2024-01-12 13:56:21
सन 1857 में मंगल पांडे की बंदूक से निकली गोली ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह का आगाज किया। इस विद्रोह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला विद्रोह माना जाता है और मंगल पांडे को प्रथम क्रांतिकारी।
हालांकि, 1857 की क्रांति से लगभग 80 साल पहले बिहार के जंगलों से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जंग छिड़ चुकी थी। इस जंग की चिंगारी फूंकी थी एक आदिवासी नायक, तिलका मांझी ने, जो असल मायनों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले क्रांतिकारी थे।
भारत के इतिहास में कई क्रांतियां हुई हैं, लेकिन इतिहासकारों द्वारा इतिहास को या तो दबाया गया या तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया। लेकिन समय-समय पर कई लेखकों और इतिहासकारों ने तिलका मांझी को ‘प्रथम स्वतंत्रता सेनानी’ होने का सम्मान दिया है। महान लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की। एक और हिंदी उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हुल पहाड़िया’ में तिलका मांझी के संघर्ष को बताया है। तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में ‘तिलकपुर’ नामक गाँव में एक संथाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। वैसे उनका वास्तविक नाम ‘जबरा पहाड़िया’ ही था। तिलका मांझी नाम तो उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दिया था।
पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति। साथ ही वे ग्राम प्रधान थे और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। तिलका नाम उन्हें अंग्रेजों ने दिया। अंग्रेजों ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा। ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों में भी ‘जबरा पहाड़िया’ का नाम मौजूद हैं पर ‘तिलका’ का कहीं उल्लेख नहीं है।
तिलका ने हमेशा से ही अपने जंगलो को लुटते और अपने लोगों पर अत्याचार होते हुए देखा था। गरीब आदिवासियों की भूमि, खेती, जंगली वृक्षों पर अंग्रेजी शासकों ने कब्जा कर रखा था। आदिवासियों और पर्वतीय सरदारों की लड़ाई अक्सर अंग्रेजी सत्ता से रहती थी, लेकिन पर्वतीय जमींदार वर्ग अंग्रेजी सत्ता का साथ देता था।
धीरे-धीरे इसके विरुद्ध तिलका आवाज उठाने लगे। उन्होंने अन्याय और गुलामी के खिलाफ जंग छेड़ी। तिलका मांझी राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए भागलपुर में स्थानीय लोगों को सभाओं में संबोधित करते थे। जाति और धर्म से ऊपर उठकर लोगों को देश के लिए एकजुट होने के लिए प्रेरित करते थे।
साल 1770 में जब भीषण अकाल पड़ा, तो तिलका ने अंग्रेजी शासन का खजाना लूटकर आम गरीब लोगों में बाँट दिया। उनके इन नेक कार्यों और विद्रोह की ज्वाला से और भी आदिवासी उनसे जुड़ गये। इसी के साथ शुरू हुआ उनका ‘संथाल हुल’ यानी कि आदिवासियों का विद्रोह। उन्होंने अंग्रेजों और उनके चापलूस सामंतो पर लगातार हमले किए और हर बार तिलका मांझी की जीत हुई।
साल 1784 में उन्होंने भागलपुर पर हमला किया और 13 जनवरी 1784 में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ को अपने जहरीले तीर का निशाना बनाया और मार गिराया। कलेक्टर की मौत से पूरी ब्रिटिश सरकार सदमे में थी। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि जंगलों में रहने वाला कोई आम-सा आदिवासी ऐसी हिमाकत कर सकता है।
उन्होंने स्थानीय सूदखोर जमींदारों एवं अंग्रेजी शासकों को जीते जी कभी चैन की नींद सोने नहीं दिया।
अंग्रेजी सेना ने एड़ी चोटी का जोर लगा लिया, लेकिन वे तिलका को नहीं पकड़ पाए। ऐसे में, उन्होंने अपनी सबसे पुरानी नीति, ‘फूट डालो और राज करो’ से काम लिया। ब्रिटिश हुक्मरानों ने उनके अपने समुदाय के लोगों को भड़काना और ललचाना शुरू कर दिया। उनका यह फरेब रंग लाया और तिलका के समुदाय से ही एक गद्दार ने उनके बारे में सूचना अंग्रेजों तक पहुंचाई।
सुचना मिलते ही, रात के अँधेरे में अंग्रेज सेनापति आयरकूट ने तिलका के ठिकाने पर हमला कर दिया। लेकिन किसी तरह वे बच निकले और उन्होंने पहाड़ियों में शरण लेकर अंग्रेजों के खिलाफ छापेमारी जारी रखी। ऐसे में अंग्रेजों ने पहाड़ों की घेराबंदी करके उन तक पहुंचने वाली तमाम सहायता रोक दी।
इसकी वजह से तिलका मांझी को अन्न और पानी के अभाव में पहाड़ों से निकल कर लड़ना पड़ा और एक दिन वह पकड़े गए। कहा जाता है कि तिलका मांझी को चार घोड़ों से घसीट कर भागलपुर ले जाया गया। 13 जनवरी 1785 को उन्हें एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई थी।
जिस समय तिलका मांझी ने अपने प्राणों की आहुति दी, उस समय मंगल पांडे का जन्म भी नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार को लगा कि तिलका का ऐसा हाल देखकर कोई भी भारतीय फिर से उनके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश भी नहीं करेगा। पर उन्हें यह कहाँ पता था कि बिहार-झारखंड के पहाड़ों और जंगलों से शुरू हुआ यह संग्राम, ब्रिटिश राज को देश से उखाड़ कर ही थमेगा।
तिलका के बाद भी न जाने कितने आजादी के दीवाने हंसते-हंसते अपनी भारत माँ के लिए अपनी जान न्योछावर कर गये। आजादी की इस लड़ाई में अनगिनत शहीद हुए, पर इन सब शहीदों की गिनती जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी से ही शुरू होती है।
तिलका मांझी आदिवासियों की स्मृतियों और उनके गीतों में हमेशा जिÞंदा रहेंगे। न जाने कितने ही आदिवासी लड़के तिलका के गीत गाते हुए फांसी के फंदे पर चढ़ गए। अनेक गीतों तथा कविताओं में तिलका मांझी को विभिन्न रूपों में याद किया जाता है-
तुम पर कोडों की बरसात हुई,
तुम घोड़ों से बांधकर घसीटे गए,
फिर भी तुम्हें मारा नहीं जा सका,
तुम भागलपुर में सरेआम,
फांसी पर लटका दिए गए,
फिर भी डरते रहे जमींदार और अंग्रेज,
तुम्हारी तिलका (गुस्सैल) आंखों से,
मर कर भी तुम मारे नहीं जा सके,
तिलका मांझी, मंगल पांडेय नहीं,
तुम आधुनिक भारत के पहले विद्रोही थे।
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