2023-03-17 11:34:33
डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्म उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में स्थित तमसा नदी के किनारे बसे कस्बे अकबरपुर में 23 मार्च, 1910 को हुआ। उनके पिता का नाम हीरालाल था जोकि अध्यापक थे और राष्ट्रभक्त भी थे, साथ ही गाँधी जी के अनुयायी थे। उनकी माता जी का नाम श्रीमती चन्दा देवी था वो भी एक शिक्षिका थीं।
शिक्षा: जब लोहिया जी ढाई वर्ष के हुए तभी उनकी माताजी का निधन हो गया। तब उन्हें दादी और सरयूदेई ने मिल कर पाला। उन्होंने अपनी प्रारभिक शिक्षा टंडन पाठशाला से ली और उसके बाद विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में अपना दाखिला लिया। पढाई में वे हमेशा आगे रहते थे। इस कारण अपने अध्यापकों के चहेते थे। आखिर में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इण्टर की पढाई की। काशी उस समय राष्ट्रीय शिक्षा का गढ़ समझा जाता था। इण्टर पास करने के बाद सन 1927 में लोहिया कलकत्ता आ गए। उन्होंने सेंट जेवियर्स तथा स्काटिश चर्च जैसे ख्यातिनामा महाविद्यालय को छोड़कर विद्यासागर महाविद्यालय में प्रवेश लिया था, जो उस समय ‘भेंड़ों की सराय’ के नाम से जाना जाता था। लेकिन इस कॉलेज के प्राचार्य राष्ट्रीय विचारधारा से सम्बद्ध थे और लोहिया राष्ट्रीय विचारधारा के पूर्णत: समर्थक थे। लोहिया का अंग्रेजी भाषा पर खासा अधिकार था। मित्रों पर खर्च करने के वे बड़े शौकीन थे। इससे उन्हें आन्तरिक प्रसन्नता की अनुभूति और संतोष मिलता था। दूसरी तरफ उनके इतिहास प्रेम की परिणति सिनेमा देखना, पुस्तकें खरीदना और उपन्यास पढ़ने में हो गई थी।
डॉ. लोहिया के मन में स्वतंत्र देश का स्वाभिमान जाग उठा था। वे शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा सम्मान के प्रति ज्यादा सजग हो उठे थे। उनमें इसके साथ अपने देश को आजाद कराने की बात गहरे पैठती गई थी। वे देश की आजादी के प्रतिबद्ध हो चुके थे। इन्हीं कारणों से लोहिया बर्लिन के लिए रवाना हो गए। वहाँ उन्होंने बर्लिन के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। विश्वविख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर बर्नर जोम्बार्ट उसी विश्वविद्यालय में थे। लोहिया ने उनको ही अपना निर्देशक तथा परीक्षक चुना।
मातृभाषा के प्रति प्रेम: लोहिया बर्नर जोम्बार्ट के सामने साक्षात्कार हेतु प्रस्तुत होना था। लोहिया बिना झिझक उनके सामने पहुँचे और प्रोफेसर जोम्बार्ट के प्रश्नों के उत्तर अंग्रेजी में देने लगे। कुछ देर प्रोफेसर मुस्कराए और जर्मन भाषा में बोले कि, ‘‘उन्हें अंग्रेजी नहीं आती है।’’ वाह रे, मातृभाषा प्रेम! लोहिया प्रोफेसर का अपनी मातृभाषा के प्रति ऐसा अनन्य प्रेम देखकर श्रद्धानत हो गए और उन्हें तीन माह बाद पुन: आने का आश्वासन देकर लौट पड़े। यहीं से उनमें मातृभाषा प्रेम जोर पकड़ गया था और वे आजीवन मातृभाषा के हिमायती रहे।
तीन माह रात-दिन जुटकर जर्मन भाषा में खासी सफलता प्राप्त कर ली। इसके साथ ही यह सुदृढ़ निश्चय भी हो गया कि ज्ञान तथा अभिव्यक्ति के लिए किसी खास भाषा का ज्ञान होना जरूरी नहीं होता। मातृभाषा को छोड़कर ज्ञान व अभिव्यक्ति का दूसरा सशक्त माध्यम कोई नहीं हो सकता। वे कलकत्ता में, अध्ययन करते हुए भी हिन्दी में बातचीत करना अधिक पसन्द करते थे। तीन माह बाद जब वे प्रोफेसर जोम्बार्ट से मिले, तब वे लोहिया के जर्मन भाषा-ज्ञान का परिचय पाकर मुग्ध हो गए। लोहिया ‘धरती का नमक’ शीर्षक से शोध प्रबन्ध लिखने में जुट गए।
विदेश से वापसी: चार साल के बाद लोहिया जर्मनी से अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. करके लौटे थे। लोहिया कलम के धनी थे। प्रतिभा की धार और विद्धत्ता ही उनकी पूँजी थी। वे सीधे मद्रास से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दू के कार्यालय पहुँचे। लोहिया जी ने अपना परिचय दिया और लेख लिखकर देने का कारण बताया। उन्होंने वहाँ बैठकर लेख लिख डाला और उसके लिए पारिश्रमिक स्वरूप पच्चीस रुपये प्राप्त किए।
