2022-11-18 09:45:03
अमित प्रकाश, एडवोकेट
जब न्यायालय के फैसले संविधान सम्मत नहीं होंगे तो उन फैसलों पर सवाल तो उठेंगे ही। इस केस में संविधान की घोर अनदेखी हुई है। उच्चतम न्यायालय के वकील चिराग गुप्ता ने सही सवाल खड़े किये है। जस्टिस ललित और जस्टिस भट्ट के फैसले को अल्पमत मानते हुए अन्य तीन जजों के फैसले को मान्यता मिल गई। विरोधाभासों से भरपूर इस फैसले के बाद आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) आरक्षण पर अमल और आरक्षण योजना के फैलाव से जुड़े मुददों पर विवाद बढ़ने की आशंका है।
=आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है, सुदामा आरक्षण कुछ वैसा ही है।
=इस फैसले को आर्थिक आधार पर आरक्षण की शुरूआत मानना तथ्यगत और कानूनी तौर पर सही नहीं है। अगर ईडब्ल्यूएस के दायरे में सभी जाति और धर्मों के गरीब लोगों को लाया जाता तो इसे आर्थिक आधार पर आरक्षण की शुरूआत माना जा सकता था।
=इस फैसले से अगड़ों और पिछड़ों के सामाजिक विभाजन को कानूनी मान्यता मिली है, जो संविधान की समानता के मौलिक सिद्धांत के खिलाफ है।
=देश में हजार रुपए महीने से कम आमदनी वाले लोगों को गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है। इनकम टैक्स की छूट के लिए भी 2.50 लाख रुपए सालाना आमदनी का प्रावधान है। लेकिन आठ लाख रुपए की लिमिट के दायरे में लगभग 98 फीसदी आबादी आ जाती है। इससे ईडब्ल्यूएस के आर्थिक मापदंड पर कानूनी सवाल खड़े हो सकते है।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण को ठहराने के लिए संविधान के अनुच्छेद-46 की दुहाई दी जा रही है। यह नीति-निर्देशक सिद्धांतों वाले अध्याय का हिस्सा है, जिसमें सरकार को अनेक दिशानिर्देश दिये गए है। इनमें शराबबंदी, समान नागरिक संहिता, पंचायती राज जैसे अनेक प्रावधान है। लेकिन अनुच्छेद-46 में तो एससी/एसटी और कमजोर वर्गों के कल्याण की बात कही गई है। उन वर्गों को ईडब्ल्यूएस के दायरे से बाहर करने के कानून से जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था और मजबूती होगी।
बेसिक ढांचे का उल्लंघन
सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच ने 1973 में केशवानन्द भारती मामले में कहा था कि संशोधन की शक्ति के इस्तेमाल से संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं किया जा सकता।
उस फैसले के बाद संविशन में 70 से ज्यादा संशोधन हुए, जिनमें से सिर्फ 5 को ही सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया। आखिरी बार 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति वाले एनजेएसी कानून को रद्द किया था।
सुप्रीम कोर्ट ईडब्ल्यूएस कानून को तभी रद्द कर सकता था, जब इससे मूल ढांचे का उल्लंघन होता। अल्पमत का फैसला लिखने वाले जस्टिस भट्ट ने कहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण के दायरे से एससी/एसटी और ओबीसी को बाहर रखना, समानता का उल्लंघन है। उनके अनुसार पिछले 70 सालों में ऐसा विभेदकारी कानून पहले नहीं बना।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद-15 और 16 में संशोधन किया गया है। संविधान के जनक डॉ. अम्बेडकर ने मूल अधिकारों को सबसे बहुमूल्य बताया था। केशवानन्द भारती मामले में भी मूल अधिकारों को संविधान के बेसिक ढांचे का जरूरी हिस्सा माना गया है। चीफ जस्टिस यू यू ललित और जस्टिस भट्ट के अल्पमत के फैसले से साफ है कि ईडब्ल्यूएस के लिए किये गए संविधान संशोधन से बेसिक ढांचे का उल्लंघन हुआ है।
