2023-12-02 10:14:01
कुछ जातियां ऐसी हैं, जो इस देश के हर हिस्से में निवास करती हैं। इनमें एक जाति है- चमार। चमार भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाने वाला एक दलित समुदाय है। दलित का अर्थ होता है-जिन्हें दबाया गया हो, प्रताड़ित किया गया हो, शोषित किया गया हो या जिनका अधिकार छीना गया हो। ऐतिहासिक रूप से इन्हें जातिगत भेदभाव और छुआछूत का दंश भी झेलना पड़ा है। इसीलिए आधुनिक भारत के सकारात्मक भेदभाव प्रणाली के तहत चमार जाति की स्थिति को सुधारने के लिए उन्हें अनुसूचित जाति के रूप में वगीर्कृत किया गया है। आइए जानते हैं चमार जाति का इतिहास, चमार शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
चमार शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
ऐतिहासिक रूप से जाटव जाति को चमार या चर्मकार के नाम से जाना जाता है। अंग्रेज इतिहासकार कर्नल टाड का मत है कि चमार समुदाय के लोग वास्तविक रुप से अफ्रीकी मूल के हैं, जिन्हें व्यापारियों ने काम कराने के लिए लाया था। लेकिन ज्यादातर इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं और उनका कहना है कि आदिकाल से ही इस समुदाय के लोगों का भारतीय समाज में अस्तित्व रहा है।
किस राज्य में कितने हैं?
अगर भारत के राज्यों की बात करें तो 2001 के जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश में चमारों की जनसंख्या लगभग 14% है और पंजाब में इनकी आबादी 12% है. अन्य राज्यों में चमारों की आबादी इस प्रकार है-राजस्थान 11%, हरियाणा 10%, मध्यप्रदेश 9.5%, छत्तीसगढ़ 8%, हिमाचल प्रदेश 7%, दिल्ली 6.5%, बिहार 5% और उत्तरांचल 5%. इसके अलावा जम्मू कश्मीर, झारखंड, पश्चिम बंगाल, गुजरात आदि में भी इनकी ठीक-ठाक आबादी है।
बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट, 2022 के अनुसार बिहार में भी इस जाति के 68 लाख 69 हजार 664 है जो कि कुल आबादी का करीब 5.255 प्रतिशत है। इस जाति की राजनीतिक उपस्थिति भी बेहद खास रही है और आश्चर्य नहीं कि इसी जाति के सदस्य रहे जगजीवन राम केंद्रीय राजनीति एक समय इतना दम रखते थे कि इंदिरा गांधी उन्हें बाबूजी कहकर संबोधित करती थीं। वहीं 1977 में जब इस देश में गैर-कांग्रेसी सरकार अस्तित्व में आई तब वे उपप्रधानमंत्री बनाए गए।
दरअसल, मानव सभ्यता का विकास एक सतत प्रक्रिया है। इसका कोई भी चरण एक झटके में पूरा नहीं होता। मसलन, इस धरती पर आने के बाद इंसानों ने शिकार के बाद जिस कार्य को अपनाया वह खेती थी। यह एक बड़ी उपलब्धि थी, जिसे मनुष्यों के किसी खास समूह ने हासिल नहीं, बल्कि यह सामूहिक उपलब्धि थी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इस धरा पर जितने लोग हुए हैं, सभी के आदिम पुरखे किसान थे।
भारत की बात करें, तो सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों के रूप में जो कुछ हासिल हुआ है, वह इसी बात की ओर इशारा करता है कि कृषि सबसे अहम थी। लोग खेती करते थे। अलबत्ता वे शिल्पकार भी थे, जिन्होंने नगरीय सभ्यता को अपने सांचे में ढाला।
फिर जातियां क्यों बन गईं? क्यों कोई किसान से चमार बन गया? जबकि उसका मूल काम खेती करना ही था। यह एक ऐसा सवाल है जिसके बारे में अकादमियों में कोई बहस हुई हो, कोई शोध हुआ हो, इसकी जानकारी नहीं मिलती।
दरअसल, चमार वे जातियां रहीं, जिन्होंने खेती और शिल्पकारी दोनों को अपना पेशा बनाए रखा। जैसे इस देश में बढ़ई हुए या फिर लोहार हुए। इस कड़ी में कुम्हारों को भी शामिल किया जा सकता है, जिन्होंने मिट्टी से बर्तन, घड़े, खपरैल बनाए। इन सबकी तरह चमारों का शिल्प भी अद्भुत था। यह जाति मवेशीपालक भी रही। लेकिन इसने मृत पशुओं की लाश को सड़ने के लिए नहीं छोड़ दिया। इस जाति के लोगों ने नश्वर शरीर को भी उपयोगी बना डाला और यकीन मानिए कि उनके द्वारा मृत जानवरों की खाल निकालने पर उसे पहनकर और ओढ़कर सबसे पहले मनुष्यों ने यह जाना कि सर्द रातों में जान कैसे बचाई जा सकती है।