लोहिया कलकत्ता आ गए। वहाँ अपने पिता से मिले। लोहिया को अपने चाचा से मालूम पड़ा कि, उनके पिता कारोबार बन्द कर सारा समय कांग्रेस को देने लगे हैं। लम्बी जेलयात्रा भी कर आए हैं। आजकल बड़ा बाजार को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बना रखा है। चरखा समिति बना डाली है। वे हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय में भी बैठते हैं। हिन्दू-मुसलमान के भेदभाव को दूर करने के लिए ‘कौमी बाल्टी’ रख छोड़ी है। उनकी दृष्टि में वह बाल्टी हिन्दू-मुसलमान एकता का प्रतीक है, क्योंकि दोनों ही उससे पानी लेकर पीते थे। लोहिया ने पाया कि कलकत्ता पहले से भी अधिक गरीब हो गया है। बेकारी बढ़ी है।
उधर समूचे देश में राजनीतिक अस्थिरता थी। सत्याग्रह में थकावट उतर आई थी। जंगल की सांय-सांय हवा तैर रही थी। गाँधी जी गोलमेज सम्मेलन के असफल होने पर लौटे ही थे कि, गिरफ़्तार कर लिये गए। नेहरू जी, सरदार पटेल अन्दर थे। खान अब्दुल गफ़्फार खाँ बर्मा जेल में थे और तत्कालीन वाइसराय विलिंगडन ने संकल्प ले रखा था कि वे कांग्रेस का आन्दोलन छह सप्ताह में खत्म करवा देंगे।
चिन्तन धारा: लोहिया की चिन्तन-धारा कभी देश-काल की सीमा की बन्दी नहीं रही। विश्व की रचना और विकास के बारे में उनकी अनोखी व अद्वितीय दृष्टि थी। इसलिए उन्होंने सदा ही विश्व-नागरिकता का सपना देखा था। वे मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व का नागरिक मानते थे। उनकी चाह थी कि एक से दूसरे देश में आने जाने के लिए किसी तरह की भी कानूनी रुकावट न हो और सम्पूर्ण पृथ्वी के किसी भी अंश को अपना मानकर कोई भी कहीं आ-जा सकने के लिए पूरी तरह आजाद हो।
जात-पात का विरोध: लोहिया जी जात-पात का विरोध करते थे। इस विषय पर अपना सुझाव भी दिया करते थे। कहते थे हम सब को इस जात-पात से ऊपर उठ कर एक दुसरे के साथ मिल जुल कर रहना चाहिए. एक साथ मिल जुल कर खाना पीना और रहना चाहिए एक दूसरे के हितो की बात करनी चाहिए, कोई भी वर्ग छोटा बड़ा नहीं होना चाहिए, ये तभी संभव हैं जब हम सब ‘रोटी और बेटी’ के माध्यम से इसे समाप्त करने की कोशिश में एक साथ आगे बढ़ेंगे।
शिक्षा संबंधी विचार: वे हमेशा चाहते थे की शिक्षा का स्तर बढे, सरकारी स्कूलों की स्थापना हो, जो सभी समुदाय वर्गों को एक समान शिक्षा प्रदान करे और भारत को शिक्षित करे।
निर्माता: लोहिया एक नयी सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निमार्ता थे। लेकिन आधुनिक युग जहाँ उनके दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका, वहीं उन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। अपनी प्रखरता, ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार और व्यापक गुणों के कारण वे अधिकांश में लोगों की पकड़ से बाहर रहे। इसका एक कारण है-जो लोग लोहिया के विचारों को ऊपरी सतही ढंग से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं। गहरी दृष्टि से ही लोहिया के विचारों, कथनों और कर्मों के भीतर के उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है, जो सूत्र लोहिया-विचार की विशेषता है, वही सूत्र ही तो उनकी विचार-पद्धति है।
मार्क्सवाद और गांधीवाद: लोहिया ने मार्क्सवाद और गांधीवाद को मूल रूप में समझा और दोनों को अधूरा पाया, क्योंकि इतिहास की गति ने दोनों को छोड़ दिया है। दोनों का महत्त्व मात्र-युगीन है। लोहिया की दृष्टि में मार्क्स पश्चिम के तथा गांधी पूर्व के प्रतीक हैं और लोहिया पश्चिम-पूर्व की खाई पाटना चाहते थे। मानवता के दृष्टिकोण से वे पूर्व-पश्चिम, काले-गोरे, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े राष्ट्र नर-नारी के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे।
