2022-10-07 06:44:00
विश्व के महान समाजशास्त्री अर्थशास्त्री, शिक्षाशास्त्री, राजनेता, दर्शनिक, कानून विद, संंंंंविधानविद, अपने समय के दुनिया के महान विद्वान, भारतीय संविधान के निर्माता भारत रतन डॉ. भीमराव अम्बेडकर धर्म के पक्षधर थे नास्तिक नहीं थे। उनका स्पष्ट मत था कि मनुष्य मात्र की उन्नति के लिये धर्म की बहुत आवश्यकता है। डॉ. अम्बेडकर एक महार परिवार में जन्मे थे जिन्हें हिन्दू धर्म में अछूत होने की त्रासदी को डॉ. अम्बेडकर ने बचपन से अंत क भोगा। यहां तक कि विश्व का एक महानतम विद्वान, भारत निर्माता, संविधान निर्माता तथा एक प्रखर देशभक्त होने के बावजूद जाति कलंक ने उनका पीछा नहीं छोडा। जातिगत भेदभाव के दंश से उनका मन बहुत दुखी था। जब उनके सब्र का बांध टूट गया तो 13 अक्टूबर 1935 को येवता (महाराष्ट्र) की सभा में उन्होंने हिन्दूधर्म त्यागने की भीम घोषणा की, में हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, यह मेरे वश में नहीं था। लेकिन में हिन्दू रहकर मरूंगा नहीं, यह मेरे वश में है। डॉ. अम्बेडकर स्वयं इतने समर्थ थे कि वे अपने लिए कोई भी उपयुक्त धर्म चुन सकते थे लेकिन उन्हें करोड़ो दलितों के मान सम्मान की चिंता अधिक थी। डॉ. अम्बेडकर ने 1956 में बुद्ध धम्म ग्रहण किया। इस प्रकार धर्म त्यागने की घोषणा के बाद हिन्दू धर्म के नेताओं के पास 21 वर्ष का समय था। यह भी स्पष्ट हो चुका था कि वे अकेले नहीं बल्कि बडी संख्या में अछूत वर्ग के लोगों के साथ ही हिन्दू धर्म त्याग कर अन्य धर्म ग्रहण कर लेंगे। लेकिन आश्चर्यजनक, हिन्दू धर्म के नेताओं ने ना तो इस घोषणा का कोई संज्ञान लिया और न ही कोई ऐसे उपाय किये जिससे जातिगत भेदभाव नष्ट हो जाये और परिणामस्वरूप धर्म त्यागने का मन बदल जाय जो कि संभव था। क्योंकि किसी के लिए अपने धर्म व आस्था को त्याग कर दूसरे में जाने का निर्णय बहुत कठिन होता है, ऐसा डॉ. अम्बेडकर ने भी माना था वे स्थिति पर बारबार नजर बनाये रहे।
डॉ. अम्बेडकर को विश्व के कई धर्मों का अच्छा ज्ञान था धर्म त्यागने की घोषणा के बाद वे कई धर्मांे का तुलनात्मक अध्ययन करते रहे। इस काम पर उन्होंने अपने पुत्र तथा कई साथियों को भी लगाया और उन्हें धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन तथा यथास्थिति पर विस्तृत रिपोर्ट देने के लिए कहा। डॉ. अम्बेडकर का अटूट विश्वास था धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। डॉ. अम्बेडकर ऐसे धर्म की तलाश में थे जो बिना किसी भेदभाव के समता, स्वतंत्रता, बंधुता तथा सबको न्याय को मान्यता देता हो। जो बहुजन हिताय बहुजन सुखाए का ख्याल रखे। धर्म ऐसा हो जिसमें कोई एक समूह सामाजिक या धार्मिक आधार पर दूसरे समूह पर शासन न करे, उनके उन्नति के मार्ग में अडचन न करे। धर्म ऐसा हो जो सभी को अपनी मन पसंद आस्था रखने में पाबंदी न लगाये, हर किसी को जीवन के हर क्षेत्र में काम करने व उन्नति के लिए समान अवसर मिले। धर्म ऐसा हो जिसमें सबसे मान-सम्मान की रक्षा हो। धर्म ऐसा हो जिसमें जातिगत भेदभाव, पाखन्ड, कर्मकान्ड, अंधविश्वास, चमत्कार आदि की मान्यता हो। डॉ. अम्बेडकर अपने देश को बहुत प्यार करते थे। इसलिए उन्होंने कहा था कि में पहले भी भारतीय हूं और अंत में भी भारतीय हूं। वे एक प्रखर देशभक्त थे इसलिये उनकी चिंता यह भी थी कि जिस नये धर्म को ग्रहण करना है, उसका जन्म विदेश में न हुआ हो जिससे कि देश की संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव न पडे। नया धर्म ग्रहण करने के लिये इतने सारे समीकरणों का ख्याल करना था।
