2025-10-25 15:29:37
खुद्दारी का मुजस्मान मर्दे जरीन था आलम;
खाकी बजूद उसका जो उठ गया जहाँ से,
यह झूठ है सरासर की मर गया आलम;
कानो में गूंजते हैं इस्सारजिसके हरदम;
खुद्दारी का मुजस्मान मर्दे जरीन था आलम;
पंजाबी भाषा के इंकलाबी कवि श्री गुरदास राम आलम का जन्म 29 अक्टूबर, 1912 को जिला जालंधर के गांव बुंडाला मंजकी में हुआ था। वह दलितों के रूप में जाने-जाने वाले समाज के हाशिए के हिस्से से एक प्रगतिशील कवि और एक कार्यकर्ता कवि थे, और उन्हें पहले पंजाबी दलित कवि के रूप में जाना जाता है। उनके पिता श्री उमरा राम और माता श्रीमती जियोनी परिवार के लिए बहुत ईमानदारी से मेहनत कर रहे थे। वह एक मजदूर वर्ग के परिवार से थे और गाँव में छोटे से मिट्टी के घर में रहते थे।
कठिन परिस्थितियों के कारण श्री आलम स्कूल नहीं जा सके उन्होंने अपने दोस्तों से गुरुमुखी पढ़ना और लिखना सीखा। लेकिन वे समाज के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं के बारे में बहुत जागरूक थे। एक मजदूर वर्ग का बच्चा होने के कारण उन्होंने बहुत कम उम्र में काम करना शुरू कर दिया था, और उन्होंने बचपन से ही कविताएँ लिखना भी शुरू कर दिया था। लेखन में आने की उनकी प्रेरणा का पहला स्रोत गरीब लोगों पर अमीरों द्वारा अत्याचार था जो उन्होंने बाल श्रम के रूप में काम करते हुए अनुभव किया था। अनपढ़ होने के बावजूद, वे भारत के विभाजन से पहले पंजाबी लोक कविता में एक लोकप्रिय नाम के रूप में उभरे। आलम को एक दलित कार्यकर्ता कवि और वंचित, उत्पीड़ित जातियों और समुदायों की आवाज के रूप में पहचाना जाता है। उन्होंने अपने भाइयों, बहनों और अपनी पत्नी को पढ़ना सिखाया। उन्होंने अपने जीवन में संघर्ष किया और समाज के गरीबों और वंचितों के लिए आवाज उठाई। 1931 में, उन्होंने एक समाचार पत्र ‘अछूत नजारा’ शुरू किया। वह अखबार के संपादक थे। उन्होंने कोइटा (अब पाकिस्तान में) में एक साहित्यिक मंच, पंजाबी दरबार की स्थापना की। 1948 में गुरदास राम आलम जिला वाल्मीकि सभा के प्रधान बने।
शैली और प्रभाव
गुरदास राम आलम शिव कुमार बटालवी, अवतार सिंह पाश, अमृता प्रीतम और प्रो. मोहन सिंह के समकालीन थे। उनके गाँव में एक मित्र थे, मार्क्सवादी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत और वे मार्क्सवाद और नक्सलवादी आंदोलन से प्रभावित हुए। वह कई बार जेल गए थे। लोग उन्हें कम्युनिस्ट कहते थे क्योंकि उनकी कविता मार्क्सवादी दर्शन की प्रत्यक्ष पंजाबी अभिव्यक्ति थी। बाद में संत राम उदासी और लाल सिंह दिल ने भी इसी पंथ का पालन किया और आलम के वंशज के रूप में उभरे, उनके काम ने 1960 के दशक में पंजाब के नक्सलवादी आंदोलन के लिए प्रेरणा का काम किया। वह नंद लाल नूरपुरी, विधाता सिंह तीर और फिरोज दीन शराफ जैसे कुछ पुराने पंजाबी कवियों के बहुत करीब थे। जब पं. जवाहर लाल नेहरू रावलपिंडी आए, तो गुरदास राम आलम ने अपनी कविता ‘मजदूर’ सुनाई। दलित-चेतना के कवि होने के नाते, वे बी.आर. अंबेडकर के विचारों और दर्शन से भी प्रेरित थे। उन्होंने ‘बड़ा शोर पैंदा गरीबों के वाहन’ नामक एक कविता लिखी, जिसका पाठ उन्होंने 1959 में बूटन मंडी, जालंधर, पंजाब में एक जनसभा के दौरान अंबेडकर की उपस्थिति में किया। जब डॉ. बी.आर. अम्बेडकर जालंधर आये थे, तो आलम की कविता को दोबारा सुनना चाहा था। उनकी चार काव्य पुस्तके प्रकाशित हुई।
गुरदास राम आलम एक सच्चे राष्ट्रवादी और दृढ़ विश्वास तथा आचरण से एक कट्टर समाजवादी थे। उनकी अधिकांश कविताएँ गरीबी और असमानता की बुराइयों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। यह इस तथ्य से प्रमाणित हो सकता है कि उन्होंने जानबूझकर अपने चार बेटों, जो बचपन में जीवित नहीं रह सके, के नाम रखे, साहित (साहित्य), संगीत (संगीत), आंदोलन (आंदोलन) और लोकराज (लोकतंत्र)। उनके साधारण जीवन के कुछ किस्से रोचक हैं: आलम धूम्रपान करते थे। अमृतसर में चीफ खालसा दीवान के लिए काम करते समय, उन्हें सिगरेट के लिए भुगतान किया जाता था, लेकिन इसे खाद्य पदार्थ के रूप में दिखाया जाता था। कोई कल्पना कर सकता है कि उस समय सिख भी उदार थे। आर्थिक तंगी में, उन्होंने अपने और अपने साथियों के लिए सिगरेट खरीदने के लिए मंदिरों से चुपके से कुछ पैसे भी लिए।
वह खुद्दार इंसान थे। कभी भी माँ, पत्नी और बहिनो को चाकरी करने नहीं भेजा। जब थोड़े बड़े हुए तभी माँ को बोल दिया था की माँ आप घर में बैठ के किसी की दरियाँ बन सकती हो, माँ सूत कात सकती हो, ऐसे मेहनत करके कमा सकती हो। लेकिन किसी की गुलामी नहीं करनी। गरीब मजदूरों को भी वह यही सन्देश देते थे और पढ़ लिख कर अपनी हालत सुधरने पर जोर देते थे। 27 सितम्बर 1989 को वह जालंधर में हमसे बिछुड़ गए।





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