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महाड़ चावदार सत्याग्रह और अम्बेडकर के तीन क्रांतिकारी संदेश

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2023-03-17 11:18:24

डॉ. अम्बेडकर अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद समता मूलक समाज की स्थापना के लिए समता आंदोलन में पूर्ण समर्पण से जुट गये। 29 जुलाई 1924 को डॉ. अम्बेडकर ने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की इस सभा के मुख्य उद्देश्य थे- दलित वर्गों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार, संस्कृति का प्रसार, विद्यालय स्थापित करना तथा दलित वर्गों की समस्याओं का प्रतिनिधत्व करना। डॉ. अम्बेडकर ने 24 सितम्बर 1924 को समता सैनिक दल नामक संगठन की स्थापना की। इसके माध्यम से समाज पर कुर्बान होने वाले नवयुवकों को एकत्रित किया जो अपनी जान की परवाह न करके समता, मैत्री तथा बंधुता के लिए कार्य करें और समाज में फैली विषमता को मिटाने के लिए संघर्ष करें। डॉ. अम्बेडकर की उच्चतम योग्यता का अंग्रेजों ने नोट लिया। उन्हें फरवरी 1927 में बम्बई प्रदेश की विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया। 27 फरवरी 1927 को उन्होंने बम्बई विधान परिषद में अपना पहला भाषण दिया।

सन 1927 ऐसा वर्ष है जिसमें डॉ. अम्बेडकर के जीवन संघर्ष में बहुत ही महत्वपूर्ण घटनाऐं घटी। यद्यपि समता सैनिक दल की स्थापना सन 1924 में हो गई थी लेकिन मार्च 1927 में ही यह संगठन सक्रिय हुआ। डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में 20 मार्च 1927 को नासिक जिले के महाड में चावदार तालाब से बहुत विशाल संख्या में अछूत वर्ग के लोगों ने पानी लेने के लिए सत्याग्रह किया। यह सत्याग्रह बहुत सफल रहा जिसके कारण अछूत वर्ग के लोगों को तालाब से पानी लेने का अधिकार मिला। चाबदार तालाब से पानी लेने का सत्याग्रह डॉ. अम्बेडकर के राजनीतिक व सामाजिक संघर्ष की क्रांतिकारी शुरुआत थी।

एक अर्थ में देखा जाए तो 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति की भूमिका जिन बातों ने बनाई थीं उन बातों की तुलना महाड चवदार सत्याग्रह से की जा सकती है। फ्रांस की धरती पर जिस क्रान्ति का बीज पड़ा था, उसने वैश्विक स्तर पर समानता को रेखांकित किया था और उसके तार्किक परिणाम में मानवाधिकार घोषणापत्र ने जन्म लिया था। इसी तरह भारतीय अछूतों के मानवाधिकारों को प्रखर और ओजस्वी वाणी में परिभाषित करने का पुनीत कार्य इन सत्याग्रहों ने किया। बाबासाहेब आंबेडकर के नेतृत्व में हुए इस आंदोलन ने न सिर्फ सामाजिक अर्थों में उभर रही एक नवीन दलित शक्ति को दिशा दिखाने का कार्य किया बल्कि इसने एक नयी राजनीति शक्ति को भी संगठित करने की भूमिका निर्मित की। यह आंदोलन और इसकी सफलताएं बहुत महत्वपूर्ण हैं और उनके निहितार्थों को बहुत ध्यान से देखने की आवश्यकता है। विशेष रूप से इस अवसर पर आंबेडकर द्वारा की गयी क्रांतिकारी घोषणाओं पर बार- बार विचार करना चाहिए।

उस समय अछूतपन के शाप से पीड़ित समाज को अपनी बदहाली से उबरने के लिए उन्होंने जो तीन सूत्र दिए थे वे उल्लेखनीय हैं उन्होंने पहला सूत्र दिया था- गंदे व्यवसाय या पेशे को छोड़कर बाहर आना। दूसरा, मरे हुए जानवरों का मांस खाना छोड़ना, और तीसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण ‘अछूत होने की अपनी स्वयं की हीनभावना से बाहर निकलना और खुद को सम्मान देना।’ एक क्रम में रखकर देखें तो ये क्रांतिकारी सूत्र बहुत गहरी समाज मनोवैज्ञानिक तकनीकें हैं। इन सूत्रों का सौंदर्य और क्षमता निरपवाद हैं और जिन भी समुदायों या व्यक्तियों ने इसपर अमल किया है, इतिहास में उनकी उन्नति हुई है।