धर्म परिवर्तन के लिये डॉ. अम्बेडकर ने ईसाई व मुस्लिम धर्म पर भी विचार किया ईसाई धर्म बहुत मायनों में हिन्दू धर्म से अधिक मानवीय है, मुस्लिम धर्म भी लेकिन दोनों धर्माें का जन्म विदेश में हुआ है इसलिये उन का विचार त्याग दिया। सिख धर्म जोकि देशी धर्म है, उसका भी अध्ययन करने के लिये बाबासाहेब ने अपने पुत्र यशवंत व साथियों को पंजाब भेजा। इन्होंने अमृतसर जाकर गोल्डन टेम्पल में सिख धर्म का जायजा लिया। इसके अतिरिक्त पंजाब में अन्य शहरों व गांवो में जाकर भी यथास्थिति का अध्ययन किया। इस अध्ययन में यह बात सामने आई कि सिक्खों में भी जातिगत भेदभाव है। इस जातिगत भेदभाव के कारण कई जगह निम्न जातियों के गुरुद्वारे भी अलग पाये गये। आपस में ब्याह-शादी भी नहीं करते हैं। इस कारण जिस सिख धर्म के प्रति वे बडे उत्सुक थे, वह भी उनके मन से हट गया। अब धूम फिर कर उनका पूरा ध्यान बुद्ध धम्म पर केन्द्रित हो गया। यहां यह बता देना अति आवश्यक है कि बाबासाहेब की व्यक्तिगत पसंद में बहुत पहले से ही बुद्ध धम्म था। बुद्ध की मानवता वादी शिक्षाओं की छाप उनके मन व मस्तिष्क पर छात्र जीवन से ही पड चुकी थी। सन 1907 में अम्बेडकर ने मैट्रिक उत्तीर्ण की थी। उस समय मैट्रिक उत्तीर्ण करने वाले वे पहले अछूत विद्यार्थी थे अत: समाज के लोगों ने इस अवसर पर बालक भीमराव का एक सामाजिक समारोह में स्वागत किया। इसी अवसर पर एक ब्राह्मण शिक्षक आदरणीय केलुस्कर जी ने भीमराव को बुद्ध चरित्र नामक पुस्तक भेंट की। इस पुस्तक को पढने से भीमराव के मस्तिष्क पर बुद्ध की शिक्षाओं का बहुत प्रभाव पडा। आगे बढते-बढते धम्म उनके मन व मस्तिष्क में बस चुका था।
सिद्धार्थ गौतम तथा बुद्ध धम्म का जन्म इसी देश में हुआ। यह डॉ. अम्बेडकर की ही देन है कि बुद्ध दर्शन को उन्होंने भारत के संविधान में भी शामिल किया। संविधान की प्रस्तावना उद्देशिका में समानता स्वतत्रता, बंधुता तथा सबको न्याय बुद्ध दर्शन से ही लिया गया है। राज मुद्रा तथा राष्ट्रीय चिन्ह में अशोक स्तम्भ, राष्ट्रीय झंडा में अशोक चक्र तथा राष्ट्रपति की कुर्सी के पीछे भी अशोक चक्र ये अशोक द्वारा पतिपादित किये गये। यह सर्वविदित है कि महान चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने बुद्ध धम्म को राजकीय धर्म घोषित किया था। अशोक ने सुदूर पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण सभी जगह बुद्ध धम्म का प्रचार किया था। डॉ. अम्बेडकर जो पहले से ही बुद्ध धम्म के नजदीक थे, उसे अपने मन व मस्तिष्क में बसा चुके थे अन्तिम रूप से अपने साथियों व अछूतों के साथ बुद्ध धम्म ग्रेहण करने की दिशा में बह रहे थे। तथागत बुद्ध की 2494 की बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर 2 मई 1950 को पहली बार मंदिर मार्ग नई दिल्ली स्थित बुद्ध विहार से अम्बेडकर भवन तक बाबासाहेब के अनुयायियों द्वारा धम्म शोभा यात्रा का आयोजन किया गया। इस में कानून मंत्री अम्बेडकर अपनी पत्नि डॉ. सविता अम्बेडकर के साथ शामिल हुये व त्रिशख-पंचशील ग्रहण करके बुद्ध धम्म की ओर कदम बढाया। इस अवसर पर डॉ. अम्बेडकर ने कहा, अब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है तो अब भारत में बुद्ध धम्म अपनी भारत भूमि में वापिस आयेगा। भारत को अपनी स्वतंत्रता और आध्यात्मिक शक्ति की रक्षा के लिए बौद्ध धम्म की आवश्यकता है। भारत में बौद्ध नव जागरण चालू हो गया है।
