Saturday, 18th October 2025
Follow us on
Saturday, 18th October 2025
Follow us on

नाई समाज का गौरवशाली इतिहास एवं महापुरुष

News

2025-10-18 16:40:05

नाई समाज एक अत्यंत पिछड़े कामगार समुदाय का हिस्सा है। यह समाज हमेशा सामंतवादियों की सेवा में जीवन गुजारता रहा है लेकिन सामंतवादी सोच के व्यक्तियों ने कभी भी इस समाज को उचित स्थान नहीं दिया, ये हमेशा ही शूद्र समाज के समुदाय में गिने गये और उसी आधार पर इनके साथ समाज में व्यवहार किया गया। नाई समाज का इतिहास गौरवशाली साम्रज्य का रहा है। जिसपर पूरे नाई समाज को गर्व करना चाहिए और अपने आप को समृद्ध बनाने के लिए शिक्षा और संसाधनों को मजबूत करना चाहिए। इन सभी को अपना दीपक स्वंय बनना चाहिए न की सामंतवादियों की सेवा करने में जीवन बिताना चाहिए। इन्हें अपने महापुरूषों की शिक्षाओं और योगदान का बच्चों व अपने समाज में प्रसार-प्रचार करना चाहिए।

जातियां महज श्रम का वर्गीकरण नहीं है। जैसा कि पश्चिम के देशों में होता है। वहां एक ही परिवार के लोग अपने पेशे के आधार पर मवेशीपालक भी हो सकते हैं और लकड़ी का फर्निचर बनानेवाले बढ़ई भी। वहां एक ही परिवार का कोई सदस्य मोची भी हो सकता है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। यहां पेशे को जाति मान लिया गया है और इसी के आधार पर ब्राह्मणी संस्कृति आधारित सामाजिक कायदे-कानून बना दिए गए हैं। आज हम जिस जाति के बारे में बता रहे हैं, उस जाति के लोग हर जगह मिल जाएंगे। फिर चाहे वह शहर हो या गांव। वे हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. मुसलमानों में इन्हें हज्जाम कहते हैं और इनके द्वारा किए गए काम को हजामत बनाना। हिंदू धर्म में इनके लिए खूब सारे नाम हैं जैसे- नाऊ, नौआ, क्षौरिक, नापित, मुंडक, मुण्डक, भांडिक, नाइस, सैन, सेन, सविता-समाज, मंगला इत्यादि। ये बेहद संयमी होते हैं और अपना काम पूरी लगन से करते हैं। ये लोगों को सुंदर बनाते हैं। उनके बेतरतीब बालों को सजाते-संवारते हैं। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि इनके हाथ लगाने भर से लोगों के चेहरे की चमक बढ़ जाती है। अलग-अलग राज्यों में इनके लिए अलग-अलग नाम हैं। पंजाब इनमें अलहदा है। वहां तो प्यार से लोग इन्हें राजा तक कहते हैं। हिमाचल प्रदेश में कुलीन, राजस्थान में खवास, हरियाणा में सेन समाज या नपित, और दिल्ली में नाई-ठाकुर या फिर सविता समाज।

बिहार में इस जाति के लोगों को अति पिछड़ा माना गया है। यह पिछड़ा वर्ग का ही हिस्सा है। रही बात आबादी की, तो हाल ही में बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार में इनकी आबादी 20 लाख 82 हजार 48 है, जो कि हिस्सेदारी के लिहाज से 1.5927 प्रतिशत है, लेकिन इस जाति का समाज व सियासत में खास स्थान है।

जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार में ब्राह्मण के लोगों के साथ नाई जाति के लोगों की अहम भूमिका रहती है। लेकिन ये ब्राह्मण के जैसे सम्मानित नहीं हैं। उत्तर भारत में तो एक व्यंग्यात्मक कहावत तक है, जिसके जरिये इनका सार्वजनिक अपमान तक किया जाता है- पंछी में कौआ, जाति में नौवा। मतलब यह जैसे कौआ सबसे चालाक पंछी और सवार्हारी होता है, वैसे ही हिंदू जाति में नौवा होते हैं।

