2023-10-28 08:08:13
वर्ष 2018 से यह देखने में आया है कि सोशल मीडिया पर दलित समाज के लोग दीपावली को बुद्ध धम्म के दीपदानोत्सव के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। ये लोग दिखा रहे हैं कि तथागत गौतम बुद्ध बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद कार्तिक की अमावस्या के दिन अपनी जन्मस्थली कपिलवस्तु गये तो कपिलवस्तु के लोगों ने उनके स्वागत में तथा हर्षोल्हास में घर-घर सारी नगरी में दीप जलाये। कई साथी दीपदानोत्सव के समर्थन में दूसरी बातें लिख रहे हैं। बहुत सारे लोग तरह-तरह के चित्र बनाकर दीपदानोत्सव की पोस्ट सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं। आश्चर्यजनक, दीवाली में लोग डॉ. अम्बेडकर और ज्योतिबा फुले को भी ले आये हैं। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि हमारे लोग संघ की चाल नहीं समझ पाते और उस उत्सव को एक नये नाम से या नये रूप से सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं और बिना सोचे-समझे उसे मनाने को तैयार हो रहे हैं, कोई तर्क नहीं लगाते।
ये निम्नलिखित प्रश्न कुछ सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं
8सन 2018 से पहले दीपदानोत्सव अस्तित्व में क्यों नहीं था?
8इस उत्सव के जनक कौन है? उनका क्या लाभ अथवा हानि है?
8डॉ. अम्बेडकर का संघर्ष सब जानते हैं। उन्होंने हिन्दू धर्म का त्याग किया था। क्या कोई भी समझदार तर्कशील व्यक्ति, डॉ. अम्बेडकर को दीवाली के साथ दिखाने वाली बात का विश्वास करेगा। यकीनन नहीं। यह दुष्प्रचार है, तथ्यों के साथ मिश्रण है। यह अकेला उदाहरण ही यह समझने के लिए प्रर्याप्त है कि ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले लोगों, जिसमें हमारे कुछ स्वार्थी लोग भी शामिल हैं, दीवाली के नाम में दीपदानोत्सव का प्रचार कर लोगों को गुमराह करके अम्बेडकरवाद को कमजोर करने का षडयंत्र कर रहे हैं।
8इस दीपदानोत्सव का दिन दीपावली वाला दिन ही क्यों है? उसके नये कारण क्या हैं?
8क्या इस नये उत्सव के ऐतिहासिक प्रमाण है?
8क्या यह पर्व विश्व के अन्य बुद्धिस्ट देशों में भी मनाया जाता है?
8क्या स्वयं बुद्ध, अनेक बौद्ध विद्वानों या डॉ. अम्बेडकर ने इसके विषय में कुछ कहा?
8क्या बुद्ध साहित्य, देशी व विदेशी विद्वानों द्वारा लिखा गया अथवा डॉ. अम्बेडकर
द्वारा लिखित प्रामाणिक ग्रंथ ‘बुद्ध और उनका धम्म’ में इसका कोई उल्लेख है?
8क्या दलित वर्ग के लोगों के अलावा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा पिछड़ी जातियों के लोग भी दीपावली को दीपदानोत्सव के रूप में मानते है?
8दीपदानोत्सव मनाने या न मनाने से दलित वर्गों को क्या लाभ या हानि होने वाली है?
8क्या दीपावली या अन्य त्यौहार दलित वर्ग की आय के स्रोत है? जिन देशों में बहुत कम पर्व मनाये जाते हैं, क्या उन देशों की अर्थव्यवस्था भारत से कमजोर है?
8क्या दीपदानोत्सव/दीपावली पर्यावरण सुधार में सहायक है?
8क्या दीपावली जैसे उत्सव प्रकृति का संतुलन बनाने में सहायक हैं?
8क्या इनसे प्राकृतिक सम्पदा का बहुत अधिक दोहन नहीं हो रहा?
