2023-08-22 09:11:57
साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफारिश को लागू किया था। ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी। इस फैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया। इस आयोग के अध्यक्ष थे बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल यानी बीपी मंडल (B.P Mandal)। बीपी मंडल का जन्म 25 अगस्त, 1918 को बनारस में हुआ था। बीपी मंडल विधायक, सांसद, मंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे। लेकिन दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष के रूप में की गई सिफारिशों के कारण ही उन्हें इतिहास में नायक, खासकर पिछड़ा वर्ग के एक बड़े आइकन के रूप में याद किया जाता है। दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनावों में बनी जनता पार्टी की मोरारजी भाई देसाई की सरकार ने किया था। दरअसल, जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में ऐसे आयोग के गठन की घोषणा की थी। इस आयोग के अध्यक्ष के रूप में बीपी मंडल को इसलिए चुना गया था कि आयोग का जो अध्यक्ष हो उसकी बड़ी हैसियत होनी चाहिए। वो (बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल) बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके थे। साथ ही वे पिछड़ा वर्ग के हितों के बड़े हिमायती थे। वे इसके बड़े पैरोकार थे कि पिछड़ा वर्ग को आरक्षण मिलना चाहिए।
बचपन से की आवाज बुलंद
बीपी मंडल का जब जन्म हुआ था, तब उनके पिता रास बिहारी लाल मंडल बीमार थे और बनारस में आखिरी सांसें गिन रहे थे। जन्म के अगले ही दिन बीपी मंडल के सिर से पिता का साया उठ गया। मृत्यु के समय रास बिहारी लाल मंडल की उम्र सिर्फ 54 साल थी। बीपी मंडल का ताल्लुक बिहार के मधेपुरा जिले के मुरहो गांव के एक जमींदार परिवार से था। मधेपुरा से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर बसा है मुरहो। इसी गांव के किराई मुसहर साल 1952 में मुसहर जाति से चुने जाने वाले पहले सांसद थे। मुसहर अभी भी बिहार की सबसे वंचित जातियों में से एक है। किराई मुसहर से जुड़ी मुरहो की पहचान अब लगभग भुला दी गई है। अब ये गांव बीपी मंडल के गांव के रूप में ही जाना जाता है। राष्ट्रीय राजमार्ग-107 से नीचे उतरकर मुरहो की ओर बढ़ते ही बीपी मंडल के नाम का बड़ा सा कंक्रीट का तोरण द्वार है। गांव में उनकी समाधि भी है। बीपी मंडल की शुरूआती पढ़ाई मुरहो और मधेपुरा में हुई। हाई स्कूल की पढ़ाई दरभंगा स्थित राज हाई स्कूल से की। स्कूल से ही उन्होंने पिछड़ों के हक में आवाज उठाना शुरू कर दिया था। राज हाई स्कूल में बीपी मंडल हॉस्टल में रहते थे। वहां पहले अगड़ी कही जाने वाली जातियों के लड़कों को खाना मिलता उसके बाद ही अन्य छात्रों को खाना दिया जाता था। उस स्कूल में फॉरवर्ड बेंच पर बैठते थे और बैकवर्ड नीचे। उन्होंने इन दोनों बातों के खिलाफ आवाज उठाई और पिछड़ों को भी बराबरी का हक मिला। स्कूल के बाद की पढ़ाई उन्होंने बिहार की राजधानी के पटना कॉलेज से की। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ दिन तक भागलपुर में मजिस्ट्रेट के रूप में भी सेवाएं दीं और साल 1952 में भारत में हुए पहले आम चुनाव में वे मधेपुरा से कांग्रेस के टिकट पर बिहार विधानसभा के सदस्य बने। बीपी मंडल को राजनीति विरासत में भी मिली थी। बीपी मंडल के पिता कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।