नाई जाति का इतिहास

नाई जाति की उत्पत्ति वैदिक काल से मानी जाती है। इतिहासकारों के अनुसार, इसका उद्भव नवपाषाण युग के बाद हुआ, जब लोहे का आविष्कार हुआ और कैंची जैसे औजार बने। प्राचीन भारत में नाई केवल बाल काटने वाले नहीं थे, बल्कि वे धार्मिक अनुष्ठानों, चिकित्सा (जैसे घावों की सफाई और मरहम-पट्टी) और सामाजिक मध्यस्थता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।

‘नाई’ शब्द संस्कृत के ‘नाय’ से निकला है, जिसका अर्थ है ‘नेतृत्व करने वाला’ या ‘न्याय करने वाला’। कुछ स्रोतों के अनुसार, यह ब्राह्मण वर्ण के कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का एक भेद है, जो विद्याहीन होकर उस्तरा और कटोरी की पूजा करने लगे, जिससे वे ‘नाई पांडे’ कहलाए। अन्य मतों में इसे क्षत्रिय वर्ण की चंद्रवंशी शाखा माना जाता है, जो वैदिक कालीन शासक वर्ग से जुड़ी है। उदाहरणस्वरूप, प्राचीन काल में नाई क्षत्रिय-न्यायी के रूप में उभरे, और महापद्म नंद जैसे चक्रवर्ती सम्राटों से इसका संबंध जोड़ा जाता है।

वैदिक संदर्भ: अथर्ववेद, मनुस्मृति और पुराणों में नाई का उल्लेख मिलता है। वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था (न कि जाति व्यवस्था) के तहत नाई को ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्णों से जोड़ा गया। दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन पेशों में से एक न्यायी/नाई था, जो बाल काटने के साथ-साथ न्याय और चिकित्सा से जुड़ा।

सामाजिक और धार्मिक भूमिका

हिंदू समाज में नाई विवाह, मुंडन, जन्म-मृत्यु जैसे संस्कारों में आवश्यक होते हैं। गांवों में नाई परिवार की महिलाएं (नाईन) सभी जातियों की महिलाओं की सेवा करती हैं, जैसे प्रसव के समय सहायता या स्नान-शृंगार। यह समुदाय सूचना संचार का माध्यम भी रहा, क्योंकि नाई घर-घर जाकर खबरें साझा करते थे।

आधुनिक विकास और चुनौतियां

औपनिवेशिक काल और स्वतंत्र भारत में जाति व्यवस्था के सुधारों से नाई समुदाय ने अपनी स्थिति मजबूत की। आज वे शिक्षा, उद्यमिता, राजनीति और सामाजिक संगठनों में सक्रिय हैं। बिहार जाति सर्वेक्षण (2023) के अनुसार, यह समुदाय पिछड़े वर्ग का हिस्सा है और सामाजिक न्याय की मांग कर रहा है। हालांकि, शहरीकरण से पारंपरिक पेशा प्रभावित हुआ है, लेकिन कई नाई अब सैलून व्यवसाय, राजनीति या अन्य क्षेत्रों में सफल हैं। नाई जाति का इतिहास गौरवशाली और बहुआयामी है, जो श्रम से सामाजिक नेतृत्व तक फैला है। शहरीकरण के साथ पारंपरिक नाई पेशा प्रभावित हुआ है। कई नाई अब सैलून व्यवसाय, शिक्षा, व्यापार, और राजनीति में सक्रिय हैं। आधुनिक सैलून और ब्यूटी इंडस्ट्री में नाई समुदाय का योगदान बढ़ रहा है। पहले इनकी मजदूरी को जजमनका कहा जाता था। हर खेतिहर के यहां इनका हिस्सा तय होता था। कोई इन्हें एक कट्ठा में एक बोझा देता, तो कोई बहुत खुश होकर दो बोझा अनाज दे देता। और इस तरह भूमिहीन होने के बावजूद भी नाई समाज के लोगों के खलिहान में फसल होती थी।