इन तीन सलाहों के सन्दर्भ में अछूतपन या वंचितपन अथवा शोषण को नए अर्थ में भी देखा जा सकता है। यह नया तरीका इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि पुराने राजनीतिक तरीकों की निस्सारता हमारे सामने है और हाल ही के चुनावी गणित में सिद्धांतों की जैसी दुर्गति और खरीद फरोख्त हो रही है वह बहुत निराश करती है। एक नए अर्थ में इन तीन सूत्रों को देखें तो कुछ आशा जगती है। अभी तक सभी मुख्य विमर्शों में अछूतों की समस्या राजनीतिक और सामाजिक भेदभाव के तरीके से उत्पन्न बताई जाती है। लेकिन एक बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक विवशता भी, जिसे अभी तक ठीक से अछूतपन के सन्दर्भ में रखकर देखा नहीं गया है। अछूत अपने अछूत कर्म की वजह से स्वयं अपनी ही नजर में गिरता है और यह गिरना ही उसे अन्दर से कमजोर बनाता आया है। हालांकि सामाजिक राजनीतिक षड्यंत्रों पर इसका जिम्मा डाला जा सकता है और बहुत दूर तक यह सही भी है। और यह उन षड्यंत्रपूर्ण सामजिक व्यवस्था की और संकेत भी करती है जिसने पहली बार अछूत पैदा किये थे। लेकिन आंबेडकर अछूतों के उत्थान के जो सूत्र दे रहे हैं वे राजनीतिक से ज्यादा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक क्रान्ति के सूत्र हैं। ये सूत्र राजनीतिक विमर्श से दूर रखकर देखे जाने चाहिये।

अगर इतिहास के किसी बिंदु पर किन्ही विवशताओं के चलते बौद्धों को अछूत बनना पड़ा था, तब उन्हें अछूत बनाने के लिए जो तकनीक अपनाई गयी थी उस पर हमें गौर करना चाहिए। तभी हम अछूत बनने और बनाने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझ पाएंगे। खुद आंबेडकर की रिसर्च जिस नतीजे पर पहुँचती है वह यह बताती है कि अतीत के बौद्ध ही वर्त्तमान दलित हैं, उसमे भी वे जातियाँ जो मरे हुए जानवरों का मांस खाती थीं या खाती हैं ।

बौद्ध साहित्य में एक गाथा के सन्दर्भ मिलते हैं जिनमे किसी भिक्षु को बुद्ध द्वारा ये आज्ञा दी गयी थी कि भिक्षापात्र में जो भी मिले उसे बिना किसी चुनाव के भक्षण किया जाए। यह कथा आगे बढ़ती है और उल्लेख आता है कि किसी पक्षी के मुंह से मांस का टुकड़ा उस भिक्षु के भिक्षापात्र में गिरा और वह भिक्षु तथागत के सम्मुख मार्गदर्शन के लिए उपस्थित हुआ। कथा यह बताती है कि तब बुद्ध ने कहा कि चूंकि यह पहले से ही मरे हुए जानवर का मांस है, इसलिए इसके भक्षण में हिंसा नहीं है। कालांतर में यह बात नियम बन गयी और आज भी बौद्ध देशों में मांस की दुकानों पर तख्ती लटकती देखी जाती है कि ‘यहाँ स्वाभाविक रूप से मरे हुए जानवरों का मांस बिकता है।’ भारतीय जातियों में अनेक जातियों में ये परम्परा देखी जाती है। इसी बात ने आंबेडकर को यह स्थापित करने में मदद की थी कि अतीत के बौद्ध ही एक अर्थ में आज के अछूत हैं। अब तथागत बुद्ध की आज्ञा को, कालांतर में ब्राह्मणवादी षड्यंत्र को और पिछली सदी में दिए गए बाबा साहेब के तीन क्रांतिकारी सूत्रों को एकसाथ रखकर देखें तो पता चलता है कि अछूत कैसे पैदा होते हैं, और कैसे अछूतपन से बाहर आ सकते हैं। ये तीनों बातें एक क्रम में हमें बहुत कुछ सिखा सकती हैं।

तथागत की मांसभक्षण को स्वीकृति इस पूरे देश के लिए बहुत महंगी साबित हुई। असल में उस समय उनके लिए प्रश्न ये था कि क्या भिक्षुओं को भिक्षा में भी चुनने का अधिकार दिया जाए या ना दिया जाए। भिक्षा का अर्थ ही समस्त चुनावो से परे जाकर मन के खेल से बाहर आने में है। यही बुद्ध की धर्म साधना का मौलिक सूत्र है। उनके अनुसार मन चुनाव करता है और ये चुनाव ही पतन में ले जाकर तृष्णा की दासता पैदा करते हैं। इस प्रसंग में जबकि भिक्षु द्वारा मांसभक्षण के बारे में निर्देश माँगा गया- तब बुद्ध ने जो निर्णय दिया वह इस अर्थ में दिया गया था। अगर उस समय बुद्ध मांस भक्षण का विरोध कर देते तो सारे भिक्षु मांसभक्षण से तो बच जाते लेकिन चुनाव करने वाले मन के झांसे में आकर साधना के मूल सूत्र से वंचित रह जाते। यह दूसरा पतन बुद्ध को मंजूर नहीं था, इसलिए उन्होंने मांसभक्षण को स्वीकृति दे दी इस तर्क के साथ कि चूंकि इस भिक्षु ने अपने भोजन के लिए किसी जानवर को नहीं मारा है इसलिए यहाँ हिंसा नहीं हुई है। दूसरे शब्दों में उन्होंने पहले से ही मरे हुए जानवर का मांस खाने की आजादी दे दी।

