




2025-12-30 15:42:36
भारत में न्यायपालिका एक स्वतंत्र, एकीकृत और सर्वोच्च संस्था है। जो सरकार के अन्य दोनों अंगों विधायिका और कार्यपालिका से अलग-होकर कानून की व्याख्या करती है, विवादों का निपटारा करती है, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है और संविधान की संरक्षक होने के नाते कानून के शासन को बनाए रखती है। यह एक पदानुक्रमित प्रणाली है, जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय, उसके नीचे उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालय हैं, जो सभी एक एकीकृत प्रणाली के तहत काम करते हैं। भारत की न्याय पालिका सरकार के अन्य दोनों अंगों कार्यपालिका और विधायिका से अलग एक स्वतंत्र निकाय है, इस पर अन्य दोनों अंगों का न तो कोई दबाव है और न ही उसकी बात या निर्देश मानने के लिए वह बाध्य है।
उच्च व उच्चतम न्यायालय के फैसलों पर उठते सवाल: नवंबर 2025 में अरावली हिल्स की परिभाषा का फैसला कि केवल 100 मीटर ऊंची पहाड़ी ही अरावली हिल्स मानी जाएंगी। पर्यावरणविदो और पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्त्तार्ओं ने इस फैसले को पर्यावरण संरक्षण के लिए हानिकारक बताया, क्योंकि इससे खनन और निर्माण आसान हो सकता है। वहीं, दिसंबर 2025 में उत्तराखंड में वन भूमि पर अतिक्रमण के मामले में कोर्ट ने राज्य सरकार को ‘मूकदर्शक’ कहकर फटकार लगाई और इस पर जांच कमेटी गठित करने का आदेश दिया, जिसकी कुछ सराहना भी हुई मगर केंद्र में बैठी मोदी संघी सरकार में शर्म और हया का कोई स्थान नहीं है। वह अपने अंदर समाहित निर्लजता के कारण किसी भी स्तर तक गिर सकती है। लेकिन केंद्र सरकार इन सभी को अनदेखा करके आगे बढ़ी, मगर अब चौतरफा विरोध व आलोचना को देखकर केंद्र की मोदी-संघी सरकार ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि पर्वतमाला क्षेत्र में किसी प्रकार के नए खनन पट्टे जारी नहीं किये जाएं। यह प्रतिबंध गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक फैली पूरी अरावली श्रंखला पर लागू होगा। अदालत का यह फैसला गोल-मोल है उसमें कोई स्पष्टता नहीं है। परिवर्तित किये गये दिशा-निर्देश और कानून ज्यों का त्यों बना हुआ है। यह वैसा ही है जैसे किसान आंदोलन के दौरान तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की बात की गई लेकिन मांग और मुद्दा आज भी वही बना हुआ है।
संवैधानिक और राजनैतिक मुद्दे: अनुच्छेद 370 हटाने, इलेक्ट्रोरल बॉन्ड स्कीम रद्द करने, बक्फ संशोधन अधिनियम पर अन्तरिम रोक, राम मंदिर का फैसला, बाबरी मस्जिद से जुड़ा विवाद, जैसे फैसलों पर राजनैतिक और सामाजिक दल अपने-अपने सवाल उठाते रहे हैं परंतु केंद्र में बैठी मनुवादी संघी सरकार में नैतिकता का तनिक भी असर दिखाई नहीं देता। चूंकि संघियों की मानसिकता में गहराई तक निर्लजता समाहित है और वे बार-बार ऐसे कदम उठाते हैं जिससे समाज में अस्थिरता और सद्भाव पर संकट बना रहे। इसी मानसिकता के तहत जहां-जहां प्रदेशों में डबल इंजन की मोदी-संघी सरकारें है, वहाँ-वहाँ पर अत्याचार, उत्पीड़न और नफरती हादसों का सिलसिला तीव्र गति से बढ़ रहा है। पूरे देश के जागरूक और न्याय संगत लोग यह जानते और मानते हैं कि 2014 के बाद से मोदी-संघी सरकार में जो फैसले लिए जा रहे हैं, वे सभी फैसले मनुवादी संघियों के पूर्वाग्रह के तहत ही लिए जा रहे हैं। देश की सभी अदालतों में नीचे से लेकर ऊपर तक मनुवादी संघी मानसिकता के जजों को नियुक्त किया जा रहा है और उनसे फैसले भी उसी मानसिकता के तहत आ रहे हैं। देश की जनता के मन में न्यायालयों के फैसलों के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है चूंकि उनके फैसले मनुवादी संघियों की मानसिकता के पूर्वाग्रहों से संक्रमित होते हैं। संघी पृष्ठभूमि के सभी नायक पहले दिन से ही भारतीय संविधान के विरोधी रहे हैं। 