अब इन लोगों ने भी जजमनका छोड़ दिया है। वे नकद कारोबार करते हैं। राजनीति के लिहाज से देखें, तो कपूर्री ठाकुर अवश्य ही बिहार के सुविख्यात राजनेता रहे जो दो बार मुख्यमंत्री बने। उनके द्वारा लागू मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसाओं ने इस देश में पिछड़ा वर्ग की राजनीति को अहम दिशा दी। लेकिन वर्तमान में यह समाज अपने लिए एक नायक तलाश रहा है। फिलहाल इसकी नियति यही है।

नाई जाति के महापुरुष

महापद्म नंद:
नाई समुदाय में महापद्म को एक प्रेरणा के रूप में देखा जाता है, क्योंकि उन्होंने सामाजिक बाधाओं को तोड़कर एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। जैन और बौद्ध ग्रंथों (जैसे परिशिष्टपर्वन और महावंश) के अनुसार, महापद्म का जन्म मगध में हुआ था। उनके पिता एक नाई थे, और माता के बारे में विभिन्न स्रोत अलग-अलग दावे करते हैं। कुछ ग्रंथों में उन्हें एक गणिका (वेश्या) का पुत्र बताया गया, जो उस समय की सामाजिक गतिशीलता को दर्शाता है। कुछ स्रोतों में उनकी माता को शूद्र वर्ण से जोड़ा गया, जबकि अन्य में उन्हें क्षत्रिय-नाई माना गया। उनकी उत्पत्ति को लेकर विवाद रहा, क्योंकि वैदिक वर्ण व्यवस्था में नाई को निम्न माना जाता था, लेकिन उनके शासन ने इस धारणा को चुनौती दी। महापद्म नंद ने मगध साम्राज्य को अभूतपूर्व शक्ति और विस्तार प्रदान किया। उन्होंने 16 महाजनपदों में से कई को जीतकर मगध को एक विशाल साम्राज्य बनाया। उन्होंने काशी, कौशल, कुरु, पांचाल, वत्स, चेदि और अवंति जैसे शक्तिशाली राज्यों को अपने अधीन किया। वे एक केंद्रीकृत शासन प्रणाली के लिए जाने जाते हैं। उनकी सेना में लाखों सैनिक, घुड़सवार और रथ शामिल थे, जो उस समय की सबसे बड़ी सेनाओं में से एक थी। नंद वंश ने कर संग्रह और व्यापार को संगठित किया, जिससे मगध की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई। उनकी संपत्ति की प्रसिद्धि यूनानी इतिहासकारों तक पहुँची। महापद्म ने कई क्षत्रिय राजवंशों का अंत किया, जिसके कारण उन्हें यह उपाधि मिली। यह उनकी सैन्य शक्ति और सामाजिक क्रांति का प्रतीक था।

ब्राह्मण साहित्य में महापद्म को शूद्र या निम्न कहकर उनकी आलोचना की गई, क्योंकि उन्होंने उस समय के क्षत्रिय राजवंशों को उखाड़ फेंका था। यह उस समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के खिलाफ एक चुनौती थी। कुछ स्रोतों में उन्हें क्रूर शासक बताया गया, लेकिन यह संभवत: उनके विरोधी ब्राह्मण लेखकों का पक्षपात था।

महापद्म नंद का इतिहास नाई जाति के लिए गर्व का विषय है, क्योंकि उन्होंने सामाजिक, सैन्य क्षेत्र व शासन के केन्द्रीयकरण में असाधारण योगदान दिया।

नाई समाज का महापद्म नंद एक ऐसा चमकता सितारा रहा है जिसने भारतीय राजनीति को जीवंत बनाने का काम किया। तथा राजव्यवस्था में केन्द्रीयकरण की व्यवस्था में शुरुआत की उसके बाद के सभी शासकों ने उनकी शासन व्यवस्था का अनुकरण करके ही अपनी शासन व्यवस्था को आगे बढ़ाया। भारत में महापद्म नंद ऐसे गौरवशाली सम्राट रहे हैं जिनका कोई दूसरा सानी नहीं रहा है। इसलिए नाई समाज के लिए यह गौरव का विषय है कि उनके समाज में महापद्म नंद जैसे महान शासक पैदा हुए। यह सिर्फ नाई समाज के लिए ही नहीं बल्कि देश के पूरे बहुजन समाज के लिए गौरव का विषय है और उन सबको इसपर गर्व करना चाहिए हिन्दुत्व पर नहीं।