श्रीलंका में कोलम्बो नगर में 25 मई से 06 जून 1950 तक यंगमैन बुद्धिस्ट एसोसिएशन के तत्वाधान में प्रथम विश्व बौद्ध सम्मेलन का अयोजन हुआ। 26 मई को डॉ. अम्बेडकर ने इस सम्मेलन में 26 मई 1950 को डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि मैं एक पर्यवेक्षक के रूप में यह देखने आया हूं कि श्रीलंका में बुद्ध धम्म का किस मात्रा में पालन किया जाता है, युवकों की धम्म में कितनी रूचि है तथा भिक्षुओं की क्या भूमिका है। श्रीलंका बौद्ध देश है जहां के लोगों का जीवन पूरी तरह धम्म के अनुरूप शासित होने की अपेक्षा की जाती है। सम्मेलन के समापन पर 06 जून 1950 को डॉ. अम्बेडकर ने भारत मेंं बुद्ध धम्म का उदय और अस्त पर सारगर्मित व्याख्यान किया। इस अवसर पर सम्मेलन ने सर्वसम्मति से डॉ. अम्बेडकर को बोधिसत्व घोषित करने का प्रस्ताव स्वीकृत किया। अब बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर बोधिसत्व अम्बेडकर हो गये। 15 फरवरी 1953 को इन्डो-जापान कल्चरल एसोसिएशन कांफे्रस में बोधिसत्व अम्बेडकर ने कहा, मुझे चीन, जापान व अन्य पूर्वी देशों द्वारा बुद्ध को अपनाने वाली बात ने मुझे बहुुत आकर्षित किया है। अन्य कई धर्मों का केन्द्र बिन्दु आत्मा, भगवान तथा पूजा है परन्तु वे आदमी को भूल जाते हैं। तथागत बुद्ध ने कहा कि आत्मा के अस्तित्व को कोई सिद्ध नहीं कर सकता। मेरी चिंता मनुष्य है और मनुष्य-मनुष्य के बीच धार्मिकता या न्यायपूर्णता स्थापित करना है। 02 मई 1953 को सिद्धार्थ कॉलेज, बम्बई में युवा संसद को अपने संबोधन में डॉ. अम्बेडकर ने कहा, जाति विहीन वर्ग विहीन समाज के निर्माण के बिना भारत की प्रगति नहीं होगी। 03 अक्टूबर 1954 को आॅल इंडिया रेडियो पर बोधिसत्व डॉ. अम्बेडकर ने अपने प्रसारण में कहा, प्रत्येक मानव के जीवन का दर्शन होना चाहिए और उसके पास एक मानक होना चाहिए जिसके द्वारा उसका आचरण मापा जाये। सकारात्मक रूप से मेरे सामाजिक दर्शन का तीन शब्दोंं में निरूपित किया जा सकता है। 1. स्वतंत्रता 2. समानता 3.बंधुता। मैंने इन सिद्धान्तों को तथागत बुद्ध से लिया है। आज भारतवासी दो भिन्न सिद्वान्तों से शासित हैंं। उनका राजनीतिक आदर्श जो संविधान की प्रस्तावना में निरूपित है वह जीवन में स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुता का आश्वासन देता है जबकि उनका सामाजिक आदर्श उनके धर्म में निरूपित है, जो स्वतन्त्रता, समानता और बंधुता को मनाही करता है।
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर मई 1954 के प्रथम सप्ताह में डॉ. अम्बेडकर ने रंगून (वर्मा अब म्यांमार) में आयोजित विश्व बौद्ध सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन में बाबासाहेब ने दो स्मरण पत्रों के द्वारा भारत में बुद्ध धम्म के प्रचार व प्रसार को गति देने के लिए बुद्धिस्ट सोसाइटी आॅफ इंडिया (भारतीय बौद्ध महासभा) की स्थापना की। वे इसके संस्थापक अध्यक्ष बने। 4 मई 1955 को भारतीय बौद्ध महासभा का रजिस्ट्रेशन हुआ। 12 मई 1956 को डॉ. अम्बेडकर की बीबीसी लंदन पर बौद्ध धम्म को क्यों पसन्द करता हूं वार्ता प्रसारित हुई। 24 मई 1954 को उन्होंने बम्बई में कहा कि भारत में बौद्ध धम्म का ज्वार भाटा कभी कम नहीं होगा। उन्होंने किसी धर्म के पतन के तीन कारण बताये:
।. उस धर्म के सिद्धान्त सुदृढ़ न हो।
।।. विचारवान व विजेता धम्म प्रचारक न हो।