समाजवादी पार्टी की स्थापना:
पटना में स्थित समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया के हॉल में 17 मई 1934 को आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादियों की एक सभा रखी गयी। उसमें समाजवाद को बढ़ावा देने के लिए समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। इस सभा में समाजवादी आंदोलन की एक रूपरेखा प्रस्तुत की गई। डॉ. राम मनोहर लोहिया समाजवादी विचारधारा के पुरोधा थे और उनकी राजनीति भी इसी विचारधारा के ईर्द-गिर्द थी। उन्हीं के नेतृत्व में एक समय देश की संसद में और कई राज्यों की विधानसभाओं में समाजवादी सांसदों और विधायकों की अच्छी खासी संख्या थी। उनके निधन के बाद समाजवादी आंदोलन धीरे-धीरे कमजोर हो गया और समाजवादी दल भी बिखर गया।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना: वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और वर्ष 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की आधारशिला रखी.
कारावास यात्रा: अंग्रेजो के खिलाफ देशवासियों के सामने भड़काऊ शब्द बोलने तथा सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार करने के जुर्म में उनको पहली बार अंग्रेजी हुकूमत ने गिरफ्तार किया था. लेकिन उन्हें दूसरे ही दिन छोड़ दिया गया क्योंकि युवाओं द्वारा विद्रोह करने का डर अंग्रेजो को सताने लगा। उन्होंने सन 1940 में एक लेख लिखा ‘सत्याग्रह नाउ’ के नाम से, और इस लेख को लिखने के आरोप में उन्हें दुबारा गिरफ्तार कर लिया गया, और 2 वर्ष के लिए उन्हें जेल भेज दिया गया। उन्हें बाद में सन 1941 में रिहा कर दिया गया। फिर भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी सक्रीय भूमिका निभाते रहे. उसी दौरान सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के कारण अंग्रेजों ने महात्मा गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और वल्लभभाई पटेल जैसे बड़े स्तर के स्वतन्त्रता सैनानियों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया।
एक प्रभावशाली सांसद: डॉ. राम मनोहर लोहिया की पहचान संसद में एक प्रभावशाली, समाजवादी और क्रांतिकारी विचारों वाले सांसद के रूप में थी। वे सभी प्रमुख मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखते थे। वे एक बहुत ही प्रभावशाली वक्ता थे और संसद में उनकी आवाज को ध्यान से सुना जाता था। वे भ्रष्टाचार के सख्त विरोधी थे। अपने जीवन में उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे कि उनपर किसी तरह का भ्रष्टाचार का आरोप लगे। वे जीवन भर अविवाहित थे और उन्होंने कोई धन संपत्ति नहीं बनाई।
देश विभाजन का विरोध: देश विभाजन को लेकर एक अलग सी लहर उठी हुई थी लेकिन लोहिया जी इस विभाजन के खिलाफ थे और उन्होंने इस विभाजन हिंसा के खिलाफ अपने द्वारा लिखे गए लेखो और भाषणों से इसका जोरदार विरोध किया।
क्रान्तियाँ: लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमों और क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षपाती थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वे सात क्रान्तियाँ थी:
=नर-नारी की समानता के लिए।
=चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ।
=संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए।
=परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए।
=निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए।
=निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए।
=अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये।
इन सात क्रांतियों के सम्बन्ध में लोहिया ने कहा-मोटे तौर से ये हैं सात क्रांन्तियाँ। सातों क्रांतियाँ संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करनी चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब नाइन्साफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये।