साहिब सिंह: सिख इतिहास के एक प्रमुख व्यक्तित्व थे, जो दसवें सिख गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रथम पंज प्यारों (पंच प्यारे) में से एक थे। वे खालसा पंथ की स्थापना के समय अमृत छकने वाले पांच सिखों में शामिल थे, जिन्होंने सिख धर्म में समानता और बलिदान की भावना को मजबूत किया। नाई जाति से संबंधित होने के कारण वे इस समुदाय के लिए विशेष प्रेरणा के स्रोत हैं। 17 दिसंबर 1663 को भाई साहिब सिंह का जन्म बिदर वर्तमान कर्नाटक में एक नाई परिवार में हुआ था। उनके मूल नाम भाई साहिब चंद नाई थे। वे 37 वर्ष की आयु में गुरु गोबिंद सिंह जी के पास पहुँचे। उनके पिता का नाम भगतु नाई था, और परिवार पारंपरिक रूप में नाई पेशे से जुड़ा था। सिख साहित्य और नाई समाज के इतिहास में उन्हें नाई समुदाय का प्रतिनिधि माना जाता है। गुरु गोविंद सिंह जी ने उनके नाम को ‘साहिब सिंह’ प्रदान किया, जो साहिब, मालिक या स्वामी का प्रतीक है। यह नाम पंज प्यारों के अन्य नामों धरम दास, दया राम, हिम्मत सिंह, मोहक चंद) के साथ मिलकर सिख सिद्धांतों, दया, धर्म, रक्षा, निर्मोह को दर्शाता है। 1699 ईस्वी में आनंदपुर साहिब में बैसाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की। भाई साहिब सिंह पहले प्यारे थे जिन्होंने गुरु के बुलावे पर अपना सिर समर्पित किया। उन्होंने गुरु के हाथों अमृत ग्रहण किया और खालसा के प्रथम पांच अमृतधारी सिख बने।

बलिदान और युद्ध: पंज प्यारों ने गुरु को अमृत देकर खालसा को जन्म दिया। बाद में, उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ कई युद्ध लड़े, जैसे चमकौर का युद्ध (1704), जहाँ उन्होंने अदम्य साहस दिखाया। उनकी मृत्यु चमकौर के युद्ध में मुगल सेना के हाथों हुई, जब वे गुरु की रक्षा में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

नाई (सैन) समाज में भाई साहिब सिंह को एक संत-योद्धा के रूप में पूजा जाता है। वे दशार्ते हैं कि कैसे नाई जाति के व्यक्ति ने धार्मिक और सामाजिक क्रांति में योगदान दिया। सिख इतिहासकारों (जैसे भाई संतोख सिंह के ‘सुरज प्रकाश’) में उनका वर्णन विस्तार से मिलता है।

संत सेन नाई: संत सेन नाई भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख संत थे, जो स्वामी रामानंद के शिष्य थे और नाई (नपित या सैन समाज) जाति से संबंधित थे। वे उत्तर भारत में सामाजिक समरसता, जातिगत भेदभाव के विरोध और भक्ति मार्ग के प्रचार के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी शिक्षाएँ और जीवन सिख धर्म, हिंदू भक्ति परंपरा और नाई समुदाय के लिए प्रेरणादायक हैं। संत सेन का जन्म 15वीं सदी में उत्तर भारत के वाराणसी (काशी) या बांदा के आसपास हुआ था। सटीक जन्म तिथि और स्थान के बारे में ऐतिहासिक स्रोत सीमित हैं, क्योंकि भक्ति संतों की जीवनी प्राय: मौखिक परंपराओं पर आधारित होती है। वे नाई समुदाय से थे, जो पारंपरिक रूप से बाल काटने, दाढ़ी बनाने और सामाजिक-धार्मिक अनुष्ठानों में सेवा प्रदान करते थे। संत सेन अपने परिवार के पारंपरिक नाई पेशे में कार्यरत थे। भक्ति साहित्य में उन्हें एक कुशल नाई और संवेदनशील व्यक्ति के रूप में वर्णित किया गया है, जो अपने कार्य के माध्यम से समाज के सभी वर्गों से जुड़े।