अब आगे उपरोक्त प्रश्नों पर विचार व्यक्त करने का प्रयत्न करेंगे।
=सन 2018 के पहले कभी दीपदानोत्सव का उल्लेख नहीं आया। इसका जन्म अकारण या अनायास ही नहीं हुआ लगता। मेरी समझ से इसका कारण यह है कि सन 2014 में केंद्र में तथा सन 2017 में यू.पी. तथा बाद में अन्य राज्यों में ब्राह्मणवादी सरकारें स्थापित होने से ब्राह्मणवादियों का मनोबल बहुत बढ़ गया तथा उन्होंने पूरी ताकत से मनुवाद लागू करना शुरू कर दिया। इसके लिए मनुवादियों ने गौरक्षा, राष्ट्रभक्ति आदि के बहाने अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार शुरू कर दिये। इन अत्याचारों के कारण इन वर्ग के लोगों में सोशल मीडिया के माध्यम से हिंदूवाद व मनुवाद के विरुद्ध जबरदस्त जानकारी का प्रादुर्भाव हुआ। इस जागृति के कारण लोग हिंदूवाद, इनकी कुप्रथाओं की आलोचना करने लगे तथा अपने घरों में लगी हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को घर से बाहर कर दिया तथा हिन्दू पाखंडवाद को छोड़ना शुरू कर दिया। अनेक लोगों ने हिन्दुओं के त्योहार मनाना छोड़ दिया। हर किसी की जबान पर अम्बेडकर आ गया। अम्बेडकर की विचारधारा से हिन्दूवादी घबराते हैं चूंकि अम्बेडकरवाद तथा ब्राह्मणवाद/मनुवाद में बड़ा विरोधाभास है। डॉ. अम्बेडकर इतने प्रश्न छोड़ गये हैं कि हिन्दूवादी आज तक उन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाये हैं। अब ब्राह्मणवादियों को हिंदूवाद की नींव हिलती नजर आई और आमदनी भी कम हो गई। इनका दिमाग समय से भी तेज दौड़ता है। इन्होंने अपनी रिसर्च में पाया कि शूद्र वर्ग के लोगों को हिंदुओं के त्यौहारों से जोड़ने का एक ही उपाय है, वह है इन त्यौहारों को बुद्ध से जोड़ दिया जाये तो ये लोग कहीं नहीं भागेंगे। इस रिसर्च के जनक ब्राह्मणवादी ही है। उन्होंने हिंदुओं के कुछ खास त्यौहारों जैसे होली, दीवाली, आदि को बुद्ध से जोड़ने की थ्योरी चला दी। उस साजिश में कुछ न कुछ लालच देकर दलित वर्ग के लोगों को भी शामिल कर लिया और उन्ही से सोशल मीडिया पर प्रचार कराने लगे। इसी प्रकार दीपदानोत्सव दीपावली के ही दिन अस्तित्व में आ गया। हमारे लोग तर्क नहीं लगाते, उत्सव मनाने का उनका मन होता ही है, बस नयी चाल में फंसकर त्योहार मनाने लग जाते हैं। इस प्रकार ब्राह्मणवाद का एजेंडा लागू करते हैं।
=दीपदानोत्सव के जनक ब्राह्मणवादी ही है। दिन भी वही है, तरीका भी वही है तो बदला क्या, सिर्फ नाम। उससे क्या फर्क पड़ने वाला है? उत्सव के लिये सामान तो उनका ही बिकना है, तो लाभ किसका- ब्राह्मणवादियों व व्यापारी वर्ग का।
=दीपावली राम के नाम में मनाई जाती है। दीपदानोत्सव का कोई प्रमाण नहीं, इसलिए यह दलितों के अलावा किसी का उत्सव नहीं है। क्या यह प्रमाणित है कि दीपदानोत्सव भी इसी दिन पड़ता है? नहीं, दलित, शूद्रों को बेवकूफ बनाने के अलावा कुछ नहीं।