डॉ राममनोहर लोहिया की प्रकाशित पुस्तके:
डॉ राममनोहर लोहिया जी स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक के साथ साथ एक अच्छे विचारक लेखक व रचनाकार भी थे, उन्होंने बहुत सी पुस्तकों को लिखा हैं उनमे से कुछ पुस्तकें इस प्रकार हैं:
=हिंदू बनाम हिंदू
=अंग्रेजी हटाओ
=इतिहास चक्र
=देश, विदेश नीति-कुछ पहलू
=धर्म पर एक दृष्टि
=भारतीय शिल्प
=भारत विभाजन के गुनहगार
=मार्क्सवाद और समाजवाद
=समदृष्टि
=सच, कर्म, प्रतिकार और चरित्र निर्माण आह्वान
=समाजवादी चिंतन
=संसदीय आचरण
डॉ. लोहिया और सुभाष चन्द्र बोस: 1942 में महात्मा गाँधी ने जब भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत की तब कांग्रेस के सभी दिग्गज नेताओं ने उन्हें कहा कि इस समय दूसरे महायुद्ध के दौरान हमने अंग्रेजों की शक्ति बढ़ाने की कोशिश की तो इतिहास हमें फाँसीवाद का पक्षधार मानेगा। लेकिन गांधी जी नहीं माने। डॉ. लोहिया को गांधी जी का यह फैसला पसंद आया और वे भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। अगस्त क्रान्ति का चक्रप्रवर्तन हो चला। डॉ. लोहिया अंग्रेजों को चकमा देकर गिरफ़्तारी से बच निकले। अपनी समाजवादी मित्र मण्डली के साथ वे भूमिगत हो गये। भूमिगत रहते हुए भी उन्होंने बुलेटिनों, पुस्तिकाओं, विविध प्रचार सामग्रियों के अलावा समान्तर रेडियो कांग्रेस रेडियो का संचालन करते हुए देशवासियों को अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए प्रेरित किया। लेकिन जब अगस्त क्रान्ति का जन उबाल ठण्डा पड़ने लगा तब डॉ. लोहिया का ध्यान नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की अगुआई में आजाद हिन्द फौज द्वारा छेड़े गये सशस्त्र मुक्ति संग्राम की ओर गया। उस समय भारत के पूर्वोत्तर भाग में नेताजी का विजय अभियान जारी था। डॉ. लोहिया नेताजी से मिलने की योजना बना ही रहे थे कि अचानक 20 मई, 1944 को उन्हें मुम्बई में गिरफ़्तार कर लिया गया। देश के दुर्भाग्य से अगस्त क्रान्ति के वीर सेनानी डॉ. लोहिया और आजाद हिन्द फौज के सेनानायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का मिलन न हो सका।
डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर: सन 1956 में डॉ. लोहिया और डॉ. भीमराव अम्बेडकर के बीच निकटता बढ़ने लगी थी। कांग्रेस को सत्ताच्युत करने के लिये वे दोनों एक मंच पर आने के लिये राजी हो रहे थे। देश के सर्वांगीण विकास के लिये यह नितान्त आवश्यक समझा गया कि सोशलिस्ट पार्टी और आॅल इण्डिया बैकवर्ड क्लास एसोसिएशन का आपस में विलय हो जाए। इस प्रकार जो नवगठित पार्टी बने, डॉ. अम्बेडकर उसका अध्यक्ष पद स्वीकार करें। दोनों पार्टियों के बीच सिद्धान्तों, नीतियों, कार्यक्रमों और लक्ष्यों की दृष्टि से काफी हद तक समानता होने के कारण विलय के आसार नजर आने लगे थे कि तभी 6 दिसम्बर, 1956 को डॉ. अम्बेडकर का निधन हो गया। दुर्भाग्य ने यहाँ भी अपना रंग दिखा दिया।
निधन: 30 सितम्बर, 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल में पौरुष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहाँ 12 अक्टूबर 1967 को उनका देहांत 57 वर्ष की आयु में हो गया। कश्मीर समस्या हो, गरीबी, असमानता अथवा आर्थिक मंदी, इन तमाम मुद्दों पर राम मनोहर लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी। कई लोग राम मनोहर लोहिया को राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता मानते है। डॉ. लोहिया की विरासत और विचारधारा अत्यंत प्रखर और प्रभावशाली होने के बावजूद आज के राजनीतिक दौर में देश के जनजीवन पर अपना अपेक्षित प्रभाव कायम रखने में नाकाम साबित हुई। उनके अनुयायी उनकी तरह विचार और आचरण के अद्वैत को कदापि कायम नहीं रख सके।
डॉ. राम मनोहर लोहिया को उनकी जयंती पर हार्दिक नमन।
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