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समग्र सामाजिक क्रांति के अग्रदूत शाहूजी महाराज बहुजन प्रतिपालक राजा के रूप में जाने जाते हैं। वो ऐसे समय में राजा बने थे जब मंत्री ब्राह्मण हो और राजा भी ब्राह्मण या क्षत्रिय हो तो किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन राजा की कुर्सी पर कोई शूद्र शख्स बैठा हो तो दिक्कत होना स्वाभाविक थी। छत्रपति साहू जी महाराज का जन्म तो कुन्बी (कुर्मी) जाति में हुआ था। ऐसे में उनके सामने जातिवदियों ने बहुत सारी परेशानियां पैदा की।
शाहूजी महाराज इन जातिवादियों से संघर्ष करते हुए ऐसे बहुजन हितैषी राजा साबित हुए जिन्होंने दलित और शोषित वर्ग के दुख दर्द को बहुत करीब से समझा और उनसे निकटता बनाकर उनके मान-सम्मान को ऊपर उठाया । अपने राज्य की गैरबराबरी की व्यवस्था को खत्म करने के लिए देश में पहली बार अपने राज्य में पिछड़ों के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू की। शोषित वर्ग के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा की व्यवस्था की। गरीब छात्रों के लिए छात्रावास स्थापित किये। साहू जी महाराज के शासन के दौरान बाल विवाह पर ईमानदारी से प्रतिबंध लगाया गया। शाहू जी महाराज ने ब्राम्हण पुरोहितों की जातीय व्यवस्था को तोड़ने के लिए अंतरजातिय विवाह और विधवा पुनर्विवाह कराए। शाहू जी महाराज क्रांति ज्योति ज्योतिबा फुले से प्रभावित थे और लंबे समय तक सत्य शोधक समाज के संरक्षक भी रहे।
छत्रपति शाहूजी महाराज का जन्म 26 जून, 1874 ई. को कुन्बी (कुर्मी) जागीरदार श्रीमंत जयसिंह राव आबा साहब घाटगे के यहां हुआ था। बचपन में इन्हें यशवंतराव के नाम से जानते थे। छत्रपति शिवाजी महाराज (प्रथम) के दूसरे पुत्र के वंशज शिवाजी चतुर्थ कोल्हापुर में राज्य करते थे। ब्रिटिश षडयंत्र और अपने ब्राम्हण दीवान की गद्दारी की वजह से जब शिवाजी चतुर्थ का कत्ल हुआ तो उनकी विधवा आनंदीबाई ने अपने जागीरदार जयसिंह राव आबासाहेब घाटगे के पुत्र यशवंतराव को मार्च, 1884 ई. में गोद ले लिया।
बचपन में ही यशवंतराव को कोल्हापुर रियासत की राजगद्दी सम्भालनी पड़ी। हालांकि राज्य का नियंत्रण उनके हाथ में बाद 2 अप्रैल, 1894 में आया। छत्रपति शाहूजी महाराज का विवाह बड़ौदा के मराठा सरदार खानवीकर की बेटी लक्ष्मीबाई से हुआ था। शाहूजी महाराज की शिक्षा राजकोट के राजकुमार महाविद्यालय और धारवाड़ में हुई थी। वे 1894 ई. में कोल्हापुर रियासत के राजा बने, उन्होंने देखा कि जातिवाद के कारण समाज का एक वर्ग पिस रहा है। छत्रपति शाहूजी महाराज ने दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए विद्यालय खोले और छात्रावास बनवाए। इससे उनमें शिक्षा का प्रचार हुआ और सामाजिक स्थिति बदलने लगी। परन्तु उच्च वर्ग के लोगों ने इसका विरोध किया। वे छत्रपति शाहूजी महाराज को अपना शत्रु समझने लगे। उनके पुरोहित तक ने यह कह दिया कि आप शूद्र हैं और शूद्र को वेद के मंत्र सुनने का अधिकार नहीं है। छत्रपति शाहूजी महाराज ने इस सारे विरोध का डट कर सामना किया और अपने राज्य में राज पुरोहित पद पर सिर्फ ब्राम्हण की नियुक्ति पर रोक लगा दी।
1894 में, जब शाहूजी महाराज ने राज्य की बागडोर संभाली थी, उस समय कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन में कुल 71 पदों में से 60 पर ब्राह्मण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार लिपिक पद के 500 पदों में से मात्र 10 पर गैर-ब्राह्मण थे। 1902 के मध्य में शाहू जी महाराज ने इस गैरबराबरी को दूर करने के लिए देश में पहली बार अपने राज्य में आरक्षण व्यवस्था लागू की। एक आदेश जारी कर कोल्हापुर के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50 प्रतिशत पद पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिये।