पचास दिन रहे मुख्यमंत्री
बीपी मंडल साल 1967 में लोकसभा के लिए चुने गए। हालांकि तब तक वे कांग्रेस छोड़कर राम मनोहर लोहिया की अगुवाई वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता बन चुके थे। 1967 के चुनाव के बाद बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेस सरकार बनी जिसमें बीपी मंडल स्वास्थ्य मंत्री बने। ये एक गठबंधन सरकार थी और इसके अपने अंतर्विरोध थे। ये सरकार करीब 11 महीने ही टिक पाई। इस बीच बीपी मंडल के भी अपने दल से गंभीर मतभेद हो गए। उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर शोषित दल बनाया और फिर अपने पुराने दल कांग्रेस के ही समर्थन से एक फरवरी, 1968 को बिहार के मुख्यमंत्री बने। मगर इस पद पर वे महज पचास दिन तक ही रहे। उनके मुख्यमंत्री बनने के पहले केवल पांच दिन के लिए बिहार के कार्यवाहक मुख्यमंत्री रहे बीपी मंडल के मित्र सतीश प्रसाद सिंह उस दौर के घटनाक्रम को याद करते हुए कहते हैं, मुख्यमंत्री बनने के पहले उनका बिहार विधान परिषद का सदस्य बनना जरूरी था। एक एमएलसी परमानंद सहाय ने इस्तीफा दिया। इसके बाद कैबिनेट की मीटिंग बुलाकर मैंने मंडल जी को एमएलसी बनाने की सिफारिश की और फिर अगले दिन विधान परिषद का सत्र बुलाकर उनको शपथ भी दिला दी। इस तरह उनके मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ कर दिया।
इंदिरा ने लागू नहीं की रिपोर्ट
मंडल आयोग का गठन मोरारजी देसाई की सरकार के समय 1 जनवरी, 1979 को हुआ और इस आयोग ने इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान 31 दिसंबर 1980 को रिपोर्ट सौंपी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आयोग का कार्यकाल बढ़ाने की सिफारिश को स्वीकार कर लिया। इंदिरा जी महसूस करती थीं कि ये सोशल हामोर्नी के लायक नहीं है। इसे तत्काल लागू करना ठीक नहीं है। बाद में अगर वीपी सिंह और देवी लाल का झगड़ा नहीं होता तो रिपोर्ट लागू ही नहीं होती।
आयोग अध्यक्ष बीपी मंडल के काम का मूल्यांकन करते हुए धनिक लाल मंडल ने कहा था, काम तो ठीक ही कर रहे थे मगर उन्होंने रिपोर्ट पूरा करने में बहुत समय ले लिया। हम गृहमंत्री की हैसियत से उनको कहते भी रहे कि जरा जल्दी कर दीजिए जिससे कि हमारी सरकार इसकी अनुशंसाओं पर विचार कर सके। मगर उन्होंने समय कुछ अधिक लगा दिया।
ईमानदार थे और कंजूस भी
बीपी मंडल का जीवन सादगी और सहजता से भरा था। इसके बारे में उनके पोते निखिल मंडल बताते हैं, मेरी बहन पटना के माउंट कॉर्मेल स्कूल में पढ़ती थी। दादाजी को जब मौका मिलता वे खुद कार चलाकर उसे स्कूल छोड़ने या लाने चले जाते थे। बिना लाव-लश्कर के मधेपुरा आया करते थे। वे जमींदार परिवार से थे लेकिन कोई गरीब व्यक्ति भी आता तो बराबरी और सम्मान के साथ बिठाकर बात करते थे।
वहीं सतीश प्रसाद सिंह बताते हैं, गुण तो बहुत था मगर कुछ अवगुण भी थे। जो बोलना था वे बोल देते थे, उसके असर के बारे में सोचते नहीं थे। जैसे कि मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस के एक नेता के बारे में कह दिया कि बार्किंग डॉग्स सेल्डम बाइट। और इस बयान के कुछ दिन बाद उनकी सरकार गिरा दी गई। गुण ये था कि ईमानदार बहुत थे। साथ ही कंजूस भी बहुत थे। एक पैसा खर्च करना नहीं चाहते थे। हम दोनों के पास फिएट गाड़ी थी मगर वे कहते थे कि सतीश बाबू आपकी गाड़ी नई है, उसी से चलेंगे। इस पर मैं कहता कि ऐसी बात नहीं है, आप पैसे बचाना चाहते हैं।