कालांतर में जब बौद्ध और जैन धर्म की चुनौती से हिन्दू धर्म बहुत कमजोर हो चला था और फिर से शक्ति प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था तब इन आज्ञाओं या निषेधों को उसने बहुत अलग ढंग से उपयोग करते हुए इनकी श्रेष्ठताओं को अपने में समावेशित कर लिया। यह समावेशिता हिन्दू धर्म की विशेषता है और एक अर्थ में यही हिन्दू धर्म को महान भी बनाती है। किन्तु इस महानता का एक काला चेहरा भी है, जो अछूतों के अछूतपन की सर्जना में सर्वाधिक दुखद और षड्यंत्रकारी रूप में सामने आता है।

जिस समय हिन्दू धर्म या वेदान्तिक ज्ञान की प्रणालियों को संगठित कर पुनर्जीवित करने के प्रयास चला रहे थे तभी बौद्ध भिक्षुओं और जैन मुनियों की उज्जवल छवि और चमत्कार को हिन्दू धर्म में लाने का प्रयास भी चला। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि तपस्वी भिक्षुओं या मुनियों के सम्मुख सुविधाजीवी ब्राह्मण का प्रभाव जनमानस पर बहुत कम था। वैरागी, व्रती और कठोर अनुशासन में जीने वाले भिक्षुओं का आचरण और ज्ञान ब्राह्मणों की तुलना में बहुत प्रभावी था। सम्भवत: इसीलिये बौद्ध धर्म छोटे से समय में पूरे भारत सहित एशिया भर में फैल गया था। किन्तु बौद्ध धर्म वैराग्य और अहिंसा पर अति आग्रह के कारण एवं अन्य धर्मों के षड्यंत्र या आक्रमण के कारण कमजोर हुआ।

जब हिदू धमार्चार्यों ने हिन्दू सन्यासियों को सम्मानजनक पहचान दिलाने के सूत्र रचे तो ये सूत्र जैनों और बौद्धों से सीधे उधार ले लिए गए। अब हिन्दू सन्यासी भी भिक्षावृति पर जीने वाला और ब्रह्मचारी हो गया और उसके लिए मांस का निषेध कर दिया गया। उनके लिए भी कठोर आचारशास्त्र का निर्माण किया गया। हालांकि बुद्ध पूर्व के वैदिक हिन्दू समाज में ब्राह्मण गृहस्थ और सुविधाजीवी हुआ करता था। जब हिन्दू धर्म अपने पतन की गर्त से फिर से शक्तिशाली होकर उभरा तब इन्ही बौद्धों एवं जैनों के श्रेष्ठ आचरण को अपने सन्यासियों पर आरोपित कर दिया और पूरे बौद्धों को अछूत बना दिया। साथ ही राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अर्थों में उन्हें सदैव कमजोर रखने के लिए उन्हें सबसे निंदनीय कामों में लगा दिया गया।

इस छोटी सी भूमिका से समझ में आता है कि एक समाज मनोवैज्ञानिक ढंग से चीजें कैसे काम करती हैं। राजनीतिक और सामाजिक षड्यंत्रों में भी कहीं गहरे में मनोवैज्ञानिक तकनीकें ही काम करती हैं जो ना सिर्फ शोषक को शोषण का अधिकार देती हैं, बल्कि शोषित को भी हीनभावना से भरकर कमजोर बनाती हैं। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि क्यों अछूत होना पहले एक राजनीतिक घटना थी और बाद में फिर एक सामाजिक परम्परा बन गयी।

अब इसे और विस्तार में देखते हैं। वास्तव में अच्छे बुरे, श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ आदि में भेद करने की प्रवृत्ति एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है। यह मनुष्य को एक जीववैज्ञानिक और सामाजिक पशु की तरह जिंदा रखने में मदद करती है। काम धंधों में श्रेष्ठता या निकृष्ठता का पैमाना उसकी साफ सफाई एवं ज्ञान और कौशल से जोड़कर देखा जाता है। इसीलिये ज्ञान का पेशा करने वाले लोग सभी समाजों में समादृत होते हैं। वह ज्ञान चाहे धर्म का हो चाहे शस्त्र का हो चाहे विज्ञान का हो या व्यापार का हो। हालाँकि तथाकथित शूद्रकर्म का भी अपना ज्ञान होता है, किन्तु वो उस कर्म में शामिल गन्दगी के कारण सामान्य अर्थों में सम्मानित नहीं हो पाता। यह हमारा दुर्भाग्य है, ऐसा नहीं होना चाहिए। किन्तु समाज का सामूहिक मन इसी तरह कार्य करता है।

इस तरह हम देखते हैं कि किन्ही गंदे या अस्वच्छ कर्म में लगा दिए जाने पर ही अछूत पैदा होता है। अब इस बात के भी दो पहलू हैं। यहाँ गंदापन भी तुलनात्मक है। एक पहलू में अगर अध्ययन -अध्यापन, वाणिज्य और युद्धकर्म से इसकी तुलना की जाए तो ही ये अस्वच्छ या गंदा कर्म है। लेकिन दूसरी तरफ इसे अगर पीढ़ी दर पीढ़ी खानदानी पेशा बना दिया जाए, तो इसकी भयानकता बहुत बढ़ जाती है। और इसी अवस्था में गंदेपन और हीना भावना का यह दंश पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ सकता है। अगर जन्मत: कार्यविभाजन का सिद्धांत ना होता तो अछूत सिर्फ एक मानवीय गुण बन कर रह जाता। तब वह परम्परा नहीं बन सकता था। इस बात से यह सिद्ध होता है कि अस्वच्छ कर्म की स्वयं की पहचान, उससे जुडी हुई हीनभावना और उसके प्रति शेष समाज का तिरस्कार ही अछूतों को पैदा करता है।

अब आंबेडकर द्वारा दी गयी क्रांतिकारी सलाह को इस सन्दर्भ में रखकर देखें तो हम समझ पाते हैं कि वे एक बहुत मौलिक क्रांति का सूत्रपात कर रहे हैं। वे जब गंदे काम को छोड़ने का आग्रह करते हैं तो उनका सबसे पहला लक्ष्य होता है स्वयं अछूतं में अपनी आजीविका से जुडी हीन भावना और कमजोरी को खत्म करना। जब वे कहते हैं मरे जानवरों का मांस खाना बंद करो तब उनका लक्ष्य होता है नितांत व्यक्तिगत आचरण में शुचिता स्वच्छता और अहिंसात्मक जीवन शैली का पालन। और जब वे कहते हैं कि अछूत होने की मानसिकता से बाहर निकलो तब उनका लक्ष्य है वो आत्मविश्वास हासिल करना जो शोषकों को सम्यक जवाब दे सके और शोषण की परम्परा का उन्मूलन कर सके।

अब इस पूरे विस्तार में हमारे लिए क्या ग्रहणीय है? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। इतिहास सिद्ध तथ्यों और विवरणों से हम अपने लिए क्या शिक्षा लेते हैं ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है। विशेष रूप से आज जबकि सत्ता के समीकरण और अनुमान भारतीय इतिहास में पहली बार एक दूरगामी और स्थायी परिवर्तन के संकेत दे रहे हों। इस अवश्यम्भावी राजनीतिक संक्रांति के दौर से गुजरते हुए हमें दलित आंदोलन या दलित विमर्श की दिशा पर पुनर्विचार करना चाहिए। एक राजनीतिक और सामाजिक अर्थ में ही अब तक दलित क्रान्ति का संगठन किया गया है। उसके परिणाम भी बहुत साफ नजर आते हैं। राजनीतिक अर्थो में शक्ति संचय हुआ है और अब ये हालत हैं कि कोई भी पार्टी या सारी पार्टियां मिलकर भी दलित अधिकार के मुद्दे को नजरअंदाज नहीं कर सकती। आज जब हिन्दूवादी शक्तियां मनुवादी व्यवस्था लागू कर खुले आम डॉ. अम्बेडकर द्वारा समता, स्वतंत्रता, बंधुता तथा न्याय पर आधारित रचित भारतीय संविधान का खुला उल्लघंन कर रही हैं। समय की आवश्यकता है कि अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के लोगों को ब्राह्मणवाद से सावधान होकर एक हो जाना चाहिए और डॉ. अम्बेडकर तथा अन्य महापुरुषों की बताई हुई शिक्षाओं का अनुसरण करना चाहिए। तभी इस देश में समता मूलक समाज की स्थापना हो सकती है और ब्राह्मणवाद को कमजोर किया जा सकता है।

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01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

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