, अस्तेय, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य तथा नशा का सेवन न करना, ये पंचशील हैं जिनका पालन गृहस्थ तथा भिक्षुओं दोनों के लिए अनिवार्य है। भिक्षुओं के लिए अन्य पाँच शीलों का भी विधान है, वे हैं। कुसमय भोजन नहीं करना, माला-सुगंध आदि के प्रयोग से बचना, संगीत व स्वर्ण-रजत का त्याग तथा महत्त्वपूर्ण शैय्या का त्याग।
2. समाधि अर्थात चित्त की नैसर्गिक एकाग्रता। समाधि से तीन प्रकार की विधाएँ उत्पन्न होती नोट हैं-पूर्व जन्म की स्मृति, जीव की उत्पत्ति तथा विनाश का ज्ञान और चित्त के बाधक विषयों की जानकारी।
3. प्रज्ञा अर्थात श्रुतमयी (सुनी हुई), चिंतामयी (युक्ति से उत्पन्न) और भावनामयी (समाधिजन्य निश्चय)।
महायान सम्प्रदाय निर्वाण के लिए बुध्द की पूजा को भी आवश्यक मानता हैं। इनके यहाँ सप्त विधि अनुत्तर पूजा (वंदना, पूजा, पाप देशना, पूण्यान मोदन, अध्येषणा, बोधिचिंतोत्पाद तथा परिणामना) का विधान है। इनकी दृष्टि से इसके लिए नैतिक जीवन परमावश्यक है और नैतिक जीवन के लिए षट्पारामिताओं (दान, वीर्य, शील, शांति, ध्यान और प्रज्ञा) का अर्जन आवश्यक है। यही संक्षेप में बौद्ध दर्शन की मूल्य एवं आचार मीमांसा है।
बौद्ध दर्शन की परिभाषा
बौद्ध दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा के आधार पर हम उसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित कर सकते हैं। बौद्ध दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को न तो केवल वस्तुजन्य मानती है और न केवल आध्यात्मिक तत्व द्वारा निर्मित, यह इसे परिणामशील मानती है। यह आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है, जिसे चार आर्य सत्यों के ज्ञान एवं आर्य अष्टांग मार्ग तथा त्रिरत्न के पालन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत
बौद्ध दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं।
1. यह ब्रह्माण्ड परिणामशील है। श्रौत दर्शन के अनुसार इस ब्रह्माण्ड का मूल तत्व आध्यात्मिक है और चार्वाक दर्शन के अनुसार यह ब्रह्माण्ड चार मूलभूतों (भौतिक पदार्थों) से निर्मित है। लेकिन बुद्ध ने इनके विपरीत परिणाम की सत्ता स्वीकार की है। बुद्ध के अनुयायियों ने भी इस पर अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं।
2. वस्तु जगत और मानसिक जगत दोनों की सत्ता है। वैभाषिकों के अनुसार यह इंद्रियग्राह्य जगत सत्य है और इसके साथ-साथ मन-चित्त अथवा विज्ञानद्ध के जगत की भी सत्ता है, परंतु है सब परिवर्तनशील। योगाचार और माध्यमिक इस वस्तु जगत की स्वतंत्रा सत्ता स्वीकार नहीं करते। योगाचार दर्शन के अनुसार यह बाह्य जगत विज्ञान (मन अथवा चित्त) की अभिव्यक्ति है और माध्यमिक दर्शन के अनुसार यह बाह्य जगत शून्य (अनिर्वचनीय परम तत्व) की अभिव्यक्ति है। ये दोनों संप्रदाय वस्तु जगत की केवल व्यावहारिक सत्ता मानते हैं।
3. आत्मा-परमात्मा की आध्यात्मिक सत्ता नहीं है। बौद्ध दर्शन आध्यात्मिक तत्व आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। उसके स्थान पर वैभाषिक एवं सौत्रांतिक क्रियाशील तत्व की सत्ता में विश्वास करते हैं, योगाचार विज्ञान की सत्ता में और माध्यमिक शून्य की सत्ता में।
4. हीनयान सम्प्रदाय का मत है कि संसार के समस्त पदार्थ पाँच स्कंधों से निर्मित हैं। ये पंच स्कंध हैं। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान। महायान सम्प्रदाय इसे विज्ञान अथवा शून्य की प्रतीति मानते हैं। दोनों संप्रदाय यह बात स्वीकार करते हैं कि प्राणी (मनुष्य) पूर्व कर्मों के कारण उत्पन्न होने वाले धर्मों का संघात मात्रा है, यह तो उसका भ्रम है कि उसके अंदर कोई आत्मा है। आष्टांगिक मार्ग से व्यक्ति को वस्तुओं की अनित्यता का आभास हो जाता है।
5. मनुष्य का विकास बाह्य एवं आंतरिक क्रियाओं द्वारा होता है। बौद्ध मतावलंबी कारण-कार्य सिद्धांत में विश्वास करते हैं। इनकी दृष्टि से मनुष्य का विकास पूर्वजन्म में किए गए कर्मों, वर्तमान में किए जा रहे कर्मों और भविष्य में किए जाने वाले कर्मों, तीनों पर निर्भर करता है। हीनयान सम्प्रदाय के अनुसार मानव के विकास का चरम रूप अर्हत पद की प्राप्ति है और महायान सम्प्रदाय के अनुसर बुद्धत्व की प्राप्ति।
6. मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है। हीनयान सम्प्रदाय निर्वाण को दुखों का अभाव मात्रा मानते हैं, परंतु महायान सम्प्रदाय निर्वाण को आनंद का रूप मानते हैं। वैभाषिक एवं सौत्रांतिकों के अनुसार इंद्रिय भोग से विमुख होना अर्थात् तृष्णा के विरोध से दुखों का अंत ही निर्वाण है।
7. निर्वाण के लिए अष्टांग मार्ग आवश्यक है। हीनयान सम्प्रदाय (वैभाषिक और सौत्रांतिक) बुद्ध द्वारा बताए मार्ग का अनुसरण करते हैं। उनके अनुसार चार आर्य सत्यों के ज्ञान और अष्टांग मार्ग का अनुसरण करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है। महायान सम्प्रदाय (योगाचारी और माध्यमिक) निर्वाण के लिए चार आर्य सत्यों के ज्ञान और अष्टांग मार्ग के अनुसरण के साथ-साथ भक्ति पर भी बल देते हैं।
8. आष्टांगिक मार्ग पर चलने के लिए त्रिरत्न का पालन आवश्यक है। बौद्ध दर्शन में त्रिरत्न-शील, समाधि और प्रज्ञा को मानव आचरण का मूल माना गया है। शीलों में भी पंचशील (अहिंसा, अस्तेय, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य और नशा न करना) तो गृहस्थ और भिक्षुक दोनों के लिए आवश्यक बताए गए हैं। समाधि अर्थात् चित्त की नैसर्गिक एकाग्रता और प्रज्ञा को भी निर्वाण के लिए आवश्यक माना गया है।
9. राजा का मूल कर्तव्य प्रजा का पालन और उसे सत्य मार्ग पर लगाना है। बुद्ध कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र थे। उनकी दृष्टि से राजा का कर्तव्य है प्रजा का पालन करना। साधु के रूप में उन्होंने इस प्रजा पालन में प्रजा को सद्मार्ग पर लगाने की बात भी राजा के कर्तव्यों में जोड़ दी। आगे चलकर बौद्ध धर्म और दर्शन के प्रचार में भी राज्य का सहयोग प्राप्त किया गया। किसी भी स्थिति में बौद्ध दार्शनिक राजा अथवा राज्य से यह आशा करते रहे कि वह प्रजा के आचरण पर नियंत्रण रखे।
10. क्षणिकवाद- बौद्धों के अनुसार वस्तु का निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और कोई भी पदार्थ एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं रहता है। कोई भी मनुष्य किसी भी दो क्षणों में एक सा नहीं रह सकता, इसिलिये आत्मा भी क्षणिक है और यह सिद्धान्त क्षणिकवाद कहलाता है । इसके लिए बौद्ध मतानुयायी प्राय: दीपशिखा की उपमा देते हैं। जब तक दीपक जलता है, तब तक उसकी लौ एक ही शिखा प्रतीत होती है, जबकि यह शिखा अनेकों शिखाओं की एक श्रृंखला है। एक बूँद से उत्पन्न शिखा दूसरी बूंद से उत्पन्न शिखा से भिन्न है, किन्तु शिखाओं के निरन्तर प्रवाह से एकता का भान होता है। इसी प्रकार सांसारिक पदार्थ क्षणिक है, किन्तु उनमें एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त ‘नित्यवाद’ और ‘अभाववाद’ के बीच का मध्यम मार्ग है।
11. प्रतीत्यसमुत्पाद से तात्पर्य है कि एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर एक कार्य की उत्पत्ति से है। प्रतीत्यसमुत्पाद सापेक्ष भी है और निरपेक्ष भी। सापेक्ष दृष्टि से वह संसार है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण। यह क्षणिकवाद की भाँति शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के मध्य का मार्ग है। इसीलिए इसे मध्यममार्ग कहा जाता है और इसको मानने वाले माध्यमिक। इस चक्र के बारह क्रम हैं, जो एक दूसरे को उत्पन्न करने के कारण हैं। 1. अविद्या 2. संस्कार 3. विज्ञान 4. नाम-रूप 5. षडायतन 6. स्पर्श 7. वेदना 8. तृष्णा 9. उपादान 10. भव 11. जाति 12. जरा-मरण।
बुद्ध सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में कहते हैं कि ‘प्रत्युत्य सम उत्पात’ अर्थात एक स्वतन्त्र तत्व ने अन्य किसी स्वतन्त्र तत्व से मिलकर एक प्राकृतिक स्वतन्त्र रचना का निर्माण किया है और इन प्राकृतिक स्वतन्त्र रचनाओं का चरित्र अनित्य, नश्वर, क्षणभंगूर और परिवर्तनशील है, यानि ब्रह्माण्ड का विकास एक साथ नहीं हुआ है, उसका स्वरूप निरन्तर बदलता रहता है तथा इस सृष्टि का कोई मालिक या रक्षक नहीं है अर्थात यह दुनिया नियमात्मक और स्वचालित है। मैं भी एक मानव हूँ, मैने भी आपकी तरह ही माँ के पेट से जन्म लिया है सब कुछ यहीं छोड़कर जाना है हमारी उत्पत्ति का कारण है, पृथ्वी की अनंत ऊर्जा। बुद्ध के 2400 साल बाद सृष्टि उत्पत्ति उत्क्रांति के बुद्ध के सिद्धांतो को डाँ.अल्बर्ट आईन स्टाइन और चार्ल्स डर्बन दोनों वैज्ञानिको ने सिद्ध करके बुध्द के सामने नतमस्तक होकर कहा है कि, ‘बुद्ध दुनिया के सबसे पहले वैज्ञानिक हैं।’
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