2014 में केंद्र में मनुवादी संघियों की सरकार मोदी के नेतृत्व में बनी, मोदी भी संघ के एक प्रचारक व अल्पसंख्यकों के अधिकारों के घोर विरोधी रहे हैं। उनकी यह कार्यशैली 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों में स्पष्ट रूप से उभरकर आई। इन सांप्रदायिक दंगों में हजारों अल्पसंख्यक समुदाय के लोग मारे गए, परोक्ष रूप से उस समय के चश्मदीदों ने बताया था कि सरकारी तंत्र को बार-बार फोन करने पर भी दंगाइयो पर कोई कार्यवाही नहीं की जा रही थी मोदी सरकार के सभी अंग मूकदर्शक बनकर इस भयावह स्थिति को देख रहे थे। इस नरसंहार में बिलकीस बानो व अहसान जाफरी जो उस समय कांग्रेस पार्टी के सांसद भी थे, वे बार-बार सरकारी तंत्र को मनुवादी गुंडों के हमलों की जानकारी देते रहे और यह भी बताते रहे कि हमें जान का खतरा है, हमारी सुरक्षा की जाये। परंतु मोदी सरकार के किसी भी व्यक्ति ने उनकी आवाज को न सुना और न दंगाइयों को रोका। अहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी और बिलकीस बानो अपने ऊपर हुए हमले और दंगों में मारे गए अपने परिजनों की शिकायत लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक गए परंतु उन्हें इस गंभीर नरसंहार पर कोई संतोष जनक न्याय आज तक नहीं मिला है। जिसका मूल कारण न्यायालयों में बैठे संघी मानसिकता के न्यायाधीशों का होना है। इसी मानसिकता के कारण अंग्रेजी शासन में कोलकाता की प्रिवी काउंसिल कोर्ट ने मनुवादी चरित्र (ब्राह्मण) वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति पर प्रतिबंध लगाया था। उनके फैसले का आधार था कि ब्राह्मणों के फैसले न्यायशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित नहीं होते बल्कि इनके अधिकतर फैसले ब्राह्मणी संस्कृति से संक्रमित ही पाये जाते हैं।
योगी सरकार का मनुवादी चरित्र न्यायपालिका पर भारी: वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश में मनुवादी संस्कृति के जहरीले योगी आदित्यनाथ की सरकार है, जो बुलडोजर बाबा के नाम से भी जाने जाते हैं। योगी सरकार ने हाल ही में अखलाक लिंचिंग केस को लेकर मनुवादी ब्राह्मणी संस्कृति का विचित्र प्रदर्शन किया। जिसमें योगी सरकार ने अखलाक केस को बंद करने की सिफारिश की। परंतु इतेफाक से सुरजपुर कोर्ट, गौतम बुद्ध नगर के जज सौरभ द्विवेदी ने उनकी सरकार के फैसले को अनुचित पाया और कहा कि केस में मजबूत साक्ष्य मौजूद हैं और व्यक्ति की हत्या की गई है, यह केस ऐसे बंद नहीं किया जा सकता। जिसे लेकर मनुवादी नफरती चिटुओं ने सोशल मीडिया पर भद्दी-भद्दी टिप्पणियाँ की। मोदी-योगी के अंधभक्तों का ऐसा व्यवहार स्वाभाविक ही है चूंकि जब योगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे तब उनपर भी दर्जनों अपराधिक केस थे। मुख्यमंत्री बनने पर अपने ऊपर चल रहे सभी अपराधिक केसों को उन्होंने वापस ले लिया था। परंतु न्यायायिक दृष्टि से ऐसा करना अनुचित ही नहीं अनैतिक भी है। योगी आदित्यनाथ भी निर्लजता के मामले में मोदी और शाह से कम नहीं है, वे उनसे भी दो कदम आगे ही नजर आते हैं। देश के उच्चतम न्यायालय ने योगी के बुलडोजर एक्शन को असंवैधानिक बताते हुए गंभीर टिप्पणी की थी, परंतु उसके बाद भी योगी आदित्यनाथ अपनी अपराधिक गतिविधियों से बाज नहीं आए और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अनदेखा करके बुलजोड़र नीति को धडले से अल्पसंख्यकों के खिलाफ आगे बढ़ाते रहे।