भिखारी ठाकुर: भोजपुरी भाषा के महान लोक कलाकार, नाटककार, गीतकार, कवि, अभिनेता और रंगकर्मी थे। उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने भोजपुरी लोक नाट्य और संगीत को नई ऊँचाई प्रदान की। नाई जाति से संबंधित होने के कारण वे इस समुदाय के लिए गौरव के प्रतीक हैं। उनके कार्यों में सामाजिक कुरीतियाँ, पलायन का दर्द, नारी विमर्श और दलित मुद्दे प्रमुख हैं। भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार के सारण (छपरा) जिले के कुतुबपुर दियारा गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। उनके पिता दलसिंगार ठाकुर और माता शिवकली देवी थीं। उनका एक छोटा भाई बहोर ठाकुर था। किशोरावस्था में ही परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें जीविका के लिए गाँव छोड़ना पड़ा। वे पहले खड़गपुर (पश्चिम बंगाल) गए, जहाँ रेलवे में मजदूरी की, और बाद में मेदिनीपुर पहुँचे। मेदिनीपुर में उन्होंने नाटक और लोक कला का प्रशिक्षण प्राप्त किया। औपचारिक शिक्षा सीमित थी, लेकिन वे रामचरितमानस को कंठस्थ कर चुके थे। धार्मिक यात्राओं में पुरी (ओडिशा) जाकर जगन्नाथ स्वामी का आशीर्वाद लेने से प्रेरित होकर उन्होंने 1917 में ‘भिखारी नाट्य मंडली’ की स्थापना की। भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी को अपनी मातृभाषा बनाकर लोक नाट्य को समृद्ध किया। वे एक साथ कवि, गीतकार, नाटककार, निर्देशक और अभिनेता थे। उनके नाटक सामाजिक मुद्दों पर आधारित थे, जैसे प्रवासी मजदूरों का दर्द, बाल विवाह, विधवा विवाह और जातिगत भेदभाव। भिखारी ठाकुर का जीवन नाई जाति के गौरवशाली इतिहास का हिस्सा है, जो लोक कला के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाया।

जननायक कपूर्री ठाकुर: जननायक कपूर्री ठाकुर बिहार के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, समाजवादी नेता और राजनेता थे। वे बिहार के दो बार मुख्यमंत्री रहे और सामाजिक न्याय के पुरोधा के रूप में विख्यात हैं। नाई जाति से संबंधित होने के कारण वे इस समुदाय के लिए विशेष प्रेरणा के स्रोत हैं। उनके सादगीपूर्ण जीवन, ईमानदारी और पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए संघर्ष ने उन्हें जननायक की उपाधि दिलाई। 2024 में उनकी 100वीं जयंती पर केंद्र सरकार ने उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया। कपूर्री ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौझिया गाँव में एक गरीब नाई परिवार में हुआ था। उनके पिता गोकुल ठाकुर सीमांत किसान और पारंपरिक नाई पेशे से जुड़े थे। परिवार की आर्थिक तंगी के कारण बचपन में ही उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। एक किस्सा प्रसिद्ध है कि स्कूल की फीस भरने के लिए उन्हें 27 बाल्टी पानी भरना पड़ा था। उन्होंने पटना से शिक्षक की ट्रेनिंग प्राप्त की और स्वतंत्रता के पहले समस्तीपुर में शिक्षक के रूप में कार्य किया। राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित होकर वे आॅल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन से जुड़े। कपूर्री ठाकुर का राजनीतिक सफर 1938 में समाजवादियों के सम्मेलन से शुरू हुआ, जहाँ आचार्य नरेंद्र देव, राहुल सांकृत्यायन जैसे नेताओं से प्रेरणा मिली। भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में भाग लेने के लिए उन्होंने ढाई साल जेल काटी। लोहिया और जेपी उनके राजनीतिक गुरु थे।

