2022-10-13 09:23:48
पदमश्री कर्मवीर दादासाहेब भाऊराव कृष्णराव गायकवाड बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के सबसे अधिक विश्वस्त सिहपसलार/सेनापति (लेफ्टिनेन्ट) के रूप में जाने जाते हैं। बी. के गायकवाड ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें बाबा साहेब द्वारा बनाये कार्यक्रम, योजना तथा नीतियों को समाज व संगठन में मुहुर्तरूप (क्रियान्वन) देने वाला माना जाता था। इसलिए लोग उन्हें कर्मवीर अर्थात कर्म का धनी कहते थे। गायकवाड जी का जन्म 15 अक्टूबर सन् 1902 को आम्वेगांव जिला नासिक (महाराष्ट्र) के महार परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम किशन राव तथा माता का नाम पक्लाबाई था। उनकी चार बहनें थी। प्राथमिक शिक्षा के दौरान भाऊराव को भी अछूत महार होेने के कारण जातिवाद का दंश झेलना पड़ा। आगे की शिक्षा उन्होंने नासिक के अंग्रेजी स्कूल में पूरी की। सन् 1920 में वे राजश्री छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा नासिक में स्थापित छात्रावास के अधीक्षक के रूप में नौकरी करने लगे। छात्रावास के पुस्तकालय में नियमित बैठकर वे पुस्तकें पढते थे। उन्होंने गांधीजी, मार्क्स, एजित तथा लेनिन आदि के बारे में खूब पुस्तकें पढी। इस समय महाराष्ट्र में समाज सुधार की चर्चाऐं हो रही थी। दलित जातियों के लोगों को सार्वजनिक कुओं से पानी भरने देने तथा उनके साथ भेदभाव समाप्त हो जैसे मुद्दों पर बम्बई नगरपालिका परिषद में जोर से बहस छिडी हुई थी। दूसरी ओर विट्हल रामजी शिन्दे, शिवराम जानोबाजी कामले तथा चन्द्राकर जैसे समाज सुधारक दलित वर्गों के बच्चों के लिए स्कूल व छात्रावास खोलने का कार्य कर रहे थे। 20 जुलाई 1924 को बाबासाहेब ने बम्बई में वहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन किया। भाऊराव बडी उत्सुकता व चाव से इन से संबंधित सभी खबरों को देख रहे थे। सन 1926 में डॉ. अम्बेडकर कोर्ट के किसी काम से नासिक आये थे, वे छत्रपति साहूजी महाराज छात्रावास में ही ठहरे थे। भाऊराव की पहली मुलाकात डॉ. अम्बेडकर से यहीं हुई। वे बाबासाहेब से मिलकर अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने बाबासाहेब के मूवमेंट में उनके साथ कार्य मनमाड में बच्चों के लिए अनेक छात्रावास खोले तथा एक अनाथ विद्यार्थी आश्रम की स्थापना भी की। 27 मार्च सन 1927 को डॉ. अम्बेडकर द्वारा महाड में चावदार तालाब पर अछूतों द्वारा तालाब से पानी पीने के अधिकार के लिए सत्याग्रह में बी.के. गायकवाड जी ने पूरे जोश के साथ भाग लिया तथा बाबासाहेब का पूरा साथ दिया। साथ ही स्वयं भी उन्होंने सार्वजनिक कुआें से अछूतों द्वारा पानी लेने के कई सत्याग्रह। आंदोलन चलाये। सन 1930 के दशक के दौरान नासिक नगरपालिका सदस्य रहते हुए भाऊराव ने दलित जातियों के लिये सामाजिक और आर्थिक विकास के कई प्रस्ताव पास कराने में मुख्य भूमिका निभाई। मार्च 1930 में डॉ. अम्बेडकर द्वारा नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए चलाये आंदोलन में भी दादासाहेब ने अहम भूमिका निभाई। कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन संघर्ष समिति के अध्यक्ष पतितपावन दास थे तथा दादासाहेब इसके सचिव थे।
सन 1932 में पूना पैक्ट के बाद हिन्दुओं द्वारा डॉ. अम्बेडकर को जान से मारने की धमकियां बार-बार मिल रहीं थी। इसके कारण 1934 में बाबासाहेब ने अपनी वसीयत तैयार की और उसकी एक कॉपी बी.के गायकवाड को भेज दी। उसमें डॉ. अम्बेडकर ने लिखा कि यदि ऐसा होता है तो उनके द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन को बंद न किया जाये, जारी रखा जाये। अगस्त 1936 में डॉ. अम्बेडकर ने इन्डिपिडेन्ट लेबर पार्टी की स्थापना की। दादासाहेब भी इसके संस्थापक सदस्य थे। सन 1937 में इस पार्टी ने बम्बई प्रदेश विधान सभा की 17 सीटों पर जीत दर्ज की। दादासाहेब भी विधायक चुने गये। 