कितनी अजीब बात है कि आज भी इस देश में शंकर की पूजा की जाती है जिसके बदन पर मृत जानवर की खाल बताई जाती है, लेकिन उस जाति के लोग, जो मृत जानवरों की खाल निकालकर उसे उपयोगी बनाते हैं, वह अछूत हैं। आज भी इस जाति के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, जबकि इनके द्वारा तैयार जूतों व चप्पलों को पहनकर लोग अपने पैरों की रक्षा करते हैं।
इतिहास पर ही गौर करें, तो खेती-किसानी में चमार जाति के लोगों का योगदान लोहार और बढ़ई लोगों से कम नहीं रहा। बढ़ई समाज के लोगों ने अगर लकड़ी का हल बनाया और लोहारों ने लोहा गलाकर वह हाल, जो जमीन में घुसकर अंदर की मिट्टी को ऊपर ले आता है। यह तब तक मुमकिन नहीं था अगर चमार जाति के लोगों ने चमड़े का वह थैला नहीं बनाया होता, जिसे धौंकनी में इस्तेमाल किया जाता है. हवा को जमा करने और उसके द्वारा भट्ठी के कोयले को इतना ताप देना कि वह लोहे को भी पिघला दे।
इस लिहाज से देखें तो यह एक कमाल का आविष्कार था, जिसके बारे में कहीं कुछ भी दर्ज नहीं है। चमार जाति के लोगों ने सबसे पहले वॉल्व का उपयोग किया। उन्होंने अपने अनुभवों से यह जाना कि दुनिया में कोई भी जगह हवा के बिना नहीं। उन्होंने चमड़े का बड़ा थैला बनाया और उसमें वॉल्व लगा दिया ताकि जब धौंकनी को उठाया जाय तो उसमें वॉल्व के रास्ते उसमें हवा भर जाए और जब उसे दबाया जाए तो वॉल्व बंद हो जाए तथा हवा एक सुनिश्चित मार्ग से बाहर निकले और कोयले का ताप बढ़ाए।
जन-स्वास्थ्य के लिहाज से भी देखें, तो चमार जाति के लोगों ने मृत पशुओं की लाशों को गांव के इलाके से बाहर ले जाकर मनुष्यता की रक्षा की। गांवों में आज भी वे ऐसा करते हैं। जरा सोचिए कि यदि वे ऐसा नहीं करें तो क्या हो? गांव के गांव विभिन्न संक्रामक बीमारियों का शिकार हो जाए. इस देश ने तो मृत चूहों के कारण होनेवाली प्लेग महामारी का व्यापक असर देखा है।
ब्राह्मणी संस्कृति की जाति व्यवस्था ने भारत की उस तकनीकी संस्कृति को खत्म कर दिया जिसमें लोहार, बढ़ई, कुम्हार, चमार और अन्य किसान जातियों में कोई भेद नहीं था। जिसके पास जो भी हुनर था, उसने उसका उपयोग करके देश में एक विकसित समाज की बुनियाद रखी।
आज की हालत यह है कि जिन दलितों के ऊपर सबसे अधिक अत्याचार की खबरें आती हैं, उनमें शिकार चमार जाति के लोग होते हैं. फिर चाहे वह मध्यप्रदेश, राजस्थान के इलाके में हों या फिर उत्तर प्रदेश के, कहीं उन्हें घोड़ी पर चढ़ने के कारण मार दिया जाता है तो कहीं मूंछें रखने पर. इनके साथ छुआछूत का आलम यह है कि आज भी वे किसी सामंत के घड़े से पानी पी लें तो उसकी सजा, उन्हें मौत के रूप में दे दी जाती है।
राजनीतिक चेतना की बात की जाए तो चमार जाति के लोग सबसे जागरूक हैं। यही वजह है कि आज कोई भी राजनीतिक दल इनकी उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं है. वैसे भी वह जमाना चला गया जब इस जाति लोग भयवश किसी भी दल को सपोर्ट कर देते थे। आज उनके पास उनकी वैचारिकी है। यह वैचारिकी उन्हें डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से प्राप्त हुई है, जिन्होंने अछूतों के लिए वृहद आंदोलन चलाया।
निस्संदेह इसके पीछे रैदास की जाति तोड़ो संदेश भी रहे। रैदास उत्तर प्रदेश के काशी में जन्मे थे, लेकिन उनका संदेश पूरे देश में पहुंचा। रैदास, जिन्होंने बेगमपुरा का सपना देखा था और कहा था-
‘कह रैदास खलास चमारा, जो उस सहर सों मीत हमारा’
चमार जाति इतिहास को गौरवान्वित करते ये कुछ प्रमुख व्यक्ति
रविदास/रैदास
वे मोची थे। जूते बनाते थे और उसकी मरम्मत भी करते थे। समाज की भाषा में उनकी जाति कथित चमार की थी। लेकिन राम और गोविंद की लगन ऐसी लगी थी कि रैदास नाम ही भक्त का पर्याय बनता जा रहा था। इतना तक कि कबीर जैसे महान संत ने भी कह दिया कि साधुन में रविदास संत है।