चुनावी सफर: 1952 में पहली बार विधायक बने और कभी चुनाव हारे नहीं। वे समाजवादी पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और जनता पार्टी से जुड़े रहे। बिहार विधानसभा में 1952 से 1988 तक लगातार विधायक रहे। बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने। उन्होंने 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 (उपमुख्यमंत्री के रूप में) और 24 दिसंबर 1977 से 21 अप्रैल 1979 तक मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। बाद में नेता प्रतिपक्ष भी रहे। जननायक कपूर्री ठाकुर का जीवन ‘वॉयस आॅफ वॉइसलेस’ (वंचितों की आवाज) का प्रतीक है।

जिवाजी महाले नाई: जिवाजी महाले मराठा इतिहास के एक वीर योद्धा और छत्रपती शिवाजी महाराज के अंगरक्षक थे। वे नाई जाति से संबंधित थे और प्रतापगढ़ की लड़ाई, 1659 ई. में अपनी अदम्य वीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने शिवाजी महाराज को अफजल खान के हमले से बचाया, जिसके कारण नाई समुदाय में उन्हें शिवरक्षक के रूप में पूजा जाता है। प्रसिद्ध इतिहासकार पांडुरंग नरसिंह पटवर्धन ने उनके वंशजों को महाबलेश्वर के पास कोंडवली गाँव में खोजा था। नाभिक, नाई समाज से होने के बावजूद, जिवाजी ने अपनी वीरता से जातिगत बंधनों को तोड़ा। नाई समुदाय पारंपरिक रूप से सेवा और सुरक्षा के कार्यों से जुड़ा था, और जिवाजी अपनी वीरता से इसका प्रतीक बने। 1659 ई. में बीजापुर सल्तनत के सेनापति अफजल खान ने शिवाजी महाराज को धोखे से मारने की योजना बनाई। प्रतापगढ़ के किले में मुलाकात के दौरान अफजल खान ने छिपे हुए हथियार (बाघनख) से हमला किया। जिवाजी महाले, जो शिवाजी के अंगरक्षक के रूप में छिपे हुए थे, तुरंत सामने आए और अफजल खान के साथ भिड़ गए। उन्होंने अफजल खान को घायल किया, जिससे शिवाजी को बचने का मौका मिला। बाद में शिवाजी ने अफजल खान को मार गिराया। जिवाजी महाले का जीवन नाई जाति के गौरवशाली इतिहास का अभिन्न अंग है, जो वीरता और निष्ठा का प्रतीक है।

नाई जाति के अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति

बिनय रंजन सेन: संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के पूर्व महानिदेशक (1956-67)। उन्होंने वैश्विक खाद्य सुरक्षा में योगदान दिया।

एन.सी. सेन गुप्ता: भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर (1975)। आर्थिक नीतियों के विशेषज्ञ।

रमेश्वर ठाकुर: कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल। राजनीति और प्रशासन में सक्रिय। वीरप्पा मोइली: कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री। शिक्षा और कानून मंत्री के रूप में कार्य किया।

भगत सैन: भक्ति कवि, कबीर के समकालीन। नाई जाति की पहचान को मजबूत करने वाले ‘सैनाइजेशन’ प्रक्रिया के प्रतीक। उनकी शिक्षाएँ जाति व्यवस्था के खिलाफ थीं।

सैन (मराठी कवि): मराठी भाषा की प्रसिद्ध कवयित्री, कृष्ण भक्ति पर अभंग रचनाएँ। जाति-आधारित भेदभाव पर लिखा।

एम.के. करुणानिधि: तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री (नायी ब्राह्मण से जुड़े)। द्रविड़ आंदोलन के नेता और साहित्यकार।

एन.आर. पिल्लई: भारत के पहले कैबिनेट सचिव। प्रशासनिक सुधारों में योगदान।

एम.एन. नंबियार: तमिल सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता।

ये व्यक्ति नाई जाति के गौरवशाली इतिहास को दर्शाते हैं, जो पारंपरिक पेशे से आगे बढ़कर राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर पहुँचे।

Post Your Comment here.
Characters allowed :


01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

2024-01-13 16:38:05