2 जुलाई 1942 को बाबासोहब वायसराय की कार्यकारी परिषद की श्रम मंत्री के रूप मे शामिल हो गये। इसी महीने 18 जुलाई से 20 जुलाई तक नागपुर में दलितों की अखिल भारतीय कान्फ्रेंस हुई जिसमें डॉ. अम्बेडकर ने आॅल इंडिया शैड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की। इस के भी गायकवाड जी संस्थापक सदस्य थे। प्रो. एन शिवराज इसके पहले अध्यक्ष चुने गये। दादासाहेब नासिक जिला बोर्ड के चेयरमैन भी चुने गये। स्त्री शिखा पर उन्होंने बहुत जोर दिया। सन 1944 में दादासाहेब ने लडकियों के लिए नासिक में छात्रावास खोला। बी.के गायकवाड जमीन से जुड नेता थे, उनमें संगठन बनाने की अद्भुत क्षमता थी। इसी क्षमता के कारण व बाबासाहेब के सभी कार्यक्रमों नीतियों व योजनाओं को कार्यान्वित करते थे। इसीलिये लोग उन्हें कर्मवीम (किंग आॅफ एक्शन) मानते थे। डॉ. अम्बेउकर का उन पर अटूट विश्वास था। वे मिलिंद महाविद्यालय के निर्माण समिति के चेयरमैन भी रहे। दादासाहेब ने अनेक बडे-बडे पदों को सुशोभित किया लेकिन उनमें एक विशेषता थी। उन्होंने अपनी ग्रामीण वेशभूषा नहीं छोडी। वे हमेशा टोपी और धोती में ही रहते थे। इसी कारण दूर देहात से आने वाले लोग उनसे मिलने में सहज रहते थे। उनके बात करने के लहजे में विनोद लेकिन शालीनता होती थी। वे बहुत ही ईमानदार, स्वच्छ छवि, पारदर्शिता तथा कर्मठ कार्यकर्ता की छवि वाले व्यक्तित्व थे। इसलिये संघ लोक सेवा आयोग के चेयरमैन रहे डॉ. एम.एल. सहारे ने अपने संस्मरण में लिखा कि मैंने दादासाहेब की सलाह का पालन ईमानदारी से किया, इसका उन्हें गर्व है।
डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में सन् 1952 के आम चुनाव में शैड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने भाग लिया। दादासाहेब बम्बई प्रदेश यूनिट के अध्यक्ष थे। बाबासाहेब ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अपने पांच लाख अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म त्याग कर बुद्ध धर्म में दीक्षा ली। दादासोहब ने डॉ. अम्बेडकर के र्ध परिवर्तन की मुहिम में पूरा साथ दिया। दुर्भाग्यवश 6 दिसम्बर 1956 को डॉ. अम्बेडकर का परिनिर्वाण हो गया। ऐसे में बाबासाहेब द्वारा चलाये जा रहे सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन की जिम्मेदारी दादासाहेब के कंधों पर आ पडी। दादासाहेब पहले से ही डॉ. अम्बेडकर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इन आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। संगठन कर्ता के रूप में उनका दक्षता हासिल थी। उन्होंने समर्पण भावना से अपना काम आरम्भ किया। 3 अक्टूबर 1957 को रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया का रजिस्ट्रेशन करा लिया। दादा साहेब के नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी ने 1957 के आम चुनावों में पूरी शक्ति के साथ भाग लिया। इन चुनावों में पार्टी को अच्छी सफलता मिली। दादासाहेब गायकवाड सहित कई लोग लोक सभा के सदस्य चुने गये। आगे चलकर रिपब्लिकन पार्टी को राष्ट्रीय दल की मान्यता भी मिली। दादासाहेब सन 1962 में राज्य सभा के भी सदस्य चुने गये।
दादा साहेब के जुझारूपन की अलख सन 1959 से 1965 के दौरान देखने को मिली जब उन्होंने पडती भूमि को भूमिहीनों में बांटने के लिये आंदोलन चलाया। उनकी यह सोच थी कि देश की सारी पडती भूमि भूमिहीनों में बांट देनी चाहिए। इससे कृषि उपज बढेगी तथा बेरोजगारी की समस्या भी कम और इस भूमि का सुदुप्रयोग भी हो जायेग। इस सत्याग्रह के लिये वे कई बार जेल भी गये। सन 1967 के आम चुनावों में भी रिपब्लिकन पार्टी को अच्छी सफलता मिली। इसका श्रेय दादासाहेब को ही जाता है। डॉ. अम्बेडकर के उत्तराधिकारी के रूप में दादासाहेब जीवन पर्यन्त समर्पण भावना से उनके मिशन को पूरा करने में लगे रहे। दादासाहेब को उनकी अमूल्य सेवाओं के 26.01.1968 के भारत सरकार ने पद्श्री से सम्मानित किया। दादासाहेब उच्च रक्त दबाव तथा मधुमेह से पीडित थे। दादासाहेब को बीमार होने पर दिल्ली के विलिग्डन अस्पताल में दाखिल किया गया। दुर्भाग्य से 29 दिसंबर 1971 को दादासाहेब का निधन हो गया। यह देश व दलित वर्ग उनका सदैव ऋृणी रहेगा। यहां पर कहना अति आश्वयक है कि दादासाहेब बी. के गायकवाड के निधन के बाद रिपब्लिकन पार्टी बिखरती चली गई और यह कमजोर हो गई। इसके बाद मान्यवर कांशीराम जी के सीन में आने तक दलित राजनीति लगभग शून्य में चली गई थी।
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