बाबू जगजीवन राम
बाबू जगजीवन राम भारत के प्रथम दलित उप प्रधानमंत्री और कांग्रेस के बड़े राजनेता थे। वह 24 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979 तक भारत के उप प्रधानमंत्री रहे। साथ ही वह केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री, कृषि मंत्री, यातायात और रेलवे मंत्री रहे।
बी.पी. मौर्य
बुद्ध प्रिय मौर्य (1 मई 1926 - 27 सितंबर 2004), जिन्हें बीपी मौर्य के नाम से जाना जाता है , एक लोकप्रिय भारतीय राजनीतिज्ञ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तीसरी लोकसभा और 5वीं लोकसभा के सदस्य थे। 1967 में बुद्ध प्रिय मौार्य ने बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा भारतीय संसद के प्रागण में लगवाने के लिए पुरजोर संघर्ष व आंदोलन किया। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने लोकसभा में उनपर दण्डात्मक कार्रवाई भी की लेकिन वे अपने प्रण से नहीं हटे, उनके इस आंदोलन में करीब 3.5 लाख लोग जेल गये शायद यह भारतीय इतिहास में किसी बहुजन नेता एक बड़ा साहसिक आंदोलन था। वह 1971 के भारतीय आम चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में भारतीय क्रांति दल के वरिष्ठ नेता प्रकाश वीर शास्त्री को हराकर उत्तर प्रदेश के हापुड से भारत की संसद के निचले सदन लोकसभा के लिए चुने गए ।
कांशीराम
कांशीराम किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वह बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक थे। उन्हें बहुजन नायक के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठा कर समाज सुधार का काम किया। बहुजनों, पिछड़ी और निचली जातियों का राजनीति एकीकरण और उनके उत्थान के कार्यों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
मीरा कुमार
बाबू जगजीवन राम की सुपुत्री मीरा कुमार कांग्रेस की वरिष्ठ नेता हैं। वह बिहार के सासाराम से 2004 से 2014 तक लोकसभा सदस्य रहीं। वह 4 जून 2009 से 16 मई 2014 तक लोकसभा की अध्यक्ष रहीं।
सुश्री मायावती
राजनीति की दुनिया में मायावती का अलग पहचान है। वह चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं। साथ ही वह वर्तमान में बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।
इतिहास के आयने से देखकर पता चलता है कि चमार और उनकी अन्य समकक्ष व उपजातियां अतार्किक मिथ्या व काल्पनिक मान्यताओं के विरूद्ध सवाल उठाते हैं, पूछते हैं जिसके कारण पाखण्डी ब्राह्मणी संस्कृति के लोग चिडते हैं और इन्हें अपना दुश्मन समझते हैं।
गौरवशाली चमार रेजीमेंट
चमार रेजीमेंट चमारों के बहादुरी का प्रतीक है। इस रेजिमेंट का गठन 1 मार्च 1943 को अंग्रेजों द्वारा दूसरे विश्व युद्ध के दौरान किया गया था। इस रेजिमेंट को कोहिमा की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सम्मानित किया गया था। अंग्रेजों ने इस रेजिमेंट का गठन उस समय सबसे शक्तिशाली माने जाने वाली जापानी सेना से मुकाबला लेने के लिए किया था। इस रेजीमेंट को इंडियन नेशनल आर्मी के खिलाफ लड़ने के लिए कहा गया। लेकिन चमार रेजीमेंट ने देश के लिए और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आजाद हिंद फौज के लिए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसके कारण अंग्रेजों ने 1946 में चमार रेजीमेंट पर प्रतिबंध लगा दिया।
2011 के बाद राजनेताओं और दलित समुदाय के लोगों ने मांग की है कि चमार रेजिमेंट को फिर से पुनर्जीवित किया जाना चाहिए, जिससे इस समुदाय का मनोबल बढ़ेगा और साथ ही वह देश की सुरक्षा में अहम भूमिका निभा पाएंगे।
सभी चमार जातियों से आग्रह है कि वे अपने अतीत के इतिहास को जानें, एकता के सूत्र में बंधे, संगठित रहें और अपने आचरण और पुरूसार्थ से संपन्न व समृद्ध बनें।
जय भीम, जय भारत
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