।।।. आसानी से समझने योग्य सिद्धान्तों की कमी हो।
डॉ. अम्बेडकर अब स्पष्ट रूप से बुद्ध धम्म ग्रहण करने का फैसला ले चुके थे। बुद्ध धम्म का दर्शन आम जन सरलता से समझ व ग्रहण कर सकें , इसके लिये डॉ. अम्बेडकर ने बुद्ध धम्म ग्रहण करने वाले लोगों के लिए 22 प्रतिज्ञायें लिखित रूप से तैयार कर ली। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने हिन्दू धर्म का त्याग तथा बुद्ध धम्म ग्रहण करने की घोषणा की। इस अवसर पर विजयदशमी के दिन नागपुर में दीक्षाभूमि पर धर्म परिवर्तन के लिए विशाल कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस समय बाबासाहेब का स्वास्थ्य अच्छा नहीं चल रहा था। बाबासाहेब धर्म परिवर्तन के लिए सिल्क का कुर्ता व धोती पहनकर उपस्थित हुये। सर्वप्रथम पूज्य धर्मगुरू मंंते चन्द्रमणि महाथेरा (कुशीनगर) ने बाबा साहेब डॉॅ. अम्बेडकर तथा उनकी पत्नी सविता अम्बेडकर को त्रिशरण तथा पंचशील ग्रहण कराकर बुद्ध धम्म में दीक्षित किया। इसके बाद बोधिसत्व डॉ. अम्बेडकर ने दीक्षाभूमि पर उपस्थित अपने साथियों, तथा पांच लाख लोगों को त्रिशरण, पंचशील ग्रहण कराकर बुद्ध धम्म में दीक्षित किया। इसके साथ ही बाबासाहेब ने लोगों से 22 प्रतिज्ञायें भी कराई। इस अवसर पर बोधिसत्व डॉ. अम्बेडकर अपने भाषण में विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा, हिन्दू धर्म त्यागने की प्रतिज्ञा 21 वर्ष पहले मैंने सन 1935 में की थी। बुद्ध धम्म ग्रहण कर आज मैंने धर्म परिवर्तन की प्रतिज्ञा पूरी की। इस धर्मान्तर से मैं बडा खुश हूं। मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि मैं नरक से छुटकारा पा गया हूं। जैसा मानव धर्म मैं चाहता था वे सभी मूल्य बुद्ध धम्म में है। धर्म परिवर्तन क्यों करना है, कैसे धर्म को अपनाना है, यह आंदोलन में 21 वर्ष से चला रहा हूं। सारी बातों पर विचार करके ही बुद्ध धम्म ग्रहण करने का निर्णय किया है। मुझे अंधभक्त नहीं चाहिये। जो लोग, बुद्ध धम्म में आना चाहते हैं वे खूब सोच समझकर आयें ताकि वे इसमें मजबूती से जुडेÞ रहें। यह धम्म एक व्यापक धम्म है जिसका मुख्य लक्ष्य मानवता का उद्धार करना है। यह एक सामाजिक सिद्धान्त है जो प्रज्ञा, करूणा और समता की शिक्षा देता है। यह धम्म ने केवल इस देश की बल्कि समान्त संंसार की सेवा कर सकता है। विश्व शांति के लिये इस समय बुद्धिज्म आवश्यक है। आगे उन्होंने कहा कि बुद्ध अनुयायी शपथ लें कि हम स्वयं अपनी मुक्ति के लिये ही नहंी बल्कि अपने देश समाज और दुनिया को समुन्नत करने के लिये काम करेंगी।
बाबा साहेब ने परिनिर्वाण से पहले 5 दिसम्बर 1956 की रात में ‘दि बुद्धा एण्ड हिज धम्मा- भगवान बुद्ध और उनका धर्म ’ नामक पुस्तक पूरी कर दी थी। यह पुस्तक भारत के संदर्भ में आम जन व बुद्ध का अनुसरण करने वालों के लिए लिखी गई जिससे वे बुद्ध दर्शन को सरलता से समझ सकें।
डॉ. अम्बेडकर एक महान देशभक्त थे, यह उन्होंने सिद्ध कर दिया। धर्म परिवर्तन कर अपनी प्रतिज्ञा तो पूरी तो लेकिन स्वदेशी धर्म अपना कर देश के साथ कोई गद्दारी नहीं की। सारी दुनिया में फैले परन्तु इस देश में मृतप्राय धम्म को धम्मचक्र प्रवर्तन द्वारा पुन: इस देश में स्थापित करने के लिए इस देश को डॉ. अम्बेडकर का कृतज्ञ होना चाहिए।
Sunil Thorat, Maharashtra | |
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2023-05-24 10:52:44 | |
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