विवादों का पिटारा खुलेगा
शुरू में एससी/एसटी के लिए ही आरक्षण का प्रावधान था। दूसरे चरण में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशे स्वीकार करते हुए ओबीसी के लिए आरक्षण का प्राधान किया। उस मामले में युवाओं के उग्र विरोध को कम नरसिंह राव ने आर्थिक आधार का कानून बनाया था। 1992 के इंदिरा साहनी फैसले में 9 जजों की बेंच ने आर्थिक आधार पर आरक्षण के प्रावधान को निरस्त कर दिया था। साल 2006 में 93वें संविधान संशोधन से शिक्षा के अधिकार के तहत निजी क्षेत्र के कॉलेजों में आरक्षण के प्रावधान हुए थे। लेकिन निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण के लिए संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। तीसरे चरण में पिछले आम चुनावों के फले ईडब्ल्यूएस आरक्षण को आनन-फानन में 103वें संशोधन के माध्यम से लागू किया था। आर्थिक आधार पर अगड़ों के वर्गीकरण और आरक्षण को सुप्रीम मान्यता के बाद अब अनेक राज्यों में मनमाने आरक्षण की बाढ़ आने से आर्थिक और कानूनी अराजकता बढ़ सकती है।
कागजी तौर पर ईडब्ल्यूएस आरक्षण को जनरल कैटिगिरी में 10 फीसदी का वर्गीकरण बताने की कोशिश हो रही है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर अब 60 फीसदी आरक्षण हो गया है।
तमिलनाडू मामले में सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बेंच 50 फीसदी लिमिट के उल्लंघन पर सुनवाई कर रही है। ईडब्ल्यूएस के इस फैसले के बाद ऐसे अनेक मामलों की सुनवाई प्रभावित हो सकती है।
संविधान के अनुच्छेद-141 के तहत सुप्रीम कोर्ट के फैसले लॉ आॅफ दि लैंड माने जाते है। इन्हें संसद के कानून या फिर ज्यादा जजों की बेंच द्वारा ही बदला जा सकता है। संवैधानिक प्रावधानों और इंदिरा साहनी फैसले के आधार पर आरक्षण को निरस्त कर दिया था। 50 फीसदी लिमिट के उल्लंघन की वजह से मराठा आरक्षण कानून को सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल रद्द कर दिया था। आरक्षण में 50 फीसदी की लिमिट को फ्लोक्सिबल मानने के लिए भी इंदिरा साहनी ने बड़ी बेंच यानि 11 जजों की लार्जर बेंच में सुनवाई होनी चाहिए।
क्रीमी लेयर की लिमिट: रेवड़ियों पर बहस के बीच आम चुनावों के पहले केंद्र और राज्य सरकारों में सरकारी नौकरियों में भर्ती की होड़ लगी है। संसदीय समिति के अध्यक्ष और बीजेपी सांसद ने क्रीमीलेयर की आर्थिक लिमिट को 8 लाख से बढ़ाकर 15 लाख करने की सिफारिश की है। ईडब्ल्यूएस की स्कीम केंद्र सरकार की है, लेकिन लाभार्थियों को राज्य सरकारों द्वारा सर्टिफिकेट जारी किये जाएँगे। ईडब्ल्यूएस का लाभ जरूरतमंद गरीब लोगों के बजाय अगर अगड़े वाले फजीर्वाड़े के लोगों को मिला तो समाज में बेचैनी के साथ अदालतों में मुकदमेबाजी भी बढ़ेगी।
फैसला संविधान सम्मत प्रतीत नहीं लगता: विवाद घटने के बजाय बढ़ेंगे; समाज में लोगों के बीच दूरियाँ बढ़ेगी जो सामाजिक एकीकरण की प्रक्रिया को कमजोर करेगा। समानता के प्रावधान का खुला उल्लंघन है। जस्टिस पारदीवाला का अतीत एससी/एसटी आरक्षण का विरोध वाला रहा है, तो उसे इस बेंच का हिस्सा होना चाहिए था । यह फैसला न्यायिक चरित्र प्रदर्शित नहीं करता। 13 या 15 जजों की बेंच का गठन करके इस फैसले का तर्क संगत रिव्यू कराया जाये। बेंच के जजों में समाज के सभी वर्गों, धर्मों, जातियों का प्रतिनिधितत्व होना चाहिए।
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