2023-05-27 06:29:14
यह कहना अतिस्योक्ति नहीं होगी
कि पति और पत्नी एक सिक्के के
दो पहलू हैं। जीवन में दोनों के
विचार आपस में परस्पर मिल
जाए तो जीवन सफल बन जाता
है। एक-दूसरे के प्रति सम्मान,
सुख-दुख बाटना व एक दूसरे का
ख्याल रखना, दोनों के बीच प्रेम
संबंध को मजबूत बनाता है। इसी
मजबूती को दृढ़ता के साथ
निभाती हुई माता रमाबाई
अम्बेडकर का जन्म 7 फरवरी
1898 को एक गरीब परिवार में
हुआ था। उनके बचपन का नाम
‘रामी’ और पिता का नाम भीकू
धुत्रे व माता का नाम रुक्मिणी
था। महाराष्ट्र में कही-कही नाम
के साथ गांव का नाम जोड़ने का
भी चलन है। इस चलन के
अनुसार उन्हें भीकू वनंदकर के
नाम से भी जाना जाता था। अपने
माता-पिता के साथ रमाबाई
दाभोल के पास वनंदगांव में नदी
किनारे महारपुरा बस्ती में रहती
थी। उनकी दो बहनें व एक भाई
शंकर था। रमाबाई की बड़ी बहन
का नाम गौरा था जो दापोली में
रहती थी और छोटी बहन का
नाम मीरा था। रमाबाई के पिताजी
का व्यवसाय बंदरगाह से
मछलियों की भरी हुई टोकरियों
को बाजार तक पहुँचने का था
जिस आमदनी से उनके परिवार
का पालन-पोषण होता था।
लेकिन उनके पिता ज्यादातर
बीमार रहते थे, छाती का दर्द उन्हें
हमेशा सताता रहता था। रमाबाई
के बचपन में ही उनकी माता का
बीमारी के कारण निधन हो गया
था जिससे रमाबाई के मन को
एक बड़ा आघात पहुँचा था।
छोटी बहन मीरा और भाई शंकर
तब बहुत छोटे थे। बीमारी के
चलते उनके पिता भीकू धुत्रे का
पत्नी की मृत्यु के चार-पाँच साल
बाद ही निधन हो गया था।
रमाबाई अपने चाचा वलंगकर
और मामा गोविंद पुरकर के साथ
मुंबई आ गयी और वही
भायखला चॉल में उनके साथ
रहने लगी।
सूबेदार मेजर रामजी
अम्बेडकर अपने पुत्र भीमराव
अम्बेडकर के लिए वधू की
तलाश कर रहे थे। उन्हें रमाबाई
के विषय में पता चला, वे रमाबाई
को देखने पहुँचे। रमाबाई उन्हें
पसंद आ गई और उन्होंने रमाबाई
के साथ अपने पुत्र भीमराव की
शादी कराने का फैसला कर
लिया। विवाह की तारीख
सुनिश्चित की गई और अप्रैल
1906 में रमाबाई का विवाह
भीमराव अम्बेडकर से सम्पन्न
हुआ। विवाह के समय रमाबाई
की आयु महज 9 वर्ष एवं
भीमराव की आयु 14 वर्ष थी
और वे पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहे
थे। शादी से पहले माता रमाबाई
बिल्कुल अनपढ़ थी, किन्तु शादी
के बाद भीमराव अम्बेडकर ने
उन्हें साधारण लिखना-पढ़ना
सीखा दिया था जिससे वह अपने
हस्ताक्षर कर लेती थी।
साधारणत: महापुरुषों के जीवन
में यह सुखद बात होती रही है
कि उन्हें जीवन साथी बहुत ही
साधारण और अच्छे मिले। बाबा
साहब भी ऐसे महापुरुषों में से है,
जिन्हें रमाबाई जैसी बहुत ही नेक
जीवन साथी मिली। उस समय
पढ़ाई के लिए अम्बेडकर बाहर
रहते थे, लेकिन रमाबाई ने कम
उम्र में ही घर की सारी जिम्मेदारी
उठा ली थी। जिससे उनके ससुर
सूबेदार रामजी सकपाल
अम्बेडकर निश्चित हो गए थे। डॉ.
अम्बेडकर माता रमाबाई को प्यार
से ‘रामो’ कह कर पुकारा करते
थे और माता रमाबाई बाबा साहब
को ‘साहब’ कहा करती थी।
माता रमाबाई और डॉ.