=बुद्ध की शिक्षाएं सभी के लिए समान हैं, भारतवासियों के लिए कहीं अलग नहीं। यदि बुद्ध धम्म के अनुसार दीपदानोत्सव भारत में मनाया जाने लगा है तो अन्य बौद्ध देशों में क्यों नहीं? कुछ वर्ष पूर्व कई विद्वान साथियों ने दीपावली के ही दिन थाईलैंड, वर्मा, जापान, श्रीलंका आदि बौद्ध देशों में रहने वाले अपने मित्रों व जानकारों से वहाँ दीपदानोत्सव के बारे में जानकारी मांगी तो सभी ने कहा कि यहाँ ऐसा कुछ नहीं। इसका मतलब भारत में ही क्यों? बुद्ध और अम्बेडकर की शिक्षाओं को मानने वालों के लिए यह तथ्य काफी है कि दीपदानोत्सव नाम जैसी कोई चीज नहीं। मतलब किसी तरह दलितों को बेवकूफ बनाकर अपनी आमदनी बनाये रखने के लिए ब्राह्मणवादी लोग बार-बार झूठ बोलकर तथा पाखंडवाद में फंसाकर आम जनता को बेवकूफ बनाने में विशेषज्ञ है और हजारों साल से आज तक ऐसा करने में कामयाब हैं। यह बड़े शर्म की बात है।
=स्वयं बुद्ध ने, अनेक महान बौद्धाचार्यों ने कभी दीपदानोत्सव का उल्लेख नहीं किया। जापानियों द्वारा लिखित कई पुस्तकों में भी कोई उल्लेख नहीं है। सारांश रूप में बाबा साहेब द्वारा सन 1956 में रचित ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नामक पुस्तक में भी इसका उल्लेख नहीं है।
=अनेक विद्वान बौद्ध भिक्षु भी बता रहे हैं कि दीपदानोत्सव नामक कोई त्योहार नहीं है, यह केवल शूद्र लोगों को बेफकूफ बनाने के आलवा कुछ भी नहीं है।
=दीपावली के दिन ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय तथा पिछड़े वर्ग के लोग दीपावली को राम के नाम में दीपावली ही कहते है, जैसे मानते आये है, वैसे ही मना रहे हैं। वे इसे दीपदानोत्सव कह कर नहीं मनाते, क्यों? यह दोहरा माप दण्ड क्यों?
=दीपदानोत्सव मतलब दीपावली मनाने से दलित वर्ग के लोगों को कोई लाभ नजर नहीं आता, शायद हानि ही है चूंकि पूजापाठ, मंदिरों से पंडित की आमदनी होती है तथा त्यौहार मनाने की सामग्री की विशाल स्तर पर बिक्री में व्यापारी वर्ग का लाभ है।
= कुछ विद्वान साथियों ने तर्क दिया कि दीपावली से दलितों को आय होती है। यह बड़ा ही हास्यास्पद तर्क है। जिन देशों में यह नहीं मनाया जाता, क्या उनका आय का कोई स्रोत नहीं है? चीन की अधिसंख्य जनता बुद्ध अनुयायी है। चीन सरकार धम्म को ज्यादा महत्व नहीं देती, उत्पादन पर जोर देती है। चीन लगातार भारी उत्पादन कर रहा है, अपनी जनता को उत्पादन में लगा रहा है कि सारी दुनिया में उसका उत्पादन बिकता है। भारत की बात करे तो भारत एक बिक्री केंद्र बनकर रह गया है। यहाँ के त्यौहारों का सारा सामान जैसे-खिलौने, मूर्तियाँ, लड़ियाँ, पटाखे, बिजली के उपकरण, लाइटें, साईकिल, कम्प्यूटर, मोबाइल, कपड़े सब कुछ तो चीन से ही आ रहा है, माझा भी चीन से आ रहा है। भारतीय दिखाने के लिए प्रचार करते हैं, चीन का बना सामान नहीं खरीदेंगे, लेकिन सब कुछ तो चीन का बना हुआ ही खरीद रहे हैं। तो आर्थिक दशा किसकी सुधरेगी चीन की या भारत की? हम तो केवल गाय, गोबर, गौमूत्र तथा राष्ट्रवाद का ही उत्पादन कर रहे हैं जिसका दुनिया में कोई खरीददार नहीं। भाई लोगों ने यह भी पढ़ा होगा कि हिन्दूवादी भारत का इतिहास दोबारा लिखने का षड्यंत्र कर रहे हैं। वैज्ञानिक संस्थाओं को बर्बाद किया जा रहा है चूंकि वैज्ञानिक इनके मनमुताबिक रिसर्च रिर्पोट नहीं देते। इस साजिश में सरकार भी साथ दे रही है।