महाराज के इस आदेश से ब्राह्मणों पर तो जैसे गाज गिर गयी। शाहू जी महाराज द्वारा पिछड़ी जातियों को अवसर उपलब्ध कराने के बाद 1912 में 95 पदों में से ब्राह्मण अधिकारियों की संख्या सिर्फ 35 रह गई थी। महाराज ने कोल्हापुर नगरपालिका के चुनाव में अछूतों के लिए भी सीटें आरक्षित की थी। इसका असर भी दिखा देश में ऐसा पहला मौका आया जब राज्य नगरपालिका का अध्यक्ष अस्पृश्य जाति से चुन कर आया था।
छत्रपति शाहूजी महाराज ने सिर्फ यही नहीं किया, बल्कि पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएं खोलने की पहल की। यह अनूठी पहल थी उन जातियों को शिक्षित करने के लिए, जो सदियों से उपेक्षित थीं, इस पहल में दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए खास प्रयास किये गए थे। वंचित और गरीब घरों के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई। शाहूजी महाराज के प्रयासों का परिणाम उनके शासन में ही दिखने लग गया था। शाहूजी महाराज ने जब देखा कि अछूत-पिछड़ी जाति के छात्रों की राज्य के स्कूल-कॉलेजों में पर्याप्त संख्या हैं, तब उन्होंने वंचितों के लिए खुलवाये गए पृथक स्कूल और छात्रावासों को बंद करवा दिया और उन्हें सामान्य छात्रों के साथ ही पढ़ने की सुविधा प्रदान की।
शाहूजी महाराज ने कहा था-
1- छत्रपति शाहू महाराज के कार्यों से उनके विरोधी भयभीत थे और उन्हें जान से मारने की धमकियाँ दे रहे थे। इस पर उन्होंने कहा वे गद्दी छोड़ सकते हैं, मगर सामाजिक प्रतिबद्धता के कार्यों से वे पीछे नहीं हट सकते।
2- शाहू महाराज ने 15 जनवरी, 1919 के अपने आदेश में कहा था कि- उनके राज्य के किसी भी कार्यालय और गाँव पंचायतों में भी दलित-पिछड़ी जातियों के साथ समानता का बर्ताव हो, यह सुनिश्चित किया जाये। उनका स्पष्ट कहना था कि छुआछूत को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। उच्च जातियों को दलित जाति के लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करना ही चाहिए। जब तक आदमी को आदमी नहीं समझा जायेगा, समाज का चौतरफा विकास असम्भव है।
3- 15 अप्रैल, 1920 को नासिक में छात्रावास की नींव रखते हुए साहू जी महाराज ने कहा कि- जातिवाद का का अंत जरूरी है। जाति को समर्थन देना अपराध है। हमारे समाज की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा जाति है। जाति आधारित संगठनों के निहित स्वार्थ होते हैं। निश्चित रूप से ऐसे संगठनों को अपनी शक्ति का उपयोग जातियों को मजबूत करने के बजाय इनके खात्मे में करना चाहिए।
बाबा साहेब डा० भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा नरेश की छात्रवृति पर पढ़ने के लिए विदेश गए लेकिन छात्रवृत्ति बीच में ही खत्म हो जाने के कारण उन्हे वापस भारत आना पड़ा ’ इसकी जानकारी जब शाहू जी महाराज को हुई तो महाराज खुद भीमराव का पता लगाकर मुम्बई की चाल में उनसे मिलने पहुंच गए और आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्हें सहयोग दिया। शाहूजी महाराज ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर के मूकनायक समाचार पत्र के प्रकाशन में भी सहायता की। महाराजा के राज्य में कोल्हापुर के अन्दर ही दलित-पिछड़ी जातियों के दर्जनों समाचार पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं। सदियों से जिन लोगों को अपनी बात कहने का हक नहीं था, महाराजा के शासन-प्रशासन ने उन्हें बोलने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी। छत्रपति शाहूजी महाराज का निधन 06 मई, 1922 मुम्बई में हुआ। महाराज ने पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता दी थी। उनका समाज के किसी भी वर्ग से किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं था। साहू महाराज के मन में दलित वर्ग के प्रति गहरा लगाव था। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जो क्रन्तिकारी उपाय किये थे, उसके लिए नेशनल जनमत का क्रांतिकारी नमन।
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