उच्चतम न्यायालय का ढुल-मुल रवैया: उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देशों का योगी सरकार ने खुला उल्लंघन किया। परंतु उच्चतम न्यायालय में बैठे मनुवादी संस्कृति के न्यायाधीशों ने योगी आदित्यनाथ के ऐसे असंवैधानिक कृत्यों को देखकर न स्वत: संज्ञान लिया और न उसके विरुद्ध कोई कठोर आदेश पारित किया। उच्चतम न्यायालय अगर अपना मूल कर्तव्य संविधान की रक्षा करने को प्राथमिकता देता तो उसे स्वत: संज्ञान लेकर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को बर्खास्त कर देना चाहिए था। ऐसा न करना दर्शाता है कि उच्च व उच्चतम न्यायालयों में बैठे अधिकतर न्यायाधीशों की मानसिकता मनुवादी संस्कृति से संक्रमित है और वे उसे यथावत चलने देना चाहते हैं। अब समय आ गया है कि देश के दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यकों को आगे आना होगा और ऐसे कृत्यों को देखकर उनके विरुद्ध संविधान सम्मत आंदोलन भी छेड़ना होगा। देश को नहीं चाहिए मनुवादी संघी मानसिकता के न्यायाधीश, नियुक्ति प्रक्रिया में हो देश की जनसंखिकी विविधता के अनुसार बदलाव।
मोदी सरकार के छलावामयी असंवैधानिक कृत्य: मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में नए संसद भवन का निर्माण हुआ। जिसके दरवाजे पर सेंगोल की स्थापना की गई, जो एक राजतंत्र का धार्मिक प्रतीक है। जबकि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है जिसमें किसी भी धर्म की प्रधानता नहीं है। मोदी ने संविधान की शपथ लेकर भी संविधान की भावना के विरुद्ध कार्य करके, देश की जनता को साफ संदेश दिया कि मोदी की आंतरिक संरचना पूर्णतया मनुवादी है जो धर्मनिरपेक्षता को नहीं मानते। सेंगोल की स्थापना के वक्त देश के संविधान की रक्षक उच्चतम न्यायालय को स्वत: संज्ञान लेकर मोदी सरकार को नोटिस देना चाहिए था, और मोदी अगर उच्चतम न्यायालय को संवैधानिक मर्यादा में रहकर न्यायायिक जवाब देने में विफल रहते तो मोदी सरकार को उसे तुरंत प्रभाव से बर्खास्त भी कर देना चाहिए था। मोदी जब विदेश जाते हैं तो वे बुद्ध व संविधान की बात करते हैं परंतु जब अपने देश की जनता के सामने होते हैं तो उनमें हिन्दुत्व के भारतीयकरण का विचार सर्वोपरि हो जाता है, जो एक छलावामयी आचरण है। संसद में बैठे अनुसूचित जाति और जनजाति, पिछड़ों व अल्पसंख्यक समुदायों के सामने संविधान के भारतीयकरण का विचार रखते हैं तो सभी एससी, एसटी, ओबीसी व अल्पसंख्यक समुदाय के सांसद मौन रखकर मोदी के व्यक्तव्य को स्वीकृति देते है। यह दर्शाता है कि इन समुदायों के सांसदों में संविधान की गहरी समझ रखने का गहरा अभाव है या फिर वे अपने कुकृत्यों के कारण मोदी सरकार के सामने चुप रहने के लिए विवश है। संविधान के भारतीयकरण का विचार संविधान सभा के सम्मुख भी आया था जिसे खारिज करते हुए बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था ‘मेरा विश्वास है कि यह ग्राम गणराज्य भारत के विनाश हेतु उत्तरदायी है। इसलिए मैं प्रांतवाद और साम्प्रदायिकता की निंदा करने वाले लोगों को ग्राम के प्रबल समर्थक के रूप में देखकर आश्चर्यचकित हूँ। ग्राम आखिर है क्या, महज स्थानीयता की गंदी नाली, अज्ञानता, संकीर्णता एवं सांप्रदायिकता का अड्डा? मुझे प्रसन्नता है कि संविधान के प्रारूप में इस ग्राम का परित्याग कर व्यक्ति को इकाई के रूप में अपनाया गया है।’ बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर यह जानते थे कि स्वतंत्रता, समानता, बधुत्व जैसे आदर्शों की प्राप्ति के लिए संविधान में व्यक्ति को ही इकाई के रूप में स्वीकार करना होगा। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने यह भी आशंका व्यक्त की थी कि आज की स्थिति में, जब हमारा सामाजिक मानस अलोकतांत्रिक तथा राज्य की प्रणाली लोकतांत्रिक, ऐसे में कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा राजनैतिक दलों के भविष्य का व्यवहार कैसा होगा? बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर यह जानते थे कि संविधान वंचित, शोषित और प्रताड़ित-अपमानित वर्ग का रक्षक तभी बन सकता है, और तभी वह उन्हें सम्मानपूर्वक जीवनयापन का अवसर प्रदान कर सकता है जब वह देश की उस कथित गौरवशाली सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की जकड़न से सर्वथा मुक्त हो जिसकी पूर्णप्रतिष्ठा की कोशिश आज संविधान के भारतीयकरण के माध्यम से हो रही है।
30 नवंबर 1949 के आॅर्गनाइजर के संपादकीय में संघियों द्वारा लिखा गया-‘किन्तु हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु द्वारा विरचित नियमों का रचनाकाल र्स्पाटा और पर्शिया से रचे गए संविधानों में से पहले का है। आज भी मनुस्मृति में प्रतिपादित उसके नियम पूरे विश्व में प्रशंसा पा रहे हैं और उनका सहज पालन किया जा रहा है। किन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए यह सब अर्थहीन है।’ यह स्पष्ट तौर पर संघियों की मानसिकता को परिलक्षित करता है।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने यह उल्लेख किया है कि मनुस्मृति से जर्मन दार्शनिक नीत्शे प्रेरित हुए थे और नीत्शे से प्रेरणा लेने वालों में हिटलर भी था। हिटलर और मुसोलिनी संकीर्ण हिन्दुत्व की अवधारणा वाले संघियों के भी आदर्श रहे हैं। सावरकर भी भारतीय संविधान के कठोर आलोचक रहे। उन्होंने लिखा भारत के नए संविधान के बारे में सबसे ज्यादा बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो वेदों के बाद हिन्दू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है। यह ग्रंथ प्राचीन काल से हमारी संस्कृति और परंपरा तथा आचार-विचार का आधार रहा है। आज भी करोड़ो हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे मनुस्मृति पर ही आधारित है। आज मनुस्मृति हिन्दू विधि (कानून) है। (सावरकर समग्र खंड-4, प्रभात दिल्ली, पृष्ट 416)
