2022-09-15 08:51:17
आर. श्रीनिवासन का पूरा नाम राय बहादूर रेता मलाई श्रीनिवासन था। उनका जन्म 7 जुलाई 1860 ई. में मद्रास प्रेसीडेंसी (वर्तमान चेन्नई) में हुआ था। वह दलित समाज के पहले ग्रेजुऐट व्यक्ति थे। सन 1887 में उनका विवाह रंगानायकी से हुआ। श्रीनिवासन दम्पति के पुत्र तथा पुत्रियां, कुल छ: बच्चे हुए। वह कई क्षेत्रों में प्रथम रहे, जैसे कॉलेज की शिक्षा पाने वाले मद्रास के प्रथम द्रविड़, शिक्षा के बाद विदेश में सरकारी सेवा करने वाले अपने वर्ग के प्रथम व्यक्ति। उस समय दलितों की जो दयनीय स्थिति थी, उसके विरुद्ध उन्होंने आवाज उठाई और इस संबंध में 1895 में एक प्रतिनिधि मंडल के साथ वायसराय से मिले। सन 1891 में आर श्रीनिवासन ने पेरियार महाजन सभा की स्थापना की थी जिसका बाद में नाम आदि द्रविड़ महाजन’ सभा पड़ा। इस संगठन के माध्यम से श्रीनिवासन ने अछूत वर्गों के स्वाभिमान तथा जातिगत भेदभाव व छुआछूत समाप्त करने का आंदोलन चलाया। उन्होंने सन 1893 में पडिया नामक मासिक तमिल पत्रिका शुरू की थी। उन्होंने दिनांक 23.12.1893 को चैन्नई में एक विशाल सभा का आजोजन किया जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। जब लॉर्ड एल्गिन, वायसराय दिनांक 6.12.1895 को चैन्नई पहुँचने वाले थे, श्री निवासन के नेतृत्व में ‘पेरियार महाजन सभा’ की ओर से वायसराय का भव्य स्वागत करने का निर्णय लिया। इसके लिये सुसज्जित द्वार बनाये गये तथा स्वागत बैनर लगाए गये, द्वारों को रात्रि में प्रकाशित किया गया। दलित वर्ग के लोगों द्वारा श्रीनिवासन के नेतृत्व में यह पहला शानदार आयोजन था। आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, श्रीनिवासन के नेतृत्व में अछूतों का 6 सदस्यों का प्रतिनिधि मंडल एक सुसज्जित घोड़ा बग्गी से वायसराय से मिलने पहुँचा तथा उन्हें अछूत वर्गों की मांगों का ज्ञापन पत्र सौंपा। छुआछूत का रोग कम होने का नाम नहीं ले रहा था। इसलिए इसके स्थायी समाधान के लिये श्रीनिवासन ने निर्णय किया कि वे लन्दन जायेंगे तथा वहाँ सांसदों तथा उच्च अधिकारियों से मिलेंगे तथा इस भयावह समस्या के निदान के लिये उनसे अपील करेंगे। यद्यपि उनके माता-पिता तथा परिवार के सभी सदस्य इसके सख्त विरुद्ध थे लेकिन वे अपने निश्चय पर अड़े रहे। वे पानी के जहाज पर चढ़ गये तथा पूर्वी अफ्रीका के जांजीपार टापू पर पहुँच गये। लेकिन हालात के चलते अंतत: श्रीनिवासन अफ्रीका में ही रह गये। उनकी अपनी अच्छी शिक्षा, अच्छी अंग्रेजी तथा कुशाग्र बुद्धि के कारण वहाँ उन्हें अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई। बाद में उनका परिवार भी उनके साथ वहां पहुंच गया। लेकिन उनका पुत्र गंभीर रूप से बीमार हो गया। उपचार के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका और उसकी मृत्यु हो गई। इससे उनका दिल टूट गया और उन्होंने भारत वापिस आने का फैसला लिया। वे दक्षिणी अफ्रीका में ही गांधी जी से भी कई बार मिले। लगभग 20 वर्ष अफ्रीका में रहने के बाद श्री निवासन 1920 में भारत लौट आये। सन 1921 के अंत में श्रीनिवासन ने छुआछूत के विरूद्ध आंदोलन पुन: प्रारम्भ कर दिया। जल्द ही वे दलितों के नेता के रूप में प्रसिद्ध हो गये। सरकार ने उन्हें ‘आदि द्रविड़ों’ के प्रतिनिधि के रूप में मद्रास विधान परिषद के लिये नामजद किया और श्रीनिवासन ने 26 नवम्बर 1923 को 11 सदस्यों के साथ शपथ ली और 1935 तक उस पद पर रहे। परिषद का सदस्य होने के नाते वे अछूतों की समस्याओं को निर्भीक होकर उठाते रहे और सवर्ण जातियों के विरोधों का डटकर मुकाबला करते रहे। उन्होंने 25 जून 1924 को मद्रास विधान परिषद में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पेश किया। उसमें उन्होंने सार्वजनिक सेवाओं के उपयोग पर अछूतों के लिये लगी पाबंदी हटाने का आग्रह किया। उन्होंने प्रस्ताव पर अपने जोरदार विचार रखे जिस पर उनका प्रस्ताव परिषद ने स्वीकार कर लिया। 