भीमराव अम्बेडकर की 1924
तक पाँच संताने हुई थी। बड़े पुत्र
यशवंतराव का जन्म 12 दिसम्बर
1912 में हुआ था। उस समय
भीमराव अम्बेडकर परिवार के
साथ मुम्बई के पायबावाडी परेल,
बी आय टी चॉल में रहते थे।
जनवरी 1913 में बड़ौदा राज्य
सेना में लेμटीनेंट के रूप में
नियुक्ति होने पर डॉ. भीमराव
अम्बेडकर बड़ौदा चले आये।
पिता की बीमारी का समाचार
मिलते ही अम्बेडकर को मुम्बई
लौटना पड़ा। माता रमाबाई के
दिन-रात की सेवा और चिकित्सा
के बाद भी 2 फरवरी 1913 को
सूबेदार रामजी सकपाल का
निधन हो गया। पिता के निधन
पर पूरा परिवार शोकाकुल हो
गया था। पिता की मृत्यु के बाद
भीमराव उच्च शिक्षा के लिए
विदेश चले गए। बाबा साहब
1914 से 1923 तक करीब 9
वर्ष विदेश में रहे थे।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर
जब अमेरिका में थे, उस समय
रमाबाई को बहुत कठिन दिनों से
गुजरना पड़ा। पति विदेश में हो
और खर्च भी सीमित हों, ऐसी
स्थिति में कठिनाईयां आनी एक
साधारण सी बात थी। रमाबाई ने
यह कठिन समय भी बिना किसी
शिकवा-शिकायत के बड़ी धीरता
से हंसते हंसते काट लिया। हर
परिस्थिति में माता रमाबाई बाबा
साहब का साथ देती रही। बाबा
साहब कई वर्षों तक अपनी शिक्षा
के लिए बाहर रहे थे। लोगों की
बातें सुनते हुए भी रमाबाई ने घर-
परिवार का पूरी तरह से ध्यान
रखा था। कभी वे घर-घर जाकर
उपले बेचा करती थी तो कभी
दूसरों के घर में काम किया करती
थी। वे छोटा-बड़ा हर वो काम
करती रही जिससे परिवार की
जीविका चलाने और बाबा साहब
की पढ़ाई में मदद की जा सके।
डॉ. अम्बडेकर जब 1915
में अमेरिका की कोलंबिया
यूनिवर्सिटी में अध्ययन कर रहे
थे तब माता रमाबाई गर्भवती
थी। उन्होंने एक लड़के
(रमेश) को जन्म दिया परंतु
बाल्यावस्था में ही उसका निधन
हो गया। बाबा साहब के लौटने
के बाद एक अन्य लड़के
गंगाधर का जन्म हुआ परंतु
उसका भी ढाई साल की
अल्पायु में ही देहावसान हो
गया। गंगाधर की मृत्यु का जिक्र
करते हुए बाबा साहब ने अपने
मित्र को बतलाया कि ठीक से
इलाज न हो पाने से जब गंगाधर
की मृत्यु हुई तो उसके मृत शरीर
को ढकने के लिए गली के लोगों
ने नया कपड़ा लाने को कहा,
मगर उनके पास उतने पैसे नहीं
थे। तब ‘रमा’ ने अपनी साड़ी
से कपड़ा फाड़कर दिया था।
तब मृत शरीर को ओढ़ाकर
लोग श्मशान घाट ले गए और
पार्थिव शरीर को दफना आए
थे। गंगाधर की मृत्यु के एक
साल बाद बाबा साहब
अम्बेडकर के सबसे छोटे बेटे
ने जन्म लिया जिसका नाम
राजरत्न रखा गया। राजरत्न दोनों
के जीवन में खुशी लेकर आ
गया था। वह अपने इस पुत्र से
बहुत लाड़-प्यार करते थे।
राजरत्न से पहले माता रमाबाई
ने एक कन्या को जन्म दिया जो
बाल्यकाल में ही चल बसी थी।
माता रमाबाई का स्वास्थ्य
खराब रहने लगा इसलिए उन्हें
दोनों लड़कों यशवंत और
राजरत्न सहित वायु परिवर्तन के
लिए धारवाड भेज दिया गया।
लेकिन सबसे छोटे पुत्र राजरत्न
की भी 19 जुलाई 1926 को
मृत्यु हो गई। जीवन की
जद्दोजहद में उनके और बाबा
साहब के पाँच बच्चों में से सिर्फ
यशवंत ही जीवित रहे। तीन पुत्र
और एक पुत्री की मृत्यु से वह
इतना टूट चुकी थी जिसके
कारण बीमारियों ने उन्हें जकड़
लिया था फिर भी माता रमाबाई
ने हिम्मत नहीं हारी थी। माता
रमाबाई अपने चार बच्चों की
मृत्यु के बाद यशवंत की बीमारी
को लेकर हमेशा चिंता में डूबी
रहती थी लेकिन वह इस बात
का पूरा ख्याल रखती थी कि
बाबा साहब के कामों में किसी
भी प्रकार का विघ्न न हो जिससे
उनकी पढ़ाई पर किसी भी
प्रकार का असर न पड़े बल्कि
वे खुद बाबा साहब का मनोबल
बढ़ती रही।
बाबा साहब का अपनी पत्नी
से गहरा प्रेम था। बाबा साहब
को विश्वविख्यात महापुरुष
बनाने में माता रमाबाई का बहुत