गोलवलकर ने बारंबार संविधान से अपनी गहरी असहमति की, और खुली आलोचना की उन्होंने लिखा-हमारा संविधान पूरे विश्व के विभिन्न संविधानों के विभिन्न आर्टिकल्स की एक बोझिल और बे-मेल सजावट है, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सके।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की मानसिकता में मनुवाद: यह कितनी शर्म की बात है कि उच्चतम न्यायालय के जो न्यायाधीश न्याय और नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध है अब वे उच्चतम न्यायालय में बैठकर मनुवादी संस्कृति के न्यायाधीश, न्याय प्रणाली के भारतीयकरण की मांग उठा रहे हैं। संविधान के उपबंध की व्याख्या के विषय में अंतिम निर्णय देने का अधिकार उच्चतम न्यायालय को ही प्राप्त है। यही कारण है कि हमें न्यायपालिका में बैठे न्यायाधीशों जो न्याय के भारतीयकरण की मांग कर रहे हैं उनकी मानसिकता को समझना होगा। वर्तमान न्याय प्रणाली पर ब्राह्मणी संस्कृति के सर्वणों का वर्चस्व है जिसमें अभी भी दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को न्याय पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इसलिए न्याय प्रणाली का भारतीयकरण करना किसी बुरे सपने से कम नहीं होगा। भारत की जागरूक बहुजन जनता को मनुवादियों के इस छलावे में नहीं फंसना चाहिए।
हमारे न्यायाधीश आज अपने फैसलों में मनु और कौटिल्य आदि का उल्लेख करते रहते हैं। जस्टिस एस. ए. बोबड़े ने निजता पर दिये फैसले में कौटिल्य के अर्थशास्त्र का उल्लेख किया जबकि जोसफ साइन मामले में जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस खान विलकर ने मनुस्मृति का जिक्र करते हुए कहा कि इसमें दूसरे की पत्नी के साथ यौन समागम करने के आदि व्यक्तियों को कठोर दंड देने का प्रावधान है। सबरी माला मामले में राजस्वला स्त्रियों पर मनुस्मृतियों पर लगाए गए प्रतिबंधों की चर्चा की गई है। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का विचार ‘बौद्ध दर्शन’ परंपरा से लिया है। आदिवासी समाज की लोकतांत्रिक परंपराएं और न्याय प्रणाली चकित करने की सीमा तक मौलिक है। संविधान सभा में नेहरू द्वारा 13 दिसंबर 1946 को प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए जसपाल सिंह ने कहा था-‘मुझे अपने जंगली होने पर गर्व है- यह वह सम्बोधन है जो हमें देश के उस हिस्से में दिया जाता है जहां से मैं आता हूँ। एक जंगली-एक आदिवासी के रूप में मुझसे कोई यह उम्मीद नहीं करता कि मैं इस प्रथा की कानूनी बारीकियों को समझ पाऊँगा, किन्तु मेरी अपनी सामान्य समझ, मेरे अपने लोगों की सहज बुद्धि मुझे कहती है कि हम सबको स्वतन्त्रता और संघर्ष के पथ पर आगे एक साथ बढ़ना चाहिए। यदि भारतीय लोगों का कोई ऐसा समूह है जिसके साथ सबसे बुरा बर्ताव किया किया गया है तो वह मेरे लोग है। पिछले 6 हजार वर्षों से उनके साथ अपमान और उपेक्षा का व्यवहार किया गया है। यह प्रस्ताव आदिवासियों को प्रजातंत्र नहीं सीखा सकता। आप आदिवासियों को प्रजातंत्र नहीं सीखा सकते, आपको उनसे प्रजातांत्रिक तौर-तरीके सीखने होंगे। वे इस दुनिया के सर्वाधिक लोग है।’
न्याय प्रणाली में मनुवादी संघी सोच की पूर्णप्रतिष्ठा के प्रयासों को न्याय व्यवस्था के भारतीयकरण का नाम दिया जा रहा है। नागरिक अधिकारों और संविधान के संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय पर यदि मनुवादी-ब्राह्मणवादी सोच हावी हो गई तब संविधान भी संकट में आ सकता है। वर्तमान मोदी संघी सरकार इसे अपने छलावामयी तरीके से लगातार अदृश्यता के साथ चलाये जा रही है। अब सोचना देश के बहुजन समाज के जागरूक लोगो को हैं कि हम मनुवादी छलावों में फँसकर न्याय के भारतीयकरण की अवधारणा में न फंसे। यह एक संघी छलावा है, जो बहुजन जनता के हित में नहीं है।





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