कुछ साथियों ने लिखा कि चार लाइने लिखने से क्या होता है, एकदम समाज तो नहीं बदला जा सकता। मैं तो यही कह सकता हूँ कि जो सुनना ही पसंद नहीं करते, वे रास्ता नहीं बदल सकते। वे लकीर के फकीर ही रहेंगे। उनके मन में डर है, हिन्दू धर्म में पूरी आस्था है। हमारे बहुत से लोग दोगले है, एक तरफ हिंदूवाद का भी आनंद ले रहे हैं दूसरी ओर अम्बेडकर द्वारा दी गई सुविधाओं का भी लाभ उठा रहे हैं। दो नावों पर सवार है, दो नावों पर सवार होने वाले पार नहीं लगते। मैं तो क्या चीज हूँ, समाज के लोगों ने डॉ. अम्बेडकर, महात्मा फुले और पेरियार की शिक्षाओं की परवाह नहीं की, नतीजे सामने है। मेरा ऐसे साथियों से आग्रह है जो मनुवादी चालों का समर्थन करते हैं अथवा किसी लालच वश उसका प्रचार भी करते हैं, वे समाज को गुमराह न करें, समाज का अहित न करें।
यहां दो महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख करना जरूरी है।
1. सन 1911 की जनगणना में अंग्रेजों ने अछूत वर्ग को हिन्दू वर्ग में शामिल नहीं किया, क्यों? सोचें।
2. डॉ. अम्बेडकर ने अछूतों के अलग अधिकारों के लिए बिल्कुल अलग लाइन पकड़ी। डॉ. अम्बेडकर ने जोर देकर कहा ‘अछूत हिन्दू धर्म का अंग नहीं है। वे अलग अल्पसंख्यक हैं तथा उनकी समस्यायें सबसे अलग हैं। इसलिए उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अलग से विशेष आरक्षण देना होगा।’
यदि डॉ. अम्बेडकर यह लाइन नहीं पकड़ते तो अछूतों को कभी भी आरक्षण नहीं मिल सकता था। इस तर्क को भी अपने मस्तिष्क में बैठायें।
सारांश में मैं यह कह सकता हूँ कि हिन्दू धर्म में कोई सुधार सम्भव नहीं है। क्या परिष्कार/सुधार के लिये बुद्ध के समय से 2500 वर्ष कम है? क्या कोई जातिवाद समाप्त करने की डैडलाइन का समय बता सकता है? यह जातिवाद जो इस देश का दुश्मन है, क्या अनन्त काल तक चलेगा? हिन्दुआें से अलग सिख धर्म क्यों बना? क्यों दलित तथा पिछड़े वर्ग के लोग मुस्लिम या ईसाई बने? विदेशी हिन्दू धर्म क्यों नहीं अपनाते? इसीलिए डॉ. अम्बेडकर ने घोषणा के 21 वर्ष बाद ही सन 1956 में हिन्दू धर्म त्याग कर बुद्ध धम्म ग्रहण किया। हम पहले ही बहुत सारी कुप्रथाओं को छोड़ चुके हैं और कही भी नुकसान में नहीं हैं। आज भी बहुत सारे लोग बहुत सारे पाखंडों को नहीं मान रहे, वे कही नुकसान में नहीं है। डरने वाले लोग ये बातें साथियों से जानकर अपनी संतुष्टि कर सकते हैं। मैं कहना चाहता हूँ कि अपनी अलग पहचान बनाना आवश्यक है और इसके लिये पहले कदम के तौर पर सब छोड़कर हमको केवल छ: त्यौहार ही मानने चाहिए :