कोसी इलाके में जगन्नाथ मिश्र और बीपी मंडल के परिवार के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी रही। इसकी एक वजह मधेपुरा को जिÞला बनाने के लेकर हुआ विवाद भी था। बताया जाता है कि राजनीतिक कारणों से मधेपुरा से पहले सहरसा को जिÞला बना दिया गया। लेकिन अस्सी के दशक में जब जगन्नाथ मिश्र ने मुख्यमंत्री रहते मधेपुरा को जिÞला बनाया तो बीपी मंडल ने मंच से जगन्नाथ मिश्र की तारीफ की।
जगन्नाथ मिश्र जी ने याद करते हुए कहा था, मधेपुरा के जिला बनने संबंधी आयोजन में जो जमात इकट्ठी हुई वो ऐतिहासिक थी। मंच से ही मैंने जिÞले के डीएम-एसपी के नाम की घोषणा की। मंच पर बीपी मंडल भी मौजूद थे। उन्होंने कहा कि ये (जगन्नाथ) मेरा बच्चा है। हम इसे आशीर्वाद देते हैं। ये मधेपुरा के लिए बहुत कुछ करेगा।
13 अप्रैल, 1982 को पटना में बीपी मंडल की मौत हुई। मंडल के परिजनों ने ख्वाहिश जताई थी कि वे अंतिम संस्कार मधेपुरा स्थित पैतृक गांव मुरहो में करना चाहते हैं। बिहार सरकार ने उनका पार्थिव शरीर ले जाने के लिए सरकारी प्लेन का इंतजाम किया और मुख्यमंत्री उनके शव के साथ उनके गांव तक भी गये।
मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पहले 1990 में पिछड़ा वर्ग को नौकरियों में आरक्षण मिला और बाद में मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल के दौरान साल 2006 में उच्च शिक्षा में ये व्यवस्था लागू की गई।
मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने, खास कर नौकरी संबंधी सिफारिश के लागू होने के बाद पिछड़ा वर्ग से आने वाली एक बड़ी आबादी अब जवान हो चुकी है।
राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य संतोष यादव युवा पीढ़ी उन्हें किस रूप में याद करती है, बताते हैं मंडल कमीशन ने इस देश में एक नई चेतना का विस्तार किया है। मंडल के दौर में हम बच्चे थे। सिफारिशों के लागू होने से हुई सामाजिक हलचल को मैंने देखा है। पिछड़ा वर्ग से आने वाले युवा उन्हें एक नायक, एक आइकन, एक उद्धारक के रूप में याद करते हैं।
बीपी मंडल का पैतृक घर
दूसरी ओर मंडल आयोग की कई अहम सिफारिशों को अभी भी जमीन पर उतारा जाना बाकी है। ये जानना दिलचस्प है कि एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते हुए भी मंडल आयोग की सिफारिशों में भूमि सुधार संबंधी सिफारिश भी है। देश की विशाल आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले पिछड़ा वर्ग को आजादी के करीब पांच दशक बाद मंडल आयोग की एक सिफारिश लागू होने से अधिकार मिला। लेकिन सामाजिक न्याय को पूरी तरह से जमीन पर उतारने के लिए उनकी दूसरी कई सिफारिशों को भी लागू किया जाना जरूरी है। जिनमें शिक्षा-सुधार, भूमि-सुधार, पेशागत जातियों को सरकारी स्तर पर नई तकनीक और व्यापार के लिए वित्तीय मदद मुहैया कराने से जुड़ी सिफारिशें शामिल हैं। इन्हें लागू करना ही बीपी मंडल को सही मायनों में श्रद्धांजलि देना होगा।
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