सहयोग रहा है। रमाबाई ने अति
निर्धनता में भी संतोष और धैर्य
से जीवन का निर्वाह किया और
प्रत्येक कठिनाई के समय बाबा
साहब का साथ देकर साहस
बढ़ाया। माता रमाबाई सदाचारी
और धार्मिक प्रवृति की गृहणी
थी। उन्हें पंढरपुर जाने की बहुत
इच्छा थी। महाराष्ट्र के पंढरपुर
में विठ्ठल-रुक्मिणी का प्रसिद्ध
मंदिर है जिसका वे दर्शन करना
चाहती थी लेकिन उस समय
मंदिरों में अछूतों के लिए प्रवेश
नही था। अम्बेडकर, रमाबाई
को समझते रहे कि-ऐसे मंदिरों
में जाने से उनका उद्धार नहीं
हो सकता जहां उन्हें अंदर जाने
की मनाही हो। मगर रमाबाई की
आस्था उन्हें नही मानने देती
थी। एक बार रमाबाई के बहुत
जिद करने पर बाबा साहब उन्हें
पंढरपुर ले भी गए। किन्तु
अछूत होने के कारण उन्हें
मंदिर के अंदर प्रवेश नही करने
दिया गया उन्हें बिना दर्शन के ही
लौटना पड़ा।
बाबा साहब ने कठिन
परिस्थितियों से जूझते हुए
राजगृह हिंदू कॉलोनी, जो दादर
मुम्बई में स्थित है स्वयं जमीन
खरीद कर इस पर अपना दो
मंजिला भव्य मकान बनाया।
बाबा साहब ने स्वयं वास्तु कला
की कई पुस्तकों को पढ़कर इस
मकान का नक्शा बनाया था।
चूंकि बाबा साहब स्वयं बहुत
बड़े पुस्तक प्रेमी थे इसलिए
अपने विशाल पुस्तक संग्रह के
लिए एक बड़े कमरे को
पुस्तकालय रूप दिया और इन
पुस्तकों को इसमें सुसज्जित
किया। बाबा साहब सह-परिवार
इस मकान में सन् 1932 में
आकार रहने लगे। राजगृह की
भव्यता और बाबा साहब की
चारों ओर फैलती कीर्ति भी
रमाबाई की बिगड़ती तबीयत में
कोई सुधार न कर सकी, उलटे
वह पति की व्यस्तता और सुरक्षा
के लिए बेहद चिंतित रहती थी।
कभी-कभी तो वह उन लोगों को
भी डांट दिया करती थी जो
साहब को उनके आराम के
समय में मिलने आते थे। रमाबाई
बीमारी की हालत में भी डॉ.
अम्बेडकर की सुख-सुविधाओं
का पूरा ध्यान रखती थी। उन्हें
अपने स्वास्थ्य की उतनी चिंता
नहीं थी जितनी पति को घर में
आराम पहुँचाने की।
दूसरी ओर डॉ. अम्बेडकर
अपने कामों में अत्यधिक व्यस्त
रहने के कारण रमाबाई और
घर पर ठीक से ध्यान नही दे
पाते थे। एक दिन उनके
पारिवारिक मित्र उपशाम गुरुजी
के सामने रमाबाई ने अपने मन
की व्यथा को रखा कि- गुरुजी,
मैं कई महीनों से बीमार हूँ।
साहब को मेरा हाल-चाल
पूछने की फुर्सत ही नहीं है। वे
कोर्ट जाते समय केवल दरवाजे
के पास खड़े होकर मेरे स्वास्थ्य
के बारे में पूछते हैं और वही
से चले जाते हैं।
भीमराव अम्बेडकर का
पारिवारिक जीवन दिन-प्रति-दिन
दुख पूर्ण होता जा रहा था। माता
रमाबाई का स्वास्थ्य ढ़लता जा
रहा था। वायु परिवर्तन के लिए
बाबा साहब, रमाबाई को धारवाड़
भी ले गए थे परंतु इससे भी स्वास्थ्य
पर कोई असर नहीं दिखा। रमाबाई
के स्वास्थ्य को लेकर बाबा साहब
बहुत चिंतित रहने लगे थे। 27 मई
1935 को बाबा साहब पर पहाड़
ही टूट गया जब निर्दयी मृत्यु ने
उसने पत्नी रमाबाई को छीन लिया।
उस दिन पूरा परिवार व सभी शोक
में डूब गए। दस हजार से अधिक
लोग रमाबाई के अंतिम दर्शन पर
इक्कट्ठा हुए। उनके पार्थिव शरीर
को अग्नि दी गई। डॉ. अम्बेडकर
की उस समय की मानसिक
अवस्था अवर्णनीय थी। बाबा
साहब उदास, दुखी और परेशान
रहने लगे थे। वह जीवन साथी जो
गरीबी और दुखों के समय उनके
साथ मिलकर संकटों से जूझता रहा
और अब जब कुछ सुख पाने का
समय आया तो वह सदा के लिए
बिछुड़ गया। रमाबाई बहुत कम
समय की कुछ सुखद क्षण देख पाई
किन्तु बाबा साहब के स्वास्थ्य व
उनकी सुरक्षा की चिंता उन्हें हर
समय ही लगी रहती थी।
माता रमाबाई अम्बेडकर
को बहुजन समाज हमेशा
अपनी स्मृति में याद रखेगा।
माता रमाबाई को उनके 88वें
स्मृति दिवस पर कोटि-कोटि
नमन।
Written By:
Chetan Singh
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