1. 11 अप्रैल-महात्मा फुले जयन्ती
2. 14 अप्रैल-डॉ. अम्बेडकर जयंती
3. महान सम्राट अशोक जयंती (चैत्र
मास, शुक्लपक्ष, अष्टमी)
4. बुद्ध पुर्णिमा (बैशाख पूर्णिमा)
5. 14 अक्टूबर-धम्म परिवर्तन दिवस
6. 26 नवम्बर- संविधान दिवस
(मूलनिवासी अधिकार दिवस)
यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि विश्व के किसी भी देश में भारत की तरह त्यौहारों की लम्बी लाइन नहीं है। क्या उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है? सरकारी आंकड़ें दिखा रहे हैं कि सभी मानवीय मूल्यों में भारत दुनिया में बहुत पीछे है। पाकिस्तान व बांग्लादेश भी आगे हैं। बुरे मूल्यों में भारत टॉप पर है। यहां पंडो ने त्योहारों, रिवाजों तथा पूजापाठ का हिन्दू संस्कृति में इतना समावेश कर दिया जिससे की इन मुफ्तखोर व हरामखोर पंडे पुजारियों का पूरे साल बिना परिश्रम किए हर मौसम में आय का साधन बना रहे। कृपया सोचिए, अपने को बदलने के लिए एक-एक कदम उठाना शुरू कीजिये। समाज के बुद्धिजीवी लोगों से अपेक्षा करता हूं की इसपर बहस चलनी चाहिए कि बहुजन समाज के लोगों को केवल छ: उत्सव ही मनाने चाहिए। बाबा साहेब अम्बेडकर के सपनों को साकार करने का समय आ गया है। ऐसा करने से बहुजन समाज में मजबूती व एकता का आगाज होना संभव है।
कहने को हमारा संविधान धर्म निरपेक्ष है लेकिन सरकार की कार्यशैली धर्म निरपेक्ष नजर नहीं आती। एक प्रदेश के मुख्यमंत्री तो केवल एक धर्म विशेष को आगे बढ़ाने में अपना व अपनी सरकार का समय व धन धड़ल्ले से बर्बाद कर रहे हैं। अनगिनत त्योहारों पर शांति व व्यवस्था बनाने के लिए सरकार का बहुत समय व धन बर्बाद होता है। कुछ त्योहारों को प्रायोजित करने पर सरकारें आर्थिक सहायता भी देने लगी हैं-जैसे कांवड के शिविर लगाना आदि। यह सब संविधान के स्वरूप के विरूद्ध हैं और सरकारें संविधान का खुला उल्लंघन कर रहीं है। सरकार का काम केवल शांति व व्यवस्था बनाना है न की किसी भी विशेष समुदाय/धर्म के त्योहार को बढ़ावा देना।
इन त्योहारों और रस्म रिवाजों का देश के प्राकृतिक साधनों पर बहुत दबाव आता है। सरकार का तथा जनता का बहुत कीमती समय इन व्यर्थ के त्योहारों में बर्बाद होता है। कई त्योहारों जैसे दशहरा, गणेश चतुर्थी तथा होली आदि पर सैंकड़ो लोग मारे जाते हैं। जहां इन त्योहारों मेंं हम भारतीय अपना कीमती समय व धन बर्बाद करते हैं, वहीं दूसरे देश अपना उत्पादन कर देश की अर्थव्यवस्था को बल देते हैं।
सारे तथ्यों और साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए अपना स्वाभिमान बनाने के लिए बहुजन समाज के लोगों को केवल उपरोक्त लिखित छ: त्योहार ही मनाने चाहिए।
(लेखक आकाशवाणी से सेवानिर्वत पूर्व अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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