25 सितंबर 1924 को सरकारी गजट द्वारा सभी विभागों के लिये आदेश जारी कर दिया गया। इसके अनुसार अछूतों द्वारा सड़क, कुंओं, जलाशय, बाजार, सरकारी कार्यालय, न्यायालय तथा डाकखाने सहित सभी सार्वजनिक सेवाआें के उपयोग संबंधित सभी किस्म की पाबन्दियां हटा दी गई। यह भी प्रावधान किया गया कि जो कोई भी अछूतों द्वारा इन सेवाओं का उपयोग करने पर आपत्ति करेगा, उस पर 100/- रु. का जुर्माना लगेगा। इस प्रकार सदियों से लगी अछूतों की बेड़ियां कट गई। श्रीनिवासन दलित वर्गों के लिये अनेक प्रकार से सेवाऐं करते रहे। उनके ऐसे कार्यों से प्रसन्न होकर वायसराय ने उन्हें ‘राव साहिब’ की उपाधि देने का फैसला दिनांक 1 जनवरी 1926 को जारी किया। 20 फरवरी 1926 को एक भव्य समारोह में उन्हें यह उपाधि प्रदान की गई। फरवरी 1928 से ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त साइमन कमीशन ने भारत के विभिन्न भागों का दौरा किया तथा सभी वर्गों के प्रतिनिधियों से भेंट की। दलित वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. अम्बेडकर तथा श्रीनिवासन ने साइमन कमीशन से भेंट की तथा अछूतों के लिये अन्य मांगों के साथ पृथक निर्वाचन की मांग की। यहां यह बताना आवश्यक है कि डॉ. अम्बेडकर ने साइमन कमीशन को अपनी साक्षी में 295 प्रश्नों का उत्तर दिया था। समझा जा सकता है कि अनुसूचित जातियों/जनजातियों को अधिकार इतनी सरलता से नहीं मिले। श्रीनिवासन ने सन 1927 में शिक्षा के प्रचार-प्रसार तथा छात्रों के कल्याण के लिये ‘‘डिप्रेस्ड क्लॉसिज एजूकेशन सोसाइटी’’ की स्थापना की। उनके प्रयास से सरकार ने दलितों के समाज कल्याण के लिये अलग विभाग शुरु किया। इस विभाग के द्वारा हजारों स्कूल स्थापित किये गये तथा 2500 रुपये की आर्थिक सहायता स्वीकृत की गई। आदि द्रविड़ छात्रों के लिये पृथक छात्रावास खोले गये और सरकार ने इन पर 20-30 लाख रुपये प्रति वर्ष खर्च किये। वर्ष 1928 में सवर्ण लोगों के सहयोग से ‘मद्रास प्रान्तीय दलित वर्ग फेडरेशन’ की स्थापना की गई। इसके अध्यक्ष रावबहादुर श्री निवासन, एमएलसी तथा प्रो. एन. शिवराज, एमएलसी महासचिव चुने गये। इस संस्था ने दलित वर्गों के लिये काफी काम किया। इसी से श्रीनिवासन जी का गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने का रास्ता बना। दलित वर्गों की विशिष्ट सेवाओं के लिये श्रीनिवासन को वायसराय द्वारा 1 जनवरी 1936 को ‘‘राव बहादुर’’ की उपाधि से सम्मानित किया। इस उपलक्ष में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया। यह सम्मान स्वीकारते हुए उन्होंने अपने भाषण में कहा,‘‘ अस्पृयता तभी समाप्त होगी जब दलित अपने मूलभूत अधिकार प्राप्त कर लेंगे। इसके लिये शिक्षित नवयुवकों को उज्ज्वल भविष्य के लिये सामाजिक तथा सार्वजनिक क्षेत्र में उतरना चाहिये। उन्होंने आगे इस बात पर बल दिया कि दलितों को शिक्षा को महत्व देना चाहिये तथा अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहना चाहिये।’’ ब्रिटिश सरकार ने दीवान बहादुर आर श्री निवासन को प्रथम गोलमेज सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर के साथ ही दलितों के प्रतिनिधि के रूप में भेजा। उन्हें 6 सितंबर 1930 को गोलमेज सम्मेलन के लिये निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। वहां उन्होंने डॉ. अम्बेडकर के सुर में सुर मिलाते हुए दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग रखी। उनका कहना था कि दलितों के लिए आरक्षण के साथ-साथ शिक्षा की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। लंदन गोलमेज सम्मेलन के प्रथम और दूसरे सत्र (1930-31) में आपने डॉ आंबेडकर के साथ शिरकत की थी। सन 1936 में डॉ आंबेडकर के सहयोग से उन्होंने ‘मद्रास प्रोविंस शेड्यूल्ड कास्ट पार्टी’ की स्थापना की थी। आर. श्रीनिवासन ने दलित उत्थान हेतु जो कार्य किये, उनके लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें दीवान बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया था। 18 सितम्बर, 1945 को उनका निधन हो गया। वे हमेशा किराये के मकानों में ही रहे। भारत सरकार ने उनके सम्मान में 15-8-2000 को तीन रूपये वाला डाक टिकट जारी किया। आर. श्रीनिवासन को उनके 76वें स्मृति दिवस पर कोटि-कोटि नमन!
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